बालीवुड फिल्मों में अपनी गायकी का लोहा मनवाने वाले पाकिस्तानी गायक अदनान सामी पर प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की गाज गिर गई है। ईडी ने सामी के आठ फ्लैट और कार पार्किंग के लिए नियत पांच स्थानों को अपने कब्जे में ले लिया है। इसके अलावा निदेशालय ने एक बहुमंजिला इमारत में भारतीय रिजर्व बैंक की अनुमति लिए बिना इन फ्लैटों की खरीद के लिए सामी पर 20 लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया है। निदेशालय के सूत्रों ने बताया कि उपनगरीय अंधेरी के आलीशान लोखंडवाला परिसर में ओबेराय स्काई गार्डन हाऊसिंग सोसाइटी में इन आठ फ्लैटों को अदनान ने 2003 में 2.53 करोड़ रुपये में खरीदा था। यह विदेशी विनिमय प्रबंध (भारत में अचल संपत्ति की खरीद और हस्तांतरण) अधिनियम यानी फेमा का सीधा-सीधा उल्लंघन है क्योंकि वह पाकिस्तानी नागरिक हैं। अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार, कोई भी ऐसा व्यक्ति जो पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, अफगानिस्तान, चीन, ईरान, नेपाल या भूटान का नागरिक है। वह रिजर्व बैंक की अनुमति के बिना भारत में अचल संपत्ति की न तो खरीद कर सकता है और न ही उसका किसी अन्य व्यक्ति को हस्तांतरण कर सकता है। ईडी ने फेमा न्यायिक प्राधिकरण के एक आदेश के बाद इन संपत्तियों को अपने कब्जे में ले लिया। अदनान ने 2008 में इनमें से पांच फ्लैट और तीन पार्किंग स्थलों को अपनी पत्नी सबा गलादरी को उपहार में दे दिया था। सबा संयुक्त अरब अमीरात की नागरिक है। गायक की ये सारी हरकतें फेमा के प्रावधानों का सीधा उल्लंघन था। लिहाजा ईडी ने यह कार्रवाई की। सबसे पहले नोटिस जारी कर पूछा कि क्यों न फ्लैट और पार्किंग स्थलों को जब्त कर लिया जाएगा। इस वर्ष के शुरू में उन्हें पूछताछ के लिए भी प्रवर्तन निदेशालय मुख्यालय बुलाया गया था। ईडी का कहना है कि अदनान ने संपत्तियों को खरीदने के लिए रिजर्व बैंक से अनुमति नहीं ली थी। अचल संपत्तियों पर कब्जा लेने के बाद जब अदनान सामी ने अनुमति मांगी तो रिजर्व बैंक ने उनकी अर्जी को ठुकरा दिया। रिजर्व की ओर से कहा गया कि अचल संपत्तियों को खरीदने के लिए लोन हासिल करते वक्त अदनान ने कर्ज देने वाले बैंक से यह कह कर गुमराह किया कि वह भारत का नागरिक है। इसके बाद मामला फेमा न्यायिक प्राधिकरण पहुंचा। प्राधिकरण में सामी ने कहा कि उन्होंने भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन किया है। दस वर्षो से आयकर भी चुका रहे हैं। उनकी मां जम्मू से थीं और भारत में उनकी जड़े हैं। जब्ती कार्रवाई पर उनके वकील विभव कृष्ण ने कहा कि इसके खिलाफ दो दिन में अपील दायर करेंगे(दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,28.12.2010)।
इस ब्लॉग पर केवल ऐसी ख़बरें लेने की कोशिश है जिनकी चर्चा कम हुई है। यह बहुभाषी मंच एक कोशिश है भोजपुरी और मैथिली फ़िल्मों से जुड़ी ख़बरों को भी एक साथ पेश करने की। आप यहां क्रॉसवर्ड भी खेल सकते हैं।
Tuesday, December 28, 2010
Monday, December 27, 2010
कॉपीराइट कानून में संशोधनों के खिलाफ एकजुट हुए निर्माता
दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने वाले देश के सारे फिल्म निर्माता ६ जनवरी को देशव्यापी हड़ताल करने जा रहे हैं। ये हड़ताल केंद्र सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा कॉपी राइट कानून में प्रस्तावित संशोधनों के विरोध में की जा रही है। फिल्म निर्माताओं का कहना है केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल अपने कुछ दोस्तों के बहकावे में आ चुके हैं और फिल्म जगत की वस्तुस्थिति जानने के लिए उनका मंत्रालय कोई कोशिश नहीं कर रहा।
कॉपीराइट कानून में प्रस्तावित संशोधनों के मुताबिक अब लेखकों और गीतकारों को फिल्म की रॉयल्टी में हिस्सा मिलेगा और किसी भी तरह के अनुबंध के द्वारा इस हक़ को खत्म नहीं किया जा सकेगा। फिल्म उद्योग में अभी तक ऐसी शर्त गायिका लता मंगेशकर और संगीतकार ए आर रहमान जैसे लोग ही अपवाद स्वरूप फिल्म साइन करते समय रखते रहे हैं, लेकिन कानून में संशोधन के बाद यह हक हर लेखक और गीतकार को मिल जाएगा। फिल्म निर्माता इसे फिल्म उद्योग के खिलाफ एक बड़ी साजिश बता रहे हैं और उनका कहना है कि लेखक या गीतकार सिर्फ लेखन का काम करता है, उसके बाद तमाम सारे तकनीशियन मिलकर उसे जीवंत करने की कोशिश करते हैं, ऐसे में रायल्टी पर आने वाले दिनों में कपड़े बनाने वालों से लेकर सेट बनाने वाले और सिनेमैटोग्राफर तक सभी रॉयल्टी मांगना शुरू कर देंगे क्योंकि कोई कहानी या गीत लिख देने भर से ही न तो फिल्म बन जाती है और न ही वो गाना परदे पर जीवंत हो सकता है।
इस बीच फिल्म निर्देशकों की संस्था ने भी लेखकों और गीतकारों की देखादेखी रॉयल्टी में हिस्सा मांगने की मुहिम शुरू कर रखी है। दो दिन पहले हिंदी फिल्में और धारावाहिक बनाने वाले निर्देशकों की इस बारे में मुंबई में बैठक भी हुई।
मामला संगीन होते देख फिल्म निर्माताओं की मातृ संस्था फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया ने अब ये मामला अपने हाथ में ले लिया है। उधर, कॉपी राइट कानून में संशोधनों के लिए सबसे ज्यादा कोशिश करते रहे सांसद और गीतकार जावेद अख्तर का उनकी इन कथित फिल्मी उद्योग विरोधी कोशिशों के जलते फिल्म फेडरेशन ने अनिश्चितकालीन बहिष्कार कर दिया है(पंकज शुक्ल,नई दुनिया,दिल्ली,27.12.2010)।
Friday, December 24, 2010
सिनेमा में आशा और करुणाःहर्ष मंदर
सिनेमा की जो चीज मुझे सबसे ज्यादा पसंद है, वह है जीवन का स्वीकार। यही वह चीज है, जो मुझमें दुनियाभर की छवियों और ध्वनियों के लिए आकांक्षा जगाती है। अलग-अलग इतिहास, जुदा-जुदा संस्कृतियां, लेकिन इसके बावजूद ये फिल्में मनुष्य की जिन जीवन स्थितियों का चित्रण करती हैं, वे सभी जगह समान हैं। वे एक अंधेरे समय में भी करुणा और उम्मीद की लौ जगाए रखती हैं।
कभी-कभी मुझसे पूछा जाता है कि सिनेमा की कौन-सी बात मुझे सबसे ज्यादा पसंद है। इस माह जब मैं गोआ के फिल्म समारोह में गया, तो यही सवाल मैंने खुद से पूछा। हर साल मैं सभी काम छोड़कर गोआ चला जाता हूं, ताकि वहां होने वाले अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में दुनिया की बेहतरीन फिल्में देख सकूं। इस साल काम के दबाव और पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते मैं शुरुआत से इस समारोह में शामिल नहीं हो सका। फिर भी मैंने तीन दिन का समय निकाल ही लिया।
समारोह में फिल्में देखते समय मुझे महसूस हुआ कि सिनेमा की जो चीज मुझे सबसे ज्यादा पसंद है, वह है जीवन का स्वीकार। यही वह चीज है, जो मुझमें दुनियाभर की छवियों और ध्वनियों के लिए आकांक्षा जगाती है। अलग-अलग इतिहास, जुदा-जुदा संस्कृतियां, लेकिन इसके बावजूद ये फिल्में मनुष्य की जिन जीवन स्थितियों का चित्रण करती हैं, वे सभी जगह समान हैं। वे एक अंधेरे समय में भी करुणा और उम्मीद की लौ जगाए रखती हैं। गोआ में इस बार अनेक फिल्में इस विषय पर केंद्रित थीं कि मनुष्य की जिंदगी पर संघर्षो का क्या प्रभाव पड़ता है। दुख, संताप और विघटन से त्रस्त वर्तमान समय में यह आश्चर्यजनक भी नहीं है। समारोह में जिस एक फिल्म ने मेरा ध्यान खींचा, वह थी चीनी निर्देशक वांग कुआनान की अपार्ट टुगेदर । एक रिटायर्ड सैनिक ५क् साल बाद अपनी पत्नी से मिलने ताइवान से चीन लौटता है। यहां वह पहली बार अपने बेटे को देखता है। उसकी भेंट अपनी पत्नी के दूसरे पति से भी होती है, जो एक नेक व्यक्ति है। आधी सदी बाद पति-पत्नी की मुलाकात होती है। वे चाहते हैं कि जीवन के अंतिम दिन वे साथ ही गुजारें, क्योंकि उनके देश के विभाजन ने उनके प्यार के बीच भी लकीर खींच दी थी। लेकिन वे यह भी महसूस करते हैं कि समय की धारा को पीछे नहीं लौटाया जा सकता। यह बड़ी आसानी से भारत और पाकिस्तान या पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी की भी कहानी हो सकती है।
श्रीलंकाई फिल्मकार बेनेट रथनायके की फिल्म अंडर द सन एंड द मून हजारों जानें लेने वाले नस्लीय संघर्ष की दास्तान बयां करती है। फिल्म का व्याकरण बहुतेरी दक्षिण एशियाई फिल्मों की शैली के अनुरूप रंगमंचीय और अतिनाटकीय हो गया है, लेकिन फिल्म का कथानक हमें बांधे रखता है। यह श्रीलंकाई सेना के एक आदर्शवादी अधिकारी की कहानी है, जो अपनी मां की इच्छा के विपरीत एक तमिल विद्रोही नेता की बहन से विवाह करता है, जबकि उस विद्रोही नेता के साथियों ने अधिकारी की मां के घर पर धावा बोलते हुए उनके माता-पिता की हत्या कर दी थी। युद्ध में अधिकारी की मृत्यु हो जाती है। सेना का एक जवान यह महसूस करता है कि उसने अधिकारी की जान बचाने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए और अपराधबोध से ग्रस्त होकर अधिकारी की विधवा और उसकी बेटी की तलाश करता है। वह उन्हें सुरक्षित स्थान पर भिजवाने के लिए अपनी जान तक को जोखिम में डाल देता है। फिल्म यह बताती है कि गृह युद्ध आम लोगों के मन में नफरत के बीच बो देता है, लेकिन प्रेम और सौहार्द की भावनाएं फिर भी नहीं मरतीं।
समारोह में फिल्में देखते समय मैंने यह भी अनुभव किया कि कई फिल्मों ने शहरी जीवन के अकेलेपन को अपनी विषयवस्तु बनाया है। मुझे विशेष रूप से हंगारियन फिल्म एड्रेइन पाल ने प्रभावित किया। इस फिल्म की निर्देशक एग्नेस कोसिस हैं। फिल्म एक स्थूलकाय नर्स की बेहलचल जिंदगी पर केंद्रित है, जो मौत की दहलीज पर खड़े मरीजों के वार्ड में 18 वर्षो से काम कर रही है। उसका काम केवल इतना ही है कि इन मरीजों को साफ-स्वच्छ और जीवित रखने की कोशिश करे और उनकी मृत्यु हो जाने पर उनके परिजनों को सूचित करे। नर्स को यह अनुभव होता है कि मरीजों के साथ ही उसके भीतर की भावनाएं भी धीरे-धीरे मरती जा रही हैं। वह हाई कैलोरी स्नैक्स खाते हुए एक यांत्रिक जीवन बिता रही है। फिल्म यह दर्शाती है कि किस तरह यह महिला जीवन के नए आयामों की तलाश करती है। मैक्सिकन फिल्मकार अर्नेस्तो कोंत्रेरास की फिल्म पार्पादोज एजूले दो युवाओं की आमफहम जिंदगी की कहानी है। एक लड़की एक क्लॉथ स्टोर में काम करती है और संयोग से एक पुरस्कार जीत जाती है। उसे एक समुद्र तटीय रिसोर्ट पर छुट्टियां बिताने का अवसर मिलता है। वह अपने साथ एक अन्य व्यक्ति को भी ले जा सकती है। उसकी भेंट एक अपरिचित व्यक्ति से होती है और वह उसे अपने साथ छुट्टियां बिताने के लिए निमंत्रित करती है। यह एक मजेदार फिल्म है, जो हमें यह बताती है कि साधारण लोगों की साधारण जिंदगी में भी प्रेम के अवसर और संभावनाएं हमेशा जीवित रहती हैं। तुर्की के फिल्मकार सलीम दमीरदलन की फिल्म द क्रॉसिंग में भी अकेलापन एक सिंफनी की तरह है। एक व्यक्ति रोज दफ्तर से घर फोन लगाकर बेटी से बात करता है और उससे पूछता है कि आज स्कूल में क्या-क्या हुआ, लेकिन वास्तव में उसकी कोई बेटी नहीं है और उसने अकेलेपन से निजात पाने के लिए अपने इर्द-गिर्द फंतासियों की दुनिया रच ली है। एक महिला अपने शराबी पति से अलगाव के बाद अकेलेपन का जीवन बिता रही है तो एक अन्य व्यक्ति अपनी बीमार बहन को तिल-तिलकर मरते देख रहा है। फिल्म का स्क्रीनप्ले इन तीनों की तनहाइयों को आपस में जोड़ देता है।
समारोह में मेरा परिचय एक बेहतरीन भारतीय फिल्म से भी हुआ। यह फिल्म कौशिक गांगुली की जस्ट अनादर लव स्टोरी है। फिल्म से सुविख्यात निर्देशक ऋतुपर्णो घोष ने अपने अभिनय कॅरियर का आगाज किया है। फिल्म रचनात्मक रूप से कई स्तरों पर काम करती है। हर फिल्म समारोह की तरह गोआ फिल्म समारोह में भी युवावस्था के सवालों पर केंद्रित एक फिल्म थी। चेन कुन-होऊ की ताइवानी फिल्म का शीर्षक ही ग्रोइंग अप है। फिल्म में एक उदारहृदय बुजुर्ग एक बार गर्ल से विवाह करता है और उसके बेटे को स्वीकार कर लेता है। लड़का जिद्दी और विद्रोही प्रवृत्ति का है। जब वह नौजवान हो जाता है, तो नए सिरे से अपनी जिंदगी की शुरुआत करता है।
लेकिन समारोह की सबसे अच्छी फिल्म थी बॉय । यह न्यूजीलैंड की फिल्म है, जिसे टाइका वैटिटी ने निर्देशित किया है। यह ऑस्ट्रेलियाई मूल के एक ऐसे आदिवासी बच्चे की कहानी है, जिसके पिता जेल में बंदी हैं जबकि उसकी मां की मृत्यु हो चुकी है। वह यह कल्पना करने लगता है कि वह बच्चा नहीं, वयस्क अभिभावक है और अपने बच्चों से बहुत प्रेम करता है। लेकिन जब उसके पिता जेल से रिहा होकर आते हैं तो वह पाता है कि यह सच्चाई नहीं है और वह महज कल्पनाओं से खेल रहा था। मैं दिल्ली में बहुत सारे ऐसे बच्चों के साथ काम करता हूं, जिनकी कहानी भी इस फिल्म के बच्चे की कहानी से मिलती-जुलती है, लेकिन वे जिंदगी की तकलीफों का सामना करने को तैयार हैं। इस फिल्म ने मेरे दिल को छू लिया(दैनिक भास्कर,24.12.2010)।
Tuesday, December 21, 2010
पश्चिम के आसमान में बॉलीवुड सितारे
अमेरिका और पश्चिमी देशों में सिने दर्शकों की जो मुख्यधारा है, उसमें मुंबइया फिल्मों या बॉलीवुड के सितारों की कोई खास पहचान नहीं है। यह स्थिति लंबे समय से है, लेकिन नए हालात में जल्दी ही बदल सकती है। अमेरिका में दूसरे देशों से आकर बसे आप्रवासी लोगों के जो समुदाय हैं, उनमें दक्षिण एशियाई लोगों के समुदाय का आकार तेजी से बढ़ रहा है।
इन्हीं आप्रवासियों को ध्यान में रखकर बनाई गई बॉलीवुड फिल्में बड़े पैमाने पर अमेरिकी सिनेमागृहों में दिखाई जाने लगी हैं। अमेरिकी परदे पर ऐसी फिल्मों का एक विस्फोट-सा देखा जा सकता है। यही कारण है कि अब भारतीय फिल्मी सितारे दुनिया के इस हिस्से में अपनी अजनबीयत से उबर रहे हैं और जल्दी ही यहां गुमनाम या अनजाने नहीं रहेंगे।
मेरी बहन एक किस्सा सुनाती हैं। वह चैनल 9 के साथ एक प्रोजेक्ट पर काम कर रही थीं। इसमें फिल्म अभिनेत्री प्रीति जिंटा पर भी फोकस था। जब प्रीति से हॉलीवुड और बॉलीवुड की तुलना करने को कहा गया तब उन्होंने यह घटना टेलीविजन टीम को बताई। प्रीति उस विमान में लंदन से न्यूयॉर्क जा रही थीं। उन्होंने देखा कि फस्र्ट क्लास कैबिन में सुंदर और उभरे हुए होंठों वाली एक अमेरिकी महिला मुड़ी-तुड़ी जींस पहने और गहरा काला चश्मा लगाए बैठी हैं। तभी ऑटोग्राफ लेने वाले यात्रियों की एक भीड़ विमान की इकॉनोमी क्लास से फर्स्ट क्लास की ओर दौड़ी।
यह देखकर अमेरिकी महिला के होठों से निकला, ‘ओह, गॉड!’ लेकिन तभी उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। उस भीड़ ने उनकी बगल से गुजरकर आगे बैठी प्रीति को घेर लिया। भारतीय अभिनेत्री क्षमा मांगने की मुद्रा में उनकी तरफ देखकर मुस्कराईं और अपने दक्षिण एशियाई प्रशंसकों की ऑटोग्राफ बुक पर दस्तखत करने में व्यस्त हो गईं। उभरे हुए होंठों वाली वह खूबसूरत अमेरिकी महिला कोई और नहीं हॉलीवुड की जानी-मानी अभिनेत्री एंजेलिना जोली थीं। हॉलीवुड पर हुकूमत करने वाली उस साम्राज्ञी ने मन ही मन जरूर पूछा होगा कि ‘यह हिंदुस्तानी महारानी आखिर है कौन?’ जाहिर है, पश्चिम में भी बॉलीवुड के सितारों का सूर्योदय हो रहा है।
लेकिन मुंबई की फिल्मी दुनिया में ऐसे सितारे भी हैं जिन्हें अपनी प्रसिद्धि और अपने यश की सीमाओं को लेकर कोई गलतफहमी नहीं है। न ही उन्हें इस बारे में कोई अफसोस है। इनमें संभवत: अमिताभ बच्चन सबसे आगे हैं। न्यूयॉर्क के लिंकन सेंटर में उनकी फिल्मों का एक रेट्रोस्पेक्टिव आयोजित किया गया था, जिसमें भाग लेने वह आए थे। मैंने उनसे पूछा कि क्या वह हॉलीवुड की फिल्में करना पसंद करेंगे? सवाल सुनकर पहले तो वह हंसे, फिर बोले कि हॉलीवुड ने दरअसल उन्हें कभी आकर्षित नहीं किया। ‘हर अभिनेता सबसे पहले अपने घर या अपने स्वदेश के बारे में सोचता है। मैं जहां हूं वहीं बहुत खुश हूं।’ अमिताभ बच्चन वह शख्स हैं जिन्होंने अपने को ‘दुनिया का सबसे महान फिल्म सितारा’ मानने से इनकार कर दिया था। यह तमगा उन्हें 1999 में बीबीसी के ऑनलाइन सर्वे में दिया गया था, जब उन्हें लॉरेंस ओलिवर जैसे महान अभिनेताओं को पीछे छोड़ते हुए स्टार ऑफ द मिलेनियम चुना गया था। बच्चन यह सुनकर नाराज हो जाते हैं कि भारतीय सिनेमा को पश्चिमी दर्शकों की रुचियों के हिसाब से अपने को बदल लेना चाहिए। ‘अगर हमारी फिल्में किसी न किसी रूप में कम भारतीय होती हैं, तो यह बहुत दुखद होगा।’
