प्रकाश झा का चर्चा में रहना नई बात नहीं है। अपनी पहली फीचर फिल्म हिप-हिप हुर् और उसके बाद दामुल के बाद एक प्रतिभाशाली फिल्म निर्देशक के तौर पर उभर झा को चौंकाने में मजा आता है। यह चौंकाना ही चर्चा का विषय बन जाता है। प्रकाश झा शुरू से राजनीतिक विषयों पर फिल्में बनाते आ रहे हैं और इस बार भी उन्होंने वही किया। लेकिन इसमें भी चौंकाने वाले तत्व मौजूद हैं। दरअसल प्रकाश के पूर जीवन और कैरियर को देखें तो लगेगा कि वह समाज में राजनीतिक और सामाजिक तौर पर संवेदनशील व्यक्ति की भूमिका की तलाश कर रहे हैं।
प्रकाश जे जे स्कूल ऑफ आट्र्स में चित्रकला का प्रशिक्षण लेने मुंबई की ओर चले थे। लेकिन उन्होंने ठिकाना ढूंढ़ा फिल्म निर्देशन और निर्माण में। शुरुआत में कुछ साल उन्होंने डॉक्यूमेंटरी बनाई। यह उनकी सामाजिक और राजनीतिक चेतना का सबूत है। दरअसल प्रकाश खुद भी एक राजनीतिक परिवार से हैं। उनकी मां राजनीति में सक्रिय थीं लेकिन उन्हें बहुत ज्यादा सफलता नहीं मिली। देखा जाए तो राजनीतिक विषयों पर फिल्में बनाना और फिर बाद में खुद राजनीति में सक्रिय होना इसी असफलता को पूरा करने की एक अवचेतन कोशिश है। प्रख्यात मास-मीडिया विशेषज्ञ मार्शल मैकलुहान ने कहा था कि मीडियम इज मैसेज। यानी संदेश से ज्यादा अहम है माध्यम। लेकिन प्रकाश अपने माध्यम (फिल्म) के साथ-साथ खुद को भी अहम बना लेते हैं।
अपनी फिल्मों से ज्यादा फोकस में वह रहते हैं। बिहार में अपनी राजनीतिक पृष्ठभूमि होने के बावजूद वह राजनीति को नए सिर से समझने की कोशिश करते हैं। दो बार चुनाव लड़ते हैं। राष्ट्रीय जनता दल के प्रमुख लालू यादव और उनके साले साधु यादव का मखौल उड़ाते हुए फिल्म बनाते हैं और फिर रामविलास पासवान के नेतृत्व वाली लोक जनशक्ति पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ते हुए भरी सभा में लालू के पांव छूते हैं। वह कभी कांग्रेस के करीब आने की कोशिश करते हैं। नीतीश के साथी बनते हैं। रामविलास पासवान की राह पकड़ते हैं और फि र लालू से समझौता करते हैं। वह एनजीओ बनाते हैं। खुद को सामाजिक उद्यमिता से जोड़ते हैं।
पटना में मॉल खड़ा करने के लिए सरकार से सस्ती दर पर जमीन लेते हैं। चैनल खोलते हैं। क्या यह एक साथ जनसंपर्क,उद्यमिता और राजनीति को साथ लेकर चलने वाले मल्टी टास्किंग के प्रचलित प्रबंधन सिद्धांत का उदाहरण कहा जाएगा? आज की भागदौड़ भरी कारोबारी जिंदगी में मल्टी टास्किंग एक बड़े सिद्धांत के तौर पर उभरा है लेकिन धीर-धीर इसकी कमियां उजागर होने लगी हैं। मल्टी टास्किंग के आलोचक कहते हैं यह आपको कहीं नहीं ले जाता। बड़े प्रबंधन गुरुओं का जोर कंसोलिडेशन पर है। कारोबार में यह सिद्धांत बार-बार दोहराया जाता है। एक कारोबारी के तौर पर और एक सजग सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता के तौर पर भी प्रकाश झा अपनी मंजिल हासिल करने की कोशिश में है। लेकिन उनकी रणनीति में कंसोलिडेशन का अभाव है। प्रकाश की निजी और पेशेवर दोनों जिंदगियों का सबक यही है कि किसी भी पेशेवर व्यक्ति के लिए पकड़ना, छोड़ना और फिर पकड़ना उसकी संपूर्ण सफलता में रोड़ा बन जाता है(Editirial,Business Bhaskar,5.6.2010)।
