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Saturday, January 16, 2010

फिल्मों में नए दौर की आहट

ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों से लेकर रंगीन सिनेमा और फिर अत्याधुनिक तकनीक के साथ वर्तमान सिनेमा ने एक लंबा सफर तय किया है। सिनेमा बदल रहा है, शायद सिर्फ इतना कहना ही काफी नहीं होगा। कहना चाहिए कि सिनेमा यथार्थ की तरह बदल रहा है, जिंदगी की तरह बदल रहा है। रील लाइफ और रीयल लाइफ का फर्क खत्म होता जा रहा है। दोनों की दूरियां मिट रही हैं। हम जो जिंदगी जीते हैं, वही पर्दे पर देखते भी हैं।

पहले सिनेमा एक किस्म के आदर्श को लेकर चलता था, जहां रिश्तों की तय परिभाषाएं और सीमाएं थीं। प्रेम करने वाली स्त्री को शरमाना ही होता था, जय और वीरू के बीच एक आदर्श दोस्ती ही होती थी। सब सुंदर और सकारात्मक था। इंसानी बुराइयों को दिखाने के लिए एक खलनायक डाल दिया जाता, लेकिन नायक तो अच्छा ही होता था। लेकिन ये जिंदगी का सच नहीं है। आज नायक और खलनायक एक ही व्यक्ति के भीतर है। वह बहुत अच्छा भी है और बुरा भी, सुंदर भी है और असुंदर भी। मनुष्य ऐसा ही है, अपनी समस्त अच्छाइयों और बुराइयों, बेहतरियों और कमजोरियों के साथ एक मिला-जुला इंसान और यही इंसान आज पर्दे पर भी नजर आता है। अब पर्दे पर ज्यादातर वैसे ही चरित्र दिखते हैं, जैसे असल जिंदगी में।

पर्दे पर दिखने वाले रिश्तों का चरित्र भी बदला है। पहले सिनेमा में पति-पत्नी या किसी स्त्री-पुरुष के बीच एक आदर्श किस्म का रिश्ता होता था। कोई दिक्कत भी प्राय: बाहरी ही होती थी। वो व्यक्तियों के व्यक्तित्व और उनके आंतरिक गठन की समस्या नहीं थी। लेकिन क्या असल जिंदगी में ऐसा होता है? कोई भी रिश्ता बहुत परफेक्ट नहीं होता। फिल्मों में पुराने आदर्श रिश्तों की जगह एक नए रिश्ते ने ली है, जो परफेक्ट नहीं है। उसमें उदात्तता भी है और कमजोरियां भी। वो कभी अच्छा है, कभी बुरा। वहां सबकुछ बहुत अच्छा और परेशानियों से मुक्त नहीं है। फिल्में समाज का आईना हैं। यह बदलाव दर्शाता है कि असल जिंदगी में भी हम जटिल यथार्थ को समझने और स्वीकार करने लगे हैं कि जिंदगी और रिश्ते कोई सीधी लकीर नहीं हैं। उनमें जाने कितने आड़े-तिरछे मोड़ और गड्ढे हैं।

सिनेमा में आए बदलाव को समझने का एक और महत्वपूर्ण मानक है, फिल्मों में स्त्री की बदलती छवि। नए सिनेमा की स्त्री पुरानी आदर्श पतिव्रता स्त्री नहीं है, जिसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य अच्छी मां, अच्छी पत्नी और अच्छी बहू होना होता था। वह समर्पित नारी थी, जिसके अपने कोई सपने नहीं थे, कोई महत्वाकांक्षा नहीं थी। बल्कि जिस स्त्री की अपनी कोई महत्वाकांक्षा होती थी या जो दुनिया के नियमों को मानने के बजाय जिंदगी अपनी शर्तो पर जीना चाहती थी, वह फिल्म में एक बुरी स्त्री होती थी, जिसे फिल्म के अंत में एक आदर्श नारी न होने की सजा भी मिलती थी।

लेकिन आज ऐसा नहीं है। आज फिल्म में दिखाई जाने वाली स्त्री ऐसी कठपुतली नहीं है, जिसकी डोर पति, परिवार या समाज के अदृश्य नियमों के हाथों में बंधी हुई है। वह एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर स्त्री है, जिसके अपने सपने हैं। वह अपना जीवन अपने हिसाब से जीती है। उसकी पहचान सिर्फ रिश्ते नहीं हैं, उसकी अपनी एक पहचान है। वह घर से बाहर निकलती है, काम करती है, अपने घर में अपने तरीके से जीती है। वह एक संपूर्ण मनुष्य है। सिर्फ इतना ही नहीं, एक बड़ा क्रांतिकारी बदलाव यह आया है कि वह स्त्री प्रेम भी करती है।

