इस ब्लॉग पर केवल ऐसी ख़बरें लेने की कोशिश है जिनकी चर्चा कम हुई है। यह बहुभाषी मंच एक कोशिश है भोजपुरी और मैथिली फ़िल्मों से जुड़ी ख़बरों को भी एक साथ पेश करने की। आप यहां क्रॉसवर्ड भी खेल सकते हैं।
Wednesday, June 30, 2010
अलग रूप में रावणःडा. गौरीशंकर राजहंस
Monday, June 28, 2010
यही सच है
देश की सेवा के लिए संविधान की रक्षा की शपथ लेने वाले एक नौजवान आईपीएस अफसर को अगर नौकरी के पहले ही दिन उसका भ्रष्ट वरिष्ठ अधिकारी जलील करे। उसकी ईमानदारी से की गई जांच की जद में अगर किसी राज्य का मुख्य सचिव से लेकर गृहमंत्री तक आ जाए तो क्या होता है, योगेश प्रताप इस सबका लेखा जोखा जनता के सामने एक फीचर फिल्म के जरिए जल्द पेश करने जा रहे हैं। योगेश प्रताप ने करीब पांच साल पहले महाराष्ट्र की नौकरशाही से तंग आकर भारतीय पुलिस सेवा की नौकरी छोड़ दी थी। नौकरी के दौरान ही उन्होंने मुंबई विश्वविद्यालय से एलएलएम की पढ़ाई की और पूरी यूनिवर्सिटी में टॉप करते हुए गोल्ड मेडल हासिल किया। इन दिनों वह बंबई हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करते हैं और आम नागरिकों के हित के लिए लगातार जनहित याचिकाएं दाखिल करते रहते हैं। उनकी याचिकाओं पर हुए फैसलों के चलते कई बार महाराष्ट्र सरकार को अपने फैसले बदलने पड़े हैं, जिनमें मुंबई के उपनगरों में बिल्डर्स को फायदा पहुंचाने के लिए बढ़ाई गई एफएसआई के फैसले का इसी महीने उच्च न्यायालय में खारिज हो जाना भी शामिल है।
अपने बहुचर्चित उपन्यास कार्नेज बाइ एंजेल्स पर फिल्म बना रहे योगेश प्रताप ने इस फिल्म की पटकथा खुद लिखी है और निर्देशन की जिम्मेदारी भी खुद निभाई है। उपनगर के एक स्टूडियो में चल रहे फिल्म के पोस्ट प्रोडक्शन के दौरान "नईदुनिया" को इसके काफी अंश देखने को मिले। फिल्म में जहां एक दृश्य में एक नए आईपीएस अफसर को एक हवलदार की ईमानदारी से प्रेरित होकर पूरी उम्र रिश्वत न लेने की कसम खाते दिखाया गया है, वहीं एक दृश्य ऐसा भी है जिसमें राज्य के एक दक्षिण भारतीय मुख्य सचिव को गृहमंत्री के पैरों पर गिरकर अपने खिलाफ एफआईआर दर्ज न होने देने के लिए गिड़गिड़ाते दिखाया गया है। एक दूसरे दृश्य में मुंबई के एक पुलिस कमिश्नर को अपना कार्यकाल बढ़वाने के लिए अशोक की लाट लगी आईपीएस कैप गृहमंत्री के आगे निछावर करते दिखाया गया है। सूत्रों के मुताबिक ये दोनों दृश्य योगेश प्रताप ने अपने कार्यकाल के दौरान हुए अनुभवों से उठाए हैं।
फिल्म में राज्य के एक शक्तिशाली नेता के काम करने के तरीकों को बारीकी से दिखाया गया है, जो मौजूदा अशोक चव्हाण सरकार में भी काफी अहम मंत्रालयों की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। फिल्म में उनके भतीजे और मुंबई के एक बहुचर्चित होटल मालिक का वह गठजोड़ भी दिखाया गया है, जिसके बारे में राज्य में मंत्रालय से लेकर कॉरपोरेट जगत का हर आदमीजानता है(पंकज शुक्ल,Nai Dunia,Delhi,28.6.2010) ।
Saturday, June 26, 2010
Tuesday, June 22, 2010
रेडियो से गुम हो गया झुमरी तलैया
Monday, June 21, 2010
अमरीश पुरी ने की थी बीमा कंपनी में नौकरी
रंगमंच तथा विज्ञापनों के रास्ते अपनी अदाकारी का लोहा मनवाकर हिंदी सिनेमा के सबसे मशहूर खलनायक के रूप में प्रसिद्धि बटोरने वाले अमरीश पुरी का जन्म 22 जून 1932 को पंजाब में हुआ। अपने बड़े भाई मदन पुरी का अनुसरण करते हुए फिल्मों में काम करने मुंबई पहुंचे अमरीश पुरी अपने लेकिन पहले ही स्क्रीन टेस्ट में विफल रहे और उन्होंने भारतीय जीवन बीमा निगम में नौकरी कर ली।
बीमा कंपनी की नौकरी के साथ ही वह नाटककार सत्यदेव दुबे के लिखे नाटकों पर पृथ्वी थियेटर में काम करने लगे। रंगमंचीय प्रस्तुतियों ने उन्हें टीवी विज्ञापनों तक पहुंचाया, जहां से वह फिल्मों में खलनायक के किरदार तक पहुंचे।
अमरीश पुरी को 1960 के दशक में रंगमंच को आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने दुबे और गिरीश कर्नार्ड के लिखे नाटकों में प्रस्तुतियां दीं। रंगमंच पर बेहतर प्रस्तुति के लिए उन्हें 1979 में संगीत नाटक अकादमी की तरफ से पुरस्कार दिया गया, जो उनके अभिनय कॅरियर का पहला बड़ा पुरस्कार था।
फिल्मों में खलनायक के किरदार में अमरीश पुरी को ऐसा पसंद किया गया कि फिल्म 'मिस्टर इंडिया' में उनका किरदार 'मुंगैबो' उनकी पहचान बन गया। इस फिल्म में 'मुगैंबो खुश हुआ' के अलावा तहलका में उनके द्वारा बोला गया संवाद 'डांग कभी रांग' नहीं होता भी लोगों की जुबान पर खूब चढ़ा।
अमरीश पुरी ने हिंदी के अलावा कन्नड, पंजाबी, मलयालम, तेलुगू और तमिल फिल्मों तथा हॉलीवुड फिल्म में भी काम किया। उन्होंने अपने पूरे कॅरियर में 400 से ज़्यादा फिल्मों में अभिनय किया।
उनके जीवन की अंतिम फिल्म 'किसना' थी जो 2005 में उनके निधन के कुछ दिन बाद प्रदर्शित हुई। अमरीश पुरी को अनेक फिल्मों के लिए सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेता का खिताब मिला।
'प्रेम पुजारी' से फिल्मों की दुनिया में प्रवेश करने वाले अमरीश पुरी के अभिनय से सजी कुछ मशहूर फिल्मों में 'निशांत', 'मंथन', 'गांधी', 'मंडी', 'हीरो', 'कुली', 'मेरी जंग', 'नगीना', 'लोहा', 'गंगा जमुना सरस्वती', 'राम लखन', 'दाता', 'त्रिदेव', 'जादूगर', 'घायल', 'फूल और कांटे', 'विश्वात्मा', 'दामिनी', 'करण अर्जुन', 'कोयला' आदि हैं(हिंदुस्तान,दिल्ली,21.6.2010)।
जैक्सन पर वृत्तचित्र का भारत में प्रीमियर
Sunday, June 20, 2010
सिलसिला पार्ट 2 : देखने वाले रह गए हैरान
Saturday, June 19, 2010
उंगली थाम के रखना पा
सीता की नियतिःउमा पाठक
हम उस दर्द से अनजान, चकराए से इधर-उधर देखते रह गए। पर क्या हॉल से निकलने के बाद किसी के मन में सीता के साथ हुए अन्याय के बारे में कोई प्रश्न उठा होगा?
मुश्किल ही है। क्योंकि आस्तिक परिवारों में अपने भगवान के प्रति जो अटूट आस्था होती है, उसके कारण संशय के लिए कोई जगह नहीं बचती। भक्त अपने इष्ट को आदर्श मानता है, भला उनसे कोई चूक कैसे हो सकती है?