लेकिन बदलाव तो आ रहे हैं, चाहे वे कितने ही बेतरतीब हों या कितने ही जबरदस्ती किए जा रहे हों। अगर आपको यह देखना हो कि ग्लोबलाइजेशन या भूमंडलीकरण किस तरह बॉलीवुड की फिल्मों को बदल रहा है, तो आपको ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं, हाल ही में बनी फिल्म काइट्स को देखिए। ऋतिक रोशन अभिनीत इस फिल्म का वितरण रिलायंस बिग पिक्चर्स ने किया था। इसके दो संस्करण बनाए गए थे। 130 मिनट लंबा एक हिंदी संस्करण था जिसमें तमाम नाच और गाने थे। इसका एक छोटा और कसा हुआ अंग्रेजी संस्करण भी था, जो सिर्फ 90 मिनट लंबा था। इसका नाम था काइट्स : द रीमिक्स और इसका संपादन किया था हॉलीवुड डायरेक्टर ब्रेट रैटनर ने। रैटनर ने पश्चिमी दर्शकों की रुचियों और संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए इसका संपादन किया था। इस छोटे अंग्रेजी संस्करण में उन्होंने मूल फिल्म के सारे नाच-गाने, उपकथाओं और बेकार के दृश्यों को निकाल दिया था।
काइट्स : द रीमिक्स परीक्षा में पास हुई। मई में इसे अमेरिकी सिनेमागृहों में प्रदर्शित किया गया और उस सप्ताह यह सबसे ज्यादा पैसा कमाने वाली टॉप टेन फिल्मों में शुमार हुई। ऐसा करने वाली यह पहली भारतीय फिल्म थी। प्रमुख अमेरिकी अखबार द न्यूयॉर्क टाइम्स फिल्म की इस कामयाबी से चकरा गया। उसने फिल्म के कसीदे काढ़ते हुए ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जो आम तौर पर वह नहीं करता है। मिसाल के लिए, उसने लिखा कि ऋतिक रोशन ‘स्मोकिंग बॉडी’ के स्वामी हैं। स्मोकिंग बॉडी का फिर चाहे जो अर्थ रहा हो(उत्तरा चौधरी,दैनिक भास्कर,19.12.2010)।
Tuesday, December 14, 2010
सिनेमा के परदे से घर के आंगन तक
नंदिता दास को फायर, हजार चौरासी की मां और अर्थ जैसी फिल्मों में उनके सशक्त और दमदार अभिनय के लिए जाना जाता है। कुछ समय पहले वे सीएफएसआई की अध्यक्ष चुनी गई थीं। उन्होंने प्रशंसित फिल्म फिराक का निर्देशन भी किया। इसके बाद उन्होंने व्यवसायी सुबोध मसकरा से विवाह कर लिया और हाल ही में वे मां बनी हैं। समय-समय पर मेरी नंदिता से मुलाकातें होती रहती हैं। हाल ही में उनसे हुई बातचीत में उन्होंने अपनी गैरपरंपरागत पृष्ठभूमि और फिल्मों के प्रति अपने लगाव के बारे में विस्तार से बताया।
नंदिता बताती हैं कि वे और उनका भाई पिता को कैनवास पर काम करते देख बड़े हुए हैं। उसी दरमियान उन्हें भी अपने रचनात्मक रूझानों का अहसास हुआ। उनके परिवार ने भी उन्हें अपनी राह चुनने की स्वतंत्रता दी। उनके भाई ने ऋषि वैली में पढ़ने का फैसला लिया था और नंदिता भी मां सहित वहां उनके साथ गईं। ऋषि वैली के सुरम्य परिवेश का उनके मन पर गहरा असर पड़ा और उन्होंने तय कर लिया कि वे फिर यहां आएंगी। आखिरकार उनका यह सपना साकार हुआ।
नंदिता ने ऋषि वैली में छह माह बिताए और वे मानती हैं कि यह उनके जीवन का महत्वपूर्ण समय था। हालांकि वे वहां शिक्षिका के रूप में गई थीं, लेकिन उन्होंने स्वयं श्लोक, भजन इत्यादि सीखने में भी काफी रुचि दिखाई। यहीं पर उन्होंने पेड़ों से बात करना, मौन होकर डूबते सूरज को निहारना भी सीखा। दिल्ली लौटने के बाद उन्होंने पाया कि अब औपचारिक शिक्षा में उनकी कोई रुचि नहीं थी। पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद नंदिता एक गैरसरकारी संगठन से जुड़ गईं, जो झुग्गीवासी महिलाओं के साथ काम करता था। यहीं उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि जीवन के विरोधाभास आदर्शो पर हावी हो जाते हैं। तकलीफों की तीखी सच्चई ये है कि हम चाहें कितना ही बुरा क्यों न महसूस करें, जीवन की गति कभी नहीं रुकती है। जीवन आगे बढ़ता रहता है।
सड़क पर होने वाले नुक्कड़ नाटकों में नंदिता की हमेशा से ही दिलचस्पी रही थी, इसलिए यह स्वाभाविक था कि वे रंगमंच की ओर आकृष्ट होतीं। नंदिता कहती हैं कि वे स्वयं को 50 एपिसोड वाले टीवी सीरियलों के लिए फिट नहीं पातीं, इसलिए उन्होंने कई ऑफर्स ठुकरा दिए। आखिर दीपा मेहता ने उन्हें फायर और गोविंद निहलानी ने हजार चौरासी की मां के लिए साइन कर लिया। नंदिता कहती हैं कि महाश्वेता देवी का उपन्यास हजार चौरासी की मां उन्हें बहुत प्रेरित करता था और इसीलिए वे इस फिल्म का हिस्सा होना चाहती थीं, अलबत्ता फिल्म में उनकी भूमिका एकआयामी थी।
नंदिता कहती हैं कि शबाना आजमी और जया बच्चन जैसी कद्दावर अभिनेत्रियों के साथ काम करना बहुत प्रेरणादायी अनुभव था। अर्थ में उन्होंने आमिर खान के साथ काम किया। वे कहती हैं आमिर के व्यक्तित्व में जो गंभीरता है, वही परदे पर उनके द्वारा निभाए जाने वाले पात्रों में झलकती है। आमिर बहुत प्रतिबद्ध अभिनेता हैं।
नंदिता स्वीकारती हैं कि जहां उन्होंने अच्छी फिल्मों में काम किया है, वहीं उन्होंने कुछ खराब कमर्शियल फिल्में भी की हैं। जब वे ऊब गईं तो उन्हें काम से ब्रेक लिया और फिर सीएफएसआई की अध्यक्ष बन गईं। फिर एक फिल्म का निर्देशन किया और पुरस्कार जीते। वे कहती हैं कि वे हमेशा जीवन के बहाव के साथ बहना पसंद करती हैं, फिर वह चाहे फिल्में हों, निर्देशन हो या विवाह। उन्हें मां बनकर संतोष का अनुभव हुआ है। नंदिता बताती हैं कि उन्होंने अपना जीवन अपनी ही शर्तो पर बिताया है और अब घर-गृहस्थी की जिम्मेदारियां निभाकर भी वे काफी खुश हैं(भावना सोमाया,दैनिक भास्कर,12.12.2010)।
Sunday, December 12, 2010
साधारण लोगों के असाधारण नायकःओमपुरी
पिछली शताब्दी के आठवें दशक में हिंदी सिनेमा में कला फिल्मों का एक ऐसा दौर आया था जिसमें देश की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक समस्याओं को काफी गहराई में जाकर पर्दे पर दिखलाने की कोशिश की गई थी। कला फिल्मों ने आकर्षक चेहरे और आकर्षक शरीर वाले नायकों की जगह बिल्कुल आम आदमी की शक्ल-सूरत वाले अभिनेताओं को तरजीह देकर भी एक क्रांतिकारी काम किया था। नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी, कुलभूषण खरबंदा, अनुपम खेर, नाना पाटेकर, शबाना आजमी, स्मिता पाटिल जैसे कलाकार उसी दौर में उभर कर सामने आए थे और अपने वास्तविक अभिनय के बल पर कला फिल्मों की जान बन गए थे। व्यावसायिक फिल्मों के अभिनेताओं जैसा भव्य रूप-सौंदर्य इन्हें भले ही न मिला हो, अभिनय के मामले में ये उन "सुदर्शन-पुरुषों" से बहुत आगे थे। और रूप-सौंदर्य में सबसे निचले पायदान पर खड़े ओमपुरी जैसे अभिनेता ने तो अभिनय के बल पर अपनी अंतर्राष्ट्रीय पहचान तक बना ली थी।
अभाव और संघर्ष में बचपन और जवानी गुजारने वाले ओमपुरी के संघर्षों, सफलताओं, जीवन जीने के तरीकों आदि पर उनकी पत्नी नंदिता सी. पुरी ने अंग्रेजी में एक किताब लिखी है, जिसका हिंदी अनुवाद "असाधारण नायक : ओमपुरी" अब पाठकों के लिए उपलब्ध है। पत्नी होने के बावजूद नंदिता जी ने इस किताब में ओमपुरी की तारीफ में कसीदे नहीं पढ़े हैं बल्कि आश्चर्य की बात है कि नंदिता जी ने इतनी बेबाकी से यह किताब कैसे लिखी? इस किताब में कई ऐसे प्रसंग हैं जिन्हें छुपाया जा सकता था मगर उन्होंने उन सबको उजागर करना ही जरूरी समझा। हालांकि वह ओम पुरी के उस आग्रह को मान लेती जिसके तहत उन्होंने अपने जीवन में आई स्त्रियों का नाम उजागर न करने की बात कही थी तो शायद बेहतर होता।
ओम पुरी ने बचपन से ही बहुत संघर्ष किया। पांच वर्ष की उम्र में ही वे रेल की पटरियों से कोयला बीनकर घर लाया करते थे। सात वर्ष की उम्र में वे चाय की दुकान पर गिलास धोने का काम करने लगे थे। सरकारी स्कूल से पढ़ाई कर कॉलेज पहुंचे। छोटी-मोटी नौकरियां तब भी करते रहे। कॉलेज में ही "यूथ फेस्टिवल" में नाटक में हिस्सा लेने के दौरान उनका परिचय पंजाबी थिएटर के पिता हरपाल तिवाना से हुआ और यहीं से उनको वह रास्ता मिला जो आगे चलकर उन्हें मंजिल तक पहुंचाने वाला था। पंजाब से निकलकर वे दिल्ली आए, एन.एस.डी. में भर्ती हुए। लेकिन अपनी कमजोर अंग्रेजी के कारण वहां से निकलने की सोचने लगे। तब इब्राहिम अल्काजी ने उनकी यह कुंठा दूर की और हिंदी में ही बात करने की सलाह दी। धीरे-धीरे अंग्रेजी भी सीखते रहे। हालांकि बकौल नंदिता पुरी अंग्रेजी फिल्मों में उनके काम करने के बावजूद अंग्रेजी बोलने का उनका पंजाबी ढंग अभी तक गया नहीं है। एन.एस.डी. के बाद "फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया" से एक्टिंग का कोर्स करने के बाद ओम मुंबई आए और धीरे-धीरे फिल्मों में स्थापित हुए। कला फिल्मों से टेलीविजन, व्यावसायिक फिल्मों और हॉलीवुड की फिल्मों तक का सफर तय करके उन्होंने सफलता का स्वाद भी चखा। उनकी इस सफलता के बारे में उनके मित्र अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने ठीक ही लिखा है- "ओमप्रकाश पुरी से ओम पुरी बनने तक की पूरी यात्रा जिसका मैं चश्मदीद गवाह रहा हूं, एक दुबले-पतले चेहरे पर कई दागों वाला युवक जो भूखी आंखों और लोहे के इरादों के साथ एक स्टोव, एक सॉसपैन और कुछ किताबों के साथ एक बरामदे में रहता था, अंतर्राष्ट्रीय स्तर का कलाकार बन गया।"
ओम पुरी की इस जीवनी का नामकरण करने में सुप्रसिद्ध फिल्मकार श्याम बेनेगल की भूमिका रही है। उन्होंने ओम को "असाधारण नायक" कहकर निश्चय ही कोई गलती नहीं की है। लेकिन इस असाधारण नायक की जीवनी पढ़कर लगता है कि वे अब भी साधारण व्यक्ति हैं- पत्नी पर गला फाड़कर चिल्लाने वाले, बच्चे पर जान छिड़कने वाले, खर्च के बाद पैसे का जोड़-घटाव करने वाले, सोते समय भयानक खर्राटे लेने वाले...! नंदिता पुरी ने ओम के बारे में बताने को कुछ भी नहीं छोड़ा है। किशोरावस्था से लेकर विवाह तक उनके जीवन में आने वाली स्त्रियों के बारे में भी उन्होंने बड़े विस्तार में बताया है। बावजूद इन प्रसंगों के पाठकों के मन में ओमपुरी की कोई नकारात्मक छवि नहीं बनती। पुस्तक पाठकों को एक लय में पढ़ने को बाध्य कर सकती है(संजीव ठाकुर,नई दुनिया,दिल्ली,12.12.2010)।
आमिर का भाव उछाल पर, शाहरुख की चमक फीकी
सियासत के बॉक्स ऑफिस पर रणछो़ड़दास श्यामलाल चांच़ड़ की बल्ले-बल्ले है। सिल्वर स्क्रीन के रैंचो के जलवे के आगे किंग खान की चमक फीकी प़ड़ गई है। सियासत के सेंसेक्स पर रैंचो का भाव उछाल मार रहा है और वह राजनीतिक गलियारे के मोस्ट वांटेड बन गए हैं। रैंचो को पहचाना नहीं? जी हां, हम थ्री इडियट्स के रैंचो की ही बात कर रहे हैं यानी फिल्म अभिनेता आमिर खान की।
राजनीतिक गलियारों में इन दिनों फिल्म अभिनेता आमिर खान की अदाकारी और उनके सामाजिक सरोकारों की खूब चर्चा है। तो शाहरुख खान लगभग राजनीतिक परिदृश्य से नदारद दिखाई दे रहे हैं। कुछ समय पहले तक राजनीतिक गलियारों में शाहरुख की खूब पूछ हुआ करती थी। पर अपने सामाजिक सरोकारों और उससे जु़ड़ी फिल्मों जैसे रंग दे बंसती, तारे जमीं पर, थ्री इडियट्स और पीपली लाइव जैसी फिल्में बनाकर आमिर ने अब उनकी जगह ले ली है। कांग्रेस हो या भाजपा, शाहरुख ने भविष्य की संभावनाओं को तलाशते हुए दोनों दलों के साथ बेहतर तालमेल बनाए रखने की कोशिश की थी। कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं के साथ उनके नजदीकी रिश्ते रहे। उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की कविताओं पर बनाए गए वीडियो में भी कुछ कविताएं गाईं। राजनीति के जानकारों के मुताबिक कुछ इसी तर्ज पर आमिर खान भी कांग्रेस और भाजपा में समान तौर पर पैठ बनाने की कोशिश कर रहे हैं। एक राष्ट्रीय पार्टी के प्रमुख नेता का कहना है कि जिस तरह आमिर कांग्रेस और भाजपा दोनों के बीच तालमेल बैठा कर चल रहे हैं इससे वह न केवल अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि पेश कर रहे हैं बल्कि कुछ समय बाद उनके राजनीति में आने की संभावना को भी नहीं नकारा जा सकता। आमिर एक तरफ फिल्म इंड्रस्ट्री में ऐसे सिनेमा के पैरोकार दिखाई देते हैं जिससे समाज को एक संदेश मिल सके और दूसरी तरफ सरकार को अपने स्टारडम की कुछ सेवाएं दे रहे हैं।
आमिर पर्यटन मंत्रालय के अतुल्य भारत विज्ञापन में पर्यटकों के साथ अच्छे सलूक का संदेश देते दिखाई देते हैं तो दूसरी तरफ २००९ के लोकसभा चुनाव के दौरान उन्होंने एक गैर सरकारी संस्था के जरिए साफ-सुथरे उम्मीदवारों को चुनने के अभियान में अपनी खूब सक्रियता दिखाई। कांग्रेस और सरकार के लिए भी आमिर ऐसे अभिनेता बन गए हैं जिन्हें सिर आंखों पर बिठाया जा रहा है। वह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के चहेते बने हुए हैं। यही वजह रही कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के भारत दौरे के समय प्रधानमंत्री ने जिन गण्यमान्य लोगों को रात्रिभोज पर आमंत्रित किया था उनमें आमिर को खास तौर पर बुलाया गया था। प्रधानमंत्री कार्यालय के सूत्रों के मुताबिक,यदि शाहरूख को भी इसमें बुलाया जाता,तो आमिर नहीं आते। इसलिए,आमिर को बुलाना मुनासिब समझा गया। हाल में,आमिर बच्चों में कुपोषण की रोकथाम के लिए एक अभियान में शामिल हुए हैं जिसमें लगभग सभी दलों के युवा सांसद शामिल हैं। इसी सिलसिले में,संसद पहुंचे आमिर को प्रधानमंत्री से मिलने के लिए पांच मिनट का वक्त मिला था पर मुलाकात हुई तो बातों का सिलसिला आधे घंटे तक चल पड़ा। सूत्रों का कहना है कि प्रधानमंत्री की ओर से आमिर खान को खूब समर्थन मिल रहा है। वहीं,मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल और शहरी विकास मंत्रालय ने स्कूलों में स्वच्छता कार्यक्रम के लिए आमिर को ब्रांड एंबेसडर बनाया है। आमिर अच्छे फिल्म निर्माता और अभिनेता के अलावा,अच्छे रणनीतिकार माने जाते हैं। यह उनकी रणनीति का ही हिस्सा रहा है कि पीपली लाईव के प्रदर्शन के बाद आमिर ने प्रधानमंत्री के आवास पर उन्हें विशेष तौर पर यह फिल्म दिखाई थी। इसके तुरंत बाद,उन्होंने भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी समेत भाजपा के कई बड़े नेताओं और सांसदों के लिए भी इस फिल्म की स्पेशल स्क्रीनिंग की। पिछले सप्ताह संसद पहुंचने पर आमिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी से तो मिले ही,साथ में लालकृष्ण आडवाणी और लोकसभा में विपक्ष के नेता सुषमा स्वराज औऱ लोकसभाध्यक्ष मीरा कुमार से भी मुलाकात की(प्रतिभा ज्योति,नई दुनिया,दिल्ली,12.12.2010)।
Saturday, December 11, 2010
असफल फिल्मों के सफल फिल्मकार
आजकल प्रसिद्ध फिल्मकारों को उनकी असफल फिल्मों के लिए कोई दंड नहीं मिलता। असफलता पर उन्हें आर्थिक हानि भी नहीं उठानी पड़ती। एक लिहाज से इस समय उद्योग में असफलता रूपी अपराध के लिए दंड का विधान नहीं है। राज कपूर ने ‘मेरा नाम जोकर’ की असफलता से इतना सीखा कि उसके बाद कोई असफल फिल्म नहीं बनाई, क्योंकि उन्होंने और उनके वितरकों ने अपना धन खोया था।
गुरुदत्त ने भी ‘कागज के फूल’ में अपना धन खोया था। बिमल राय वापस बंगाल जाना चाहते थे, तब ऋतविक घटक ने उनके लिए ‘मधुमती’ लिखी। देवानंद ने ‘नीचा नगर’ में अपना धन खोया। बोनी और अनिल कपूर ने ‘रूप की रानी चोरों का राजा’ और ‘प्रेम’ में अपना धन खोया। कारदार साहब को ‘दिल दिया दर्द लिया’ की असफलता के बाद अपना स्टूडियो बेचना पड़ा।
सोहराब मोदी को भी पत्नी मेहताब के साथ बनाई असफल फिल्म ‘झांसी की रानी’ के बाद अपना स्टूडियो और अनेक सिनेमाघर बेचने पड़े। विगत दशक में बड़े उद्योग घरानों के फिल्म निर्माण में आने के बाद घाटे की जवाबदारी उन्होंने ले ली और प्रसिद्ध फिल्मकारों को मुंहमांगा धन दिया। फिल्मकारों ने अनुमानित लाभ को अपना बजट बनाकर प्रस्तुत किया, अत: पहली बार कोई माल दो सौ प्रतिशत मुनाफे की लागत पर बनने के पहले बिका। ऐसे व्यावसायिक समीकरण में लाभ कैसे मिल सकता है?
