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Saturday, June 19, 2010

सीता की नियतिःउमा पाठक

बरसों पहले जब हम छोटे थे, तब पुरानी दिल्ली के एक सिनेमा हॉल में 'राम-राज्य' नामक फिल्म देखने गए थे। पूरी फिल्म तो अब याद नहीं है, पर बच्चों की वह जोड़ी याद है जो गा- गाकर रामकथा सुना रही थी, 'भारत की एक सन्नारी की हम कथा सुनाते हैं...।' जब राम दरबार में खड़े लव-कुश से भावुक होकर पूछते हैं, क्या यही राम दरबार, कहां वैदेही, कहां वैदेही, कहां वैदेही?.... तब उनकी निरंतर ऊपर उठती आवाज की मार्मिकता से विचलित होकर आसपास के लोग सुबकने लगे।
हम उस दर्द से अनजान, चकराए से इधर-उधर देखते रह गए। पर क्या हॉल से निकलने के बाद किसी के मन में सीता के साथ हुए अन्याय के बारे में कोई प्रश्न उठा होगा?

मुश्किल ही है। क्योंकि आस्तिक परिवारों में अपने भगवान के प्रति जो अटूट आस्था होती है, उसके कारण संशय के लिए कोई जगह नहीं बचती। भक्त अपने इष्ट को आदर्श मानता है, भला उनसे कोई चूक कैसे हो सकती है?

हिंदू धर्म के सभी अवतारों में राम का चरित्र सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुआ। बाल्मीकि ने उन्हें एक महामानव के रूप में चित्रित किया है, पर वे इस प्रसंग का वर्णन नहीं करते। पर उत्तरकांड में (जिसे बाद में जोड़ा गया माना जाता है) राम सीता की पवित्रता पर संदेह करते हैं और कहते हैं कि वे दसों दिशाओं में जहां चाहें जा सकती हैं। उन्होंने उनको केवल अपने नाम के लिए छुड़ाया है। सीता के अग्नि परीक्षा देने पर वे उन्हें साथ ले जाते हैं। उत्तरकांड के संकलन कर्ताओं ने इस कहानी को बरकरार रखा है। बौद्ध जातक अनामकं जातकम् का 251 ई. के बाद चीनी अनुवाद हुआ। उसमें सीता के त्याग की कथा नहीं है। पर अयोध्या लौटने पर राम, सीता से अपने परिवार में लौट जाने को कहते हैं। रानी शपथ लेकर अपनी निर्दोषिता सिद्ध करती हैं और तब राम के वामांग में सुशोभित होती हैं। रविखेण ने पद्म चरित में सीता को वापस ले लेने के दुष्परिणाम स्वरूप समाज को मर्यादा रहित होता दिखाया।

विमल सूरि के पउम चरियं में सीता परित्याग का विस्तृत वर्णन मिलता है। लेखक ने बताया है कि राम गर्भवती सीता को चैत्यालय दिखलाने के लिए ले गए थे। वहां कुछ नागरिकों ने आकर राम से सीता के अपवाद की बात कही। राम ने लक्ष्मण से परामर्श किया। लक्ष्मण, सीता त्याग के विरुद्ध थे, पर राम के मन में संदेह था जिसके कारण उन्होंने अपने सेनापति से सीता को मंदिर दिखाने के बहाने गंगा पार छोड़ आने को कहा।

रामकथा के अधिकांश लेखक बाल्मीकि रामायण के ही आधार पर लिखते रहे। कुछ ने सीता परित्याग को बिल्कुल नहीं छुआ तो कुछ ने अलग - अलग कारण दिए। लोकगीतों और लोककथाओं में इन कारणों के अलावा श्रापों और वरदान को भी इस प्रसंग का कारण माना है , इस प्रकार राम के कृत्य के पीछे उनका नहीं दूसरे कारकों का हाथ बताया है। इस प्रकार राम को दोषमुक्त करने के रास्ते निकाल लिए गए हैं।