हिंदू धर्म के सभी अवतारों में राम का चरित्र सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुआ। बाल्मीकि ने उन्हें एक महामानव के रूप में चित्रित किया है, पर वे इस प्रसंग का वर्णन नहीं करते। पर उत्तरकांड में (जिसे बाद में जोड़ा गया माना जाता है) राम सीता की पवित्रता पर संदेह करते हैं और कहते हैं कि वे दसों दिशाओं में जहां चाहें जा सकती हैं। उन्होंने उनको केवल अपने नाम के लिए छुड़ाया है। सीता के अग्नि परीक्षा देने पर वे उन्हें साथ ले जाते हैं। उत्तरकांड के संकलन कर्ताओं ने इस कहानी को बरकरार रखा है। बौद्ध जातक अनामकं जातकम् का 251 ई. के बाद चीनी अनुवाद हुआ। उसमें सीता के त्याग की कथा नहीं है। पर अयोध्या लौटने पर राम, सीता से अपने परिवार में लौट जाने को कहते हैं। रानी शपथ लेकर अपनी निर्दोषिता सिद्ध करती हैं और तब राम के वामांग में सुशोभित होती हैं। रविखेण ने पद्म चरित में सीता को वापस ले लेने के दुष्परिणाम स्वरूप समाज को मर्यादा रहित होता दिखाया।
विमल सूरि के पउम चरियं में सीता परित्याग का विस्तृत वर्णन मिलता है। लेखक ने बताया है कि राम गर्भवती सीता को चैत्यालय दिखलाने के लिए ले गए थे। वहां कुछ नागरिकों ने आकर राम से सीता के अपवाद की बात कही। राम ने लक्ष्मण से परामर्श किया। लक्ष्मण, सीता त्याग के विरुद्ध थे, पर राम के मन में संदेह था जिसके कारण उन्होंने अपने सेनापति से सीता को मंदिर दिखाने के बहाने गंगा पार छोड़ आने को कहा।
रामकथा के अधिकांश लेखक बाल्मीकि रामायण के ही आधार पर लिखते रहे। कुछ ने सीता परित्याग को बिल्कुल नहीं छुआ तो कुछ ने अलग - अलग कारण दिए। लोकगीतों और लोककथाओं में इन कारणों के अलावा श्रापों और वरदान को भी इस प्रसंग का कारण माना है , इस प्रकार राम के कृत्य के पीछे उनका नहीं दूसरे कारकों का हाथ बताया है। इस प्रकार राम को दोषमुक्त करने के रास्ते निकाल लिए गए हैं।
सीता पूरे रामकथा के केंद्र में हैं। बाल्मीकि और तुलसीदास ने समान रूप से सीता के रूप सौंदर्य का चित्रण किया है। तुलसी की सीता में अलौकिकता है , उनके चरित्र का सबसे ज्यादा चर्चित और विवादास्पद अंश है परित्याग से उपजा अपवाद और निर्वासन के बाद की उनकी मन : स्थिति। सभी रामकथाओं में उन्हें आदर्श पतिव्रता नारी के रूप में चित्रित किया गया है , पर बार - बार परीक्षा ली गई है। सबसे श्रद्धा और स्तुति मिली है पर पति ने चरित्र पर सवाल उठाकर लांछित किया है। कारण सिर्फ यह है कि जब भी कोई सीता लक्ष्मण रेखा लांघेगी तो उसका अपहरण होगा और उसे पुरुष का दुर्व्यवहार सहना पड़ेगा। उससे यह उम्मीद की जाती है कि पुरुष ने उसे जो देवीपद दिया है वह उसे स्वीकार कर मुंह बंद रखकर शांति से बैठे , फैसलों के लिए पिता , भाई , पति और पुत्र हैं , उसे कुछ कहने या करने की जरूरत नहीं है , जब जब वह गलती करेगी तब तब उसे ऋषि पत्नी अहल्या की तरह पति के श्राप से शिला बनना पड़ेगा।
राम ने पर पत्नी ( अहल्या ) के प्रति संवेदनशील होकर उन्हें अपने पैर के स्पर्श भर से पुन : जीवन दे दिया , पर अपनी पत्नी पर भरोसा नहीं कर पाए। लंका में अग्नि परीक्षा लेने के बाद अयोध्या में लोकापवाद सुनकर सहधर्मिणी को गर्भावस्था में निर्वासित कर दिया। इसके पीछे राम की कोई अपनी मनोवैज्ञानिक ग्रंथि रही होगी या राजसत्ता के लिए लोगों को खुश रखने की इच्छा ? सीता को दी गई सजा युगों से पुरुष वर्चस्व का उदाहरण बनकर जीवित है। सीता की अभिशप्त नियति आज भी स्त्री की नियति है।
रामकथाओं में सीता के सौंदर्य का चित्रण मिलता है। विवाह के बाद वे राम की अनुगामिनी के रूप में दिखाई गई हैं , जो हर समय उन्हीं के पदचिह्नों का अनुसरण करती हैं , यहां तक कि रास्ता तो दूर , कदम भी हटकर नहीं रखतीं। यही सीता सबको प्रिय और आदर्श लगीं। वाल्मीकि ने लंका में सीता को बहुत दुखी दिखाया , जो रावण के आने पर हवा में हिलते केले के पत्ते के समान कांपती थीं। तुलसी ने उस सीता में थोड़े प्राण डालते हुए उसे रावण को धिक्कारने और अधम कहने की शक्ति दी।
किंतु वास्तव में सीता का चरित्र राम की छत्रछाया से दूर जाने के बाद ही जीवंत हुआ है। सदा परजीवी के रूप में जीनेवाली पत्नी , मां के रूप में आत्मनिर्भर और विवेकपूर्ण दिखती हैं , जो रोने - कलपने की जगह चारित्रिक दृढ़ता का परिचय देती हैं। इस तेजोमय चरित्र के सामने राम संदेहों से घिरे , नियति के आगे बेबस व्यक्ति के रूप में दिखते हैं। धोबी तक की बात को महत्व देनेवाले राम वही लोकतांत्रिक अधिकार अपनी पत्नी को क्यों नहीं देते ? सीता निर्वासन के बाद राम के चरित्र का औदात्य फीका पड़ जाता है , तभी तो उनके परम भक्त बाल्मीकि और तुलसी भी इस प्रसंग को छिपाकर रखते हैं।
दूसरी ओर सीता राजमहल की सुख - सुविधाओं से दूर रहकर भी अपने पुत्रों को तन - मन की वह शक्ति दे पाती हैं कि वे अपने पिता के अश्वमेध यज्ञ हेतु छोड़ गए घोडे़ को रोकने का साहस करते हैं , राम की सेना का सामना करने को तैयार दिखते हैं। तिरस्कृत पत्नी को राजदरबार में बुलाया जाता है , सीता गर्विणी मां के रूप में पहुंचती हैं। पर इस बार परीक्षा देने की जगह धरती मां को पुकारती हैंं और अंतत : उन्हीं में समाकर समस्त लांछना से मुक्त हो जाती हैं। पीछे रह जाते हैं ठगे से , रोते बिलखते राम जो उनके रहते हुए उनकी मर्यादा की रक्षा नहीं कर पाए थे। राजसी ठाठबाट रहित अकेली मां माता - पिता दोनों के दायित्वों को भलीभांति निभाती है। आज के युग में एकल मां के दायित्व को निभानेवाली युवती को सबकी वाहवाही मिलती है , पर उस युग में उसने सब कर्त्तव्य चुपचाप पूरे किए(नभाटा,दिल्ली,19.6.2010)।
बॉलीवुड ने बनाया पेंटर
नेपाली उद्योगपति के साथ परिणय सूत्र में बंधीं मनीषा
Thursday, June 17, 2010
अमर सिंह का धोखा
उम्मीद है कि अमर इस फिल्म के जरिए अपने उन राजनीतिक विरोधियों पर जवाबी प्रहार करेंगे जिन्होंने उनका अपमान किया है या उनको नजरअंदाज किया है। बुधवार को लखनऊ में संवाददाताओं से बातचीत में उन्होंने कहा कि वे एक ऐसी फिल्म बना रहे हैं जो सच्चई के काफी करीब होगी।
अमर ने कहा,‘हम ‘धोखा’ की स्क्रिप्ट के साथ तैयार है। फिल्म को मनोज तिवारी बना रहे हैं। फिल्म दो राजनेताओं-चालू और टालू प्रसाद- के इर्द-गिर्द घूमती है। यह फिल्म पूर्वाचल की जनता की स्थिति बयां करती है जिसे सभी राजनेताओं ने धोखा दिया है।’ अमर का साथ देने के लिए उनके पुराने दोस्त भी तैयार हैं।
अमर ने कहा कि जयाप्रदा और संजय दत्त फिल्म में काम करने के लिए तैयार हैं। हालांकि उन्होंने कलाकार चुनने की जिम्मेदारी मनोज तिवारी को सौंपी है। वैसे अमर ने कहा कि वे भी इस फिल्म में अभिनय कर सकते हैं।
(Dainik Bhaskar,Lucknow,17.6.2010)।
Tuesday, June 15, 2010
माहिर फिल्मकार भी थे हेमंत कुमार