संजय लीला भंसाली को ‘सावरिया’ और ‘गुजारिश’ में मोटा माल मिला है। उद्योग में चर्चा है कि ‘गुजारिश’ के लिए उन्हें पच्चीस करोड़ का मेहनताना प्राप्त हुआ है। इन्हीं सब नए तौर तरीकों के कारण कुणाल कोहली को ‘थोड़ा प्यार थोड़ा मैजिक’ या ‘ब्रेक के बाद’ के लिए मुनाफा मिला है। करण जौहर को ‘वी आर फैमिली’ और ‘कुरबान’ जैसी घोर असफलताओं के लिए भी धन प्राप्त हुआ है। राकेश रोशन को ‘काइट्स’ के लिए धन मिला है।
जिस तरह आज फिल्म उद्योग में कुछ लोगों को काम और दाम मिलता है, परंतु वे उत्तरदायित्व से मुक्त हैं, उसी तरह राजनीति और व्यवस्था में लोगों को असीमित लाभ और अधिकार बिना किसी दायित्व के मिले हैं। इसकी कीमत अवाम चुका रहा है। प्राइवेट सेक्टर में नतीजा नहीं देने पर नौकरी छिन जाती है।
भ्रष्ट मंत्री पर आम आदमी मुकदमा नहीं कायम कर पाता। नेता को कई बार अपराध करने के पांच साल बाद भी चुनाव द्वारा दंड नहीं मिल पाता। गधों को हलवा खाते देख भूखे अवाम में नैराश्य बढ़ रहा है। आम आदमी का भरोसा टूटा है। टोपी चाहे कोई भी हो, उसके नीचे हर माथे पर दाग है। जाएं तो जाएं कहां?
फिल्म की सफलता की गारंटी कोई नहीं ले सकता, परंतु कई गुना मुनाफा जोड़कर उसकी लागत बताना अनैतिक है। असली अपराध एक रुपए का माल दस रुपए में बनाना है। लागत, लाभ और मेहनताने में संतुलन होना चाहिए(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,10.12.2010)।
Monday, December 6, 2010
रविकिशन छत्तीसगढ़ी फिल्मों में भी
छत्तीसगढ़ी फिल्म उद्योग में अब भोजपुरी फिल्मों के सितारे भी रुचि लेने लगे हैं। भोजपुरी फिल्म उद्योग के स्टार रवि किशन छत्तीसगढ़ी फिल्म में काम करेंगे। उन्होंने इसके लिए अपनी सहमति देने के साथ ही एक फिल्म साइन भी कर दी है। छत्तीसगढ़ी फिल्मों के निर्माता अलक राय पहली बार इस तरह का प्रयोग कर रहे हैं।
उन्होंने कहा कि फिल्म की शूटिंग फरवरी से शूटिंग शुरू होगी। इसकी स्टोरी पर काम शुरू कर दिया गया है। एक साथ दो फिल्मों की शूटिंग प्रदेश के विभिन्न स्थलों पर की जाएगी। छत्तीसगढ़ी मे बनने वाली फिल्म के निर्देशक जहां प्रेम चंद्राकर होंगे, वहीं भोजपुरी फिल्म का निर्देशन मुंबई के अजीत श्रीवास्तव करेंगे। छालीवुड से जुड़े लोगों का कहना है कि भोजपुरी और छत्तीसगढ़ी बोली में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। रवि किशन बिना किसी डबिंग के छत्तीसगढ़ी फिल्म में काम करेंगे।
लगभग एक जैसी होगी कहानी :
दोनों ही बोलियों की फिल्मों की कहानियां समान रूप से डेवलप की जा रही हैं। दो तरह के दर्शक वर्ग को ध्यान में रखकर और फ्लेवर को समझते हुए किसी समान स्टोरी पर काम किया जा रहा है। जानकारों की मानें तो छालीवुड को एक नए स्टार से मुखातिब होने का अवसर मिलेगा। श्री राय का कहना है कि इससे उद्योग के विस्तार होने के साथ ही सांस्कृतिक आदान-प्रदान में मदद मिलेगी।
भोजपुरी फिल्मों में जहां 10-11 गाने होते हैं, वही छत्तीसगढ़ी फिल्मों में अधिकतम 6-7 ही गानों का संयोजन होता है। हो सकता है कि नए ट्रेंड के मुताबिक अब ज्यादा मनोरंजक बनाने के लिए छत्तीसगढ़ी फिल्मों में भी कहानी के अनुसार गानों की संख्या बढ़ाई जाए(अमनेश दुबे,दैनिक भास्कर,रायपुर,6.12.2010)।
Saturday, December 4, 2010
बड़े परदे पर लखनऊ की कहानी-"कुछ लोग"
बड़े परदे अगले वर्ष लखनऊ की एक ऐसी कहानी सामने आएगी जिसमें अल्पसंख्यक समुदाय की अन्तरात्मा की तलाश होगी। ‘कुछ लोग’ नामक यह फिल्म अल्पसंख्यक समुदाय के कु छ ऐसे बहादुर लोगों की कहानी होगी जो अपना परिचय समकालीन भारतीय समाज के विकल्प के तौर पर कराना चाहते हैं। फिल्म के निर्माता, निर्देशक और कलाकारों ने शुक्रवार को एक संयुक्त पत्रकार वार्ता में यह जानकारी दी। निर्माता हूरी अली खान, निर्देशक शुजा अली और फिल्म के कलाकारों आर्य बब्बर, गणेश वेंकटरमन, आरती ठाकुर एवं रज्जाक खान और संगीतकार समीर टण्डन ने बताया कि इस फिल्म की कहानी लखनऊ की पृष्ठभूमि पर आधारित है और इसका फिल्मांक न लखनऊ में अगले वर्ष फरवरी से आरम्भ होगा। फिल्म के जुलाई माह में प्रदर्शित होने की संभावना है। मूलत: लखनऊ के रहने वाले फिल्म निर्देशक शुजा अली ने बताया कि फिल्म 26/11 की सच्चाई के सिक्के के दूसरे पहलू को पेश करती है। यह कुछ उन कहानियों पर है जो देश के दूसरे भागों में घटित हो रहा था। एक ओर जहाँ आतंकवादी मुम्बई में लोगों की जान ले रहे थे वहीं कुछ अल्पसंख्यक समुदाय के लोग जीवन बचाने में लगे थे। उन्होंने कहा कि इसमें 26/11 की घटनाएँ जरूर हैं लेकिन यह आतंकवादी हमले या आतंकवाद पर आधारित फिल्म नहीं है। फिल्म में अनुपम खेर, गुलशन ग्रोवर, रति अग्निहोत्री, टॉम आल्टर, नीलिमा अजीम है। आर्य ने कहा कि कुछ फिल्में व्यावसायिक फायदे के लिए बनाई जाती हैं जबकि यह फिल्म दिल के करीब है। दक्षिण की कई फिल्म कर चुके गणेश ने बताया कि मेरी पहली फिल्म कन्धार अगले वर्ष जनवरी में प्रदर्शित होगी(हिंदुस्तान,लखनऊ,4.12.2010)।
आतंकवाद के चलते देश के मुस्लिमों को शक की नजर से देखा जा रहा है। कहीं पर भी कुछ भी आतंकवादी घटना होती है तो तुरंत ही इलाके में रहने वाले मुस्लिम परिवार को भय के साथ जीने पर मजबूर होना पड़ता है। हालांकि उनकी कोई गलती नहीं होती, कुछ लोगों की वजह से उन्हें इस तरह डर कर जीना पड़ता है। इसी मुद्दे को लेकर पहली बार मुस्लिम निर्माता द्वारा भारतीय मुस्लिम और भारत के प्रति उनके विचारों को लेकर कुछ लोग फिल्म का निर्माण शुरू किया गया है।
हाल ही में मुंबई में इस फिल्म का भव्य मुहुर्त किया गया। मुहुर्त के मौके पर निर्माता-निर्देशक-लेखक महेश भट्ट विशेष रूप से उपस्थित थे। उन्होंने बताया जब मुझे यह कहानी सुनाई गई तो मुझे वह बहुत ही अच्छी लगी। वाकई अपने देश में कुछ लोगों की वजह से ही पूरा समाज बदनाम हो रहा है। फिर वह समाज हिंदुओं का हो या मुस्लिमों का। मुसलमानों के भारत के प्रति प्यार को कई फिल्मों में दिखाया है लेकिन उसमें उतनी गहराई नहीं थी जितनी इस फिल्म की कहानी में हैं। मेरा मानना है कि इस तरह की और फिल्में बननी चाहिए ताकि और कसाब तैयार होने से रोका जा सके।
कुछ लोग का निर्माण लखनऊ के सईद असीफ जाह और हूरी अली खान कर रहे हैं तो इसके प्रस्तुतकर्ता है मोहसीन अली खान और मिसाम अली खान। फिल्म में गुलशन ग्रोवर और अनुपम खेर मुख्य किरदारों में नजर आने वाले हैं। अन्य कलाकार हैं रती अग्निहोत्री, आर्य बब्बर, आरती ठाकुर, नीलिमा अजीम, टॉम अल्टर, रवी झंकाल, समीर धर्माधिकारी और रज्जाक खान। शूजा अली फिल्म के निर्देशक हैं। फिल्म की पूरी शूटिंग लखनऊ में की जाने वाली है(नई दुनिया,दिल्ली,4.12.2010)।
आतंकवाद के चलते देश के मुस्लिमों को शक की नजर से देखा जा रहा है। कहीं पर भी कुछ भी आतंकवादी घटना होती है तो तुरंत ही इलाके में रहने वाले मुस्लिम परिवार को भय के साथ जीने पर मजबूर होना पड़ता है। हालांकि उनकी कोई गलती नहीं होती, कुछ लोगों की वजह से उन्हें इस तरह डर कर जीना पड़ता है। इसी मुद्दे को लेकर पहली बार मुस्लिम निर्माता द्वारा भारतीय मुस्लिम और भारत के प्रति उनके विचारों को लेकर कुछ लोग फिल्म का निर्माण शुरू किया गया है।
हाल ही में मुंबई में इस फिल्म का भव्य मुहुर्त किया गया। मुहुर्त के मौके पर निर्माता-निर्देशक-लेखक महेश भट्ट विशेष रूप से उपस्थित थे। उन्होंने बताया जब मुझे यह कहानी सुनाई गई तो मुझे वह बहुत ही अच्छी लगी। वाकई अपने देश में कुछ लोगों की वजह से ही पूरा समाज बदनाम हो रहा है। फिर वह समाज हिंदुओं का हो या मुस्लिमों का। मुसलमानों के भारत के प्रति प्यार को कई फिल्मों में दिखाया है लेकिन उसमें उतनी गहराई नहीं थी जितनी इस फिल्म की कहानी में हैं। मेरा मानना है कि इस तरह की और फिल्में बननी चाहिए ताकि और कसाब तैयार होने से रोका जा सके।
कुछ लोग का निर्माण लखनऊ के सईद असीफ जाह और हूरी अली खान कर रहे हैं तो इसके प्रस्तुतकर्ता है मोहसीन अली खान और मिसाम अली खान। फिल्म में गुलशन ग्रोवर और अनुपम खेर मुख्य किरदारों में नजर आने वाले हैं। अन्य कलाकार हैं रती अग्निहोत्री, आर्य बब्बर, आरती ठाकुर, नीलिमा अजीम, टॉम अल्टर, रवी झंकाल, समीर धर्माधिकारी और रज्जाक खान। शूजा अली फिल्म के निर्देशक हैं। फिल्म की पूरी शूटिंग लखनऊ में की जाने वाली है(नई दुनिया,दिल्ली,4.12.2010)।
Friday, December 3, 2010
"मर जावां गुड़ खा के" रिलीज
बॉलीवुड की नामवर शख्सियतों शक्ति कपूर, संजय मिश्रा, अमन वर्मा, उपासना सिंह, बॉबी डार्लिग के अभिनय के अलावा कोरियोग्राफर सरोज खान के नृत्य से सजी पंजाबी फीचर फिल्म मर जावां गुड़ खा के शुक्रवार को सिलवर स्क्रीन की शोभा बनने जा रही है। फिल्म प्रमोशन के लिए फिल्म के अभिनेता जिम्मी शर्मा और अभिनेत्री गुंजन वालिया वीरवार को यहां पहुंचे। मॉडल गुरु कोरियोग्राफर शुभम चंद्रचूड़ की अगुआई में यहां आयोजित प्रेसवार्ता में फिल्म अभिनेता जिम्मी शर्मा ने बताया कि रोमांस और कॉमेडी से भरपूर यह फिल्म अन्य सभी पंजाबी फिल्मों से हट कर है। दर्शकों के लिए यह यादगार बनकर सामने आएगी। अभिनेत्री गुंजन वालिया ने कहा कि फिल्म वही होती है जो देखने वाले को इस तनाव भरे जीवन में कुछ सुकून प्रदान करे। इस फिल्म का फिल्मांकन पंजाब, मसूरी और मंुबई में किया गया है। एक अर्से के बाद पंजाबी कॉमेडियन मेहर मित्तल फिल्म में दिखाई देंगे। इसके अलावा गुरप्रीत घुग्गी भी खास भूमिका में हैं। संतोख सिंह के संगीत में सजी फिल्म में कुमार ने गीत लिखे हैं, जबकि मीका सिंह, मास्टर सलीम, नीरज श्रीधर, जसपिंदर नरुला, संतोख सिंह, जावेद अली, समांथा और सोनू कक्कड़ की आवाजों में गीत गाए गए हैं। आदित्य सूद के निर्देशन में बनी फिल्म को सुभाष घई के बैनर मुक्ता आर्ट्स तले रिलीज किया जा रहा है।
पहली पंजाबी फिल्म से रुपहले पर्दे पर आ रहे जिम्मी शर्मा और गुंजन वालिया को मर जांवां गुड़ खा के से काफी उम्मीद है। फिल्म की प्रमोशन के लिए पटियाला आए इन नवोदित कलाकार ने अपने कुछ पल दैनिक जागरण के साथ साझा किए। भोली से मुस्कान बिखेरते हुए जिम्मी ने कहा कि कैमरे का सामना उनके लिए नया नहीं है। हां, इतना जरूर है कि यह उनकी पहली फिल्म है। 350 से अधिक पंजाबी वीडियो में अभिनय करने के बाद उन्हें यह फिल्म मिली है। मेरा यह सौभाग्य है कि छोटे पर्दे से निकल कर अब मेरी पहचान सिल्वर स्क्रीन पर भी होगी। उन्होंने बताया कि इस फिल्म में भी मेरे किरदार का नाम जिम्मी ही है। इसके अलावा बॉलीवुड के नामवर कलाकार शक्ति कपूर, अमन वर्मा और संजय मिश्रा भी इस फिल्म में अभिनय कर रहे हैं। उनके साथ काम कर मुझे काफी कुछ सीखने को मिला। करियर के शुरुआत में ही ऐसे दिग्गज कलाकारों के साथ काम करना सौभाग्य की बात है। इतना ही नहीं कोरियोग्राफर सरोज खान की डायरेक्शन में भी मैंने नृत्य की कई बारीकियां जानी। अभी एक और फिल्म के संदर्भ में बात चल रही है। आशा है आने वाले कुछ माह में यह फिल्म सेट पर चली जाएगी। वहीं गुंजन ने कहा कि बॉलीवुड हो या पॉलीवुड पंजाबियों की दोनों जगह पर बल्ले-बल्ले है। एयर होस्टेस की जॉब करते-करते सीरियल में अभिनय का आफर मिल गया। बस फिर क्या था एयर होस्टेस की जॉब को अलविदा कह कर अभिनय की राह पकड़ ली। सीरियल करते-करते पंजाबी फिल्म में अभिनेत्री बनने का मौका मिला। ये मेरे जीवन के यादगार पल हैं(दैनिक जागरण,पटियाला,3.12.2010)।
Tuesday, November 30, 2010
पटना फिल्मोत्सव 4 से
अच्छी व सार्थक फिल्मों के शौकीनों के लिए खुशखबरी है। द्वितीय पटना फिल्मोत्सव चार दिसंबर से शुरू हो रहा है । कालिदास रंगालय में तीन दिनों तक चलने वाले इस फिल्मोत्सव में छोटी-बडी 14 फिल्में दिखायी जाएंगी। यह फिल्मोत्सव महिला शताब्दी वर्ष को समर्पित होगा। आखिरी दिन छह दिसंबर को चार महिला निर्देशकों की फिल्में दिखायी जाएंगी। इस वर्ष की सर्वश्रेष्ठ मलयालम फिल्म ‘कुप्ती स्रैंक ’ से फिल्मोत्सव का पर्दा उठेगा। जन संस्कृति मंच (जसम) व हिरावल की ओर से इस फि ल्मोत्सव का आयोजन किया जा रहा है । जसम के सचिव संतोष झा ने बताया कि सर्वश्रेष्ठ निदेशक का राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके व बेहतरीन कै मरामैन के रूप में चर्चित शाजी एन.करुण इस उत्सव का उद्घाटन करेंगे। पहले दिन उनकी ही फिल्म से उत्सव शुरू होगा। फिल्म प्रदर्शन के बाद वे दर्शकों से मुखातिब होंगे। छह दिसंबर को दिल्ली से आयीं फिल्मकार अनुपमा श्रीनिवासन दर्शकों से रू-ब-रू होंगी। फिल्मोत्सव के दूसरे दिन आकर्षण रहेगा नाटक ‘समझौता’ का मंचन। एनएसडी स्नातक प्रवीण गुंजन नाटक के निर्देशक व मानवेन्द्र त्रिपाठी नायक होंगे। इसकी तैयारी को लेकर एक बैठक हुई, जिसमें स्वागत समिति का गठन भी हुआ। समिति की अध्यक्ष मीरा मिश्रा होंगी। सदस्यों में फिल्म निर्देशक गिरीश रंजन, आरएन दास, भारती एस. कु मार, डे जी नारायण, प्रीति सिन्हा, डा. विनय कुमार, प्रतिभा, डा. एनके चौधरी, अरशद अजमल, अरुण कुमार सिन्हा, डा. सत्यजीत, उषा किरण खां, कुणाल, अग्निपुष्प, शेखर, कर्मेंदु शिशिर व अशोक शामिल हैं (हिंदुस्तान,पटना,30.11.2010)
Sunday, November 28, 2010
15 बेस्ट कॉमेडी फिल्में
व्यंग्य हिंदी सिनेमा का मूल स्वर नहीं रहा है, इसीलिए हजारों फिल्मों लंबे इस सिनेमाई सफर में बेहतरीन कहे जा सकने लायक सटायर कम ही बने हैं। फिर भी,हिंदी सिनेमा ने समय-समय पर कई अच्छी कॉमिडी फिल्में दी हैं, जिन्हें आज भी देखा और पसंद किया जाता है। ऐसी ही टॉप 15 हिंदी कॉमिडी फिल्मों के बारे में बता रहे हैं मिहिर पंड्या :
कॉमिडी फिल्म की कामयाबी यही है कि उसे हम अपनी जिंदगी और उसकी उलझनों के कितना करीब पाते हैं। और जो फिल्म ऐसा कर पाती है, वह हमारा दिल जीत लेती है और क्लासिक का दर्जा पाती है। कोई भी चयन खुद में पूरा नहीं होता और ठीक इसी तरह यहां भी यह दावा नहीं है। जैसे आलोचक पवन झा मानते हैं कि किशोर और मधुबाला की 'हाफ टिकट' में दोनों की केमिस्ट्री और हास्य 'चलती का नाम गाड़ी' से भी आला दर्जे का है।
इसी तरह फिल्म क्रिटिक नम्रता जोशी का कहना है कि पंकज पाराशर की 'पीछा करो' एक बेहतरीन हास्य फिल्म थी, जिसे रेखांकित किया जाना चाहिए। पंकज आडवाणी की अब तक अनरिलीज्ड फिल्म 'उर्फ प्रोफेसर' को सिनेमा के कई चाहनेवाले कॉमिडी क्लासिक मानते हैं तो बहुतों का सोचना है कि कमल हासन की 'पुष्पक', 'मुम्बई एक्सप्रेस' और 'चाची 420' के जिक्र के बिना कॉमिडी फिल्मों का कोई भी चयन अधूरा है। फिर भी, तमाम संभावनाओं और सही प्रतिनिधित्व पर विचार के बाद टॉप 15 कॉमिडी फिल्में पेश हैं :
1. चलती का नाम गाड़ी (1958)
फेमस गाना : पांच रुपैया बारह आना...
