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Friday, February 19, 2010

तो बात पक्कीःफ़िल्म समीक्षा













(हिंदुस्तान,पटना,20.2.10)
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कलाकार : तब्बू , शरमन जोशी, वत्सल सेठ, युविका चौधरी
निर्माता : रमेश एस . तौरानी
निर्देशक : केदार शिंदे
गीत : सैयद कादरी , मयूर पुरी , शब्बीर अहमद
संगीत : प्रीतम
सेंसर सर्टिफिकेट : यू
अवधि : 129 मिनट
हमारी रेटिंग : ***
फिल्म के टाइटिल से आप समझ सकते है पूरी फिल्म मंगनी से शादी के आसपास टिकी होगी। कहानी बड़ी बहन की है जिसे अपनी छोटी बहन के लिए ऐसे दूल्हे की तलाश है जो उनकी ही बिरादरी से हो और उसके पास बंगला , कार और ढेर सारी दौलत भी हो। ऐसी कहानी पर फिल्म बनाने के लिए जरूरी है कि कहानी को हल्के मनोरंजन के तड़के के साथ परोसा जाए। मराठी ग्लैमर इंडस्ट्री से जुड़े डायरेक्टर केदार शिंदे ने भी अपनी पहली हिंदी फिल्म में यही फंडा अपनाया है। गड़बड़ी सिर्फ इतनी कि कहानी को जल्दी समेटने के चक्कर में वह क्लाइमेक्स पर कुछ भटके तो वहीं सीमित बजट में फिल्म पूरी करने के चक्कर में फिल्म को आधा दर्जन से भी कम लोकेशन में पूरा किया। इन दिनों जब फैमिली क्लास को ' थ्री इडियट्स ' के बाद किसी साफ - सुथरी हल्की कॉमिडी फिल्म की तलाश है जिसे सब साथ देख सकें तो इस कसौटी पर यह फिल्म काफी हद तक खरी उतरती है।

कहानी : राजेश्वरी सक्सेना ( तब्बू ) पालन पुर में अपने हज़्बंड ( अयूब खान ) और दो प्यारे बच्चों के साथ खुशहाल जिंदगी गुजार रही है। जहां राजेश्वरी के हसबेंड को अपने ऑफिस और फैमिली को छोड़ किसी और पचड़े में पड़ना,जरा भी पसंद नहीं, वहीं उनकी खूबसूरत बीवी को घर के अलावा कॉलोनी के किसी भी घर में हुई हर घटना पर नजर रखने और कॉमेंट करने में मजा आता है। आलम यह है , कॉलोनी में रहने वाली मिसेज रॉय (उपासना सिंह)के घर में रहने वाले किरायेदार से लेकर उनके मेकअप और किस शादी में किस ने किस को क्या गिफ्ट दिया इन सबकी पूरी जानकारी राजेश्वरी अपने पास जरूर रखती है।

राजेश्वरी को तलाश है जौनपुर में रहने वाली अपनी छोटी बहन निशा ( युविका ) के लिए ऐसे दूल्हे की जो अपनी बिरादरी का भी हो और निशा को दुनिया की हर खुशी दे सके। इस बीच राजेश्वरी मार्केट में राहुल (शरमन जोशी)से मिलती है जो मिसेज रॉय का किरायेदार है और शहर के कॉलेज में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है। बस फिर क्या राजेश्वरी झट उसे अपनी बहन के लिए पसंद करती है , और गांव से निशा को अपने पास बुलाती है। निशा और राहुल पहली नजर में एक दूसरे को चाहने लगते है और राजेश्वरी इनकी शादी की तैयारियों में बिजी हो जाती है। इसी बीच जब राजेश्वरी के घर युवराज सक्सेना ( वत्सल सेठ ) पहुंचता है , जो एक बड़ी कंपनी में अफसर है। उसके पास कार है और कंपनी से उसे जल्दी ही बंगला भी मिलने वाला है। सबसे अच्छी बात यह कि युवराज कुंआरा है और उनकी बिरादरी से भी है , बस फिर क्या राजेश्वरी को राहुल में सारी खामियां नजर आने लगती हैं।

ऐक्टिंग : राजेश्वरी के रूप में तब्बू का जवाब नहीं। तब्बू जब भी स्क्रीन पर आती हैं सभी पर हावी हो जाती हैं। वहीं शरमन जोशी और युविका की जोड़ी खूब जमी है। वत्सल सेठ और अयूब खान इस फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी हैं।

संगीत : प्रीतम का संगीत दमदार है। फिल्म का टाइटिल सॉन्ग ' जिस दिन मेरा ब्याह होवेगा,' पहले से ही टॉप टेन में शामिल है। 'मैं तुझ से ज्यादा तेरी फिक्र करूं' और 'कर ले मुझसे प्यार' का फिल्मांकन अच्छा बन पड़ा है।

निर्देशन : मराठी फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बना चुके केदार शिंदे ने बेशक स्क्रिप्ट को कहीं भटकाया नहीं , लेकिन इंटरवल से पहले कहानी की गति सुस्त है। क्लाइमेक्स को और असरदार बनाया जा सकता था।

क्यों देखें :अगर आप हल्की -फुलकी और साफ-सुथरी टाइम पास फिल्म फैमिली के साथ देखना चाहते है तो बेहिचक जाएं। हां , तब्बू के फैंस तब्बू की बातूनी भूमिका निश्चित रूप से पसंद करेंगे।
(चंद्र मोहन शर्मा,नभाटा,दिल्ली,19.2.10)

