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Monday, February 15, 2010

लता के साथ आशा के युगल गीतों की बात ही कुछ और है

अपनी सुरीली और खनकती आवाज के सहारे हिंदी फिल्म संगीत को समृद्ध बनाने वाली आशा भोसले ने अपने छह दशक लंबे सफर में यूं तो अनेक ऎसे गीत गाए हैं, जिन्हें कालजयी माना जा सकता है। पर बडी दीदी यानी लता के साथ उन्होंने जो युगल गीत गाए हैं, वे सिने संगीत के फलक पर हमेशा चमकते-दमकते रहेंगे। सिने संगीत के रसिकों के लिए यहां ऎसे ही एक गीत की चर्चा राजस्थान पत्रिका के 6 फरवरी के अंक में की गई हैः
गद्य में बात को विस्तार से कहा जा सकता है। मगर पद्य में छंद की बंदिश और तुक की अनिवार्यता के कारण बीच का तार्किक तारतम्य, लिंक और बात को समझाना काफी कुछ छूट जाता है। इसलिए कविता कई बार संकेत बनकर रह जाती है और तब पाठक को अपनी ओर से तर्क-विवेक करके अर्थ का समूचा चित्र तैयार करना पडता है। उदाहरण के लिए, फिल्म 'उत्सव' के इस गीत को ही लीजिए, जिसका मुखडा इस प्रकार है- 'मन क्यूं बहका री बहका आधी रात को/बेला महका री महका आधी रात को।' सरसरी तौर पर लगेगा कि यह दो गायिकाओं (यहां लता और आशा) का 'वन पीस सॉन्ग' है। मगर एक समूचा गीत होते हुए भी यह दरअसल सवाल-जवाब के रूप में विभक्त है। लता के हिस्से के गीत में प्रश्न तथा आदेश आते हैं, जबकि उत्तर के रू प में आशा के हिस्से से जवाब आते हैं। लता गाती हैं- मन क्यूं बहका री बहका आधी रात को और इस 'क्यूं' का जवाब आशा देती हैं (इसलिए कि) बेला महका री महका आधी रात को! यह क्रम चलता रहता है। 'किसने बंसी बजाई रे आधी रात को' (उसी ने) 'जिसने पलकें चुराई रे आधी रात को!' पलकें चुराई यानी नींद नहीं आने दी!... रतजगा करवाया। वगैरह-वगैरह!
समूचा गीत उत्तम दर्जे की कोमल कविता है। पखेरू के पंख। इसके ऎस्थेटिक वैभव का जवाब नहीं। यह उर्दू से अलग हिंदी की अपनी शान है कि कुछ बातें, पवित्रता के साथ, उसी में रखी कही जा सकती है। वाह! क्या बात है! बेला आधी रात को महका, तो मन बहक गया! क्यों बहक गया इसलिए कि बेले की सुगंध मादकता और प्रिय की स्मृति से जुडी हुई है। इतनी खूबसूरत गंध नासिका रंध्रों में आई, तो सुगंध-सा मीठा प्रीतम का साथ याद आ गया और इस वक्त यही प्रीतम पास में नहीं। 'उत्सव' आचार्य शुद्रक के संस्कृत नाटक 'मृच्छकटिकम' (मिट्टी की गाडी) पर बनी हुई एक पीरियड फिल्म थी। उसमें मध्ययुग का ताना बाना, वातावरण था। उसे देखते गीत और उसकी शब्द रचना को ऎसा होना था कि दौर का सांस्कृतिक फील पाठक/ श्रोता के लिए उभरकर आए। 'उत्सव' के प्रस्तुतकर्ता शशि कपूर धन्यवाद के पात्र हैं कि उन्होंने भारतीय संस्कृति की सुवास की, बारीक-बारीक डिटैल्स से भरी हुई इतनी सुंदर फिल्म दी, हालांकि फिल्म, धीमे ट्रीटमेंट और परफैक्शन की अति आदर्शवादी क्रेज और सामान्य सिने दर्शक की सीमित समझ और अधैर्य के कारण, बॉक्स ऑफिस पर धमाका नहीं कर सकी। 'उत्सव' सफलता का उत्सव नहीं मना सकी।