बांग्ला और हिन्दी फिल्म संगीत की जानी-मानी शख्सियत हेमंत कुमार न सिर्फ मौसीकी के माहिर बल्कि बेहतरीन फिल्म निर्माता भी थे। बांग्ला भाषा के अनेक ग़ैर-फिल्मी एल्बम को सुर देने वाले कुमार ने कई मशहूर हिन्दी गीतों को भी अपनी पुरअसर आवाज़ दी। साथ ही उन्होंने एक ऐसी फिल्म का निर्माण भी किया जिसे राष्ट्रपति के स्वर्ण पदक से नवाज़ा गया।
फिल्म समीक्षक ज्योति वेंकटेश के मुताबिक हेमंत कुमार अपने दौर के सबसे प्रतिभाशाली फनकारों में से थे। संगीत की नब्ज़ का मिजाज़ समझने में दक्ष इस कलाकार को रवींद्रसंगीत का विशेषज्ञ भी माना जाता था।
उन्होंने बताया कि कुमार ने 1959 में हेमंत-बेला प्रोडक्शंस के बैनर तले नील अक्षर नीचे फिल्म बनाई। मृणाल सेन द्वारा निर्देशित इस फिल्म को भारत सरकार के सबसे बड़े फिल्म सम्मान राष्ट्रपति के स्वर्ण पदक से नवाज़ा गया।
उन्होंने बताया कि कभी बॉलीवुड अभिनेता देव आनंद की आवाज़ कहे जाने वाले कुमार ने साल 1954 में बनी फिल्म 'नागिन' में संगीत दिया। यह फिल्म बेहद कामयाब हुई और इसकी सफलता का ज़्यादातर श्रेय उसके संगीत को दिया गया।
कुमार को इस फिल्म के लिए साल 1955 के सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के फिल्म फेयर अवार्ड से नवाज़ा गया।
कुमार ने मुख्य रूप से 'आनंद मठ', 'अंजान', 'दो दिल', 'एक ही रास्ता', 'हमारा वतन', 'हम भी इंसान हैं', 'जागति', 'राहगीर' और 'उस रात के बाद' फिल्मों को संगीत से सजाया।
कुमार मुख्य रूप से बांग्ला संगीतकार थे और उनके ज़्यादा बांग्ला गीत बेहद लोकप्रिय हुए। बांग्ला गीतकार गौरीप्रसन्ना मजूमदार के साथ उनकी खास जुगलबंदी थी और इस जोड़ी ने बांग्ला सिनेमा और संगीत को उसके स्वर्णिम युग में पहुंचाया।
साल 1980 में कुमार को दिल का दौरा पड़ा जिससे उनकी गायन क्षमता भी प्रभावित हुई। ख़ासतौर से सांस पर नियंत्रण में उन्हें दिक्कतें होने लगीं लेकिन इस कलाकार ने अपनी इच्छाशक्ति के बलबूते इस कमज़ोरी पर काफी हद तक काबू पा लिया।
सितम्बर 1989 में कुमार माइकल मधुसूदन अवार्ड लेने के लिए ढाका गए और वहां उन्होंने एक कार्यक्रम भी पेश किया। अपनी उस यात्रा से लौटने के फौरन बाद उन्हें एक बार फिर दिल का दौरा पड़ा और 26 सितम्बर 1989 को इन फनकार ने दुनिया को अलविदा कह दिया।(Hindustan,15.6.2010)
जफर: सिनेमा प्रेम का पथरीला सफर
दुनियाभर में अपने नई शैली और विषयों के लिए विख्यात ईरानी सिनेमा के बारे में तो लोग जानने लगे हैं लेकिन वहां के फिल्मकारों के संघर्ष के बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी है। इस साल कान फिल्म फेस्टिवल में ईरान के मशहूर फिल्मकार अब्बास किरोस्तामी ने जब ईरानी फिल्मकार जफर पनाही की जेल से रिहाई की मांग की तो दुनिया के मंच पर एक बार फिर ईरानी फिल्मकारों पर सरकारी सेंसरशिप को दुनिया ने देखा। हालांकि पिछले दिनों ही जफर पनाही को सरकार ने जेल जमानत पर रिहा कर दिया है। जफर मार्च से ही जेल में थे। वे विपक्षी नेता मीर हुसैन मौसवी के समर्थक माने जाते हैं। उन पर आरोप था कि वे पिछले साल ईरान में विवादित राष्ट्रपति चुनावों पर फिल्म बनाना चाहते थे।
कान समारोह में जफर की वकालत करते हुए किरोस्तामी ने कहा था कि एक फिल्मकार को इस तरह जेल में बंद करना अभिव्यक्ति पर हमला है। किरोस्तामी के मुताबिक एक फिल्म बनाना अपराध कैसे हो सकता है 'खासकर ऎसी फिल्म के लिए किसी को जेल में बंद करना कैसे जायज हो सकता है, जो अभी बनी ही नहीं।' उन्होंने पिछले दिनों जेल में अपने साथ दुर्व्यवहार को लेकर लेकर भूख हडताल कर दी थी। बाद में प्रशासन ने उनके परिवार को गिरफ्तार करने की धमकियां दी। लेकिन जफर नहीं डिगे। जफर ने कहा कि उन्हें एक फिल्मकार होने पर गर्व है और उसी सिनेमा की कसम खाकर कहते हैं कि जब तक उनकी मांगें नहीं मानी जाएंगी वे भूख हडताल खत्म नहीं करेंगे। वे अपने परिवार और वकील से मिलना चाहते थे और जमानत पर रिहा होने की मांग कर रहे थे। दुनिया के मानवाघिकार संगठनों, बुद्धिजीवियों ने ईरान सरकार आलोचना भी की। फिल्मकार स्टीवन स्पीलबर्ग, फ्रांसिस फोर्ड कोपोला और मार्टिन स्कॉरसेस ने इरान सरकार से निजी तौर पर आग्रह किया कि जफर को रिहा किया जाए।
49 वर्षीय पनाही दुनिया के जाने माने फिल्मकार हैं और दुनिया के कई देशों में हुए फिल्म फेस्टिवल्स में उन्होंने अवार्ड जीते हैं। वे ईरानी समाज पर सरकारी अंकुश और वहां के जनविरोधी हालातों पर काम करते रहे हैं। ईरान सरकार उन्हें पसंद नहीं करती। अघिकारी उनकी फिल्मों की आलोचना करते रहे हैं कि वे ईरान की नकारात्मक छवि अपने सिनेमा में दिखाते हैं। उनकी कई फिल्मों को सरकार ने ईरान में प्रदर्शित नहीं होने दिया। उनकी फिल्म 'क्रिमसन गोल्ड' ईरान में प्रतिबंघित कर दी गई। इसमें एक पिज्जा डिलीवर करने वाले आदमी के जरिए ईरान में उच्च वर्ग के विशेषाघिकारों को दिखाया गया। इस फिल्म ने 2003 में कान फिल्म समारोह में अन सर्टेन रिगार्ड श्रेणी में नामांकित किया गया।
नई धारा के ईरानी सिनेमा की खूबी यही है कि वह बच्चों और बडों के जीवन से जुडी आम कहानियों में भी एक राजनीतिक यथार्थ की कहानी रूपकीय अंदाज से कहते हैं, चाहें वो माजिद मजीदी हों, किरोस्तामी हों या मखमलबाफ। ईरानी फिल्मकार अपनी इसी राजनैतिक चेतना के चलते ही अकसर वहां सरकार और प्रशासन के निशाने पर रहते हैं। इस लिहाज से जफर वहां के अग्रणी फिल्मकार हैं। वे तो राजनीतिक रूप से सक्रिय भी है।
उनकी फिल्म 'द सर्किल' भी ईरान में रिलीज नहीं होने दी गई। इसमें उन्होंने एक इस्लामी देश में औरतों के खराब हालात को दिखाया। फिल्म ने सन 2000 में वेनिस फिल्म फेस्टिवल में गोल्डन गलोब जीता था। 2006 के बर्लिन फिल्म समारोह में पनाही की फिल्म 'ऑफसाइड' ने दूसरा सबसे बडा अवार्ड हासिल किया। इसमें कॉमेडी के जरिए सॉकर देखने पर माहिलाओं की पाबंदी पर तंज किया गया है। सरकार ने एक आंदोलन में शामिल होने के लिए पहले भी पनाही को गिरफ्तार किया था। पनाही ने हार नहीं मानी लेकिन मुश्किलें अभी थमी नहीं है। पुलिस जांच के दौरान उनसे पूछा गया कि, तुम ईरान में क्यों रहते हो तुम बाहर जाकर फिल्में क्यों नहीं बनाते(रामकुमार सिंह,Rajasthan Patrika,6 june,2010)
देसी गाने, अंग्रेजी तडका
हाल के दौर की कई फिल्मों में ऎसे कई गाने सामने आए हैं, जिनकी कुछ लाइनें अंग्रेजी में हैं और वे लोकप्रियता के चार्ट पर ऊपर नजर रहे हैं। चाहे वह 'धूम 2' में ऋतिक और ऎश पर फिल्माया 'धूम अगेन' हो, या 'अजब प्रेम की गजब कहानी' में रणबीर कपूर और कैटरीना कैफ के लबों पर मचलता 'शाइनिंग इन द शैड एंड सन लाइक ए पर्ल अपोन द ओशियन'। '3 ईडियट्स' का 'गिव मी सम सनशाइन' तो यंगस्टर्स के लिए किसी एंथम से कम नहीं था। 'वांटेड' जैसी एक्शन फिल्म में भी 'लव मी लव मी बेबी' जैसे गाने के जरिए अंग्रेजी का फार्मूला आजमाया गया।
...अंदाज क्यूं हो पुराना