पहले की तरह फार्मूला फिल्मों का जमाना लद चुका है। हिंदी फिल्मों में प्रयोग ब़ढ़ रहे हैं। आजकल की प्रदर्शित हो रही फिल्में इस बात की गवाह हैं। निर्देशक अब नए विषयों को लेकर फिल्म बनाने में चूक नहीं रहे। दूसरे छोटे बजट की फिल्मों का जमाना है। बिलकुल मध्यवर्गीय परिवार की तरह। हालांकि हिट की गारंटी तो यहां भी नहीं है लेकिन डूबने से राहत जरूर है। फिल्में अपना पैसा निकाल लेती हैं। थो़ड़ी भी चल गईं तो मुनाफा पक्का। "तो बात पक्की" इसी खयाल से बनाई गई फिल्म है। चूंकि सबसे ज्यादा बिकने वाली चीज कॉमेडी है,सो फिल्म में कॉमेडी का त़ड़का है। तब्बू और शरमन जोशी दो जाने-पहचाने चेहरे हैं। तब्बू अपने "खब्बू" अभिनय और शरमन "थ्री इडियट्स" की कामयाबी भुना रहे हैं। हालांकि तब्बू भरपूर कोशिश के बाद भी भारतीय मध्य वर्ग की नारी पात्र "राजेश्वरी" के साथ इंसाफ नहीं कर पातीं। फिल्म में दो नए चेहरे हैं युविका चौधरी और वत्सल सेठ। दोनों के जिम्मे करने को कुछ खास वैसे भी नहीं है।

भारतीय समाज में शादी का क्या महत्व है और उस पर बात ल़ड़की पक्ष की हो तो उन्हें कितने पाप़ड़ बेलने प़ड़ते हैं, उससे हम सब वाकिफ हैं। ल़ड़की के लिए एक अच्छा ल़ड़का ढूंढ़ना ईश्वर पाने की तरह हो जाता है। ल़ड़की के परिवार वाले इस बात का मोह नहीं छो़ड़ पाते कि ल़ड़का पैसे वाला हो तो अच्छा है। तब्बू अपनी बहन के लिए फिल्म में ऐसे ही एक ल़ड़के की तलाश में है। वह ढूंढ भी लेती है लेकिन उससे अधिक पैसेवाला ल़ड़का पाकर नई जो़ड़ी बनाने में लग जाती है। इसी से उपजे उलझाव की कहानी है "तो बात पक्की"।

फिल्म अच्छी है और दर्शकों को अपने साथ जो़ड़े रखती है लेकिन फिल्म के अंत का पता लोगों को पहले ही लग जाता है इस कारण यह फिल्म रोचकता खो देती है। दूसरे फिल्म में नायिका का चरित्र बहुत ही कमजोर है । थो़ड़े से लोकेशन में शूट की गई यह फिल्म कम चरित्रों के बावजूद बेहद सहज है। फिल्म का संगीत साधारण है और गीतों में भी खास दम नहीं है।
(मृत्युंजय प्रभाकर,नई दुनिया,दिल्ली,20.2.10)


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हिंदुस्तान टाइम्स,दिल्ली संस्करण में मयंक शेखर जी ने इस फिल्म को महज डेढ स्टार देते हुए लिखा हैः
On a movie screen after almost three years, Tabu here, plays an excitable mid-class housewife. Marrying off the younger sister is for her, each day’s primary concern. Her proud mother, in sheer gratitude, suggests, “You’re like a son to me.” To which Tabu’s Mrs Saxena shoots back, “I am a daughter. We take better care of parents. If only everyone realised this, half of India’s problems would be solved.”

You can tell Tabu (like the filmmaker) has one eye on the “rest of India”. The film is immediately aimed at viewers in the nation’s countrysides, lovers of old ‘family values-based’ Bollywood, and television’s primetime family soaps (less popular now). Very few films these days are built that way. This one’s a good sign then.

Mrs Saxena has a silver coin that she flips to make important decisions. One side points to Ganesh; the other, to Lakshmi. One brings good luck; the other, signifies prospects of wealth.

Between the two possibilities, Mrs Saxena constantly scouts around for suitors for her sister: hopefully a doctor, engineer, or an MBA grad, who comes with promise of a fat salary, and a “permanent job”. The boy usually moves in to Mrs Saxena’s house as paying-guest. So does an engineering student (Sharman Joshi). She plays matchmaker. Even a marriage date is fixed, before Mrs Saxena finds a better prospect for her sister, and the extra room is vacated for him (Vatsal Seth) instead.

This is quaint small-town India, where everyone refers to the other (especially women) in the honorific ‘ji’. Boys meet girls only to marry each other. They discuss hobbies and cooking skills. Love blooms after a relative's introduction.

If you’ve been watching reality TV shows (Dare To Date, Emotional Atyachar etc) that also map this part of young India, you may beg to differ on whether such an innocent world still exists. It could of course, in our films.

The set-up is sweet. The soundtrack is organised. The town Palanpur – cozy, quiet and well-planned -- is suitably fake; the atmospherics, complete.

The filmmakers just don’t know what to make of the plot. The first suitor takes on the second one by wrecking their marriage show. The girl, about to be married, sits at the corner, sucking her thumb. Two sets of kidnappers are thrown in to abduct either the groom or the bride. Aunties all across can’t stop jabbering. Your mind boggles. Nothing makes sense. The film carries on.

The hero should be happy. He gets quite a few random songs after another to show off his body against rich natural wonders. You just leave in a huff wondering, “Why Tabu, really!”

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