'उत्सव' सन् 1984 की फिल्म है। प्रोफेसर वसंतदेव ने फिल्म के सारे गीत लिखे थे। युग, कथा और पात्रों को देखते उन्होंने स्तर के गीत लिखे और अपने सुचिंतित शब्द-चयन से एक पर्सेप्टिव गीतकार का काम किया। इस गीत में, देखिए, उन्होंने कितनी पुरदर्द, नाजुक लाइनें दी हैं- 'आधी बातों की पीर आधी रात को। बात पूरी हो कैसे आधी रात को। रात होती शुरू है, आधी रात को!
यानी, रोजमर्रा की चलती-फिरती, शब्दावली में कैसा समंदर भर दर्द बटोरा गया कवि यहां! 'आधी रात / आधी बात / रात का आधी रात से शुरू होना' जैसे शब्द यहां नायिका वसंतसेना के 'अधूरेपन/ अधूरी जिंदगी' की कथा कहते हैं। सुधी श्रोताओं के बीच यह गीत खूब लोकप्रिय हुआ।
जहां तक संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का सवाल है, इस गीत की संगीत-योजना को देखते यही कहा जा सकता है कि यह जोडी वास्तव में गुणी और कल्पनाशील रही है। लीक और व्यावसायिकता से हटकर जब भी उन्हें समझदारी, स्तर और कल्पनाशीलता का संगीत देने का मौका मिला, उन्होंने समीक्षकों और सुधी श्रोताओं से आदर पाया। 'मन क्यूं बहका री' को उन्होंने पर्याप्त समझ से कंपोज किया है। वसंतसेना (रेखा) के दिल का सन्नाटा बनाम माहौल का सन्नाटा / आधी रात बनाम आधी रात की पीडा / वसंतसेना का रूप और कौमाल्य बनाम सॉफ्ट और संक्षिप्त संगीतन। ऋषिकालीन वन प्रांतर और आवास बनाम इने-गिने वाद्यों का शीतल-शबनमी वादन....ये सब मिलकर एक अनुपम बौद्धिक मेलोडी देते हैं। यह ऑफबीट गीत, ऑफबीट धुन और ऑफबीट संगीत हमारे हिंदी फिल्म संगीत की ओस बूंद है, जो गुलाब की पंखुडी से ढुलककर हवा की ऊंगली पर गिर पडी। और 'वसंतसेना' ने उसे आंज लिया। वसंतसेना बनाम रेखा / रेखा बनाम वसंतसेना।
गीत का बीज शब्द है- 'आधी रात'। यहीं से पकडिए कि किसकी रात कैसी होती है उसी आधी रात को कोई विरह वेदना में जलता है और उसी आधी रात को कोई प्रीतम की बांहों में धन्य होता है। इस 'आधी रात' को ही लक्ष्य बनाकर लक्ष्मी-प्यारे ने गीत के पीछे सन्नाटा बनाम कडवा, मीठा दर्द रखा और सन्नाटे में छुनकती, सर धुनती पायल-सा, संगीत दिया। दोस्तो, यह गीत कला और संगीत का एक अजीम नजारा है। इथरियल, ट्रेजिक, प्लीजिंग और पोएटिक एक साथ! सलाम, शशि कपूर, लक्ष्मी-प्यारे और वसंत देव को!
और लता और आशा क्या कहने इन महान गायिकाओं के! बोल को जिंदा करने का सारा दारोमदार तो इन पर है न! जी हां, गायक ही अंतत: सब कुछ है। इसलिए कि साज के पास दिल नहीं होता। पर गायक, जो जिंदा इंसान है, उसके पास ह्वदय भी होता और वाक् भी। वही कविता को (गाकर) जाने कहां से कहां पहुंचा देता है। लता और आशा वही वाक् शक्तियां हैं। आखिर में पहला सलाम इन्हें कि 'आधी रात को बेला महका दिया'। आह! वाह!
(आशा भोसले के दुर्लभ, जाने-अनजाने और विशिष्ट 177 गीतों पर आधारित पुस्तक 'सदियों में एक...आशा' (लेखक- अजातशत्रु) के कुछ अंश। पुस्तक का प्रकाशन सुमन चौरसिया ने 'लता दीनानाथ मंगेशकर ग्रामोफोन रिकॉर्ड संग्रहालय (ग्राम-पिगडंबर, तहसील-मऊ, जिला-इंदौर)' के तहत किया है।)

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