वह खुलकर अपने प्रेम को स्वीकार करती है। वह हाथ पर हाथ धरे सिर्फ पुरुष के प्रेम निवेदन की प्रतीक्षा नहीं करती, बल्कि आगे बढ़कर पहल भी कर सकती है। वह अपनी भावनाओं, अपने मन और देह की जरूरतों को ज्यादा खुलेपन के साथ स्वीकार करती है। उसे ये कहने में शर्म या संकोच नहीं है कि वह भी प्रेम के दैहिक रूप को उतना ही चाहती है, जितना कि एक पुरुष। पहले की स्त्रियों को ऐसे दिखाया जाता था कि मानो उनके लिए पुरुष की खुशी ही सबकुछ है। उनकी अपनी कोई इच्छा या जरूरत नहीं है। यह कहना थोड़ा ज्यादा तीखा लग सकता है, लेकिन वो छवि कुछ और नहीं, एक किस्म का नकलीपन ही था। प्रेम और सेक्स के मामले में पूरे समाज में एक फरेब फैला हुआ है। लेकिन नए सिनेमा ने उस फरेब और रूढ़ियों को काफी हद तक तोड़ा है। आज कोई औरत पर्दे पर यह कहे कि मैं तुम्हारे पैरों की धूल हूं और तुम्हारे चरणों की दासी तो कोई इस डायलॉग पर भावुक नहीं होगा।

लोगों को इस बेवकूफी पर हंसी आएगी। स्त्री भी जानती है कि वह किसी के चरणों की दासी नहीं है। समाज में भी ये रूढ़ियां टूटी हैं। सिनेमा हॉल में बैठे दर्शक ऐसी फिल्में देख रहे हैं और उसे पसंद कर रहे हैं। सिनेमा ने नई स्त्री की छवि गढ़ी है और समाज ने उसे स्वीकार भी किया है। हमारा समाज जिंदगी की प्रेम और सेक्स से जुड़ी हर स्वाभाविक चीज को शर्म, ग्लानि और अपराध-बोध के साथ जोड़ देता है। उनकी भावनाओं को नियंत्रित करने का यह समाज का अपना तरीका है। वह हमें प्रेम को स्वीकारना नहीं, उस पर शर्म करना सिखाता है। लेकिन फिल्में अब इस रूढ़ि को तोड़ रही हैं। ये बताती हैं कि प्रेम को व्यक्त करने में कोई बुराई नहीं है। यह इच्छा उतनी ही स्वाभाविक है, जैसे कि हमारा सांस लेना।

यह एक ज्यादा स्वस्थ और लोकतांत्रिक सिनेमा है। लेकिन इस सिनेमा की भी अपनी कुछ सीमाएं हैं। मुंबई में काफी खुलापन आया है, जिंदगी तेजी से बदल रही है। लेकिन मुंबई ही पूरा देश नहीं है। हम अलग तरह की फिल्में बना रहे हैं, लेकिन यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारी फिल्मों का दर्शक वही है, जो पॉपकॉर्न-पेप्सी खरीद सकता है और मल्टीप्लेक्स में जा सकता है। यह वर्ग हमारी कुल जनसंख्या का एक छोटा हिस्सा ही है। लेकिन एक बड़ा वर्ग, जो ये नहीं कर सकता, वह हमारा दर्शक नहीं है और न ही हमारी फिल्में उसके बारे में कोई बात करती हैं। लोकतांत्रिक प्रेम और रिश्तों का सवाल उनकी जिंदगी का सवाल नहीं है। हम खुद भी अपनी मध्यवर्गीय दुनिया के भीतर ही कैद होते हैं। जब गोलियां चलने, ट्रेन रोके जाने या लोगों के मरने की खबर अखबारों की सुर्खियां बनती हैं, तभी हमें समझ में आता है कि इस धरती पर वे भी अस्तित्व रखते हैं, जिनका हमारे मध्यवर्गीय सुख-संसार से कोई वास्ता नहीं है। ये बहुत दुखद है और ये बदलना चाहिए।

पर उम्मीद फिर भी बनी रहनी चाहिए। स्थितियां बदल रही हैं, बदलेंगी। रॉकेट सिंह, वेक अप सिड, रंग दे बसंती और स्वदेश जैसी फिल्में बनें, यह आज के समय में ही संभव हो पाया है। यह फिल्में काफी हद तक जिंदगी पर असर डाल रही हैं। ऐसा लगता नहीं कि फिल्म का मकसद कोई पाठ पढ़ाना है, लेकिन वह पढ़ा रही हैं। भीतर कहीं वह हमारी समझ और संवेदनाओं को बदल रही हैं और इस बदलाव का स्वागत किया जाना चाहिए।
(जाने-माने फिल्म निर्देशक इम्तियाज अली के साथ मनीषा पांडेय की बातचीत पर आधारित,दैनिक भास्कर,दिल्ली,16.1.10 में प्रकाशित आलेख)

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