मौजूदा संगीतकार देसी गानों में अंग्रेजी तडका लगा रहे हैं और इस मोर्चे पर गीतकार भी उनका मसालेदार साथ निभा रहे हैं। फिल्म 'रेस' के टाइटल ट्रैक का अंग्रेजी वर्शन और हालिया रिलीज 'हाउसफुल' में अंग्रेजी गीत 'ओह गर्ल, यू आर माइन' लिखने वाले मशहूर गीतकार समीर स्वीकार करते हैं, 'हिंदी के साथ अंग्रेजी अब रूटीन में बोली जाने वाली भाषा बन गई है। यहां तक कि हिंदी अखबारों पर भी अंग्रेजी के शब्दों के इस्तेमाल का दबाव है। ऎसे में हमारे पास सिर्फ एक ही विकल्प है कि हम उस जुबान का इस्तेमाल करें, जिसे लोग बोलते हैं। वैसे भी अब हमारी फिल्में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कारोबारी कंपीटिशन कर रही हैं।'
इंटरनेशनल स्टार बने भागीदार
दरअसल बॉलीवुड ने हाल के दौर में इंटरनेशनल स्टार्स को अपनी ओर खींचा है और उनके अंग्रेजी गाने भी बॉलीवुड फिल्मों में इस्तेमाल किए गए हैं। फिल्म 'ब्ल्यूू' के काइली मिनोग का गाया गीत 'चिगी विगी' और 'सिंह इज किंग' के म्यूजिक वीडियो में अक्षय कुमार के साथ स्नूपी डॉग के रैप डांस नंबर काफी चर्चित रहे हैं, वहीं शाहरूख खान की आने वाली फिल्म 'रा वन' में एकोन उनके साथ नजर आएंगे।
जैसा किरदार, वैसी जुबान
'जब वी मेट' और 'अजब प्रेम की गजब कहानी' के गीतकार इरशाद कामिल भी समीर की तरह इस ट्रेंड की पैरवी करते हुए कहते हैं, 'इन दिनों हमारी बोलचाल की भाषा में 40 फीसदी शब्द अंग्रेजी के होते हैं। सिनेमा और किरदार हमारे समाज से ही आते हैं। इसलिए फिल्में स्पष्ट तौर पर बोलचाल की भाषा को प्रदर्शित करती हैं। जब हम सभी हमारी रोजमर्रा की भाषा में अंग्रेजी का इस्तेमाल करते हैं, तो इसे गाने में क्यो नहीं इस्तेमाल करेंक्'
'माई हार्ट इज बीटिंग' से मिली पॉपुलैरिटी
पहले यह चलन गिने-चुने गानों तक ही सीमित था, जिनमें अंग्रेजी के शब्दों को इधर-उधर फिट कर दिया जाता था। याद कीजिए, लता मंगेशकर-किशोर कुमार का डुएट 'अंग्रेजी में कहते हैं कि आई लव यू' या आशा भोसले का गाया 'आई एम सॉरी सॉरी सॉरी तेरा नाम भूल गई', जबकि अब बॉलीवुड की मेगा बजट और मल्टीस्टारर फिल्मों में पूरी तरह से अंग्रेजी गाने भी आम तौर पर नजर आने लगे हैं। हिंदी फिल्मों में अंग्रेजी गीतों की पॉपुलैरिटी का श्रेय 'जूली' फिल्म में हरींद्रनाथ चट्टोपाध्याय के लिखे 'माई हार्ट इज बीटिंग' को दिया जा सकता है। 1975 में यह गाना सबसे अलग नजर आता था, क्योंकि यह अपवाद था। इसकी खूब चर्चा भी हुई थी।
मौजूदा हाई टैक दौर में गीतकारों और संगीतकारों के लिए देसी गानों में अंग्रेजी तडका लगाना एक हिट रेसिपी का जरूरी फार्मूला लगने लगा है।
रैप की जुगलबंदी
रैप की पॉपुलैरिटी की वजह से इन दिनों हिंदी बोलों के बीच गायक की अंग्रेजी में रैपिंग अब आम बात हो चुकी है। ए. आर. रहमान के संगीत से सजी फिल्म 'साथिया' का गाना 'ओ हमदम सोनियो रे' दर्शकों को आज भी याद होगा, जिसमें गुलजार के बोलों के बीच रैप वर्शन सुनाई देता है। इसी तरह पिछले साल आई 'अजब प्रेम की गजब कहानी' में रणबीर कपूर हार्ड कौर के रैप पर थिरकते नजर आते हैं।
(कृतिका बेहरावाला,Rajasthan Patrika,12.6.2010)
Sunday, June 13, 2010
केबीसी-4 में फिर दिखेंगे अमिताभ
Friday, June 11, 2010
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी:भावना सोमाया
बीते माह कैफी आजमी को गुजरे आठ साल हो गए। फादर्स डे के मौके पर अब्बा की याद आना लाजिमी ही है। आजमी परिवार से नजदीकी के चलते मुझे उनकी कद्दावर शख्सियत और विलक्षण बुद्धिमत्ता को गौर से देखने का मौका मिला था। उनके घर अक्सर होने वाली ‘महफिलों’ की भी मैं गवाह रही हूं। मैंने लोगों पर उनकी शायरी का जादू चलते देखा है। एक शाम मैंने उनसे पूछा, ऐसा कौन सा अहसास था, जिसने आपको हंसते जख्म फिल्म का वह गमगीन नगमा ‘दिल की नाजुक रगें टूटती हैं, याद इतना भी कोई ना आए..’ लिखने के लिए मजबूर कर दिया। वे देर तक खाली आंखों से मेरी तरफ देखते रहे और फिर दूसरी तरफ नजरें घुमा लीं। उन्हें अपनी शख्सियत के परदे में रहना पसंद था।
मेरे जेहन में अब्बा (मैं उन्हें इसी नाम से पुकारने लगी थी) से जुड़ी जाने कितनी ही यादें हैं। चाहे वह चाय और खारी बिस्किट के साथ चुपचाप कोई मर्डर मिस्ट्री फिल्म देखना हो या सर्जरी के बाद उनसे बॉम्बे हॉस्पिटल मिलने जाना हो। उम्र बढ़ने के साथ ही अब्बा का अस्पतालों से नाता भी बढ़ता रहा। डॉक्टर बदल जाते, फ्लोर बदल जाते, कमरे बदल जाते, लेकिन मरीज वही रहता। जिंदगी के आखिरी दिनों में वे काफी कमजोर हो चले थे। उन्हें दवाइयों के आसरे पर जीना अच्छा नहीं लगता था, लेकिन उन्होंने कभी अपनी तकलीफ जाहिर नहीं होने दी।
आखिरी वक्त में तो ऐसा भी लगा, जैसे उनका अपनी शायरी तक से मोह जाता रहा हो। जब शबाना वॉकमैन में उनके पुराने गीत बजातीं तो उनके चेहरे पर किसी तरह के भाव नहीं आते थे। लेकिन उनके गांव फूलपुर के विकास की कोई खबर आने पर उनकी दिलचस्पी जाग जाती। उनकी चिंताएं हमेशा व्यापक जनसमुदाय के प्रति थीं, खुद के लिए नहीं।
जिस रोज वे गुजरे, वह बहुत गर्म शाम थी। और लग रहा था, वह रात तो जैसे कभी खत्म ही न होगी। मुझे उनकी नज्म मकान की ये पंक्तियां बेतरह याद आती रहीं- ‘आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है/आज की रात ना फुटपाथ पे नींद आएगी/सब उठो, मैं भी उठूं, तुम भी उठो, तुम भी उठो/कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी..’। लेकिन उस रात ऐसी कोई खिड़की नहीं खुली, जो हमें हौसला दे पाती। दुख बर्दाश्त से बाहर था। शाम डूबने के साथ ही घर पर उदासी भी गहरा गई।
अब्बा के इंतकाल के बाद संगीतकार जतिन-ललित ने संगीत के जरिए उन्हें शोकांजलि अर्पित की थी। सबसे पहले जतिन ने अब्बा के यादगार नगमों को गुनगुनाना शुरू किया और फिर ललित, जावेद अख्तर, नीलम शुक्ला, पार्वती खान इत्यादि भी उनका साथ देने लगे। वह अब्बा की जादुई शायरी से सजी यादगार शाम थी। चाहे वह उनका मार्मिक गीत ‘वक्त ने किया क्या हसीं सितम हो’ या गम में डूबा हुआ नगमा ‘जाने क्या ढूंढती रहती है ये आंखें मुझमें’।
चाहे वह उम्मीद की गर्मजोशी लिए ‘जरा सी आहट होती है तो दिल सोचता है’ हो या प्रेरणा जगाने वाला ‘इतने बाजू इतने सिर, सुन ले दुश्मन ध्यान से’। जिंदगी के हर लम्हे, हर अहसास पर अब्बा ने नगमे लिखे थे। अचानक हमारे दिलों में छाई उदासी कहीं खो गई। हम उम्मीदों से भर गए। हमें महसूस हुआ कि अब्बा कहीं नहीं गए हैं, क्योंकि उनके नगमों की फसल अब भी लहलहा रही थी। वे यहीं थे, हम सभी के बीच, हमेशा की तरह(Rajasthan Patrika,6 june,2010)।
फीका हुआ करिश्मा
अजब तेरी कहानी
फिल्म इंडस्ट्री का चलन भी अजीब है। 'कंपनी', 'साथिया', 'युवा', 'मस्ती', 'प्यारे मोहन', 'ओमकारा', 'शूटआउट एट लोखंडवाला' और 'प्रिस' जैसी सफल फिल्मों के बावजूद सुरेश ओबेराय के बेटे विवेक ओबेराय का मार्केट बेहद ठंडा है। उधर, फरदीन खान और जाएद खान पता नहीं किस खासियत से अब भी फिल्मों में टिके हुए हैं। इन दोनों स्टार पुत्रों में न तो प्रतिभा है, न स्टार पावर, लेकिन इंडस्ट्री इन्हें झेल रही है।