सीता पूरे रामकथा के केंद्र में हैं। बाल्मीकि और तुलसीदास ने समान रूप से सीता के रूप सौंदर्य का चित्रण किया है। तुलसी की सीता में अलौकिकता है , उनके चरित्र का सबसे ज्यादा चर्चित और विवादास्पद अंश है परित्याग से उपजा अपवाद और निर्वासन के बाद की उनकी मन : स्थिति। सभी रामकथाओं में उन्हें आदर्श पतिव्रता नारी के रूप में चित्रित किया गया है , पर बार - बार परीक्षा ली गई है। सबसे श्रद्धा और स्तुति मिली है पर पति ने चरित्र पर सवाल उठाकर लांछित किया है। कारण सिर्फ यह है कि जब भी कोई सीता लक्ष्मण रेखा लांघेगी तो उसका अपहरण होगा और उसे पुरुष का दुर्व्यवहार सहना पड़ेगा। उससे यह उम्मीद की जाती है कि पुरुष ने उसे जो देवीपद दिया है वह उसे स्वीकार कर मुंह बंद रखकर शांति से बैठे , फैसलों के लिए पिता , भाई , पति और पुत्र हैं , उसे कुछ कहने या करने की जरूरत नहीं है , जब जब वह गलती करेगी तब तब उसे ऋषि पत्नी अहल्या की तरह पति के श्राप से शिला बनना पड़ेगा।

राम ने पर पत्नी ( अहल्या ) के प्रति संवेदनशील होकर उन्हें अपने पैर के स्पर्श भर से पुन : जीवन दे दिया , पर अपनी पत्नी पर भरोसा नहीं कर पाए। लंका में अग्नि परीक्षा लेने के बाद अयोध्या में लोकापवाद सुनकर सहधर्मिणी को गर्भावस्था में निर्वासित कर दिया। इसके पीछे राम की कोई अपनी मनोवैज्ञानिक ग्रंथि रही होगी या राजसत्ता के लिए लोगों को खुश रखने की इच्छा ? सीता को दी गई सजा युगों से पुरुष वर्चस्व का उदाहरण बनकर जीवित है। सीता की अभिशप्त नियति आज भी स्त्री की नियति है।

रामकथाओं में सीता के सौंदर्य का चित्रण मिलता है। विवाह के बाद वे राम की अनुगामिनी के रूप में दिखाई गई हैं , जो हर समय उन्हीं के पदचिह्नों का अनुसरण करती हैं , यहां तक कि रास्ता तो दूर , कदम भी हटकर नहीं रखतीं। यही सीता सबको प्रिय और आदर्श लगीं। वाल्मीकि ने लंका में सीता को बहुत दुखी दिखाया , जो रावण के आने पर हवा में हिलते केले के पत्ते के समान कांपती थीं। तुलसी ने उस सीता में थोड़े प्राण डालते हुए उसे रावण को धिक्कारने और अधम कहने की शक्ति दी।

किंतु वास्तव में सीता का चरित्र राम की छत्रछाया से दूर जाने के बाद ही जीवंत हुआ है। सदा परजीवी के रूप में जीनेवाली पत्नी , मां के रूप में आत्मनिर्भर और विवेकपूर्ण दिखती हैं , जो रोने - कलपने की जगह चारित्रिक दृढ़ता का परिचय देती हैं। इस तेजोमय चरित्र के सामने राम संदेहों से घिरे , नियति के आगे बेबस व्यक्ति के रूप में दिखते हैं। धोबी तक की बात को महत्व देनेवाले राम वही लोकतांत्रिक अधिकार अपनी पत्नी को क्यों नहीं देते ? सीता निर्वासन के बाद राम के चरित्र का औदात्य फीका पड़ जाता है , तभी तो उनके परम भक्त बाल्मीकि और तुलसी भी इस प्रसंग को छिपाकर रखते हैं।

दूसरी ओर सीता राजमहल की सुख - सुविधाओं से दूर रहकर भी अपने पुत्रों को तन - मन की वह शक्ति दे पाती हैं कि वे अपने पिता के अश्वमेध यज्ञ हेतु छोड़ गए घोडे़ को रोकने का साहस करते हैं , राम की सेना का सामना करने को तैयार दिखते हैं। तिरस्कृत पत्नी को राजदरबार में बुलाया जाता है , सीता गर्विणी मां के रूप में पहुंचती हैं। पर इस बार परीक्षा देने की जगह धरती मां को पुकारती हैंं और अंतत : उन्हीं में समाकर समस्त लांछना से मुक्त हो जाती हैं। पीछे रह जाते हैं ठगे से , रोते बिलखते राम जो उनके रहते हुए उनकी मर्यादा की रक्षा नहीं कर पाए थे। राजसी ठाठबाट रहित अकेली मां माता - पिता दोनों के दायित्वों को भलीभांति निभाती है। आज के युग में एकल मां के दायित्व को निभानेवाली युवती को सबकी वाहवाही मिलती है , पर उस युग में उसने सब कर्त्तव्य चुपचाप पूरे किए(नभाटा,दिल्ली,19.6.2010)।

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