' चलती का नाम गाड़ी' हिंदी सिनेमा की सबसे मशहूर तीन भाइयों की जोड़ी अशोक कुमार, किशोर कुमार और अनूप कुमार का धमाल है। गोल्डन फिफ्टी की यह फिल्म एक म्यूजिकल कॉमिडी है। फिल्म में संगीत दिया है एस. डी. बर्मन ने और बोल हैं मारूह सुल्तानपुरी के। शायद पहली बार गाने के बोलों में इस तरह के प्रयोग किए गए हैं, जिनसे बड़ा खूबसूरत हास्य पैदा होता है। दादा मुनि अशोक कुमार ने अपनी गंभीर अभिनेता की छवि को इस फिल्म के साथ बखूबी तोड़ा। मधुबाला और किशोर की बेजोड़ केमिस्ट्री और कॉमिक टाइमिंग से रची यह फिल्म हिंदी सिनेमा का सच्चा हीरा है।
2. पड़ोसन (1968)
फेमस गाना : ये क्या रे, घोड़ा चतुरा घोड़ा चतुरा...
दो हरफनमौला आमने-सामने। 'पड़ोसन' का असली मजा किशोर कुमार और महमूद की जुगलबंदी में है। धुरंधर गलेबाजों के रोल में किशोर और महमूद की खींचा-तानी 'एक चतुर नार...' और किशोर के गाए 'मेरे सामने वाली खिड़की में...' की मिठास भुलाना मुश्किल है। दरअसल गाने इस गोल्डन क्लासिक की यूएसपी हैं। इस मेलॉडी में पिरोए हास्य को आर. डी. बर्मन का शरारती संगीत आगे बढ़ाता है।
हिंदी सिनेमा के इतिहास में हुए सबसे ऊंचे कद के कॉमिडियन महमूद न सिर्फ इस फिल्म में अदाकारी कर रहे थे, बल्कि वे इस फिल्म के प्रड्यूसर भी थे। और गवैये किशोर की साइड किक बने तीन तिलंगों- बनारसी, लाहोरी और कलकतिये की भूमिका में रंग भरते मुकरी, राजकिशोर और केश्टो मुखजीर् की अदाकारी को आप कैसे भूल सकते हैं?
3. गोलमाल (1979)
फेमस डायलॉग : आपका भट्टी किदर है?
हिंदी सिनेमा में सबसे ज्यादा रिपीट वैल्यू ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों की है और 'गोलमाल' उनमें सबसे ऊपर है। 'गोलमाल' भी ऋषि दा की फिल्मों की उसी कड़ी में है, जहां जहीन हास्य में पिरोकर कहानी जिंदगी से जुड़े किसी प्रगतिशील मूल्य को स्थापित करती है। व्यंग्य उस पुरानी पीढ़ी पर है, जो रूढि़यों और बासी परंपराओं का सांप निकल जाने के बाद भी लकीर पीट रही है।
कथा नायक अमोल पालेकर हैं, जिन्होंने इस भूमिका के लिए उस साल का 'बेस्ट ऐक्टर' फिल्मफेयर अवॉर्ड जीता था। यहां एक ऐसा डबल रोल है, जिसे पचाने के लिए आपको तर्क का सहारा नहीं छोड़ना पड़ता। फिल्म की जान हैं उत्पल दत्त, जो 'सेठ भवानी शंकर' बने हैं। उर्मिला ट्रेडर्स का यह मालिक मूंछों का जुनूनी शौकीन है।
बुआ जी के रोल में शुभा खोटे ने भी उत्पल दत्त का खूब साथ निभाया है। और सबसे खास है सिर्फ दो मिनट के एक स्पेशल अपीयरेंस में केश्टो मुखर्जी का आना और सेठ भवानी शंकर से पूछना, आपका भट्टी किदर है...? 'गोलमाल' हिंदी सिनेमा की वी. वी. एस. लक्ष्मण है, कभी धोखा नहीं देती।
4. चश्मे बद्दूर (1981)
मिस चमको...
सई परांजपे द्वारा निर्देशित फिल्म 'चश्मे बद्दूर' के एक दृश्य में नायक-नायिका तालकटोरा गार्डन में बने एक ओपन एयर रेस्तरां में बैठे हैं और वे वेटर से पूछते हैं, 'यहां अच्छा क्या है?' तो वेटर उन्हें जवाब में कहता है, 'जी यहां का माहौल बहुत अच्छा है!' 80 के दशक की फिल्म 'चश्मे बद्दूर' की यही खासियत है, अपने समय और परिवेश में रचा-बसा हास्य। इसके कई संवादों में उस दौर की दिल्ली और उसकी कॉलेज लाइफ का कोई-न-कोई संदर्भ है।
कहानी है तीन बेरोजगार लड़कों की, जो दिल्ली की सड़कों पर घूमते हुए नौकरी और छोकरी दोनों की तलाश में हैं। फिल्म में राकेश बेदी और रवि वासवानी ने नायक के दोस्तों की भूमिका निभाई है और अपने दोस्त को 'कुएं' में ढकेलने में इनका बड़ा हाथ है। नायक-नायिका की भूमिका में फारूक शेख और दीप्ति नवल की जोड़ी भी खूब जमी है। इसके साथ ही सई परांजपे की 'कथा' भी देखी जानी चाहिए, जिसमें मुंबई की चॉल के जनजीवन का मजेदार स्केच मिलता है।
5. अंगूर (1982)
प्रीतम आन मिलो...
यह हिंदी सिनेमा में शेक्सपियर साहब का आगमन है और क्या खूब आगमन है! गुलजार ने शेक्सपियर के नाटक 'कॉमिडी ऑफ एरर्स' को उठाकर बखूबी हिंदुस्तानी लिबास पहना दिया है। जुड़वां भाइयों के दो जोड़ों की कहानी 'अंगूर' में नौकर और मालिक अशोक और बहादुर के दो जोड़े हैं, दोनों के दोनों संजीव कुमार और देवेन वर्मा।
एक दिन दोनों (अरे दोनों, नहीं चारों!) एक ही शहर में आ जाते हैं और उससे उस शहर की पूरी व्यवस्था उलट-पुलट हो जाती है। इस फिल्म का हास्य कादर खान मार्का कॉमिडी की तरह लाउड नहीं है। यहां सूक्ष्म हास्य है। संजीव कुमार और देवेन वर्मा जैसे मंझे हुए ऐक्टर अद्भुत तालमेल के साथ जैसे एक-दूसरे के पूरक बन जाते हैं।
6. जाने भी दो यारो (1983)
शांत गदाधारी भीम, शांत...
हिंदी सिनेमा में व्यंग्य के क्षेत्र में आई सबसे बड़ी कल्ट क्लासिक। सुधीर मिश्रा और विधु विनोद चोपड़ा जैसे आज के फिल्म जगत के सम्मानित नाम इस फिल्म में सहायक थे और फिल्म में दोनों नायकों नसीरुद्दीन शाह और रवि वासवानी के नाम 'सुधीर' और 'विनोद' इन्हीं पर रखे गए। एनएफडीसी की फिल्म थी और किस्सा मशहूर है कि पैसा इतना कम था कि कलाकारों ने अपनी निजी चीजों और कपड़ों तक को शूटिंग के दौरान इस्तेमाल किया।
फिल्म के नायक नसीर निर्माण के दौरान कहते थे कि कुंदन पागल हो गया है, न जाने क्या बना रहा है! शायद यह अपने दौर से बहुत आगे की फिल्म थी। इसका 'महाभारत' वाला क्लाइमैक्स तो 'न भूतो न भविष्यति' हास्य का पिटारा है। लेकिन 'जाने भी दो यारो' कोरी कॉमिडी नहीं थी, इसका हास्य स्याह रंग लिए था। आज भी यह फिल्म विकास की अंधी दौड़ में भागते 'लिबरल हिंदुस्तान' के लिए एक रियलिटी चेक सरीखी है। आज इसकी प्रासंगिकता सबसे ज्यादा है।
7. चमेली की शादी (1986)
हैं जी...
बासु चटर्जी को हम ऋषि दा की परंपरा में ही रख सकते हैं, जिन्होंने 70 और 80 के दशक में हिंदी सिनेमा को कई बेहतरीन और मौलिक हास्य फिल्में दीं। और पंकज कपूर... 'चमेली की शादी' में उन्होंने जैसे 'कल्लूमल कोयलेवाले' को साक्षात जीवित कर दिया है। बासु चटर्जी ने पहले भी 'छोटी-सी बात', 'हमारी बहू अलका' और 'खट्टा-मीठा' जैसी कई याद रखे जाने लायक फिल्में बनाई हैं।
कहानी है लंगोट के पक्के अखाड़ेबाज पहलवान चरणदास (अनिल कपूर) और कल्लूमल की बेटी चमेली (अमृता सिंह) के बीच इश्कबाजी की। इनके इस धुआंधार इश्क के अकेले सिपहसालार हैं एडवोकेट भैया (अमजद खान) और उसका दुश्मन है सारा जमाना। लेकिन इस बीच चमेली और चरणदास हैं, जिनका प्यार रेडियो और उस पर बजते प्यार भरे हिंदी फिल्मी गीतों के साथ परवान चढ़ता है।
फिल्म के गाने और उनका फिल्मांकन भी बहुत ही हास्य से भरा है और फिल्म के सबसे यादगार प्रसंगों में दारूबाज मामा छद्दमी (अन्नू कपूर) की चमेली के हाथों झाड़ू से हुई ठुकाई याद रखी जा सकती है।
8. अंदाज अपना-अपना (1994)
तेजा मैं हूं, मार्क यहां है...
राजकुमार संतोषी की 'अंदाज अपना-अपना' एक क्रेजी राइड है। 'अमर' और 'प्रेम' की भूमिकाओं में आमिर और सलमान जेब से कड़के दो ऐसे नौजवान हैं, जिनका एक ही सपना है कि किसी करोड़पति लड़की से शादी कर वे भी करोड़पति बन जाएं। विदेश से आई रवीना और करिश्मा ऐसी ही दो लड़कियां हैं, जिनके पीछे ये दोनों हैं। लेकिन इस बीच डबल रोल में परेश रावल हैं- एक करोड़पति आसामी रामगोपाल बजाज और दूसरा खतरनाक उचक्का तेजा। और अमर किरदार 'क्राइम मास्टर गोगो' की भूमिका में शक्ति कपूर हैं, जो हर बनता काम बिगाड़ देते हैं।
फिल्म में महमूद, देवेन वर्मा और जगदीप जैसे लिजेंडरी हास्य कलाकारों ने भी मेहमान भूमिकाएं निभाई हैं।
9. हेराफेरी (2000)
मी बाबूराव गणपतराव आप्टे बोलतोए...
' हेराफेरी' प्रियदर्शन का ऐसा मास्टरस्ट्रोक थी, जिससे कमाई नाम और इज्जत वह आज तक भुना रहे हैं। इस एक मराठी किरदार 'बाबूराव आप्टे' की भूमिका से सिनेमा के क्षेत्र में परेश रावल का कद इतना ऊंचा उठा कि कॉमिडी में वह एक ब्रैंड बन गए और आगे चलकर फिल्में उनके नाम से बिकने लगीं। इसी फिल्म ने हमें नायक अक्षय कुमार की अद्भुत कॉमिक टाइमिंग से परिचित करवाया।
एक रॉन्ग नंबर से शुरू हुई 'हेराफेरी' की कहानी में नौकरी के लिए घनश्याम (सुनील शेट्टी) से झगड़ती अनुराधा (तब्बू) और बहन की शादी करवाने गांव से आए खड़ग सिंह (ओम पुरी) के मजेदार ट्रैक भी थे। प्रियदर्शन की 'एक-दूसरे के पीछे भागते किरदारों' और बहुत सारे कंफ्यूजन से भरे क्लाइमैक्स से मिलकर बनती फिल्मों की शुरुआत यहीं से होती है। और एक क्लासिक 'हेराफेरी' के बाद यहां भी 'हंगामा', 'हलचल', 'गरम मसाला', 'भागमभाग', 'ढोल' और 'दे दना दन' जैसी औसत या खराब फिल्मों की लंबी कतार है।
10. खोसला का घोंसला (2006)
ओ खोसला साब, खुराना साब लव्स यू...
दिल्ली का मिडल क्लास नौकरीपेशा तबका मौजूद है यहां अपनी पूरी प्रामाणिकता के साथ। यह असल दिल्ली है - 'हाउ टू बी ए मिलेनियर' पढ़ता निठल्ला लड़का, खाने में बनते संजीव कपूर की रेसिपी वाले राजमा-चावल, खाने की मेज पर रखी ईनो और रूह-अफाजा की बोतल और सबसे ऊपर 'साउथ दिल्ली' वाला बनने की चाह।
निर्देशक दिबाकर बनर्जी की पहली फिल्म और हिंदी सिनेमा की मॉडर्न कल्ट क्लासिक कही जाती 'खोसला का घोंसला' जैसे हमारी ही जिंदगी से एक कतरन उधार लेकर बनाई गई है। चाहे वे ट्रैवल एजेंट कम ऑटो सर्विस वाले आसिफ इकबाल (विनय पाठक) हों और चाहे बात-बात पर गाली मुंह से निकालने वाले साहनी साहब (विनोद नागपाल) हों, ये सभी अपनी दिल्ली के खरे प्रतिनिधि किरदार हैं और 'बंटी' के किरदार में रणवीर शौरी की अदाकारी इस फिल्म की जान है।
उसके ऊपर जयदीप साहनी की पटकथा में ईमानदारी और नैतिकता को बचाए जाने की एक भोली मांग भी है, जो पूरी फिल्म में आपको असहज करती है। दिबाकर की यह फिल्म हिंदी सिनेमा में ऋषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी और सई परांजपे की परंपरा को आगे बढ़ाती है।
फेमस फाइव किरदार
अब्दुल सत्तार: जॉनी वॉकर हमेशा गुरुदत्त की फिल्मों का एक जरूरी हिस्सा रहे। 'प्यासा' जैसी गंभीर फिल्म में भी उनका 'सर जो तेरा चकराए...' एक ठंडी हवा का झोंका है। इतनी मैलोडियस और मधुर चम्पी भला किसे न भाएगी!
सूरमा भोपाली: कहते हैं कि क्लासिक सिनेमा के साथ उसके किरदार भी अमर हो जाते हैं। 'शोले' के बड़बोले सूरमा भोपाली (जगदीप) और उनकी जय-वीरू से काल्पनिक भिड़ंत के किस्से अब हिंदी सिनेमा की लोककथाओं का हिस्सा हैं।
एडिटर मिस्टर गायतोंडे: 'मिस्टर इंडिया' के अन्नू कपूर और उनका फोन... कभी फोन पर कपड़े धुलवाने का ऑर्डर तो कभी भैंसों के अस्पताल से डॉक्टर भेजने की डिमांड। एडिटर साहब के फोन पर बाकी सारे फोन आते हैं, काम के फोन को छोड़कर!
सर्किट: कभी 'भाई', सर्किट को उसके असल नाम सर्केश्वर से बुलाएं तो सुनकर सच में 440 वॉल्ट का झटका लगता है, क्योंकि मुन्नाभाई सीरीज के अरशद वारसी को हम 'सर्किट' नाम से ही जानते और पसंद करते हैं। भाई के सच्चे वफादार। उनके कहने पर जान दे भी सकते हैं और ले भी सकते हैं!
चतुर रामालिंगम: एक बिल्कुल नया लड़का सही वक्त पर, सही जगह, सही रोल में कास्ट किया गया। ओमी वैद्य का निभाया 'साइलेंसर' का किरदार 'थ्री इडियट्स' के सबसे पसंद किए गए हिस्सों में से है। उनके 'चमत्कार-बलात्कार' वाले सीन को तो साल का सबसे ज्यादा याद रहनेवाला सीन कहा जा सकता है।
चाची 420 (1997)
मैं विंडो से भी शादी करने को तैयार हूं...
' चाची 420' के नायक-निर्देशक कमल हासन थे। कमल हासन हमारे दौर के सबसे प्रयोगधर्मी निर्देशक हैं और सबसे ऊंचे कद के ऐक्टर भी। उन्होंने रोल की मांग के अनुसार अपने शरीर के साथ क्या-क्या नहीं किया है? फिल्म भले ही अमेरिकी फिल्म 'मिसेस डाउटफायर' से प्रेरित हो, 'लक्ष्मी चाची' की भूमिका में कमल हासन एकदम ऑरिजिनल हैं। वह सिर्फ मेकअप कर महिला नहीं बने हैं, उन्होंने महिलाओं की पूरी बॉडी लैंग्वेज को जैसे अपना लिया है।
गुलजार की पुरानी फिल्म 'अंगूर' की तरह ही 'चाची 420' में भी सूक्ष्म हास्य मिलता है, जो फिल्म की रिपीट वैल्यू बहुत बढ़ा देता है। गुलजार 'चाची 420' के साथ भी जुड़े हैं। उनके लिखे डायलॉग गजब हैं और विशाल भारद्वाज के संगीत से सजे गीत ऐसे, जैसे बच्चों की भोली कविताएं- चाची के पास मुश्किलों की सारी चाबियां हैं, सोसायटी में जानती हैं, क्या खराबियां हैं। चाची के पास हल है, चाची तो बीरबल है... फिल्म में ओम पुरी भी हैं और परेश रावल भी।
हर बार की तरह आपकी हर मांग पर खरे उतरते और अपनी जिंदगी की शायद आखिरी फिल्मी भूमिका में लिजेंडरी कॉमिडियन जॉनी वॉकर हैं.. कहते हुए, मुझे ये जूता खाने दो, खाने दो ये जूता!
चुपके-चुपके (1975)
' घास-फूस' का डॉक्टर! अरे कम-से-कम 'फूल-पत्ती' तो बोलो...
साल था 1975, धर्मेंद्र और अमिताभ बच्चन की 'जिगरी दोस्त' वाली भूमिका की दो फिल्में साथ-साथ रिलीज हुईं। मिजाज में दो बिल्कुल अलग फिल्में और दोनों ही कल्ट क्लासिक बनीं। एक थी 'शोले' और दूसरी थी 'चुपके-चुपके'। ऋषिकेश मुखर्जी की इस फिल्म में धर्मेंद्र 'डॉ. परिमल त्रिपाठी' बने हैं, जो अपनी पत्नी सुलेखा (शर्मीला टैगोर) के जीजाजी बने 'राघव भैया' (ओमप्रकाश) को चकमा देने के लिए उनके घर 'ड्राइवर प्यारे मोहन' बनकर आ जाते हैं।
फिल्म में अपनी शुद्ध हिंदी के साथ प्यारे मोहन राघव भैया को खूब खिजाते हैं और दर्शकों को खूब हंसाते हैं। बड़े फलक पर देखें तो यह दरअसल उस शुचितावादी सोच पर व्यंग्य है, जो बहती नीर-सी भाषा को भी शुद्धता के तराजू पर तोलती है। फिल्म की शूटिंग के दौरान जया बच्चन मां बनने वाली थीं और कैमरे पर यह पता न चले, इसका फिल्मांकन के दौरान खास ख्याल रखा गया था। किशोर कुमार और मोहम्मद रफी का गाया डुएट 'सा रे गा मा...' जिसे अमिताभ और धर्मेंद्र यानी 'जय-वीरू' पर फिल्माया गया बड़ा पक्का जोड़ीदारों वाला गाना है। 'चुपके-चुपके' ऋषिदा के सुनहरे दौर की पैदाइश है और आज भी अपनी आभा बिखेर रही है।
कुली नंबर वन (1995)
अरे नंबर वन, दिखा दे अपना जलवा...
गोविंदा 90 के बाद के 'एनआरआई छाप' हिंदी सिनेमा में देसी भांग की तरह हैं। यह कादर खान के लिखे द्विअर्थी संवादों से बनी फूहड़ लेकिन लोकप्रिय हास्य फिल्मों की परंपरा है, जिसने 90 के दशक में खूब लोकप्रियता पाई। यही धारा है, जो गोविंदा से होती हुई भोजपुरी सिनेमा तक आई है। निर्देशक डेविड धवन की 'कुली नं. वन' कादर खान मार्का कॉमिडी की प्रतिनिधि फिल्म है, जिसे मिलाकर ही हिंदी की कॉमिडी फिल्मों का फलक पूरा होता है।
नायक राजू जो पेशे से कुली है, खुद को करोड़पति बताकर गांव के एक अमीर चौधरी होशियारचंद की लड़की से शादी कर लेता है। आगे तमाम परिस्थितियां जितनी गड़बड़ हो सकती हैं, होती हैं और उसके ऊपर शक्ति कपूर हैं। यहीं से गोविंदा की 'नंबर वन' सीरीज की भी शुरुआत होती है, जिसमें आगे 'हीरो नंबर वन', 'आंटी नंबर वन', 'बेटी नंबर वन' और 'अनाड़ी नंबर वन' जैसी फिल्में आती हैं।
छोटी-सी बात (1975)
चिकन आलाफूज...
