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Tuesday, June 1, 2010

नदिया के पार और गोविंद मूनीस

राजश्री की जज्बाती 'दोस्ती' ज्यादातर लोगों की फेवरिट फिल्म रही होगी। लेकिन इसकी चुस्त स्क्रिप्ट और दमदार डायलॉग के राइटर का नाम कितने लोग बता पाएंगेक् इसी बैनर की एक और यादगार 'नदिया के पार' आज भी ऑडियंस को लुभाती है, पर कितने दर्शकों को इस सुपर हिट फिल्म के डायरेक्टर का नाम याद होगा? इन फिल्मों में अपने लेखन और निर्देशन का कमाल दिखाने वाले फनकार का नाम है- गोविंद मूनीस, जो अब सिर्फ यादों में सिमटकर रह गए हैं। पांच मई को मूनीस जीवन के पार चले गए।
चढते सूरज को सलाम करने वाली फिल्मी दुनिया में मूनीस की विदाई पर कोई हलचल नहीं हुई। किसी कामयाब फिल्म में मामूली रोल करने वाले कलाकार अखबारों में पहले पेज पर मुकाम पा जाते हैं और परदे के पीछे काम करने वाली हस्तियां अक्सर पीछे रह जाती हैं। कभी-कभी तो निधन की खबर तक नहीं छपती। गुणी लेखक-निर्देशक गोविंद मूनीस भी खामोशी से गुजर गए।
उत्तरप्रदेश में उन्नाव जिले के पासाखेडा में 2 जनवरी 1929 में जन्मे गोविंदनारायण दुबे लिखने-पढने के संस्कार लेकर पले-बढे। बाद में 'मूनीस' उपनाम अपनाया और अपना साहित्यिक सफर शुरू किया। 1952 में वे कोलकाता पहुंचे, जहां सिने कला के धनी ऋत्विक घटक ने उन्हें अपना सहायक बना लिया। घटक उन दिनों बांग्ला में अपनी पहली फिल्म 'बेदिनी' बना रहे थे, जो अधूरी रह गई। फिर ऋत्विक'दा ने 'नागरिक' शुरू की, जो 1954 में पूरी तो हुई, पर 23 साल बाद रिलीज हो पाई। ऋत्विक घटक से फिल्मी गुर लेकर मूनीस अगले साल मुंबई चले आए और बंगाल के ही एक और काबिल फिल्मकार सत्येन बोस के असिस्टेंट बन गए। बाद में वे सत्येन'दा की फिल्मों की पटकथा और संवाद लिखने लगे और उनकी लगभग हर फिल्म से जुडे रहे। 'जागृति'(1954), 'बंदिश'(1955), 'चलती का नाम गाडी' (1958) और 'मासूम'(1960) मूनीस की शुरूआती फिल्में हैं।
सत्येन बोस की क्लासिक फिल्म 'दोस्ती'(1964) से गोविंद मूनीस बतौर लेखक बुलंदी पर पहंुचे। एक नेत्रहीन और एक अपाहिज की अनूठी दोस्ती पर आधारित, बिलकुल नए कलाकारों को लेकर बनी राजश्री प्रोडक्शन की इस इमोशनल फिल्म, इसके संवाद तथा गीत-संगीत को याद करके लोग आज भी भावविभोर हो जाते हैं। बांग्ला फिल्म 'लालू भुलु' की इस हिंदी रीमेक के असरदार संवादों के लिए गोविंद मूनीस को बेस्ट डायलॉग राइटर के फिल्मफेअर अवार्ड से सम्मानित किया था। 'दोस्ती' के बाद मूनीस ने सत्येन बोस निर्देशित 'आसरा', 'मेरे लाल', 'रात और दिन', 'जीवन मृत्यु' और 'उपहार' जैसी फिल्मों को अपने दमदार लेखन से सजाया। जीवन मूल्य, नैतिक मर्यादा, सामाजिक सरोकार, सांस्कृतिक विरासत, पारिवारिक परंपराएं और परिवेश उनके लेखन की विशेषता रही।
मूनीस को भोजपुरी भाषा, साहित्य और संस्कृति अपनी जन्मभूमि से विरासत में मिली थी। संयोग से स्वतंत्र निर्देशन का पहला मौका भी उन्हें अपनी मातृभाषा की फिल्म में ही मिला। 1966 में बनी यह फिल्म थी-'मितवा'। इसमें परदे पर अमिता और शेखर तथा परदे के पीछे शैलेंद्र और सी. रामचंद्र की जोडी थी। लेकिन तब तक भोजपुरी सिनेमा का पहला दौर बीत चुका था। राजश्री की भोजपुरी रंगों में रची-बसी 'नदिया के पार' (1982) का लेखन-निर्देशन करके गोविंद मूनीस देशभर में छा गए। मूनीस ने इसके बाद राजश्री की 'बाबुल', बी. पी. शाहाबादी की 'ससुराल', शिवानी की रचना पर 'बंधन बाहों का' और 'साजन का दर्द' जैसी पारिवारिक फिल्मों का लेखन/निर्देशन किया, पर 'दोस्ती' और 'नदिया के पार' जैसी शोहरत और कामयाबी दोहरा नहीं पाए। मूनीस ने इस दौरान छोटे परदे पर धारावाहिक 'डॉन' के अलावा'रिश्ते', 'गुब्बारे' और 'बेस्टसेलर्स' जैसे शो के चुनिंदा एपीसोड भी डायरेक्ट किए। भोजपुरी में बनी 'गंगा जइसन पावन पिरीतिया हमार'(2004) बतौर निर्देशक उनकी आखिरी फिल्म थी। अपने पडोस में रहने वाली माधुरी दीक्षित को मूनीस ने ही राजश्री कैंप में इंट्रोड्यूस किया था।
बहुत कम लोग जानते हैं कि गोविंद मूनीस गीतकार भी थे। सत्येन बोस की 'ज्योत जले'(1968), 'आंसू बन गए फूल'(1969) और 'तुम्हारे बिना'(1981) सरीखी गिनी-चुनी फिल्मों में उन्होंने अपनी काव्य प्रतिभा का इस्तेमाल किया था। 'आंसू बन गए फूल' का पॉपुलर गाना 'जाने कैसा है मेरा दीवाना, कभी अपना सा लगे कभी बेगाना' उन्हीं की कलम से निकला था। मूनीस ने ही राजश्री बैनर की 40 फिल्मों के 80 लोकप्रिय, सरस गानों को लेकर 1986 में 'रिमझिम गीतों की' टाइटल से फुल लेंथ संकलन पेश किया था। फिल्मों में लेखक-निर्देशक तो आएंगे-जाएंगे, पर 'दोस्ती' जैसा मजबूत राइटर और 'नदिया के पार' जैसा गहरा डायरेक्टर फिर कहां पाएंगे!
(एम. डी. सोनी,राजस्थान पत्रिका,29 मई,2010)

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