शॉटगन उर्फ शत्रुघ्न सिन्हा के बेटे लव की डेब्यू फिल्म 'सदियां' दर्शकों ने खारिज कर दी है। ऎसे में यह सवाल उठ रहा है कि शत्रु की बेटी सोनाक्षी और उनके दूसरे बेटे कुश की किस्मत के बारे में दर्शक क्या फैसला सुनाएंगे। सोनाक्षी की पहली फिल्म 'दबंग' इसी साल रिलीज होगी, जिसमें वे सलमान खान के साथ हैं। कुश भी नए निर्देशक अप्रतिम खरे की अनाम फिल्म में नजर आएंगे। क्या लव की शुरूआती विफलता से सोनाक्षी और कुश के भाग्य और भविष्य का अंदाजा लगाया जा सकता हैक् इन सवालों के बीच अब जबकि 'रावण' रिलीज होने वाली है, यह सवाल भी पूछा जा रहा है कि क्या अभिषेक बच्चन मणिरत्नम के साथ तीसरी बार भी कामयाब होंगेक् अभिषेक इससे पहले मणि के साथ 'युवा' और 'गुरू' में काम कर चुके हैं। ये दोनों फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सफल रही थीं। इन फिल्मों में जूनियर बच्चन के काम की भी तारीफ हुई थी। मणि के साथ अभिषेक की हैट्रिक की बात इसलिए कही जा रही है कि अभि मणि के साथ ही सफल हुए हैं। 'धूम2' जैसी मल्टीस्टारर फिल्मों की बात छोड दें, तो जे. पी. दत्ता की सुपर फ्लॉप फिल्म 'रिफ्यूजी' से अपने कॅरियर की शुरूआत करने वाले अभिषेक बच्चन ने अब तक 'तेरा जादू चल गया', 'ढाई अक्षर प्रेम के', 'बस इतना सा ख्वाब है', 'शरारत', 'हां, मैंने भी प्यार किया', 'मंुबई से आया मेरा दोस्त', 'दिल्ली-6' और 'द्रोण' जैसी बडे बजट की फ्लॉप फिल्में ही दी हैं। यह अलग बात है कि जूनियर बच्चन के पास आज भी बडी फिल्में हैं।
चालीस के दशक में कपूर खानदान से शुरू हुआ स्टार संस का सिलसिला आज भी जारी है। राज कपूर, शम्मी कपूर और शशि कपूर के बाद रणधीर, ऋषि और अब रणबीर कपूर तक चार पीढियां फिल्मों में हीरो बनी हैं। कपूर खानदान की तीसरी पीढी के हीरो को विफलता ही मिली है। ऋ षि और रणबीर अपवाद कहे जा सकते हैं। ऎसा ही कुछ दूसरे खानदानों के चिरागों के बारे में भी कहा जा सकता है। सुनील दत्त और नर्गिस के पुत्र संजय दत्त पहली पारी में लंबी नाकामी के बाद दूसरी पारी में कामयाब रहे, तो सैफ अली खान सफल-विफल फिल्मों के झूले में झूल रहे हैं। निर्माता-निर्देशक ताहिर हुसैन के बेटे आमिर खान, लेखक सलीम खान के बेटे सलमान खान, फिल्म निर्माता सुरेंद्र कपूर के बेटे अनिल कपूर, एक्शन डायरेक्टर वीरू देवगन के बेटे अजय देवगन सफल साबित हुए, तो आमिर खान के भाई फैसल खान, सलीम खान के दो दूसरे बेटे सोहैल और अरबाज, अनिल कपूर के भाई संजय कपूर तथा जीतेंद्र के बेटे तुषार कपूर नकारा साबित हुए। इसी तरह अनिल कपूर की बेटी सोनम की डेब्यू फिल्म 'सांवरिया' बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह पिटी, फिर 'दिल्ली-6' का भी यही हश्र हुआ, लेकिन उनके पास ऑफर की आज भी कमी नहीं है।
कभी अमिताभ बच्चन को टक्कर देने वाले विनोद खन्ना के दोनों बेटे अक्षय खन्ना और राहुल खन्ना में दर्शकों को पिता जैसी कोई बात नजर नहीं आई। मिथुन चक्रवर्ती के बेटे मिमोह भी 'जिमी' में ऑडियंस को अपनी ताल पर थिरका पाने में नाकाम रहे। टैलेंटेड एक्टर अनुपम खेर और किरण खेर के बेटे सिकंदर खेर में न तो ग्लैमर था, न अपने माता-पिता की तरह प्रतिभा। राज बब्बर और स्मिता पाटील के बेटे प्रतीक बब्बर अपनी पहली फिल्म सुपर हिट 'जाने तू...या जाने ना' में बुझे-बुझे से लगे। राज बब्बर और नादिरा केे बेटे आर्य बब्बर का 2002 में 'अब के बरस' से डेब्यू भी फीका रहा। राजकुमार के बेटे पुरू राजकुमार भी बुरी तरह से नाकाम रहे।
बडा निर्माता होने का फायदा भी बिना टैलेंट वाले बेटों को नहीं मिल सकता। हैरी बावेजा ने अपने बेटे हरमन बावेजा को हीरो बनाने के लिए साठ करोड बहा डाले। पर 'लव स्टोरी 2050' में हरमन बावेजा-प्रियंका चोपडा का रोमांस भी फिल्म को नहीं बचा सका। वासु भगनानी ने भी अपने बेटे जैकी को स्टार बनाने के लिए तीस करोड पानी में बहा दिए। मनमोहन देसाई की पोती वैशाली के साथ जैकी की फिल्म 'कल किसने देखा' ने बॉक्स आफिस पर कल का मुंह नहीं देखा(Rajasthan Patrika,5 june,2010)।
रहमान की धुन पर झूमेगा अमेरिका
रहमान का यह कार्यक्रम उनके विश्व भ्रमण का हिस्सा है। रहमान ने 45 दिनों तक विश्व भ्रमण करने का फैसला किया है और इस दौरान वह अमेरिका, कनाडा, फ्रांस, स्विट्जरलैंड, हॉलैंड और ब्रिटेन में अपनी संगीत से लोगों को मंत्रमुग्ध करेंगे। रहमान ने इस विश्व भ्रमण को एआर रहमान जय हो कन्सर्ट: द जर्नी होम वल्र्ड टूर नाम दिया है। इस यात्रा में रहमान ने गुरूवार को न्यूयॉर्क में अपना कार्यक्रम प्रस्तुत किया। इसके बाद न्यू जर्सी, वाशिंगटन, शिकागो, डेट्राएट, सान फ्रांसिस्को, लॉस एंजिलिस, रेले और अटलांटा के दौरे पर जाएंगे।
शानदार संगीत के लिए गोल्डन ग्लोब और अकादमी अवार्ड जीत चुके रहमान ने वाशिंटगटन में होने वाले अपने कार्यक्रम के लिए एक संक्षिप्त अभ्यास किया। रहमान ने लोगों से वादा किया है कि रविवार को फेयरफैक्स के पैट्राएट सेंटर में होने वाले कार्यक्रम के दौरान वह हॉलीवुड और बॉलीवुड के संगीत को मिलाते हुए एक अलग तरह का संगीत लोगों के सामने पेश करेंगे।
रहमान ने कहा कि आमतौर पर मुझे यहां दक्षिण एशियाई श्रोता अधिक मिलते हैं। इनमें तमिल, तेलुगू, हिंदी, पंजाबी, गुजराती, पाकिस्तानी, श्रीलंकाई और बांग्लादेशी शामिल होते हैं। स्लमडॉग की सफलता के बाद मैंने यहां के श्रोताओं के सामने कुछ नए तरह का संगीत पेश करने का फैसला किया है। दो घंटे से अधिक समय तक चलने वाले रहमान के कार्यक्रम के दौरान मुख्य रूप से उनकी फिल्मों रोजा से लेकर स्लमडॉग तक के सफर का जिक्र होगा। साथ ही इसमें लगान, जाने तू या जाने ना, दिल से और रंग दे बसंती के साथ-साथ उनकी कई व्यक्तिगत रचनाएं भी शामिल होंगी(Rajasthan Patrika,11 .6.2010)।
Wednesday, June 9, 2010
प्रकाश झा, राजनीति और मल्टी-टास्किंग
प्रकाश जे जे स्कूल ऑफ आट्र्स में चित्रकला का प्रशिक्षण लेने मुंबई की ओर चले थे। लेकिन उन्होंने ठिकाना ढूंढ़ा फिल्म निर्देशन और निर्माण में। शुरुआत में कुछ साल उन्होंने डॉक्यूमेंटरी बनाई। यह उनकी सामाजिक और राजनीतिक चेतना का सबूत है। दरअसल प्रकाश खुद भी एक राजनीतिक परिवार से हैं। उनकी मां राजनीति में सक्रिय थीं लेकिन उन्हें बहुत ज्यादा सफलता नहीं मिली। देखा जाए तो राजनीतिक विषयों पर फिल्में बनाना और फिर बाद में खुद राजनीति में सक्रिय होना इसी असफलता को पूरा करने की एक अवचेतन कोशिश है। प्रख्यात मास-मीडिया विशेषज्ञ मार्शल मैकलुहान ने कहा था कि मीडियम इज मैसेज। यानी संदेश से ज्यादा अहम है माध्यम। लेकिन प्रकाश अपने माध्यम (फिल्म) के साथ-साथ खुद को भी अहम बना लेते हैं।