प्रकाश जे जे स्कूल ऑफ आट्र्स में चित्रकला का प्रशिक्षण लेने मुंबई की ओर चले थे। लेकिन उन्होंने ठिकाना ढूंढ़ा फिल्म निर्देशन और निर्माण में। शुरुआत में कुछ साल उन्होंने डॉक्यूमेंटरी बनाई। यह उनकी सामाजिक और राजनीतिक चेतना का सबूत है। दरअसल प्रकाश खुद भी एक राजनीतिक परिवार से हैं। उनकी मां राजनीति में सक्रिय थीं लेकिन उन्हें बहुत ज्यादा सफलता नहीं मिली। देखा जाए तो राजनीतिक विषयों पर फिल्में बनाना और फिर बाद में खुद राजनीति में सक्रिय होना इसी असफलता को पूरा करने की एक अवचेतन कोशिश है। प्रख्यात मास-मीडिया विशेषज्ञ मार्शल मैकलुहान ने कहा था कि मीडियम इज मैसेज। यानी संदेश से ज्यादा अहम है माध्यम। लेकिन प्रकाश अपने माध्यम (फिल्म) के साथ-साथ खुद को भी अहम बना लेते हैं।
अपनी फिल्मों से ज्यादा फोकस में वह रहते हैं। बिहार में अपनी राजनीतिक पृष्ठभूमि होने के बावजूद वह राजनीति को नए सिर से समझने की कोशिश करते हैं। दो बार चुनाव लड़ते हैं। राष्ट्रीय जनता दल के प्रमुख लालू यादव और उनके साले साधु यादव का मखौल उड़ाते हुए फिल्म बनाते हैं और फिर रामविलास पासवान के नेतृत्व वाली लोक जनशक्ति पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ते हुए भरी सभा में लालू के पांव छूते हैं। वह कभी कांग्रेस के करीब आने की कोशिश करते हैं। नीतीश के साथी बनते हैं। रामविलास पासवान की राह पकड़ते हैं और फि र लालू से समझौता करते हैं। वह एनजीओ बनाते हैं। खुद को सामाजिक उद्यमिता से जोड़ते हैं।
पटना में मॉल खड़ा करने के लिए सरकार से सस्ती दर पर जमीन लेते हैं। चैनल खोलते हैं। क्या यह एक साथ जनसंपर्क,उद्यमिता और राजनीति को साथ लेकर चलने वाले मल्टी टास्किंग के प्रचलित प्रबंधन सिद्धांत का उदाहरण कहा जाएगा? आज की भागदौड़ भरी कारोबारी जिंदगी में मल्टी टास्किंग एक बड़े सिद्धांत के तौर पर उभरा है लेकिन धीर-धीर इसकी कमियां उजागर होने लगी हैं। मल्टी टास्किंग के आलोचक कहते हैं यह आपको कहीं नहीं ले जाता। बड़े प्रबंधन गुरुओं का जोर कंसोलिडेशन पर है। कारोबार में यह सिद्धांत बार-बार दोहराया जाता है। एक कारोबारी के तौर पर और एक सजग सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता के तौर पर भी प्रकाश झा अपनी मंजिल हासिल करने की कोशिश में है। लेकिन उनकी रणनीति में कंसोलिडेशन का अभाव है। प्रकाश की निजी और पेशेवर दोनों जिंदगियों का सबक यही है कि किसी भी पेशेवर व्यक्ति के लिए पकड़ना, छोड़ना और फिर पकड़ना उसकी संपूर्ण सफलता में रोड़ा बन जाता है(Editirial,Business Bhaskar,5.6.2010)।
प्रकाश झा की मल्टी टास्किंग जानना दिलचस्प रहा.
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