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Friday, January 1, 2010

Bolo Ram:Reviews; बोलो रामःफिल्म समीक्षा

बोलो रामः नसीर और ओम का दम, बाकी बेदम
नई फिल्म : बोलो राम
कलाकार : नसीरुद्दीन शाह , ओम पुरी , पद्मिनी कोल्हापुरी , ऋषि भूटानी
निर्माता : गोल्डी भूटानी
निर्देशक : राकेश चतुर्वेदी ' ओम '
संगीत : सचिन गुप्ता
सेंसर सर्टिफिकेट : यू / ए
अवधि : 115 मिनट
हमारी रेटिंग : **1/2

कहानी : राम कौशिक ( ऋषि भूटानी ) फिल्म के पहले सीन में अपनी मां अर्चना कौशिक ( पद्मिनी कोल्हापुरी ) की लाश के पास खून से सने हाथों में खंजर लिए बुत बना बैठा है। इसके बाद शुरू होती है राम से सच उगलवाने की तमाम कोशिशें , जिसमें सबइंस्पेक्टर खान ( गोविंद नामदेव ) से लेकर इंस्पेक्टर राठी ( ओम पुरी ) और मनोरोग विशेषज्ञ डॉक्टर नेगी ( नसीरुद्दीन शाह ) शामिल हैं। लेकिन राम से सच उगलवाना तो दूर कोई उसकी जुबां तक भी खुलवा पाता। खान को शक ही नहीं बल्कि सौ फीसदी यकीन है कि गुस्सैल राम ने अपनी मां का बड़ी बेरहमी से कत्ल किया है , लेकिन पुलिस के पास ऐसा कोई सबूत या गवाह नहीं जो राम को कोर्ट में कातिल साबित करने में मददगार साबित हो पाए। वहीं इंस्पेक्टर को उस वजह की तलाश है जिसके चलते राम ने अपनी मां का कत्ल किया। अपनी पड़ताल के दौरान राठी उस कॉलेज में पहुंचता है जहां अर्चना पढ़ाती थी। राम भी उसी कॉलेज में पढ़ता था। कॉलेज में कोई इस बात को मानने को तैयार नहीं कि अपनी मां पर जान छिड़कने वाला राम उसकी जान भी ले सकता है।

स्क्रिप्ट : इस स्क्रिप्ट में भले ही नया कहने को कुछ ना हो लेकिन मां - बेटे के बीच की बेहतरीन केमिस्ट्री और फ्लैश बैक के सहारे चलते घटनाक्रम पर डायरेक्टर की अच्छी पकड़ के चलते उलझी स्क्रिप्ट भी दर्शकों को कुछ हद तक बांधे रखने में कामयाब है।

डायरेक्शन : अगर डायरेक्टर बार - बार हीरो राम द्वारा घर की छत पर चढ़ संस्कृत में श्लोक बोलने की बजाएं मां - बेटे के रिश्तों पर ध्यान केंद्रित करते तो बेहतर रहता। वहीं , जब निर्माता का सगा भाई फिल्म का हीरो है तो उसे ज्यादा फुटेज देने के लिए कई दूसरे पात्रों को उभरने न देना फिल्म का कमजोर पक्ष है।

ऐक्टिंग : ओम पुरी और गोविंद नामदेव का दमदार अभिनय , लंबे अर्से बाद पद्मिनी कोल्हापुरी की मां के रोल में दमदार वापसी से ऐसा लगता है बॉलिवुड को एक खूबसूरत मां मिल गई है। पहली बार कैमरा फेस कर रहे ऋषि भूटानी ऐक्शन में तो जमे , लेकिन बाकी दृश्यों में उनका चेहरा सपाट भाव शून्य रहा।

म्यूजिक : गाने का फिल्मांकन अच्छा बन पड़ा है। सुनिधि चौहान का गाया तेरे इश्क में और सुखविंदर सिंह की आवाज में मां तेरा इश्क कर्णप्रिय है। दिल दिल है जलवा गाना फिल्म में जबरन ठूंसा लगता है।

क्यों देखें : ओम पुरी और नसीरुद्दीन शाह के बीच की केमिस्ट्री। बरसों बाद पद्मिनी कोल्हापुरी की वापसी ।

(चंद्र मोहन शर्मा,नभाटा,दिल्ली)





(नई दुनिया,दिल्ली,02.01.2010)
Film: Bolo Ram
Cast: Padmini Kolhapure, Rishi Bhutani, Om Puri
Genre: Thriller
Direction: Rakesh Chaturvedi
Duration: 1 hour 50 minutes

Critic's Rating: **

Story: Ramboesque Ram loves his mother, Padmini Kolhapure and is content living happily ever after with her. But one night, he's found lying beside her stabbed body, knife in hand. Did Ram kill his mother? He's not telling....

Movie Review: First things first. What's Naseeruddin Shah doing in Bolo Ram. He has such a dispensable role as a two-scene psychiatrist, it's almost a shame. Then again, what's Om Puri doing in Bolo Ram? He has such a poorly-etched routine cop act, he could almost sleepwalk through it. Also, doesn't Padmini Kolhapure deserve a better comeback film than one which relegates her to the status of a corpse after a one-dimensional screaming mom act? After all, she was one of our better actors in her heydey.
The trouble with Bolo Ram is it boasts of a great cast, then botches it up by focusing too much on a wooden Rishi Bhutani who can barely bring to life the character of the enigmatic, unpredictable son who might have killed his mother in a fit of rage. Ram (Rishi) is essentially supposed to be an overgrown babe who lives on the fringes of sane society. It would take very little for him to cross the fine line, but the actor fails to bring out this edgy feel. After a point, you simply get tired with his singular mournful look and lose all interest in what is supposed to be the million dollar query: did he do it or not?
Also, what's the jihadi angle doing in this film. It springs up from nowhere and completely convolutes the film with the subversive use of religious symbolism. Doesn't work.
(टाइम्स ऑफ इंडिया,दिल्ली,01.01.2010)

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