अपनी फिल्मों से ज्यादा फोकस में वह रहते हैं। बिहार में अपनी राजनीतिक पृष्ठभूमि होने के बावजूद वह राजनीति को नए सिर से समझने की कोशिश करते हैं। दो बार चुनाव लड़ते हैं। राष्ट्रीय जनता दल के प्रमुख लालू यादव और उनके साले साधु यादव का मखौल उड़ाते हुए फिल्म बनाते हैं और फिर रामविलास पासवान के नेतृत्व वाली लोक जनशक्ति पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ते हुए भरी सभा में लालू के पांव छूते हैं। वह कभी कांग्रेस के करीब आने की कोशिश करते हैं। नीतीश के साथी बनते हैं। रामविलास पासवान की राह पकड़ते हैं और फि र लालू से समझौता करते हैं। वह एनजीओ बनाते हैं। खुद को सामाजिक उद्यमिता से जोड़ते हैं।
पटना में मॉल खड़ा करने के लिए सरकार से सस्ती दर पर जमीन लेते हैं। चैनल खोलते हैं। क्या यह एक साथ जनसंपर्क,उद्यमिता और राजनीति को साथ लेकर चलने वाले मल्टी टास्किंग के प्रचलित प्रबंधन सिद्धांत का उदाहरण कहा जाएगा? आज की भागदौड़ भरी कारोबारी जिंदगी में मल्टी टास्किंग एक बड़े सिद्धांत के तौर पर उभरा है लेकिन धीर-धीर इसकी कमियां उजागर होने लगी हैं। मल्टी टास्किंग के आलोचक कहते हैं यह आपको कहीं नहीं ले जाता। बड़े प्रबंधन गुरुओं का जोर कंसोलिडेशन पर है। कारोबार में यह सिद्धांत बार-बार दोहराया जाता है। एक कारोबारी के तौर पर और एक सजग सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता के तौर पर भी प्रकाश झा अपनी मंजिल हासिल करने की कोशिश में है। लेकिन उनकी रणनीति में कंसोलिडेशन का अभाव है। प्रकाश की निजी और पेशेवर दोनों जिंदगियों का सबक यही है कि किसी भी पेशेवर व्यक्ति के लिए पकड़ना, छोड़ना और फिर पकड़ना उसकी संपूर्ण सफलता में रोड़ा बन जाता है(Editirial,Business Bhaskar,5.6.2010)।
Tuesday, June 8, 2010
इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में 'सिसकियां'
लोगों की सिसकियां
डॉक्यूमेंट्री कैंसर के मरीजों पर आधारित है। इसे बठिंडा के पास के चार गावों में शूट किया गया। डॉक्यूमेंट्री में दिखाया गया कि फसलों में जो कीटनाशक डलते हैं उससे पीने का पानी पर प्रदूषित हो जाता है। गांव वाले इस कीटनाशक पानी को पीने के लिए मजबूर हैं। इससे उन्हें कैंसर हो रहा है। ज्यादतर महिलाओं को स्तन कैंसर और बच्चों को बोन कैंसर हो रहा है। ज्यादातर लोग गरीब हैं और पीने का पानी उबालते हैं तो कुछ दिनों में बर्तन नीचे से पूरा काला हो जाता है।
ऐसे में हर घर में कोई न कोई कैंसर से पीड़ित है। कैंसर के मरीजों की इंटरव्यू ली तो पता लगा कि सरकारी दावे तो कई बार हुए लेकिन जमीनी सच्चई यह है कि इनकी सिसकियां सुनने वाला कोई नहीं है और आज भी यह लोग प्रदूषित पानी पीने का मजबूर हैं।
कैंसर से कई मौतें हो चुकी हैं और बठिंडा से बीकानेर ट्रेन जाती है जिसमें वहां के कैंसर मरीज इलाज के लिए जाते हैं। इस ट्रेन का नाम ही लोगों ने कैंसर ट्रेन रख दिया है। गौरतलब है कि बीकानेर में कैंसर स्पेशलिस्ट अस्पताल है। 10 मिनट की यह डॉक्यूमेंट्री 6 घंटे की बनी थी और एडिटिंग करने में एक महीना लग गया। (गौरव भाटिया/रविंदर,दैनिक भास्कर,दिल्ली,8 जून,2010 )।
Sunday, June 6, 2010
ताकि युवाओँ को भाए राजनीति
Saturday, June 5, 2010
आइफा पुरस्कारों की घोषणा अब से थोड़ी देर में
Friday, June 4, 2010
बिन रावण के सजी है लंकाःचंद्रकांत शिंदे
आइफा पुरस्कार समारोह का यह ग्यारहवां वर्ष है । इस बार यह समारोह कोलंबो में हो रहा है। कोलंबो हवाईअड्डा पर उतरते ही श्रीलंका सरकार की आवभगत ने दिल जीत लिया। रास्ते भर में आइफा समारोह के भव्य बैनर लगे थे। गुरुवार को आइफा में आयोजित कार्यक्रमों की जानकारी देने के लिए हुए कार्यक्रम में नील मुकेश, रितेश देशमुख, बोमन ईरानी, शर्मन जोशी, दिया मिर्जा, जैकलीन फर्नांडिस आदि ने हिस्सा लिया। इस मौके पर श्रीलंका के आर्थिक विकास विभाग के उप मंत्री लक्ष्मण यापा अबेयवर्धन विशेष रूप से उपस्थित थे।
शनिवार को होने वाले माइक्रोमैक्स आइफा पुरस्कार समारोह में ऋतिक रोशन, सलमान खान, बिपाशा बसु,दीपिका पादुकोण, सैफ अली, करीना कपूर, रितेश देशमुख, विवेक ओबेरॉय, जैकलीन फर्नांडिस आदि कलाकार हिस्सा लेने वाले हैं। शो को होस्ट करने वाले हैं रितेश देशमुख और बोमन ईरानी। बच्चन परिवार की कमी इस बार पूरे माहौल में महसूस हो रही थी। बिना रावण के लंका का यह समारोह कुछ अजीब सा लग रहा था। मुख्य समारोह के अलावा आइफा फैशन शो,आइफा ग्लोबल बिजनेस फोरम, फिल्म वर्कशॉप और फैशन एक्स्ट्रावेगांजा का आयोजन भी किया गया है।
दत्त और बिपासा बसु के अभिनय से सजी फिल्म "लम्हा"को पहली बार आइफा में दिखाया गया। राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता और फिल्म निर्माता-निर्देशक राहुल ढोलकिया ने फिल्म में संजय दत्त और बिपासा बसु द्वारा निभाई गई जो़ड़ी को दिखाया। फिल्म कश्मीर मुद्दे की पृष्ठभूमि पर बनी है। फिल्म में संजय दत्त और बिपासा के अलावा अनुपम खेर और कुणाल कपूर की भी प्रमुख भूमिका है। संजय दत्त ने कहा कि फिल्म संचार चैनलों की समस्याओं को हल करने की आवश्यकता के बारे में बात करती है। अलगावादी नेता की भूमिका के बारे में बिपाशा ने कहा कि कश्मीरी ल़ड़की स्वतंत्रता चाहती है। वह फिल्म में ३१वर्षीय ठेठ कश्मीर की कली नहीं है। बल्कि वह क्या चाहती है,इसके लिए वह ल़ड़ सकती है(नई दुनिया,दिल्ली,4 जून,2010)।
फरार एक्टर रघुवीर यादव कल रतलाम में देखे गए
यह खुलासा पूíणमा यादव ने गुरुवार रात रेलवे स्टेशन पर दैनिक भास्कर से चर्चा में किया। राजधानी एक्सप्रेस 2952 के कोच बी-2 की बर्थ नंबर 36 पर सवार दिल्ली से मुंबई जाते समय ट्रेन के रतलाम रुकने पर उन्होंने बताया रघुवीर यादव को बांद्रा की पारिवारिक न्यायालय ने भगोड़ा घोषित किया है।
अक्टूबर 2009 से मुंबई से लापता रघुवीर को मुंबई पुलिस तलाशने का नाटक कर रही है और वे दूसरी औरत व बच्चे के साथ देशभर में घूमते फिर रहे हैं जो गैरकानूनी है। श्रीमती यादव ने बताया वे अभी भी इसी ट्रेन के बी-2 कोच में बर्थ नंबर 60 व 61 पर यात्रा कर रहे हैं।
अब तक तो वे बचते रहे लेकिन इस बार वे बचकर निकलने नहीं देंगी। वे चाहती हैं कि मुंबई पहुंचते ही पुलिस को पकड़वाएं। यदि बीच में उन्होंने कहीं भागने की कोशिश की तो वे आरपीएफ और जीआरपी की मदद लेंगी। श्री यादव भाग न सकें इसलिए उनके साथ कुछ सहयोगी सदस्य भी ट्रेन में मौजूद हैं।
पूर्णिमा यादव के अनुसार उन्होंने दिल्ली में राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष गिरिजा व्यास से मुलाकात की थीं। उन्होंने मदद के लिए आश्वस्त किया है। श्रीमती यादव के अनुसार वे और उनका 20 वर्षीय बेटा अचल अपने भरण-पोषण के लिए दर-दर भटक रहे हैं।
उन्होंने पारिवारिक न्यायालय में भरण पोषण के लिए केस लगाया था जिसके चलते ही न्यायालय ने श्री रघुवीर के खिलाफ समन जारी किया था। पुलिस ने अब तक जो कार्रवाई की उससे श्रीमती यादव कतई खुश नहीं हैं।
मामला एक नजर में