बासु चटर्जी की 'छोटी-सी बात' बड़ी मासूम-सी कॉमिडी फिल्म है। किसी रविवार की शाम घर में रहकर बेहतर सनडे मनाने का बेस्ट जरिया। कहानी है अरुण (अमोल पालेकर) की, जो प्यार तो प्रभा (विद्या सिन्हा) से करता है लेकिन कभी उसे बता नहीं पाता। फिर उसकी जिंदगी में 'कर्नल जुलियस नगेंदनाथ विल्फ्रेड सिंह' (अशोक कुमार) आते हैं। कर्नल साहब प्रफेशनल आदमी हैं। वह उसे अपने प्यार को पाने के तमाम नुस्खे सिखाते हैं।
फिल्म में 'कबाब में हड्डी' के रोल में असरानी साहब हैं। फिल्म के संवाद हिंदी के जाने-माने व्यंग्यकार शरद जोशी की कलम से निकले हैं। कई वाकये जैसे मोटरसाइकल का किस्सा या जहांगीर आर्ट गैलरी के पास लंच वाला किस्सा लाजवाब हैं।
लगे रहो मुन्नाभाई (2006)
केमिकल लोचा...
मुन्नाभाई सीरीज की फिल्में हमारे दशक की सबसे कामयाब और खूबसूरत फिल्में हैं। 'लगे रहो मुन्नाभाई' कॉमिडी और इमोशन का ऐसा मेल है, जो हिंदुस्तानी पब्लिक को हमेशा से भाता है। राजू हिरानी को बिल्कुल एक डॉक्टर की तरह हमारी नब्ज की सही पकड़ है। 'लगे रहो मुन्नाभाई' में एक इमोशनल भाई मुन्ना (संजय दत्त) है और उसके कई गुगेर् हैं, जो गुंडे कम और सरकारी स्कूल के चौकीदार यादा लगते हैं।
नायिका को पाने की चाह में वह गांधीजी की शरण में जाता है और फिर होता है 'केमिकल लोचा'! एक मौलिक कहानी और अच्छी पटकथा के साथ 'लगे रहो मुन्नाभाई' में कई प्रासंगिक संदेश भी हैं, जो आपको कदम-कदम पर काम आएंगे।
टॉप टेन डायलॉग
- तुम अपुन को दस-दस मारा। अपुन तुमको सिरिफ दो मारा, पन सॉलिड मारा कि नहीं! (अमर अकबर एंथोनी)
- एईसा तो आदमी लाइफ में दोइच टाइम भागता है, ओलिंपिक का रेस हो या पुलिस का केस हो। (अमर अकबर एंथोनी)
- आई कैन टॉक इंग्लिश, आई कैन वॉक इंग्लिश, आई कैन लाफ इंग्लिश, बिकॉज इंग्लिश इज वेरी फन्नी लैंग्वेज। (नमक हलाल)
- मौसी लड़का तो हीरा है हीरा, मगर... (शोले)
- ओ मेरे हमदर्द पिंटो, मुझे बचाओ। (जाने भी दो यारो)
- भैया, तुम तो एक बार संस्कृत में गड्ढा खा गए थे ना! (खूबसूरत)
- अंग्रेजी बहुत ही अवैज्ञानिक भाषा है साहेब। सी यू टी कट है तो पी यू टी पुट... डीओ डू, टीओ टू, लेकिन जी ओ गो हो जाता है। आप ही बताइए मेमसाहब कि जीओ गू क्यों नहीं होता? (चुपके-चुपके)
- मेरे दोस्त बीडि़यों पर उतर आए हैं! (चश्मेबद्दूर)
- दो चुटकी सिंदूर की कीमत तुम क्या जानो रमेश बाबू (ओम शांति ओम)
- मन तो करता है, उसके अंदर घुसकर फट जाऊं (तेरे बिन लादेन)
(नवभारत टाइम्स,दिल्ली,28.11.2010)
Friday, November 26, 2010
क्षेत्रीय फ़िल्म निर्माताओं को लुभाएगा गोवा
बॉलीवुड निर्देशकों को लुभाने के बाद गोवा अब क्षेत्रीय फिल्म निर्माताओं को अपनी ओर रिझाने के लिए भी तैयार हैं। एंटरटेनमेंट सोसाइटी ऑफ गोवाज (ईएसजी) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी मनोज श्रीवास्तव ने बताया कि क्षेत्रीय फिल्म निर्माता आम तौर पर अपने प्रदेश के क्षेत्रों को ही प्राथमिकता देते हैं और गोवा की तरफ नहीं देखते। उन्होंने कहा कि कई मराठी फिल्मों की शूटिंग गोवा में हुई है, पर प्रदेश कभी भी दक्षिण की फिल्मों में नहीं दिखाई दिया। श्रीवास्तव ने कहा, हमें गोवा के बाहर के फिल्म निर्माताओं तक अपनी आर्थिक योजनाएं पहुंचानी होंगी और हम ऐसा कर रहे हैं। प्रदेश में पिछले दिनों गुजारिश, खेलें हम जी जान से, गोलमाल 3 और प्लेयर्स की शूटिंग हुई है। पिछले कुछ सालों के दौरान गौवा फिल्मों के लिहाज से एक महत्वपूर्ण स्थल बनकर उभरा है। उन्होंने कहा कि कई विदेशी फिल्मों की शूटिंग भी गोवा में हो चुकी है। इससे अलग, कम से कम 40 से 50 बड़ी फिल्मों और वृत्तचित्रों को यहां शूट किया जा चुका है। श्रीवास्तव ने जोड़ा कि बर्फबारी को छोड़ दिया जाए तो यहां सब कुछ मौजूद है, यहां तक कि आप यहां कृत्रिम रेगिस्तान का भी आसानी से सेट बना सकते हैं। उन्होंने कहा कि कलात्मक निर्माण के नजरिए से देखें तो यहां कई किले, पुर्तगालियों के समय के घर, बंगले, नदियों के पुल, मल्टिप्लेक्स, स्टेडियम, लाइट हाउस सब कुछ है। एक दिवसीय सेमीनार के दौरान सर्विस एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल के महानिदेशक राजेश शर्मा, नोमाद फिल्म्स के जुनैद मेनन, केएएस मूवी मेकर्स के कल्याण मुखर्जी ने भी अपनी प्रेजेंटेशन प्रस्तुत कीं। मुखर्जी ने कहा कि स्वीकृति के बिना गिरिजाघरों जैसी जगहों पर शूटिंग करना बेहद कठिन होता है। उन्होंने कहा कि सिर्फ ईएसजी ही ऐसी जगहों के लिए समझौते करता है मगर अंदर की शूटिंग करने के फिल्म निर्माताओं को बेहद परेशानी का सामना करना पड़ता है(दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,25.11.2010 में पणजी से रिपोर्ट)।
Thursday, November 25, 2010
मुंबई में बनेगा भारतीय सिनेमा संग्रहालय
भारतीय सिनेमा के 100 साल पूरे होने पर वर्ष 2013 तक एक ऐसा संग्रहालय अस्तित्व में आ जाएगा, जिसमें सिनेमा से जुड़े सभी पहलुओं को दर्शाया जाएगा। एक अधिकारी ने बताया कि संग्रहालय में फिल्म अधिकारों से लेकर, स्क्रिप्ट,सेट डिजाइनिंग, मोनोग्राफ और यहां तक कि फिल्म पत्रिकाओं तक को स्थान दिया जाएगा।
फिल्म डिवीजन्स के निदेशक कुलदीप सिन्हा ने भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आईएफएफआई) के दौरान संवाददाताओं को बताया कि परियोजना की लागत करीब 110 करोड़ रुपए होगी। इसका उद्घाटन दादा साहब फाल्के की वर्ष 1913 में आई फिल्म राजा हरिश्चंद्र के 100 वर्ष पूरे होने पर होगा।
सिन्हा ने कहा कि पिछले 60 वर्षों के दौरान बनाई गई फिल्मों के वेब संस्करण शीघ्र ही तैयार कर लिए जाएंगे। करीब 5000 फिल्में ऑनलाइन खरीदने और डाउनलोड करने के लिए उपलब्ध होंगी।
सिन्हा ने यह भी बताया कि डिवीजन ने नेशनल फिल्म डिवीजन कारपोरेशन (एनएफडीसी) के साथ वृत्तचित्रों की मार्केटिंग के लिए एक समझौता किया है(दैनिक भास्कर,मुंबई,24.11.2010)।
Monday, November 22, 2010
फिल्मों ने बना दिया हीरो : चेतन भगत
लेखक चेतन भगत कहते हैं कि उनकी किताबों पर बनी फिल्मों ने लोगों तक उनकी पहुंच बढ़ा दी है। उनकी दो किताबों पर फिल्में बन चुकी हैं, तीसरी किताब पर काम हो रहा है और अगले साल उनकी चौथी किताब पर फिल्म बनेगी।
सलमान खान अभिनीत 'हेलो' भगत की किताब 'वन नाइट एट द कॉल सेंटर' पर आधारित है। राजकुमार हीरानी के निर्देशन में बनी और आमिर खान, आर. माधवन, शरमन जोशी व करीना कपूर की मुख्य भूमिकाओं से सजी '3 इडियट्स' भगत की किताब 'फाइव प्वाइंट समवन' पर आधारित है।
भगत ने कहा, "मेरी कहानियां बेहद भारतीय, मध्यवर्गीय, मजेदार, साधारण है, शायद इसीलिए बॉलीवुड इन कहानियों को अपना रहा है। '3 इडियट्स' की सफलता ने बता दिया है कि इन कहानियों पर सफलतापूर्वक फिल्में बनाई जा सकती हैं। इसीलिए ऐसा हो रहा है और यह मेरे लिए अच्छा है क्योंकि मैं ज्यादा से ज्यादा भारतीयों तक पहुंचना चाहता हूं लेकिन मैं अंग्रेजी में लिखता हूं यदि मैं हिंदी में लिखूं तो मेरी पहुंच और भी बढ़ जाएगी।"
निर्माता साजिद नाडियावाला ने भगत की तीसरी किताब '2 स्टेट्स: द स्टोरी ऑफ माई मैरिज' पर फिल्म बनाने में रुचि दिखाई है। यह किताब तमिलनाडु की एक लड़की और एक पंजाबी लड़के के प्रेम की कहानी है। उनके माता-पिता इस रिश्ते को स्वीकार कर लें इसके लिए वे हर सम्भव प्रयास करते हैं।
भगत को इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं था कि वह 'टाइम' पत्रिका की इस साल की दुनिया की 100 सबसे शक्तिशाली हस्तियों की सूची में शामिल होंगे।
वह कहते हैं कि यह अद्भुत था क्योंकि उन्हें इसकी जरा भी उम्मीद नहीं थी।
भगत फिल्म के लिए पटकथा लिखने की सम्भावना से इंकार नहीं करते हैं। वह कहते हैं, "शायद मैं एक पटकथा लिखूं। यह इसके लिए प्रस्ताव आने पर निर्भर करता है। यदि ऐसा होता है तो मैं इस पर विचार कर सकता हूं लेकिन मैं इसके प्रति आश्वस्त नहीं हूं।"
(भास्करडॉटकॉम,22.11.2010)
Thursday, November 18, 2010
मुंबई में 4 दिसंबर से फ्रांसीसी फ़िल्मोत्सव
समकालीन फ्रांसीसी सिनेमा के विभिन्न पहलुओं से भारतीय दर्शकों एवं फिल्मकारों को अवगत कराने के उद्देश्य से फ्रांसीसी सिनेमा का महोत्सव 4 दिसंबर से मुंबई में आयोजित होने जा रहा है। चार दिनों तक चलने वाले इस तीसरे महोत्सव के दौरान मेट्रो बिग सिनेमा (धोबीतलाव) और फन सिनेमा (अंधेरी वेस्ट) में कुल सात फ्रांसीसी फिल्में दिखाई जाएंगी, जिनमें 'हार्टब्रेकर', 'ऑफ गॉड ऐंड मैन' और 'पोसिचे' प्रमुख हैं।
इस उत्सव का आयोजन भारत स्थित फ्रांसीसी दूतावास और यूनीफ्रांस ने मिलकर किया है ताकि भारत और फ्रांस कला, संस्कृति और सिनेमा के क्षेत्र में भी एक दूसरे के करीब आ सकें। फ्रांसीसी सरकार चाहती है कि फिल्म फ्रांसीसी फिल्मों के प्रचार-प्रसार के लिए भारत-फ्रांस सहयोग से निर्माण एवं वितरण का सशक्त मंच तैयार किया जाए। परस्पर सद्भाव को बढ़ावा देने और कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए अमिताभ बच्चन तथा शाहरुख खान सर्वोच्च फ्रांसीसी सम्मान से नवाजे जा चुके हैं।
गौरतलब है कि फ्रांस में भारतीय सिनेमा ने भी हाल के सालों में दर्शकों पर गहरी छाप छोड़ी है। कान फिल्म फेस्टिवल में संजय लीला भंसाली की 'देवदास' तथा देव आनंद की 'गाइड' को काफी सराहना मिली थी। पेरिस में 'ऐन इवनिंग इन पैरिस' सहित कई हिंदी फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है और आइफल टॉवर से भारतीय दर्शक अब अच्छी तरह परिचित हैं। मकबूल फिदा हुसेन भी अपनी एक फिल्म की शूटिंग पैरिस में कर चुके हैं। बॉलिवुड के फिल्मकारों का मानना है कि मुंबई में फ्रांसीसी सिनेमा का महोत्सव दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक सहयोग को और मजबूत करेगा(नवभारत टाइम्स,मुंबई,18.11.2010)।
इस उत्सव का आयोजन भारत स्थित फ्रांसीसी दूतावास और यूनीफ्रांस ने मिलकर किया है ताकि भारत और फ्रांस कला, संस्कृति और सिनेमा के क्षेत्र में भी एक दूसरे के करीब आ सकें। फ्रांसीसी सरकार चाहती है कि फिल्म फ्रांसीसी फिल्मों के प्रचार-प्रसार के लिए भारत-फ्रांस सहयोग से निर्माण एवं वितरण का सशक्त मंच तैयार किया जाए। परस्पर सद्भाव को बढ़ावा देने और कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए अमिताभ बच्चन तथा शाहरुख खान सर्वोच्च फ्रांसीसी सम्मान से नवाजे जा चुके हैं।
गौरतलब है कि फ्रांस में भारतीय सिनेमा ने भी हाल के सालों में दर्शकों पर गहरी छाप छोड़ी है। कान फिल्म फेस्टिवल में संजय लीला भंसाली की 'देवदास' तथा देव आनंद की 'गाइड' को काफी सराहना मिली थी। पेरिस में 'ऐन इवनिंग इन पैरिस' सहित कई हिंदी फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है और आइफल टॉवर से भारतीय दर्शक अब अच्छी तरह परिचित हैं। मकबूल फिदा हुसेन भी अपनी एक फिल्म की शूटिंग पैरिस में कर चुके हैं। बॉलिवुड के फिल्मकारों का मानना है कि मुंबई में फ्रांसीसी सिनेमा का महोत्सव दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक सहयोग को और मजबूत करेगा(नवभारत टाइम्स,मुंबई,18.11.2010)।
Wednesday, November 17, 2010
मैथिली फिल्म सिनुरिया केर संगीत जारी भेल
मैथिली फ़िल्म सिनुरिया केर ऑ़डियो-वीडियो सीडी के काल्हि लोकार्पण भेल। एहि अवसर पर मधुबनी मे युवराज होटल में कार्यक्रम आयोजित कएल गेल छल। कार्यक्रम मे,मैथिली अकादमी केर पूर्व निदेशक देवकांत झा आ पूर्व न्यायाधीश सच्चिदानंद झा कहलन्हि जे एहि फिल्म केर निर्माण कए आयुष्मान फिल्म्स मीडिया आ प्रोडक्शन हाउस साहसिक काज कएलक अछि आ एहि पहल सं मैथिली भाषा मे फ़िल्म निर्माण के नव दिशा भेटतैक । कला केर उपयोगिता आ महत्ता को रेखांकित करैत देवकांत झा कहलनि जे फिल्म सिनुरिया केर नामकरणे बतबैत छैक जे ई सिनेमा एहि ठामक सभ्यता-संस्कृति सं जुड़ल छैक।
फिल्मक निर्माता मंजेश दुबे एहि अवसर पर लोक सभ सं अपील कएलनि जे अप्पन भाषाक एहि फ़िल्म कें सुपरहिट बनाऊ। फिल्म के सह-निर्माता बीएन चौधरी कहलनि जे छह गीत सं सुसज्जित एहि सीडी में सभ मूड के गाना छैक। आवश्यकता छैक तं इएह जे एकरा प्रोत्साहित कएल जाए। लोकार्पण समारोह मे संगीतकार ज्ञानेश्वर दुबे विद्यापति केर गीत गाबि श्रोतालोकनि कें मंत्रमुग्ध क देलनि। एहि अवसर पर ज्योति रमण झा बाबा, अभिराज झा, जटाधर झा आ फिल्म के वितरक अजय यश सेहो उपस्थित छलाह।
फिल्मक निर्माता मंजेश दुबे एहि अवसर पर लोक सभ सं अपील कएलनि जे अप्पन भाषाक एहि फ़िल्म कें सुपरहिट बनाऊ। फिल्म के सह-निर्माता बीएन चौधरी कहलनि जे छह गीत सं सुसज्जित एहि सीडी में सभ मूड के गाना छैक। आवश्यकता छैक तं इएह जे एकरा प्रोत्साहित कएल जाए। लोकार्पण समारोह मे संगीतकार ज्ञानेश्वर दुबे विद्यापति केर गीत गाबि श्रोतालोकनि कें मंत्रमुग्ध क देलनि। एहि अवसर पर ज्योति रमण झा बाबा, अभिराज झा, जटाधर झा आ फिल्म के वितरक अजय यश सेहो उपस्थित छलाह।
Tuesday, November 16, 2010
कॉमन मैन है क्यों बेचैन?
