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Sunday, February 28, 2010

होली और फिल्में

(नई दुनिया,27.2.10)
सदियों से होली बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में मनाई जाती रही है, जबकि उसके अगले दिन खेली जाने वाली धुलेंडी गुस्से की ज्वाला को शांत करने की कवायद होती है! होली की खुशी व उत्साह के गीतों और नृत्यों पर हिंदी सिनेमा फला-फूला। इतने सालों में होली का फिल्मांकन खत्म तो नहीं हुआ है, लेकिन उसमें बदलाव जरूर आया है। इसलिए यदि यश चोपड़ा ने होली के अवसर का इस्तेमाल प्रेम की अभिव्यक्ति के रूप में किया (सिलसिला) तो सुभाष घई ने भय को दिखाने के लिए (डर)। रमेश सिप्पी के लिए यह उल्लास के प्रदर्शन का मौका थी (शोले)। खुशी के पलों के साथ त्रासदी को भी इसमें जोड़ा गया था। एक मौके पर जया भादुड़ी संजीव कुमार के साफ-सुथरे कुर्ते को रंगने के लिए उनके तांगे का पीछा करती है। होली के ऐसे ही दूसरे दृश्य में विधवा के रूप में जया भादुड़ी पहाड़ी पर स्थित मंदिर से होली की धमाचौकड़ी देखती है। यह बेहद हृदय विदारक दृश्य था। फिल्मों में होली को लेकर मेरी शुरुआती यादें मेहबूब खान की मदर इंडिया से जुड़ी हैं। नायक राजकुमार अपनी पत्नी के कंगन साहूकार के पास गिरवी रख देता है। अगली सुबह साहूकार की बेटी के हाथों में उन्हें देखकर वह आपे से बाहर हो जाता है। वहीं, दूसरी ओर वी शांताराम ने इस त्योहार के साथ जुड़े उत्साह व शरारतों पर ही जोर दिया। नवरंग में गोपी कृष्णा और संध्या पर फिल्माया गया ‘जा रे अरी नटखट, मत छेड़ मेरा घूंघट..’ इतने सालों बाद भी भुलाया नहीं जा सका है। 60 और 70 के दशक में होली गीत के बगैर किसी हिंदी फिल्म की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। लेकिन इसे देखकर दर्शक इतने उब गए थे कि जिसने भी इससे हटकर कुछ करने का साहस किया, वह अविस्मरणीय बन गया। इस सूची में शीर्ष पर है वहीदा रहमान और धमेंद्र स्टारर फागुन । होली के मौके पर वहीदा के जमींदार पिता परंपरानुसार बेटी को नई साड़ी देते हैं। रोमांटिक पलों में वहीदा का पति उस साड़ी पर रंग छिड़ककर उसे खराब कर देता है। वहीदा पिता के गुस्से को शांत करने के लिए सबके सामने अपने पति को अपमानित कर देती है। इससे नाराज पति अपनी गर्भवती पत्नी को छोड़कर चला जाता है और फिर 20 साल बाद लौटता है। होली के त्योहार में एक विधवा के भाग लेने को कलंक मानने की धारणा को सबसे पहले चुनौती शक्ति सामंत की कटी पतंग में मिलती है। एक युवा विधवा के माथे पर राजेश खन्ना द्वारा शगुन का टीका लगाना हमारी सामाजिक प्रथा पर एक टिप्पणी थी। केतन मेहता की फिल्म होली कॉलेज परिसरों में होने वाली रैगिंग के बहाने गिरती शिक्षा प्रणाली पर बयान है। यह फिल्म तनाव की वजह से बर्बाद होने वाले युवक की कहानी है।
९0 के दशक में ऐसा भी समय आया था, जब होली का त्योहार पर्दे से लगभग पूरी तरह से गायब हो गया था। फिर बागबान में अमिताभ बच्चन और हेमामालिनी ‘होली खेले रघुवीरा अवध में..’ गीत में अपने बच्चों व पोतों के साथ डांस करते नजर आते हैं। इसके कुछ साल बाद अक्षय कुमार और प्रियंका चोपड़ा ‘डू मी ए फेवर लेट्स प्ले होली’ में दिखाई देते हैं, लेकिन वह जादू नदारद है, जो कभी पहले की फिल्मों में रहा है।
(भावना सोमाया,दैनिक भास्कर,दिल्ली,21.2.2010)

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