पूर्णिमा यादव लगान, अर्थ जैसी फिल्मों और मुंगेरीलाल के हंसीन सपने और देख भाई देख जैसे धारावाहिक में हास्य अभिनेता का किरदार निभाने वाले रघुवीर यादव की पहली पत्नी हैं। पूर्णिमा का रघुवीर से विवाह 1988 में हुआ था। ये दोनों मन-मुटाव के बाद 1990 से अलग रह रहे हैं।
श्रीमती यादव ने भरण पोषण के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया। उन्होंने श्री यादव से 20 हजार रुपए प्रतिमाह दिलाने की मांग की है। 19 सितंबर को बांद्रा की पारिवारिक न्यायालय से रघुवीर यादव के खिलाफ समन जारी हुआ था(दैनिक भास्कर,4 जून,2010 में रतलाम से नीरज शुक्ल की रिपोर्ट)।
Thursday, June 3, 2010
हिमाचल बॉलीवुड में एंट्री को तैयार
फिल्म में फिलफोट फोरम से जुड़े कलाकारों ने काम किया है। फिल्म की डीवीडी का विमोचन फिलफोट फोरम अभिनय कार्यक्रम में किया जाएगा। फिल्म के निर्माता रमेश वर्मा व ज्ञान वर्मा बंधुओं ने किया जबकि इसका निर्देशन बालाजी फिल्म में सह निदेशक रह चुके मनीष गिरीश नंदा ने किया। फिल्म में प्रिंट मॉडललिंग के मॉडल विजय कश्यप और रमनदीप कौर मुख्य भूमिका में है।
इसके अलावा गेयटी थियेटर से जुड़े मनुज, सोलन के सुशील मेहता सहित हन्नी वर्मा व सुनीता शर्मा सहकलाकार की भूमिका में हैं।
विजय कश्यप इससे पहले एडिडाज, रिलायंस, एयरटेल, फैशन मेनिया, निट व गॉड ऑफ टैरोरिस्ट के प्रिंट मॉडल की भूमिका के तौर पर काम कर चुके हैं। फिल्म हिमाचली परिवेश पर आधारित है जो पूरी तरह पारिवारिक है जिसमें कॉमेडी के अलावा युवा पीढ़ी को बुरी आदतों से बचने का भी संदेश है।
सोलन में फिल्मांकन
सोलन प्राइवेट लिमिटेड फिल्म के ज्यादातर सीन सोलन की वादियों में फिल्माए गए हैं। करीब डेढ़ घंटे की फिल्म के सीन धारो की धार स्थित किला, गिरिपुल, सोलन, ब्रुरी, चायल इत्यादि फिलमाए गए हैं(दैनिक भास्कर,शिमला,3 जून,2010)।
नीतू चंद्रा का देसवा
भोजपुरी फिल्मों में कुछ नया करने के जोश के साथ नीतू चंद्रा ने देसवा की कहानी लिखी है। वही इसका निर्देशन भी कर रही हैं। नितिन मानते हैं कि भोजपुरी फिल्में अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक अस्मिता को कायदे से पर्दे पर नहीं ला पा रही हैं । ज्यादातर भोजपुरी फिल्में एक जैसे विषय और नाच-गाने तक सिमटी रहती हैं जबकि पूरा भोजपुरी भाषी प्रदेश बदल रहा है।
नई समस्याएं पैदा हो रही हैं तो युवकों के मन में नए इरादे पनप रहे हैं। बिहार के तीन प्रतिनिधि युवकों को लेकर उन्होंने देसवा की कहानी बुनी है । नीतू ने बताया कि वे खुद भी इस फिल्म में दिखेंगी लेकिन अपने उन्होंने अपने रोल के बारे में कुछ भी नहीं बताया(नई दुनिया,दिल्ली,1 जून,2010)।
Wednesday, June 2, 2010
नहीं रहीं उजरा बट
राजकपूर ने हमेशा ख़ुद को पिता से कमतर माना
Tuesday, June 1, 2010
बसंत स्टूडियो के वे दिन....
चालीस के दशक के शुरू में मुंबई में तीन नई फिल्म कंपनियों की शुरूआत हुई। ये तीन कंपनियां थीं- राजकमल कलामंदिर, फिल्मिस्तान स्टूडियो और बसंत पिक्चर्स। बसंत पिक्चर्स की स्थापना स्टंट, फंतासी और धार्मिक फिल्मों के मशहूर प्रोड्यूसर-डायरेक्टर होमी वाडिया ने अपने बडे भाई जे. बी. एच. वाडिया की कंपनी वाडिया मूवीटोन से अलग होकर 1942 में की थी। होमी इससे पहले वाडिया मूवीटोन के बैनर पर फीयरलेस नाडिया को लेकर 'हंटरवाली', 'मिस तूफान मेल', 'लुटारू ललना', 'पंजाब मेल', 'डायमंड क्वीन' और 'जंगल प्रिंसेस' जैसी कई हिट फिल्में बना चुके थे। जे. बी. एच. के बेटे विंसी वाडिया के मुताबिक फिल्मी दुनिया में राम-लक्ष्मण की जोडी के नाम से मशहूर दोनों वाडिया भाइयों के बीच मतभेद की शुरूआत तब हुई, जब जे. बी. एच. का रूझान सामाजिक फिल्मों की तरफ होने लगा, जबकि होमी चाहते थे कि वाडिया मूवीटोन सिर्फ स्टंट, फैंटेसी और पौराणिक फिल्में बनाए, जिनके लिए यह बैनर मशहूर रहा। लेकिन जे. बी. एच. वाडिया इसके लिए तैयार नहीं थे। नतीजन दोनों भाइयों के बीच मतभेद इस हद तक बढ गए कि होमी ने फीयरलेस नाडिया को साथ लेकर खुद को वाडिया मूवीटोन से अलग कर लिया। इसके बावजूद बसंत पिक्चर्स के बैनर की पहली फिल्म 'मौज'(1942) सामाजिक फिल्म थी। बाबूभाई मिस्त्री के निर्देशन में बनी इस फिल्म में पहाडी सान्याल, कौशल्या और नाडिया लीड रोल में थे। लेकिन अभी तक परदे पर हैरतअंगेज स्टंट करने वाली नायिका नाडिया का इस फिल्म में सती-सावित्री बनकर आंसू बहाना दर्शकों को रास नहीं आया और यह फिल्म बुरी तरह पिट गई। विंसी बताते हैं, 'फिल्म 'मौज' की नाकामी के बाद होमी पूरी तरह से अपने मूड की फिल्में बनाने में उतर पडे। चालीस के दशक में उन्होंने बसंत पिक्चर्स के बैनर पर नाडिया को लेकर 'हंटरवाली की बेटी', 'शेरे बगदाद', 'फ्लाइंग प्रिंस', 'स्टंट क्वीन', 'टाइग्रेस', 'माया महल', 'कॉमेट' और 'सर्कसवाली' जैसी कई हिट फिल्में बनाई। 1948 में उन्होंने धार्मिक फिल्म 'श्री रामभक्त हनुमान' का निर्माण किया, जिसे दर्शकों ने बहुत पसंद किया।
वर्ष 1950 में होमी ने मुंबई के उपनगर चैंबूर में बसंत स्टूडियो और बसंत सिनेमाघर की स्थापना की। इसके बाद अगले तीन दशकों में बसंत पिक्चर्स के बैनर पर 'अलादीन और जादुई चिराग', 'हनुमान पाताल विजय', 'नवदुर्गा', 'अलीबाबा चालीस चोर', 'वीर राजपूतानी', 'दिलेर डाकू', 'पवनपुत्र हनुमान', 'माया बाजार', 'सर्कस क्वीन', 'जबक', 'संपूर्ण रामायण', 'खिलाडी', 'हातिमताई', 'तूफान और बिजली' और 'महासती सावित्री' जैसी कई स्टंट, फैंटेसी और पौराणिक फिल्में बनीं और इनमें से ज्यादातर हिट साबित हुई। मीना कुमारी (श्री गणेश महिमा /1950), शम्मी कपूर (गुल सनोवर /1953), फिरोज खान (रिपोर्टर राजू /1962), संजीव कुमार (निशान /1965) और सचिन (श्रीकृष्ण लीला / 1970) जैसे सितारों ने बसंत पिक्चर्स की फिल्मों से ही कॅरियर की शुरूआत की थी। इसी बैनर ने महीपाल, बी. एम. व्यास, अनिता गुहा जैसे अदाकारों और बाबूभाई मिस्त्री, नानाभाई भट्ट और अस्पी ईरानी जैसे डायरेक्टरों को शोहरत दिलाई थी। 1961 में होमी ने नाडिया से शादी कर ली। शादी के बाद नाडिया 1968 में फिल्म 'खिलाडी' में एक बार फिर परदे पर नजर आई और इसके बाद उन्होंने एक्टिंग से संन्यास ले लिया। यह वो दौर था, जब सिने तकनीक में जबरदस्त बदलाव आ रहे थे। ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मेें आउट ऑफ फोकस चुकी थीं। नई सोच के साथ फिल्मकारों की एक नई पीढी मैदान में उतर चुकी थी। फैंटेसी, स्टंट और धार्मिक फिल्मों में दर्शकों की दिलचस्पी खत्म होने लगी थी। ऎसे में होमी वाडिया ने 1980 में फिल्म 'महाबली हनुमान' के बाद बसंत स्टूडियो को बेचकर हमेशा के लिए फिल्मी दुनिया से किनारा कर लिया। 1996 में नाडिया रूखसत हुई और 2004 में औलाद की अधूरी आस लेकर होमी वाडिया भी दुनिया को अलविदा कह गए। तीन गुजराती और एक मराठी समेत कुल 63 फिल्मों का निर्माण करने वाले बसंत पिक्चर्स के स्टूडियो की जमीन पर अब रिहायशी और व्यापारिक इमारतें उग आई हैं, लेकिन उसके एक कोने पर खड़ा बसंत सिनेमाहॉल आज भी गुजरे जमाने की याद दिलाता है(शिशिरकृष्ण शर्मा,राजस्थान पत्रिका,22 मई,2010)