टिकट खिड़की पर न सही, लेकिन फिल्म समीक्षकों और अच्छी फिल्मों को पसंद करने वाले एक बड़े दर्शक वर्ग में पिछले दिनों एक फिल्म की खूब चर्चा हुई। एक शिक्षक की जिंदगी के हंसी-खुशी के पलों के बीच गुजरे जमाने की रोमांटिक जोड़ी ऋषि कपूर और नीतू सिंह की फिल्म ‘दो दूनी चार’ कई मायनों में सराही गयी।
इस फिल्म के पोस्टर में ऋषि कपूर अपनी पत्नी और दो बच्चों संग स्कूटर पर शान से बैठे दिखते हैं। जोड़-तोड़ कर घर चलाने वाली उनकी पत्नी नीतू सिंह के चेहरे पर भी संतोष झलकता है और बच्चे, दिख तो खुश ही रहे हैं, पर अंदर ही अंदर उन्हें अपने डैडीजी (बेशक बाद में अच्छे लगने लगते हैं) फूटी आंख नहीं सुहाते। ऐसे में डैडीजी अगर कम तन्ख्वाह में पूरे मुहल्ले के सामने एक नई कार लेने का ऐलान कर दें तो परिवार के बाकी लोगों पर क्या गुजरेगी। तंग जेब में जुगाड़बाजी शुरु हो जाएगी और इस जुगाड़बाजी से तमाम परेशानियां भी बिना बुलाए आएंगी ही। तंग जेब के बीच दैनंदिन मुसीबतों से जूझते एक कॉमन मैन के जीवन पर केन्द्रित इस फिल्म में बहुत कुछ कहा गया है।
मोटे तौर पर कहा जाए तो आम आदमी के जीवन और उससे जुड़े तमाम पहलुओं को भुनाने पर फिल्म इंडस्ट्री फिर से फोकस कर रही है। इस साल तमाम ऐसी छोटी-बड़ी फिल्में आईं, जिनके केन्द्र में आम आदमी था। साठ के दशक में हिन्दी फिल्मों का कथानक आम आदमी पर ही केन्द्रित हुआ करता था। हाल ही में अभी अक्षय कुमार 'खट्टा-मीठा' फिल्म में आम आदमी की भूमिका में थे। स्टार पावर युक्त अक्षय के बावजूद यह फिल्म नहीं चली। साधारण से चेहरे मोहरे और व्यक्तित्व वाले अमोल पालेकर ऐसे अभिनेता थे, जिन्होंने अपनी फिल्मों के जरिए आम आदमी को खास लोगों के ड्राइंग रूम तक पहुंचाया था।
उनकी फिल्में 'रजनीगंधा', 'चितचोर', 'घरौंदा', 'गोलमाल' आदि फिल्मों ने आम आदमी के इमोशंस को छुआ और जरूरतों का चित्रण किया। मिथुन चक्रवर्ती और गोविन्दा ने भी आम आदमी की इमेज को हिन्दी फिल्मों में अपनाया। गोविन्दा के साथ लंबे समय तक विरार का छोरा जोड़ा जाता रहा। ध्यान रहे की विरार आम लोगों के रहने वालों का इलाका है। मिथुन चक्रवर्ती के काले रंग और उनके फुटपाथ पर भूखे रह कर संघर्ष करने को खूब उछाला गया। इससे इन अभिनेताओं में आम आदमी ने खुद को देखा। इन दोनों अभिनेताओं के डांस स्टेप तक आम आदमी को रास आते थे। यह जब आम आदमी की बातें करते थे तो दर्शक तालियां बजाते थे।
कॉमन मैन के सहारे तमाम अभिनेता सुपर स्टार तक की कुर्सी पर भी पहुंचे। अमिताभ बच्चन ने कॉमन मैन को बखूबी जिया। शाहरुख खान ने अपने करियर की शुरुआत में 'राजू बन गया जैंटलमैन', 'कभी हां कभी ना', 'रामजाने' आदि फिल्मों में खुद की कॉमन मैन की इमेज बनाई। अनिल कपूर ने 'वो सात दिन' में आम आदमी बन कर सुपर हिट शुरुआत की थी। वह राज कपूर के बाद आम आदमी के पर्याय बन गए थे।
लेकिन हर अभिनेता को कॉमन मैन की इमेज रास नहीं आती। इसीलिए आम तौर पर ज्यादातर अभिनेता आम आदमी का जामा पहनने से कतराते रहे हैं। 2003 में सूरज बड़जात्या द्वारा बनाए गए चितचोर के रीमेक 'मैं प्रेम की दीवानी हूं' में अभिनेता रितिक रौशन ने अमोल पालेकर का चोला पहनने की कोशिश की थी, लेकिन वह बुरी तरह से असफल रहे। ऐसा नहीं कि अब हिन्दी फिल्मों का नायक आम आदमी नहीं रह गया। कई हिन्दी फिल्में आम आदमी की बात करती हैं।
अलबत्ता, हिन्दुस्तान का आम आदमी रूपहले पर्दे पर दो हिस्सों में बंट गया लगता है। मसलन, एक तरफ वह आम आदमी बन कर सेल्युलाइड पर उभरता है तो दूसरी तरफ कॉमन मैन बन कर ग्लैमर पाता है। इस साल की एक अन्य हिट फिल्म एंधिरन उर्फ रोबोट इसी कॉमन मैन की बात करती दिखती है। निर्माता आमिर खान की अनुषा रिजवी निर्देशित फिल्म पीपली लाइव किसानों की समस्या को उभारने वाली फिल्म थी, मगर यह फिल्म रास्ता भटक कर मीडिया और नेताओं के विद्रूप को दर्शाने वाली कॉमन मैन की फिल्म बन गई। कुछ साल पहले दिबाकर बनर्जी ने खोसला का घोसला में आम आदमी की मकान की जरूरत का चित्रण किया था।
हालिया रिलीज फिल्म 'दस तोला' एक सुनार की जिंदगी की जद्दोजहद की कहानी बयां करती है। मनोज की ही एक अन्य फिल्म जुगाड़ में दिल्ली की सीलिंग की वजह से आम आदमी को हुई परेशानी का चित्रण था। वेल डन अब्बा में भी एक निम्न मध्यम वर्ग के व्यक्ति की अपनी बेटी की शादी की चिंता जुड़ी थी। मुम्बई मेरी जान, आमिर और ए वेनस्डे आम आदमी और आतंकवाद को जोड़ते हुए आम आदमी की चिंता का प्रदर्शन करती थीं। इन तीनों ही फिल्मों में कॉमन मैन अपील कूट-कूट कर भरी थी, लेकिन व्यावसायिक रूप से ये फिल्में खास कमाई न सकीं।
'दो दूनी चार' में ऋषि कपूर एक ऐसे परिवार के मुखिया थे, जिसके सदस्यों के बीच एक कार खरीदने के लिए बहस छिड़ी हुई है। बड़े बजट की कॉमन मैन वाली और कम बजट की आम आदमी की फिल्मों में कुछ चलीं, कुछ नहीं चलीं, मगर इन्हें चर्चा जरूरी मिली। आज के परिदृश्य में आम आदमी क्या सोचता है, इसका चित्रण करने वाली तमाम फिल्मों की समीक्षकों ने गम्भीरता से समीक्षा की। उन्हें सराहा और अच्छी रेटिंग दी। लेकिन आम आदमी का चित्रण करने वाली वही फिल्में बॉक्स आफिस पर चलीं, जिनसे बड़े सितारों का नाम जुड़ा।
बतौर अभिनेता अपनी पहली फिल्म 'राजधानी एक्सप्रेस' में टेनिस खिलाड़ी लिएंडर पेस एक आम आदमी बने हैं। आने वाली फिल्म 'शाहरुख बोला खूबसूरत है तू' शाहरुख खान की फैन एक फूल बेचने वाली लड़की की कहानी है, जो यह सोचती है कि वह एक दिन शाहरुख खान की हीरोइन बनेगी। अभी तक मसाला फिल्मों में काम करते आए अभिनेता शरमन जोशी आने वाली फिल्म 'अल्लाह के बंदे' में माफिया से जुड़े आम आदमी का किरदार निभा रहे हैं। अनुष्का शर्मा की 'बैंड बाजा बारात' मध्यम वर्ग की लड़की की कहानी है, जो वैडिंग प्लानिंग कंपनी चलाती है। यानी बड़े सितारों वाली ग्लैमरस और भव्य फिल्में बनाने वाले यशराज बैनर का फोकस भी अब आम आदमी पर केन्द्रित होता दिख रहा है(राजेन्द्र काण्डपाल,हिंदुस्तान,दिल्ली,12.11.2010)।
इस फिल्म के पोस्टर में ऋषि कपूर अपनी पत्नी और दो बच्चों संग स्कूटर पर शान से बैठे दिखते हैं। जोड़-तोड़ कर घर चलाने वाली उनकी पत्नी नीतू सिंह के चेहरे पर भी संतोष झलकता है और बच्चे, दिख तो खुश ही रहे हैं, पर अंदर ही अंदर उन्हें अपने डैडीजी (बेशक बाद में अच्छे लगने लगते हैं) फूटी आंख नहीं सुहाते। ऐसे में डैडीजी अगर कम तन्ख्वाह में पूरे मुहल्ले के सामने एक नई कार लेने का ऐलान कर दें तो परिवार के बाकी लोगों पर क्या गुजरेगी। तंग जेब में जुगाड़बाजी शुरु हो जाएगी और इस जुगाड़बाजी से तमाम परेशानियां भी बिना बुलाए आएंगी ही। तंग जेब के बीच दैनंदिन मुसीबतों से जूझते एक कॉमन मैन के जीवन पर केन्द्रित इस फिल्म में बहुत कुछ कहा गया है।
मोटे तौर पर कहा जाए तो आम आदमी के जीवन और उससे जुड़े तमाम पहलुओं को भुनाने पर फिल्म इंडस्ट्री फिर से फोकस कर रही है। इस साल तमाम ऐसी छोटी-बड़ी फिल्में आईं, जिनके केन्द्र में आम आदमी था। साठ के दशक में हिन्दी फिल्मों का कथानक आम आदमी पर ही केन्द्रित हुआ करता था। हाल ही में अभी अक्षय कुमार 'खट्टा-मीठा' फिल्म में आम आदमी की भूमिका में थे। स्टार पावर युक्त अक्षय के बावजूद यह फिल्म नहीं चली। साधारण से चेहरे मोहरे और व्यक्तित्व वाले अमोल पालेकर ऐसे अभिनेता थे, जिन्होंने अपनी फिल्मों के जरिए आम आदमी को खास लोगों के ड्राइंग रूम तक पहुंचाया था।
उनकी फिल्में 'रजनीगंधा', 'चितचोर', 'घरौंदा', 'गोलमाल' आदि फिल्मों ने आम आदमी के इमोशंस को छुआ और जरूरतों का चित्रण किया। मिथुन चक्रवर्ती और गोविन्दा ने भी आम आदमी की इमेज को हिन्दी फिल्मों में अपनाया। गोविन्दा के साथ लंबे समय तक विरार का छोरा जोड़ा जाता रहा। ध्यान रहे की विरार आम लोगों के रहने वालों का इलाका है। मिथुन चक्रवर्ती के काले रंग और उनके फुटपाथ पर भूखे रह कर संघर्ष करने को खूब उछाला गया। इससे इन अभिनेताओं में आम आदमी ने खुद को देखा। इन दोनों अभिनेताओं के डांस स्टेप तक आम आदमी को रास आते थे। यह जब आम आदमी की बातें करते थे तो दर्शक तालियां बजाते थे।
कॉमन मैन के सहारे तमाम अभिनेता सुपर स्टार तक की कुर्सी पर भी पहुंचे। अमिताभ बच्चन ने कॉमन मैन को बखूबी जिया। शाहरुख खान ने अपने करियर की शुरुआत में 'राजू बन गया जैंटलमैन', 'कभी हां कभी ना', 'रामजाने' आदि फिल्मों में खुद की कॉमन मैन की इमेज बनाई। अनिल कपूर ने 'वो सात दिन' में आम आदमी बन कर सुपर हिट शुरुआत की थी। वह राज कपूर के बाद आम आदमी के पर्याय बन गए थे।
लेकिन हर अभिनेता को कॉमन मैन की इमेज रास नहीं आती। इसीलिए आम तौर पर ज्यादातर अभिनेता आम आदमी का जामा पहनने से कतराते रहे हैं। 2003 में सूरज बड़जात्या द्वारा बनाए गए चितचोर के रीमेक 'मैं प्रेम की दीवानी हूं' में अभिनेता रितिक रौशन ने अमोल पालेकर का चोला पहनने की कोशिश की थी, लेकिन वह बुरी तरह से असफल रहे। ऐसा नहीं कि अब हिन्दी फिल्मों का नायक आम आदमी नहीं रह गया। कई हिन्दी फिल्में आम आदमी की बात करती हैं।
अलबत्ता, हिन्दुस्तान का आम आदमी रूपहले पर्दे पर दो हिस्सों में बंट गया लगता है। मसलन, एक तरफ वह आम आदमी बन कर सेल्युलाइड पर उभरता है तो दूसरी तरफ कॉमन मैन बन कर ग्लैमर पाता है। इस साल की एक अन्य हिट फिल्म एंधिरन उर्फ रोबोट इसी कॉमन मैन की बात करती दिखती है। निर्माता आमिर खान की अनुषा रिजवी निर्देशित फिल्म पीपली लाइव किसानों की समस्या को उभारने वाली फिल्म थी, मगर यह फिल्म रास्ता भटक कर मीडिया और नेताओं के विद्रूप को दर्शाने वाली कॉमन मैन की फिल्म बन गई। कुछ साल पहले दिबाकर बनर्जी ने खोसला का घोसला में आम आदमी की मकान की जरूरत का चित्रण किया था।
हालिया रिलीज फिल्म 'दस तोला' एक सुनार की जिंदगी की जद्दोजहद की कहानी बयां करती है। मनोज की ही एक अन्य फिल्म जुगाड़ में दिल्ली की सीलिंग की वजह से आम आदमी को हुई परेशानी का चित्रण था। वेल डन अब्बा में भी एक निम्न मध्यम वर्ग के व्यक्ति की अपनी बेटी की शादी की चिंता जुड़ी थी। मुम्बई मेरी जान, आमिर और ए वेनस्डे आम आदमी और आतंकवाद को जोड़ते हुए आम आदमी की चिंता का प्रदर्शन करती थीं। इन तीनों ही फिल्मों में कॉमन मैन अपील कूट-कूट कर भरी थी, लेकिन व्यावसायिक रूप से ये फिल्में खास कमाई न सकीं।
'दो दूनी चार' में ऋषि कपूर एक ऐसे परिवार के मुखिया थे, जिसके सदस्यों के बीच एक कार खरीदने के लिए बहस छिड़ी हुई है। बड़े बजट की कॉमन मैन वाली और कम बजट की आम आदमी की फिल्मों में कुछ चलीं, कुछ नहीं चलीं, मगर इन्हें चर्चा जरूरी मिली। आज के परिदृश्य में आम आदमी क्या सोचता है, इसका चित्रण करने वाली तमाम फिल्मों की समीक्षकों ने गम्भीरता से समीक्षा की। उन्हें सराहा और अच्छी रेटिंग दी। लेकिन आम आदमी का चित्रण करने वाली वही फिल्में बॉक्स आफिस पर चलीं, जिनसे बड़े सितारों का नाम जुड़ा।
बतौर अभिनेता अपनी पहली फिल्म 'राजधानी एक्सप्रेस' में टेनिस खिलाड़ी लिएंडर पेस एक आम आदमी बने हैं। आने वाली फिल्म 'शाहरुख बोला खूबसूरत है तू' शाहरुख खान की फैन एक फूल बेचने वाली लड़की की कहानी है, जो यह सोचती है कि वह एक दिन शाहरुख खान की हीरोइन बनेगी। अभी तक मसाला फिल्मों में काम करते आए अभिनेता शरमन जोशी आने वाली फिल्म 'अल्लाह के बंदे' में माफिया से जुड़े आम आदमी का किरदार निभा रहे हैं। अनुष्का शर्मा की 'बैंड बाजा बारात' मध्यम वर्ग की लड़की की कहानी है, जो वैडिंग प्लानिंग कंपनी चलाती है। यानी बड़े सितारों वाली ग्लैमरस और भव्य फिल्में बनाने वाले यशराज बैनर का फोकस भी अब आम आदमी पर केन्द्रित होता दिख रहा है(राजेन्द्र काण्डपाल,हिंदुस्तान,दिल्ली,12.11.2010)।
हॉलीवुड-बॉलीवुड में हुआ ऐतिहासिक गठबंधन
भारतीय फिल्म उद्योग का बढ़ता बाजार और विदेशों में बढ़ता दबदबा देख कर हॉलीवुड ने बॉलीवुड की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया है। शुक्रवार को कैलिफोर्निया में लॉस एंजिल्स और भारतीय फिल्म उद्योग के बीच घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर किए गए। इस अनुबंध के तहत यह दोनों साथ मिल कर फिल्म निर्माण, वितरण, तकनीक, वाणिज्यिक सहकारिता विकसित करने और कॉपीराइट की सुरक्षा को लेकर काम करेंगे। इसके साथ ही लॉस एंजिल्स में भारतीय फिल्म निर्माण के विकास हेतु लॉस एंजिल्स-इंडिया फिल्म काउंसिल का गठन भी करेंगे।
इस मौके पर लॉस एंजिल्स के मेयर एंटोनियो विलाराइगोसा, कैलिफोर्निया फिल्म कमिशनर एमी लेमिश, पैरामाउंट पिक्चर्स के सीईओ ब्रैड ग्रे, मोशन पिक्चर्स एसोसिएशन एशिया पैसिफिक के अध्यक्ष माइक एलिस, मोशन पिक्चर एसोसिएशन इंडिया के प्रबंध निदेशक राजीव दलाल, फिल्म निर्माता बॉबी बेदी, एल. सुरेश के साथ ही रिलायंस बिग एंटरटेनमेंट और यूटीवी मोशन पिक्चर्स के प्रतिनिधि उपस्थित थे। इस मौके पर मेयर एंटोनियो ने कहा कि पिछले वर्ष "माई नेम इज खान" और "काइट्स" फिल्मों का निर्माण लॉस एंजिल्स में हुआ था और उम्मीद है कि इस अनुबंध के बाद और भी हिंदी फिल्मों का निर्माण लॉस एंजिल्स में होगा।
निर्माता बॉबी बेदी ने कहा कि बॉलीवुड और हॉलीवुड में हुए इस अनुबंध की वजह से हमें भारत में अंतरराष्ट्रीय स्तर की फिल्में बनाने का मौका मिलेगा।
लॉस एंजिल्स शहर में अब ज्यादा से ज्यादा भारतीय फिल्मों का निर्माण हो पाएगा क्योंकि यहां की सरकार ने हमें सारी सुविधाएं देने का वादा किया है। इस अनुबंध से क्षेत्रीय फिल्म उद्योग को भी बढ़ावा मिलेगा।अनुबंध पर हस्ताक्षर करने के बाद निर्माता बॉबी बेदी, राजीव दयाल, लॉस एंजिल्स के मेयर एंटोनियो और दक्षिण भारतीय फिल्मों के निर्माता सुरेश लक्ष्मण(चंद्रकांत शिंदे,नई दुनिया,दिल्ली,16.11.2010)।
Monday, November 15, 2010
अधूरी तैयारियों के बीच जारी है कोलकाता फिल्मोत्सव
16 वें कोलकाता फिल्मोत्सव के तीन दिन बीत जाने केबावजूद कमियां जगह-जगह उजागर हो रही हैं। प्रबंधन कमियों की जानकारी के बाद भी अपने दायित्व से पल्ला झाड़ रहा है, वहीं मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य राजनीति में व्यस्त हैं। इससे दर्शकों में न सिर्फ नाराजगी है, बल्कि वे महोत्सव के चार दिन बाकी रहने के बावजूद अभी से उसे फ्लाप शो बता रहे हैं। राज्य सरकार घोषणा के बावजूद मशहूर फिल्मकार स्वर्गीय सत्यजीत राय के चर्चित वृत्तचित्र सिक्किम दिखाने में विफल रही। पहले तो नंदन के सीईओ नीलांजन चटर्जी ने कहा था कि सिक्किम वृत्तचित्र हर हाल में प्रदर्शित किया जायेगा लेकिन जब सिक्किम की अदालत ने रोक लगाने का निर्देश दिया तो वामो सरकार खामोश हो गयी। अब फिर से सिक्किम दिखाने के लिए सरकार ने पहल शुरू की है। संबंधित संस्था को प्रक्रिया के तहत चिट्ठी लिखी दी गयी है। मालूम हो कि महोत्सव के शुरू में सिक्किम की संस्था द आर्ट एंड कल्चर ट्रस्ट के वरिष्ठ पदाधिकारी उगेन चेपल ने कहा था कि उनके पास सिक्किम वृत्तचित्र का कापी राइट अधिकार सुरक्षित है, इसलिए उनकी अनुमति जरूरी है। उन्होंने कहा कि इस बार सरकार का रवैया ठीक नहीं है। उन्होंने कहा कि पूर्ववर्ती महोत्सवों में सबकी राय सुनी जाती थी लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं दिख रहा है। उल्लेखनीय है कि पहले दिन सिक्किम का एक शो हुआ, जबकि महोत्सव में सात दिन दिखाने का निर्णय किया गया था। बांग्ला फिल्म के समीक्षक डा. संजय मुखर्जी ने तो सिक्किम की सीडी पर सवाल खड़ा किया और कहा कि उसके असली होने में भी संदेह है। गुरुवार को जापान के नामचीन निर्देशक कुरुसावा की वर्ष 1985 में प्रदर्शित फिल्म रैन रवींद्र सदन प्रेक्षागृह में दिखायी जा रही थी। कुछ देर बाद प्रोजेक्टर में गड़बड़ी आ गयी। काफी देर तक दर्शक इंतजार करते रहे बावजूद उसके प्रबंधन ने क्षमायाचना नहीं की। इस बीच दर्शकों का मन बहलाने के लिए हिन्दी व बांग्ला के गाने दिखाये गये, जिससे नाराज दर्शक हाल से बाहर निकल गये। शुक्रवार को वियतनामी फिल्म द लीजेंड इज एलाइव फिल्म दिखायी जा रही थी, तभी स्क्रीन पर गड़बड़ी देखी गयी। वियतनामी फिल्म के बदले भारतीय फिल्म लाइफ गोज आन दिखायी गयी। इससे नाराज दर्शक उत्तेजित हो गये और आयोजक को जमकर कोसा। इसी तरह की गड़बडि़यां अन्य प्रेक्षागृहों में भी देखी जा रही हैं। महोत्सव के पदाधिकारी नीलांजन चटर्जी अपनी जिम्मेदारी से पीछे हट रहे हैं और सरकार भी चुप है(दैनिक जागरण,सिलीगुड़ी,15.11.2010)।
Sunday, November 14, 2010
शशि कपूर
