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Saturday, January 16, 2010

हॉरर फिल्म, क्षेत्रीय सिनेमा और मुंबइया फिल्में


अनेक भाषाओं की पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र ही रही है। नेपाल में पहली फिल्म 1951 में ‘सत्य हरिश्चंद्र’ बनी थी और1966में माला सिन्हा अभिनीत ‘मायतीघर’ बनी थी। आजकल तुलसी घिमिरे, ‘इंडियन आइडल’ के विजेता प्रशांत तमांग, ‘बिग बॉस’ के विजेता राहुल रॉय और कुछ लोग लगभग तीस फिल्में प्रतिवर्ष बनाते हैं। क्षेत्रीय सिनेमा की बात करें तो दक्षिण की चार भाषाओं में कुल जमा ६क्क् फिल्में प्रतिवर्ष बनती हैं।
भोजपुरी में प्रतिवर्ष बनने वाली फिल्मों की संख्या लगभग सौ है। दरअसल दक्षिण का फिल्म उद्योग मुंबई उद्योग से बड़ा है और उससे चार गुना अधिक फिल्में बनाता है। आजकल केरल में कम बजट की फिल्में डीवीडी पर घर-घर देखी जाती हैं। अत: कॉटेज फिल्म उद्योग भी कुछ क्षेत्रों में अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहा है। अमेरिका में भी ‘पैरानॉर्मल एक्टिविटी’ नामक हॉरर फिल्म एक गैर-सिनेमाई युवा ने अपने ही फ्लैट में मात्र १५ हजार डॉलर में बनाई, जिसने रिकॉर्ड आय अजिर्त की है। एक जमाने में कोल्हापुर, सोलापुर जैसे अनेक छोटे शहरों में शादी में प्रयुक्त कैमरे से नौसिखियों ने फिल्में बनाई हैं, जिनमें ‘मालेगांव की शोले’ फिल्म की चर्चा भी हुई।
दरअसल अनेक दर्शक फिल्म बनाना चाहते हैं और ज्ञान की कमी के साथ साधनों का अभाव उन्हें रोकता है। यही बात क्रिकेट के बारे में भी सच है। सड़क-सड़क, गली-गली, गांव-गांव सचिन तेंडुलकर स्वप्न से लोग पीड़ित हैं। क्रिकेट और सिनेमा के कीड़े समान रूप से सारे भारत में फैले हुए हैं। अगर सरकारों ने स्कूल से ही फिल्म आस्वाद को पाठ्यक्रम में शामिल किया होता तो सतही जानकारी से ही सही, युवा वर्ग माध्यम को समझता। इस तरह वह स्वयं को आधे कच्चे आधे पके प्रयासों से बचा लेता। संभव है कि कुछ लोग इस माध्यम के गहन अध्ययन की ओर प्रवृत्त होते।
बहरहाल, अनेक क्षेत्रीय फिल्मों की कहानी मुंबई के व्यावसायिक सिनेमा से प्रेरित होती है। एक जमाने में कोलकाता में मौलिक फिल्में बनती थीं, परंतु विगत दशकों में वहां मुंबइया मसाले से माछेर झोल बनाया जा रहा है। यह उम्मीद की जाती थी कि क्षेत्रीय भाषाओं में बनी फिल्मों में उस जगह की लोक कलाओं के माध्यम से मौलिक कथाएं सामने आएंगी या क्षेत्र के साहित्य पर सिनेमा आधारित होगा। मुंबइया मसाला फिल्मों के समुद्र में बहुत कचरा है, परंतु क्षेत्रीय भाषाओं में बनी फिल्मों की नदियां भी प्रदूषित हैं। मसाला सिनेमा की पहुंच बहुत व्यापक है और हमारी सोच पर भी उसका असर बहुत गहरा है। भारत के तमाम छोटे शहरों और कस्बों से जो कहानियां मुंबई भेजी जाती हैं या जिनका प्रयास होता है, उनमें से अधिकांश मसाला मुंबईया फिल्मों के प्रभाव में रची गई हैं, गोयाकि तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा।
सारी व्यवस्थाएं हमेशा से स्वतंत्र सोच को निरुत्साहित करती रही हैं, क्योंकि उनके सारे स्वार्थ रेजीमेंटेशन की स्थिति में ही सुरक्षित रहते हैं। व्यक्तियों को भीड़ में बदलने से ही उन्हें एक लाठी से हांक सकते हैं। शायद यही मूल जड़ है उस विचारहीनता की, जो हमें मौलिक रचने ही नहीं देती।
(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,दिल्ली,16.1.10)

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