नदिया के पार और गोविंद मूनीस
उत्तरप्रदेश में उन्नाव जिले के पासाखेडा में 2 जनवरी 1929 में जन्मे गोविंदनारायण दुबे लिखने-पढने के संस्कार लेकर पले-बढे। बाद में 'मूनीस' उपनाम अपनाया और अपना साहित्यिक सफर शुरू किया। 1952 में वे कोलकाता पहुंचे, जहां सिने कला के धनी ऋत्विक घटक ने उन्हें अपना सहायक बना लिया। घटक उन दिनों बांग्ला में अपनी पहली फिल्म 'बेदिनी' बना रहे थे, जो अधूरी रह गई। फिर ऋत्विक'दा ने 'नागरिक' शुरू की, जो 1954 में पूरी तो हुई, पर 23 साल बाद रिलीज हो पाई। ऋत्विक घटक से फिल्मी गुर लेकर मूनीस अगले साल मुंबई चले आए और बंगाल के ही एक और काबिल फिल्मकार सत्येन बोस के असिस्टेंट बन गए। बाद में वे सत्येन'दा की फिल्मों की पटकथा और संवाद लिखने लगे और उनकी लगभग हर फिल्म से जुडे रहे। 'जागृति'(1954), 'बंदिश'(1955), 'चलती का नाम गाडी' (1958) और 'मासूम'(1960) मूनीस की शुरूआती फिल्में हैं।
सत्येन बोस की क्लासिक फिल्म 'दोस्ती'(1964) से गोविंद मूनीस बतौर लेखक बुलंदी पर पहंुचे। एक नेत्रहीन और एक अपाहिज की अनूठी दोस्ती पर आधारित, बिलकुल नए कलाकारों को लेकर बनी राजश्री प्रोडक्शन की इस इमोशनल फिल्म, इसके संवाद तथा गीत-संगीत को याद करके लोग आज भी भावविभोर हो जाते हैं। बांग्ला फिल्म 'लालू भुलु' की इस हिंदी रीमेक के असरदार संवादों के लिए गोविंद मूनीस को बेस्ट डायलॉग राइटर के फिल्मफेअर अवार्ड से सम्मानित किया था। 'दोस्ती' के बाद मूनीस ने सत्येन बोस निर्देशित 'आसरा', 'मेरे लाल', 'रात और दिन', 'जीवन मृत्यु' और 'उपहार' जैसी फिल्मों को अपने दमदार लेखन से सजाया। जीवन मूल्य, नैतिक मर्यादा, सामाजिक सरोकार, सांस्कृतिक विरासत, पारिवारिक परंपराएं और परिवेश उनके लेखन की विशेषता रही।
मूनीस को भोजपुरी भाषा, साहित्य और संस्कृति अपनी जन्मभूमि से विरासत में मिली थी। संयोग से स्वतंत्र निर्देशन का पहला मौका भी उन्हें अपनी मातृभाषा की फिल्म में ही मिला। 1966 में बनी यह फिल्म थी-'मितवा'। इसमें परदे पर अमिता और शेखर तथा परदे के पीछे शैलेंद्र और सी. रामचंद्र की जोडी थी। लेकिन तब तक भोजपुरी सिनेमा का पहला दौर बीत चुका था। राजश्री की भोजपुरी रंगों में रची-बसी 'नदिया के पार' (1982) का लेखन-निर्देशन करके गोविंद मूनीस देशभर में छा गए। मूनीस ने इसके बाद राजश्री की 'बाबुल', बी. पी. शाहाबादी की 'ससुराल', शिवानी की रचना पर 'बंधन बाहों का' और 'साजन का दर्द' जैसी पारिवारिक फिल्मों का लेखन/निर्देशन किया, पर 'दोस्ती' और 'नदिया के पार' जैसी शोहरत और कामयाबी दोहरा नहीं पाए। मूनीस ने इस दौरान छोटे परदे पर धारावाहिक 'डॉन' के अलावा'रिश्ते', 'गुब्बारे' और 'बेस्टसेलर्स' जैसे शो के चुनिंदा एपीसोड भी डायरेक्ट किए। भोजपुरी में बनी 'गंगा जइसन पावन पिरीतिया हमार'(2004) बतौर निर्देशक उनकी आखिरी फिल्म थी। अपने पडोस में रहने वाली माधुरी दीक्षित को मूनीस ने ही राजश्री कैंप में इंट्रोड्यूस किया था।
बहुत कम लोग जानते हैं कि गोविंद मूनीस गीतकार भी थे। सत्येन बोस की 'ज्योत जले'(1968), 'आंसू बन गए फूल'(1969) और 'तुम्हारे बिना'(1981) सरीखी गिनी-चुनी फिल्मों में उन्होंने अपनी काव्य प्रतिभा का इस्तेमाल किया था। 'आंसू बन गए फूल' का पॉपुलर गाना 'जाने कैसा है मेरा दीवाना, कभी अपना सा लगे कभी बेगाना' उन्हीं की कलम से निकला था। मूनीस ने ही राजश्री बैनर की 40 फिल्मों के 80 लोकप्रिय, सरस गानों को लेकर 1986 में 'रिमझिम गीतों की' टाइटल से फुल लेंथ संकलन पेश किया था। फिल्मों में लेखक-निर्देशक तो आएंगे-जाएंगे, पर 'दोस्ती' जैसा मजबूत राइटर और 'नदिया के पार' जैसा गहरा डायरेक्टर फिर कहां पाएंगे!
(एम. डी. सोनी,राजस्थान पत्रिका,29 मई,2010)
ताकि क़ायम रहे "गर्म हवा"
मौजूदा दौर में 'गर्म हवा' की प्रासंगिकता के बारे में सुभाष कहते हैं, 'एम. एस. सथ्यू की फिल्म 'गर्म हवा' आज भी हमारे लिए, हमारे समाज के लिए बहुत प्रासंगिक है, क्योंकि यह फिल्म पार्टीशन पर आधारित है। जब हम अपना घर बदलते हैं, तो हमारा हाल कितना बुरा होता है। जरा सोचिए कि जिन्हें देश बदलना पडा होगा, उनके दिल पर क्या गुजरी होगी। दुख की बात है कि उस वाकए से हमने कोई सबक नहीं लिया और आज राज्यों के नाम पर हम बंटवारे करते जा रहे हैं।'
बंटवारे की त्रासदी को फिल्मकारों और लेखकों ने काफी भुनाया है। इस पर कई फिल्में बनी, पर आज भी एम. एस. सथ्यू की 'गर्म हवा' इस सब्जेक्ट पर बेजोड और मील का पत्थर मानी जाती है। सुभाष इस फिल्म को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक बार फिर चर्चा का विषय बनाना चाहते हैं। यही वजह है कि फिल्म को रीस्टोर करके इसकी डीवीडी के साथ सत्येन बोर्डोले लिखित एक किताब और एक स्पेशल डीवीडी भी दी जाएगी, जिसमें 'गर्म हवा' के बारे में श्याम बेनेगल, गौतम घोष, जावेद अख्तर, शौकत आजमी जैसी कई हस्तियों के विचार होंगे।
फिल्म के रीस्टोरेशन के बारे में बताते हुए सुभाष कहते हैं, 'इस फिल्म को बने 30 साल से भी अधिक हो गए हैं, उसके काफी प्रिंट्स खराब हो गए हैं। हमने उन सब प्रिंट्स को बिना नुकसान पहुंचाए रीस्टोर किया। ऎसा हमारे देश में पहली बार किया गया है। 30 साल बाद भी इस फिल्म को लेकर निर्देशक एम. एस. सथ्यू और उनकी बीवी, फिल्म की राइटर और कॉस्ट्यूम डिजाइनर शमा जैदी का पैशन आज भी बरकरार है।' इस्मत चुगताई के अप्रकाशित उपन्यास 'गर्म हवा' पर 1973 में इसी नाम से बनी फिल्म को 1974 में न सिर्फ राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित गया, बल्कि इस फिल्म ने कॉन फेस्टिवल और ऑस्कर अवार्ड सेरेमनी में अपनी खास जगह और 1975 में तीन फिल्मफेअर पुरस्कार जीतकर लोगों के दिलों में गहरी पैठ बनाई थी। गौरतलब है कि सीबीएसई के 12वीं के कोर्स में पॉलिटिकल साइंस सब्जेक्ट में 'गर्म हवा' एक पाठ के रूप में शामिल है। सुभाष के मुताबिक, 'फिलहाल इमेज रीस्टोरेशन हो चुका है और साउंड रीस्टोरेशन का काम अमरीका में चल रहा है, जो इसी महीने के आखिर तक खत्म हो जाएगा।' अपने पैशन को अपनी जिम्मेदारी मानने वाले सुभाष 1983 में फिल्म सोसायटी मूवमेंट, 1991 में फिल्म्स डिवीजन के शॉर्ट फिल्म समारोह और 1995 में चिल्ड्रन फिल्म फेस्टिवल से भी जुड रहे। सुभाष का टार्गेट है कि वे अच्छी फिल्मों को उनके दर्शकों तक ले जाएं। यही वजह है कि थोडे-थोडे अंतराल से वे जिला और तहसील स्तर पर स्कूल और कॉलेज में फिल्म फेस्टिवल मनाते रहते हैं। अपने पैशन को ऊंची उडान देने के लिए ही उन्होंने सात साल पहले मुंबई में रूद्रा होम वीडियो पार्लर खोला और इसके जरिए उन्होंने कुछ फिल्मों के कॉपीराइट्स भी हासिल किए हैं, जिनमें राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता पहली फिल्म 'श्यामची आई'(मराठी) भी शामिल है(राजस्थान पत्रिका,29 मई,2010)।