बलबीर राज कपूर वर्ष 1938 में एक जाने-माने फिल्मी घराने कपूर खानदान में जन्मे थे। अपने पिता पृथ्वीराज कपूर और बड़े भाई राज कपूर व शम्मी कपूर के नक्शेकदम पर चलते हुए बलबीर ने भी फिल्मों में ही अपनी तकदीर आजमाई। अलबत्ता कई मायनों में उनका कॅरियर पिता और भाइयों से अलहदा था। दुनिया बलबीर को शशि कपूर के नाम से जानती है।
शशि कपूर ने 40 के दशक में ही फिल्मों में काम करना शुरू कर दिया था। उन्होंने कई धार्मिक फिल्मों में बाल कलाकार की भूमिकाएं निभाईं। उन्होंने बंबई के माटुंगा स्थित डॉन बोस्को स्कूल में पढ़ाई की थी। पिता पृथ्वीराज कपूर उन्हें छुट्टियों के दौरान स्टेज पर अभिनय करने के लिए प्रोत्साहित करते थे।
इसी का नतीजा रहा कि शशि के बड़े भाई राज कपूर ने उन्हें आग (1948) और आवारा (1951) में भूमिकाएं दी। आवारा में उन्होंने राज कपूर के बचपन का रोल किया था। 50 के दशक के मध्य में पिता की सलाह पर वे गॉडफ्रे कैंडल के थिएटर ग्रुप ‘शेक्सपियराना’ में शामिल हो गए और उसके साथ दुनियाभर की यात्राएं कीं। इसी दौरान गॉडफ्रे की बेटी और ब्रिटिश अभिनेत्री जेनिफर से उन्हें प्रेम हुआ और 1958 में मात्र 20 वर्ष की उम्र में उन्होंने उनसे विवाह कर लिया।
शशि कपूर ने गैरपरंपरागत किस्म की भूमिकाओं के साथ सिनेमा के पर्दे पर आगाज किया था। उन्होंने सांप्रदायिक दंगों पर आधारित फिल्म धर्मपुत्र (1961) में काम किया और उसके बाद चार दीवारी और प्रेम पात्र जैसी ऑफ बीट फिल्मों में नजर आए। वे हिंदी सिनेमा के पहले ऐसे अभिनेता थे, जिन्होंने हाउसहोल्डर और शेक्सपियर वाला जैसी अंग्रेजी फिल्मों में मुख्य भूमिकाएं निभाईं।
वर्ष 1965 शशि कपूर के लिए एक महत्वपूर्ण साल था। इसी साल उनकी पहली जुबली फिल्म जब जब फूल खिले रिलीज हुई और यश चोपड़ा ने उन्हें भारत की पहली मल्टी स्टारर ईस्टमैन कलर फिल्म वक्त के लिए कास्ट किया।
बॉक्स ऑफिस पर लगातार दो बड़ी हिट फिल्मों के बाद व्यावहारिकता का तकाजा यह था कि शशि कपूर परंपरागत भूमिकाएं करें, लेकिन उनके भीतर बैठा अभिनेता इसके लिए तैयार नहीं था। इसके बाद उन्होंने ए मैटर ऑव इनोसेंस और प्रिटी पॉली 67 जैसी फिल्में कीं, वहीं हसीना मान जाएगी, प्यार का मौसम ने एक चॉकलेटी हीरो के रूप में उन्हें स्थापित किया।
वर्ष 1972 की फिल्म सिद्धार्थ के साथ उन्होंने अंतरराष्ट्रीय सिनेमा के मंच पर अपनी मौजूदगी कायम रखी। ७क् के दशक में शशि कपूर सबसे व्यस्त अभिनेताओं में से थे और वे तीन-तीन शिफ्टों में काम करते थे। इसी दशक में उनकी चोर मचाए शोर, दीवार, कभी-कभी, दूसरा आदमी और सत्यम शिवम सुंदरम जैसी फिल्में रिलीज हुईं।
वर्ष 1971 में पृथ्वीराज कपूर की मृत्यु के बाद शशि कपूर ने जेनिफर के साथ मिलकर पिता के स्वप्न को जारी रखने के लिए मुंबई में पृथ्वी थिएटर का पुनरुत्थान किया। अमिताभ बच्चन के साथ आई उनकी फिल्मों दीवार, कभी-कभी, त्रिशूल, सिलसिला, नमक हलाल, दो और दो पांच, शान ने भी उन्हें बहुत लोकप्रियता दिलाई। लेकिन शशि कपूर ने सार्थक सिनेमा का दामन कभी नहीं छोड़ा। वर्ष 1977 में उनकी प्रोडक्शन कंपनी फिल्मवालाज ने पांच प्रोजेक्टों की घोषणा की।
इनमें श्याम बेनेगल की जुनून और कलयुग, गोविंद निहलानी की विजेता, गिरीश कर्नाड की उत्सव और अपर्णा सेन की ३६ चौरंगी लेन जैसी फिल्में शामिल थीं। उनके आलोचकों ने कहा कि वे पेशेवर रूप से आत्मघात कर रहे हैं, लेकिन शशि कपूर ने केवल यही कहा कि सिनेमा में भरोसा करते हैं, व्यावसायिक और कला फिल्मों के विभाजन में नहीं।
शशि कपूर ने मर्चेट आइवरी प्रोडक्शन की फिल्मों में बेहतरीन अदाकारी की है। इनमें हीट एंड डस्ट, सैमी एंड रोजी गेट लेड जैसी फिल्में शामिल हैं। जेनिफर की मृत्यु के बाद उन्हें अवसाद ने घेर लिया। एक समय ऐसा भी आया, जब उन्होंने फिल्मों और थिएटर में दिलचस्पी लेना बंद कर दी।
लेकिन वर्ष 1986 में न्यू देहली टाइम्स के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार जीतकर उन्होंने एक बार फिर खुद को साबित कर दिया। शशि कपूर अब सिनेमा से पूरी तरह रिटायर हो चुके हैं, लेकिन वे अब भी पृथ्वी थिएटर के प्रेरणास्रोत हैं। फिल्म दीवार में शशि कपूर का यह संवाद बहुत लोकप्रिय हुआ था : ‘मेरे पास मां है।’ इसी तर्ज पर हम भी गर्व से कह सकते हैं : ‘हमारे पास शशि कपूर हैं।’(भावना सोमाया,दैनिक भास्कर,14.11.2010)
Saturday, November 13, 2010
नाटक आधारित फिल्में और फिल्म पर नाटक
शोभना देसाई के गुजराती नाटक ‘अंधलो पातो’ पर आधारित फिल्म ‘आंखें’ विपुल शाह ने बनाई थी और अब अपने ही गुजराती नाटक पर उन्होंने ‘एक्शन रीप्ले’ नामक हादसा रचा है। इससे पूर्व पीटर शेफर के महान नाटक ‘अमेडियस’ पर आधारित उनकी ‘लंदन ड्रीम्स’ अनेक लोगों के लिए वित्तीय दु:स्वप्न बनी।
आश्चर्य की बात यह है कि उनका ही एक बयान है कि फिल्म उद्योग में सफलता का प्रतिशत पंद्रह नहीं पचास माना जाना चाहिए, क्योंकि अधिकांश फिल्में उद्योग से अपरिचित नौसिखियों द्वारा गढ़ी जाती हैं और उनको खारिज करने पर सफलता का प्रतिशत बढ़ता है। विपुल शाह उन लोगों को भूल गए जो नौसिखिया नहीं हैं, फिर भी अनपढ़ों की तरह फिल्में बनाते हैं और इस सूची में वे अब शिखर स्थान पर पहुंच गए हैं।
बहरहाल नाटकों का फिल्मों से नजदीकी रिश्ता रहा है। धुंडिराज गोविंद फाल्के की फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ को ही पहली फिल्म माना जाता है, जबकि उसके प्रदर्शन के पूर्व इसी नाटक के एक प्रदर्शन को जस का तस शूट करके दिखाया गया था और उसे फिल्म्ड प्ले होने के नाते पहली कथा फिल्म नहीं माना गया। गोयाकि प्रारंभ में ही स्पष्ट हो गया कि नाटक से प्रेरणा लेकर फिल्म बनाई जा सकती है, परंतु वह फिल्म होनी चाहिए, फिल्म्ड प्ले नहीं।
नाटक में बोले गए शब्द का बहुत महत्व है, जबकि सिनेमा की भाषा में दृश्य का महत्व है। नाटक में अनेक पात्र मंच पर होते हैं परंतु दर्शक किसी एक को कुछ समय के लिए केंद्रीय माने, ऐसी बाध्यता नहीं है। दूसरी ओर सिनेमा में क्लोज अप द्वारा दर्शक का ध्यान एक पात्र पर केंद्रित किया जा सकता है।
नाटक में दर्शक और पात्र का सीधा संवाद स्थापित होता है जबकि फिल्म में निर्देशक की इच्छा के विपरीत कोई भाव संप्रेषित नहीं हो सकता। हर माध्यम की अपनी शक्ति और सीमाएं होती हैं और सृजनशील लोग अपने माध्यम की सीमाओं का विस्तार करते हैं। मसलन गिरीश कर्नाड ने ‘हयवदन’ में मंच पर मौजूद कठपुतलियों की बातचीत के माध्यम से पात्रों के स्वप्न को अभिव्यक्ति दी।
कठपुतलियों की भूमिकाएं दो बालिकाओं ने निभाई थीं। आजकल रंगमंच पर टेक्नोलॉजी की मदद से अनेक प्रयोग हो रहे हैं। सिनेमा की सीमाओं का भी विस्तार हो रहा है। दर्शक की कल्पनाशक्ति और रस ग्रहण करने का माद्दा भी माध्यमों का सीमा विस्तार करता है।
अंग्रेजी भाषा में बनी अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म ‘द लास्ट लीयर’ में रंगमंच और सिनेमा के द्वंद्व को लेकर फिल्म रची गई थी। रंगमंच के नशे में चूर नायक सिनेमा को उससे छोटा समझता है और फिल्म का निर्देशक सिनेमा के नशे में गाफिल है। दरअसल यह द्वंद्व दोनों के नशों का है, माध्यमों का नहीं।
मराठी भाषा में नाटकों पर अनेक फिल्में बनी हैं। 1971 में विजय तेंदुलकर के नाटक पर ‘शांतता! कोर्ट चालू आहे’ बनी थी। गिरीश कर्नाड ने संस्कृत के ‘चारुदत्त’ और ‘मृच्छकटिकम’ को मिलाकर शशि कपूर के लिए ‘उत्सव’ नामक फिल्म बनाई थी, जिसमें लक्ष्मी-प्यारे ने अत्यंत मधुर संगीत दिया था। पश्चिम में ऑपेरा से प्रेरित ‘साउंड ऑफ म्यूजिक’ बनी थी, जिसे गुलजार ने हिंदी में ‘परिचय’ के नाम से बनाया था।
फिल्म ‘माय फेयर लेडी’ के आधार पर अमित खन्ना ने देवआनंद और टीना मुनीम को लेकर ‘मनपसंद’ बनाई थी, जिसमें राजेश रोशन ने अमित खन्ना के प्यारे गीतों की मधुर धुनें तैयारी की थीं। हरिकृष्ण प्रेमी के ‘रक्षा बंधन’ पर ‘चित्तौड़ विजय’ नामक फिल्म रची गई थी। शेक्सपीयर के नाटकों पर आधारित फिल्में सभी देशों में बार-बार बनाई गई हैं। यह सिलसिला हमेशा जारी रहेगा। हालांकि सफल फिल्मों के आधार पर नाटक नहीं रचे गए हैं, परंतु इस संभावना को निरस्त नहीं किया जा सकता(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,13.11.2010)।
आश्चर्य की बात यह है कि उनका ही एक बयान है कि फिल्म उद्योग में सफलता का प्रतिशत पंद्रह नहीं पचास माना जाना चाहिए, क्योंकि अधिकांश फिल्में उद्योग से अपरिचित नौसिखियों द्वारा गढ़ी जाती हैं और उनको खारिज करने पर सफलता का प्रतिशत बढ़ता है। विपुल शाह उन लोगों को भूल गए जो नौसिखिया नहीं हैं, फिर भी अनपढ़ों की तरह फिल्में बनाते हैं और इस सूची में वे अब शिखर स्थान पर पहुंच गए हैं।
बहरहाल नाटकों का फिल्मों से नजदीकी रिश्ता रहा है। धुंडिराज गोविंद फाल्के की फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ को ही पहली फिल्म माना जाता है, जबकि उसके प्रदर्शन के पूर्व इसी नाटक के एक प्रदर्शन को जस का तस शूट करके दिखाया गया था और उसे फिल्म्ड प्ले होने के नाते पहली कथा फिल्म नहीं माना गया। गोयाकि प्रारंभ में ही स्पष्ट हो गया कि नाटक से प्रेरणा लेकर फिल्म बनाई जा सकती है, परंतु वह फिल्म होनी चाहिए, फिल्म्ड प्ले नहीं।
नाटक में बोले गए शब्द का बहुत महत्व है, जबकि सिनेमा की भाषा में दृश्य का महत्व है। नाटक में अनेक पात्र मंच पर होते हैं परंतु दर्शक किसी एक को कुछ समय के लिए केंद्रीय माने, ऐसी बाध्यता नहीं है। दूसरी ओर सिनेमा में क्लोज अप द्वारा दर्शक का ध्यान एक पात्र पर केंद्रित किया जा सकता है।
नाटक में दर्शक और पात्र का सीधा संवाद स्थापित होता है जबकि फिल्म में निर्देशक की इच्छा के विपरीत कोई भाव संप्रेषित नहीं हो सकता। हर माध्यम की अपनी शक्ति और सीमाएं होती हैं और सृजनशील लोग अपने माध्यम की सीमाओं का विस्तार करते हैं। मसलन गिरीश कर्नाड ने ‘हयवदन’ में मंच पर मौजूद कठपुतलियों की बातचीत के माध्यम से पात्रों के स्वप्न को अभिव्यक्ति दी।
कठपुतलियों की भूमिकाएं दो बालिकाओं ने निभाई थीं। आजकल रंगमंच पर टेक्नोलॉजी की मदद से अनेक प्रयोग हो रहे हैं। सिनेमा की सीमाओं का भी विस्तार हो रहा है। दर्शक की कल्पनाशक्ति और रस ग्रहण करने का माद्दा भी माध्यमों का सीमा विस्तार करता है।
अंग्रेजी भाषा में बनी अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म ‘द लास्ट लीयर’ में रंगमंच और सिनेमा के द्वंद्व को लेकर फिल्म रची गई थी। रंगमंच के नशे में चूर नायक सिनेमा को उससे छोटा समझता है और फिल्म का निर्देशक सिनेमा के नशे में गाफिल है। दरअसल यह द्वंद्व दोनों के नशों का है, माध्यमों का नहीं।
मराठी भाषा में नाटकों पर अनेक फिल्में बनी हैं। 1971 में विजय तेंदुलकर के नाटक पर ‘शांतता! कोर्ट चालू आहे’ बनी थी। गिरीश कर्नाड ने संस्कृत के ‘चारुदत्त’ और ‘मृच्छकटिकम’ को मिलाकर शशि कपूर के लिए ‘उत्सव’ नामक फिल्म बनाई थी, जिसमें लक्ष्मी-प्यारे ने अत्यंत मधुर संगीत दिया था। पश्चिम में ऑपेरा से प्रेरित ‘साउंड ऑफ म्यूजिक’ बनी थी, जिसे गुलजार ने हिंदी में ‘परिचय’ के नाम से बनाया था।
फिल्म ‘माय फेयर लेडी’ के आधार पर अमित खन्ना ने देवआनंद और टीना मुनीम को लेकर ‘मनपसंद’ बनाई थी, जिसमें राजेश रोशन ने अमित खन्ना के प्यारे गीतों की मधुर धुनें तैयारी की थीं। हरिकृष्ण प्रेमी के ‘रक्षा बंधन’ पर ‘चित्तौड़ विजय’ नामक फिल्म रची गई थी। शेक्सपीयर के नाटकों पर आधारित फिल्में सभी देशों में बार-बार बनाई गई हैं। यह सिलसिला हमेशा जारी रहेगा। हालांकि सफल फिल्मों के आधार पर नाटक नहीं रचे गए हैं, परंतु इस संभावना को निरस्त नहीं किया जा सकता(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,13.11.2010)।
Friday, November 12, 2010
कॉपीराइट उल्लंघन के खिलाफ अदालत जाएंगे अमिताभ
बॉलीवुड महानायक अमिताभ बच्चन लगातार हो रहे कॉपीराइट उल्लंघन और उत्पादों के प्रचार के लिए उनके नाम के अवैध इस्तेमाल के चलते गुस्से में हैं।
अमिताभ ने अपने ब्लॉग पर लिखा है, "मैंने वकीलों से बात की है और हम अदालत जाएंगे। जब लोग ई-मेल के जरिए अपना व्यापार चलाते हैं तब वे ऐसा करते हैं। जब तक उन्हें इसका सबक नहीं सिखाया जाएगा तब तक वे सही रास्ते पर नहीं आएंगे।"
अमिताभ ने लिखा है, "सुबह से अब तक कॉपीराइट उल्लंघन के कई मामले आ चुके हैं।"
उन्होंने बताया है कि किस तरह एक कम्पनी 'लक्ष्मी फूड्स' विज्ञापन में उनके रिएलिटी शो 'कौन बनेगा करोड़पति' की नकल करते हुए बासमति चावल बेच रही है।
अमिताभ के मुताबिक इस विज्ञापन में केबीसी जैसा ही सेट तैयार किया गया है और उत्पाद बेचने के लिए उनकी आवाज की नकल की गई है जो कि अनैतिक और कानूनी तौर पर गलत है।
दूसरा कॉपीराइट उल्लंघन मोबाइल व टेलीफोन कम्पनी एयरटेल ने किया है। अमिताभ के मुताबिक एयरटेल के एक विज्ञापन में उनसे बात करने का अवसर दिए जाने की बात कही जा रही है जबकि उनका कम्पनी के साथ ऐसा कोई अनुबंध नहीं हुआ है। उन्होंने कहा कि कम्पनी ने इसे एक गलती बताया है लेकिन उसे इसके लिए माफ नहीं किया जा सकता(भास्कर डॉटकॉम,12.11.2010)।
अमिताभ ने अपने ब्लॉग पर लिखा है, "मैंने वकीलों से बात की है और हम अदालत जाएंगे। जब लोग ई-मेल के जरिए अपना व्यापार चलाते हैं तब वे ऐसा करते हैं। जब तक उन्हें इसका सबक नहीं सिखाया जाएगा तब तक वे सही रास्ते पर नहीं आएंगे।"
अमिताभ ने लिखा है, "सुबह से अब तक कॉपीराइट उल्लंघन के कई मामले आ चुके हैं।"
उन्होंने बताया है कि किस तरह एक कम्पनी 'लक्ष्मी फूड्स' विज्ञापन में उनके रिएलिटी शो 'कौन बनेगा करोड़पति' की नकल करते हुए बासमति चावल बेच रही है।
अमिताभ के मुताबिक इस विज्ञापन में केबीसी जैसा ही सेट तैयार किया गया है और उत्पाद बेचने के लिए उनकी आवाज की नकल की गई है जो कि अनैतिक और कानूनी तौर पर गलत है।
दूसरा कॉपीराइट उल्लंघन मोबाइल व टेलीफोन कम्पनी एयरटेल ने किया है। अमिताभ के मुताबिक एयरटेल के एक विज्ञापन में उनसे बात करने का अवसर दिए जाने की बात कही जा रही है जबकि उनका कम्पनी के साथ ऐसा कोई अनुबंध नहीं हुआ है। उन्होंने कहा कि कम्पनी ने इसे एक गलती बताया है लेकिन उसे इसके लिए माफ नहीं किया जा सकता(भास्कर डॉटकॉम,12.11.2010)।
चार साल में 136 अरब रुपए का हो जाएगा भारतीय फिल्मोद्योग
भारतीय फिल्मोद्योग वर्ष 2014 तक बढ़कर 136.7 अरब रुपए का हो जाएगा। इससे उत्साहित सूचना-प्रसारण मंत्रालय गोवा में होने वाले अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में ‘फिल्म वित्त व्यवस्था’ पर विशेष सत्र आयोजित करने जा रहा है। इसमें देशी-विदेशी फिल्म फाइनेंसरों को भारतीय फिल्म उद्योग में पैसा लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। साथ ही उन्हें भारत में विभिन्न जगहों पर शूटिंग के लिए आमंत्रित किया जाएगा।
यह फिल्म महोत्सव गोवा में 22 नवंबर से 2 दिसंबर के बीच आयोजित होने जा रहा है। मंत्रालय को अगले चार साल में घरेलू फिल्म उद्योग के 9 फीसदी की दर से बढ़ने की उम्मीद है। इसके मुताबिक, इसका आकार वर्ष 2009 के 104.4 अरब रुपए के मुकाबले 2014 में 136.7 अरब रुपए तक बढ़ने का अनुमान है।
क्या होगा फायदा :
मंत्रालय का मानना है कि इस पहल से न सिर्फ फिल्म उद्योग में अपराध जगत का पैसा लगने से रोक लगेगी, बल्कि देशभर में सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों का डिजिटलीकरण संभव होगा, जिससे पायरेसी पर रोक लगाने में मदद मिलेगी। एक अधिकारी के मुताबिक, ‘जब नजदीकी सिनेमा हॉल में डिजिटल फिल्म कम कीमत पर उपलब्ध होगी तो लोग नकली सीडी खरीदने नहीं जाएंगे।’
(संतोष ठाकुर,भास्कर डॉटकॉम,12.11.2010)
यह फिल्म महोत्सव गोवा में 22 नवंबर से 2 दिसंबर के बीच आयोजित होने जा रहा है। मंत्रालय को अगले चार साल में घरेलू फिल्म उद्योग के 9 फीसदी की दर से बढ़ने की उम्मीद है। इसके मुताबिक, इसका आकार वर्ष 2009 के 104.4 अरब रुपए के मुकाबले 2014 में 136.7 अरब रुपए तक बढ़ने का अनुमान है।
क्या होगा फायदा :
मंत्रालय का मानना है कि इस पहल से न सिर्फ फिल्म उद्योग में अपराध जगत का पैसा लगने से रोक लगेगी, बल्कि देशभर में सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों का डिजिटलीकरण संभव होगा, जिससे पायरेसी पर रोक लगाने में मदद मिलेगी। एक अधिकारी के मुताबिक, ‘जब नजदीकी सिनेमा हॉल में डिजिटल फिल्म कम कीमत पर उपलब्ध होगी तो लोग नकली सीडी खरीदने नहीं जाएंगे।’
(संतोष ठाकुर,भास्कर डॉटकॉम,12.11.2010)
Thursday, November 11, 2010
कोई तो जाग रहा है !
पत्रकार और लेखिका मानिनी चटर्जी की किताब ‘डू एंड डाई- द चिटगांव अपराइजिंग 1930-34’ पर आधारित फिल्म ‘खेलें हम जी जान से’ आशुतोष गोवारीकर ने बनाई है। यह फिल्म आशुतोष की ‘लगान’, ‘स्वदेश’ और ‘जोधा अकबर’ की राष्ट्रप्रेम वाली धारा की अगली कड़ी है। क्या आज के बाजार युग में राष्ट्रप्रेम दकियानूसी मान लिया गया है? क्या सद्भाव जगाने वाली फिल्मों का जमाना लद गया है?
क्या भीतर से टूटने की प्रक्रिया में हम अपने इतिहास को भुला देना चाहते हैं? ये सारे सवाल मन में उस समय उठे जब आशुतोष गोवारीकर द्वारा अपनी फिल्म का संगीत जारी करने वाले गरिमामय समारोह में चटर्जी के भाषण पर कुछ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकार ऊब गए थे और अभद्र ढंग से तालियां बजा रहे थे। वे बता रही थीं कि किस तरह उन्होंने चिटगांव क्रांति पर शोध किया और उन्हें सबसे अधिक सामग्री अंग्रेजों की लिखी डायरियों से प्राप्त हुई।
उस दौर में चिटगांव में नियुक्त अंग्रेज अधिकारियों ने अपने ही विरुद्ध किए गए विद्रोह का सूक्ष्म ब्योरा लिखा था और वे दस्तावेज आज भी सलामत हैं। अंग्रेजों के पास अद्भुत इतिहास बोध रहा है। मुगलों ने भी अपने दरबार में घटनाओं को दर्ज करने के लिए वेतनभोगी इतिहासकार नियुक्त किए थे। राजाओं और बादशाहों के वेतनभोगी लोग तटस्थ कैसे हो सकते थे? अंग्रेजों ने स्वयं के खिलाफ गई बातों को भी दर्ज किया है। जबलपुर के राजेंद्र चंद्रकांत राय ने भी फिलिप मेडोस टेलर की किताब ‘कंफेशंस ऑफ ए ठग’ का अनुवाद हिंदी में किया है। उन्होंने अपनी किताब ‘फिरंगी ठग’ के लिए सामग्री विलियम स्लीमेन से प्राप्त की।
बहरहाल आशुतोष गोवारीकर की फिल्म का नाम ‘खेलें हम जी जान से’ शायद इसलिए रखा गया है कि चिटगांव क्रांति में 56 किशोरों ने अपने फुटबॉल के मैदान को बचाने के लिए जान की बाजी खेली और अंग्रेजी साम्राज्य को इस घटना ने जड़ से हिला दिया। फुटबॉल मैदान के अंग्रेजों द्वारा किए गए अवैध कब्जे से व्यथित इन किशोरों की शहादत देश के नाम ही मानी जाएगी।
आज प्राय: सुनते हैं कि धर्म के नाम पर आतंकवादी किशोरों के हाथों में हथियार दे रहे हैं और उनके दिलों में अंधी नफरत भर रहे हैं। दूसरी ओर यह भी सच है कि संगठित अपराध भी बच्चों और किशोरों को गुमराह कर रहा है। इसी विषय पर बनी है फिल्म ‘अल्लाह के बंदे’। तीसरी ओर हम देखते हैं कि किशोरों को वीडियो गेम्स का नशा परोसा जा रहा है।
इंटरनेट पर प्रवाहित गटर से भी अश्लीलता उन्हें उपलब्ध है। जब बच्चों और किशोरों के अवचेतन के साथ इतने भयंकर खेल खेले जा रहे हैं, तब एक साहसी फिल्मकार किशोरों द्वारा की गई क्रांति का विवरण प्रस्तुत कर रहा है। 18 अप्रैल 1930 को चिटगांव में घटित सत्यघटना पर आधारित यह फिल्म एक साहसी प्रयास है। आज परिवारों की सबसे बड़ी चिंता यही है कि टेक्नोलॉजी के घटाटोप में बच्चों और किशोर वर्ग के लिए आदर्श कैसे तय करें।
आज मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता परोसी जा रही है। सत्य को उबाऊ घोषित किया जा रहा है। सत्यमेव जयते संसद से लेकर तमाम छोटे-बड़े दफ्तरों की दीवारों पर जड़ा है और जीवन के रंगों तथा रोशनियों में आकंठ डूबे हुए लोग उसे दीवार के रंग का खलल और बेजान दाग-धब्बा मान रहे हैं। इस माहौल में एक फिल्मकार अब भी जाग रहा है और हम तमाशबीन हैं ठीक उस प्रहरी की तरह जो नींद में ‘जागते रहो’ कहकर सो जाता है(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,11.11.2010)।
क्या भीतर से टूटने की प्रक्रिया में हम अपने इतिहास को भुला देना चाहते हैं? ये सारे सवाल मन में उस समय उठे जब आशुतोष गोवारीकर द्वारा अपनी फिल्म का संगीत जारी करने वाले गरिमामय समारोह में चटर्जी के भाषण पर कुछ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकार ऊब गए थे और अभद्र ढंग से तालियां बजा रहे थे। वे बता रही थीं कि किस तरह उन्होंने चिटगांव क्रांति पर शोध किया और उन्हें सबसे अधिक सामग्री अंग्रेजों की लिखी डायरियों से प्राप्त हुई।
उस दौर में चिटगांव में नियुक्त अंग्रेज अधिकारियों ने अपने ही विरुद्ध किए गए विद्रोह का सूक्ष्म ब्योरा लिखा था और वे दस्तावेज आज भी सलामत हैं। अंग्रेजों के पास अद्भुत इतिहास बोध रहा है। मुगलों ने भी अपने दरबार में घटनाओं को दर्ज करने के लिए वेतनभोगी इतिहासकार नियुक्त किए थे। राजाओं और बादशाहों के वेतनभोगी लोग तटस्थ कैसे हो सकते थे? अंग्रेजों ने स्वयं के खिलाफ गई बातों को भी दर्ज किया है। जबलपुर के राजेंद्र चंद्रकांत राय ने भी फिलिप मेडोस टेलर की किताब ‘कंफेशंस ऑफ ए ठग’ का अनुवाद हिंदी में किया है। उन्होंने अपनी किताब ‘फिरंगी ठग’ के लिए सामग्री विलियम स्लीमेन से प्राप्त की।
बहरहाल आशुतोष गोवारीकर की फिल्म का नाम ‘खेलें हम जी जान से’ शायद इसलिए रखा गया है कि चिटगांव क्रांति में 56 किशोरों ने अपने फुटबॉल के मैदान को बचाने के लिए जान की बाजी खेली और अंग्रेजी साम्राज्य को इस घटना ने जड़ से हिला दिया। फुटबॉल मैदान के अंग्रेजों द्वारा किए गए अवैध कब्जे से व्यथित इन किशोरों की शहादत देश के नाम ही मानी जाएगी।
आज प्राय: सुनते हैं कि धर्म के नाम पर आतंकवादी किशोरों के हाथों में हथियार दे रहे हैं और उनके दिलों में अंधी नफरत भर रहे हैं। दूसरी ओर यह भी सच है कि संगठित अपराध भी बच्चों और किशोरों को गुमराह कर रहा है। इसी विषय पर बनी है फिल्म ‘अल्लाह के बंदे’। तीसरी ओर हम देखते हैं कि किशोरों को वीडियो गेम्स का नशा परोसा जा रहा है।
इंटरनेट पर प्रवाहित गटर से भी अश्लीलता उन्हें उपलब्ध है। जब बच्चों और किशोरों के अवचेतन के साथ इतने भयंकर खेल खेले जा रहे हैं, तब एक साहसी फिल्मकार किशोरों द्वारा की गई क्रांति का विवरण प्रस्तुत कर रहा है। 18 अप्रैल 1930 को चिटगांव में घटित सत्यघटना पर आधारित यह फिल्म एक साहसी प्रयास है। आज परिवारों की सबसे बड़ी चिंता यही है कि टेक्नोलॉजी के घटाटोप में बच्चों और किशोर वर्ग के लिए आदर्श कैसे तय करें।
आज मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता परोसी जा रही है। सत्य को उबाऊ घोषित किया जा रहा है। सत्यमेव जयते संसद से लेकर तमाम छोटे-बड़े दफ्तरों की दीवारों पर जड़ा है और जीवन के रंगों तथा रोशनियों में आकंठ डूबे हुए लोग उसे दीवार के रंग का खलल और बेजान दाग-धब्बा मान रहे हैं। इस माहौल में एक फिल्मकार अब भी जाग रहा है और हम तमाशबीन हैं ठीक उस प्रहरी की तरह जो नींद में ‘जागते रहो’ कहकर सो जाता है(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,11.11.2010)।
Wednesday, November 10, 2010
16वें कोलकाता फिल्मोत्सव का शुभारंभ
प्रसिद्ध कैमरामैन रामानंद सेनगुप्ता ने आज नंदन प्रेक्षागृह में 16 वें कोलकाता फिल्मोत्सव (10 से 17 नवंबर) का दीप प्रज्जवलित कर शुभारंभ किया। उन्होंने कहा कि फिल्मोत्सव से नयी पीढ़ी के निर्देशकों का मनोबल बढ़ता है। राज्य सरकार को चाहिए कि वह नये निर्देशकों द्वारा निर्मित फिल्मों को निगम के अधीन सिनेमाघरों में दिखाने की व्यवस्था करे। श्री सेनगुप्ता ने आज की बांग्ला फिल्मों पर चिंता जाहिर की, और कहा कि पहले हिन्दी व दक्षिण भारतीय फिल्में बांग्ला से प्रभावित होती थीं लेकिन आज बांग्ला फिल्में ही नकल की शिकार हो गयी हैं। जाने-माने फिल्मकार तरुण मजूमदार ने कहा कि आज दो बड़ी खुशी एक साथ मनाने का मौका है। पहला यह है कि नंदन के 25 वर्ष पूरे हो रहे हैं और दूसरा 16 वें फिल्मोत्सव का शुभारंभ हो रहा है। हमें नंदन को विकार से बचाने के लिए हर संभव कोशिश करनी चाहिए। मशहूर फिल्मकार मृणाल सेन ने कहा कि फिल्मोत्सव से हम कुछ ग्रहण करें, क्योंकि यह हमारे लिए उत्सव है। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने कहा कि नयी पीढ़ी के निर्देशकों को आगे आना चाहिए। देश-दुनिया की जितनी भी विचारधारा हैं, हमें सबका सम्मान करना चाहिए। हमारी कोशिश रहती है कि हम अधिक से अधिक फिल्म दिखायें लेकिन ऐसा हो नहीं पाता है। उन्होंने कहा कि इस बार जापानी फिल्मकार कुरुसोवा, कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर की कृतियों पर आधारित फिल्म व सत्यजीत राय की डेक्यूमेंट्री सिक्किम आकर्षण के केन्द्र में है। स्वागत भाषण प्रसिद्ध अभिनेता सौमित्र चटर्जी ने किया। समारोह में सूचना व संस्कृति राज्यमंत्री अंजन बेरा, मुख्य सचिव समर घोष व नंदन के वरिष्ठ पदाधिकारी नीलांजन चट्टोपाध्याय व अन्य गणमान्य लोग उपस्थित थे(दैनिक जागरण संवाददाता,कोलकाता,10.11.2010)।
Tuesday, November 9, 2010
खेलें हम जी-जान सेःगुमनाम लड़ाकों की जोशीली दास्तां
आशुतोष गोवारिकर को अपनी पहली फिल्म बनाने से लेकर पहली हिट फिल्म "लगान" तक के सफर में आठ साल लगे । लगता संघर्ष के इस दौर ने आशुतोष को सिनेमा में कहानी की अहमियत का पाठ कुछ ढंग से पढ़ा दिया है । यही वजह है कि अपनी नई फिल्म "खेलें हम जी जान से" के संगीत प्रर्दशन समारोह में फिल्म के लेखक को विशेष अहमियत देकर उन्होंने अपनी प्राथमिकता स्पष्ट कर दी । चर्चित पत्रकार मानिनी चटर्जी को मंच पर खास अहमितय देकर आशुतोष ने यह अनोखा काम किया और हिंदी सिनेमा को यह संदेश दिया कि फिल्में वही चलेंगी जिनकी कहानी में दम होगा । सितारों के बूते तिजोरियां भरते रहे निर्माताओं के लिए यह एक ऐसे निर्देशक का संदेश है जिसकी फिल्में ऑस्कर की दहलीज तक पहुंचती रही हैं । कहा जा सकता है कि "लगान", "स्वदेस" और "जोधा अकबर" को जिस तरह पूरी दुनिया में हिंदी सिनेमा के दर्शकों ने चाहा और सराहा उसी ने आशुतोष को भी यह हौसला जुटाने की हिम्मत दी ।
आशुतोष की तीन दिसंबर को रिलीज होने जा रही इस फिल्म से इतिहास के पन्नों को नए सिरे से खंगालने की उनकी कोशिशों की अगली कड़ी है । मानिनी चटर्जी के उपन्यास डू एंड डाइ - द चिटगॉङ्ग अपराइजिंग १९३० पर बनी इस फिल्म में चटगांव के एक अध्यापक के उस जीवट की कहानी है जिसने ब्रितानी सरकार को पूर्वी भारत में हिला कर रख दिया था । मानिनी कहती हैं, "हमने बचपन से लेकर अब तक ज्यादातर वही इतिहास पढ़ा है जिसे एक खास नजरिए से लिखा गया । हम गांधी और नेहरू के बारे में तो बहुत सारी बातें जानते हैं लेकिन उन लोगों के नाम तक नहीं जानते जिन्होंने बिना किसी परवाह के अपने-अपने इलाकों से अंग्रेजों के पैर उखाड़ दिए । चटगांव विद्रोह की कहानी भी इतिहास की सरकारी किताबों में बस एक या दो लाइनों में सिमट कर रह जाती है । यहां के सूर्य सेन नामक अध्यापक ने कुछ स्कूली बच्चों और कुछ युवाओं के साथ मिलकर १८ अप्रैल, १९३० की रात जो कुछ किया, उसे समझने के लिए इन किशोरों और युवाओं की मानसिक मजबूती और जज्बे को समझना होगा । पहली बार जब मैंने इन सबके बारे में विस्तार से जाना तो हतप्रभ रह गई । आशुतोष गोवारिकर भी इतिहास के इस अनकहे हिस्से के बारे में जानकर कई रातों तक सो नहीं पाए । आशुतोष बताते हैं, "मानिनी चटर्जी की किताब जब मैंने पहली बार पढ़ी तो मुझे लगा कि ऐसा कैसे हो सकता है कि इतने बड़े बलिदान का जिक्र इतिहास की मौजूदा किताबों में कहीं न हो ! किताब पढ़ने के बाद जब मैं मानिनी जी से मिला तब मुझे एक और आश्चर्यजनक हकीकत पता चली कि चटगांव बगावत की एक अहम किरदार कल्पना दत्त के परिवार से ही मानिनी खुद भी जुड़ी हैं और यह बात उन्हें इस विषय पर शोध के दौरान ही पता चली । "खेलें हम जी जान से" फिल्म आशुतोष के लिए कई मायनों में "लगान" और "जोधा अकबर" से भी ज्यादा कठिन रही । वह कहते हैं, "लगान तो खैर पूरी तरह काल्पनिक कथा थी और "जोधा अकबर" के बारे में भी लोग उतना ही जानते रहे हैं, जितना के आसिफ की फिल्म में बताया या दिखाया जा चुका है लेकिन, "खेलें हम जी जान से" एक ऐसी कहानी है जो वाकई घटी है लेकिन जिसके बारे में ज्यादा लोगों को पता नही है । फिल्म मानिनी के उपन्यास पर ही बनी है पर कहीं-कहीं हमने "सिनेमाई छूट" ली है ।" आशुतोष की इस सिनेमाई छूट की बात पर मानिनी मुस्कुरा भर देती हैं ।
मशहूर कथा-पटकथा लेखक जावेद अख्तर ने एक बार फिर आशुतोष की फिल्म के लिए गीत लिखे हैं । आशुतोष बताते हैं, "जावेद जी ने इस फिल्म के लिए वंदे मारतम् को फिर से लिखा है । मेरा मतलब उन्होंने इस राष्ट्रगीत के संस्कृत के शब्दों को हिंदी की सुरमाला में पिरोया है ।" खुद जावेद जी को अपने इस गीत पर नाज है, यह उनकी आंखों की चमक से साफ पता चलता है । अपने प्रगतिशील विचारों को लेकर प्रायः कट्टरपंथियों के निशाने पर रहने वाले जावेद हो सकता है वंदे मातरम् के हिंदी संस्करण के लिए भी फतवों के फंदे में फंस जाएं लेकिन वह इससे बेपरवाह दिखते हैं । जावेद कहते हैं, "हिंदी सिनेमा के मौजूदा दौर में दो तरह के निर्देशक कम ही हैं । एक तो वह जिनमें कहानी कहने की संवेदनशीलता है और दूसरे वह जो स्वस्थ मनोरंजन वाली फिल्में बनाते हैं । आशुतोष में ये दोनों खूबियां मुझे नजर आती हैं । मेरा और आशुतोष का साथ बरसों पुराना है और मुझे खुशी है कि बतौर निर्देशक वह लगातार परिपक्व होते जा रहे हैं ।"
"खेलें हम जी जान से" का संगीत रग-रग में जोश भरता है । आशुतोष की ही फिल्म ह्वाट्स योर राशि से हिंदी सिनेमा में बतौर संगीतकार बोहनी करने वाले सोहैल सेन को आशुतोष ने इस फ़िल्म में बड़ा मौक़ा दिया है। सोहैल के मुताबिक,"आशुतोष जैसे निर्देशक की टीम में शामिल होने के बाद आपकी आधी परेशानी तो यूं ही ख़त्म हो जाती है। वह ऐसे कप्तान हैं जिसके नज़रिए को एक बार समझने के बाद,टीम का हर सदस्य पूरी बेफिक्री के साथ अपने काम को अंजाम दे सकता है।" फिल्म में सूर्य सेन का किरदार अभिषेक बच्चन कर रहे हैं और कल्पना दत्त बनी हैं दीपिका पादुकोण। दीपिका अपने आप को खुशकिस्मत मानती हैं कि उन्हें अपने करियर के शुरुआती दौर में ही इतना चुनौती भरा किरदार करने का मौका मिला। वे कहती हैं,"कल्पना हिंदुस्तानी औरत का वह रूप है जिसके बारे में इतिहास में भी चर्चा कम ही होती है। ऐसा नहीं कि आज़ादी की लड़ाई में महिलाओं की भागीदारी किसी तौर पर कम रही है लेकिन इतिहास लिखने वालों ने शायद इस ओर गौर करना मुनासिब ही नहीं समझा।"
बता दें कि अखंड भारत का हिस्सा रहे चटगांव में स्कूली अध्यापक सूर्य सेन के नेतृत्व में १९३० में हुई बगावत को सिनेमा के परदे पर उतारने की एक और कोशिश निर्देशक देवव्रत भी कर रहे हैं । इस फिल्म में सूर्य सेन का किरदार मनोज बाजपेयी ने निभाया है । अभिषेक जहां सूर्य सेन के किरदार का सबसे मुश्किल हिस्सा इस बारे में कहीं कोई संदर्भ न मिलने को मानते हैं, वहीं मनोज सूर्य सेन के किरदार से बेहद प्रभावित हैं । वैसे भी मनोज के गृह प्रदेश बिहार और बंगाल की दूरी ज्यादा नहीं है, लिहाजा सूर्य सेन का किरदार निभाते हुए मनोज ज्यादा सहज रहे(पंकज शुक्ल,संडे नई दुनिया,7-13 नवम्बर,2010) ।
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