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Monday, February 15, 2010

अभिनेता और रंग-संवेदना

संडे नई दुनिया के संपादक विष्णु खरे जी ने पिछले दिनों दक्षिण के अभिनेता जयराम द्वारा महिला के प्रति जो अपमानजनक टिप्पणी की,उस पर 14 फरवरी के अंक में विचार किया हैः
तमिल और मलयालम फिल्मों के एक अभिनेता हैं जयराम । उनका वहां के फिल्म जगत में क्या महत्व है, अपन नहीं जानते । अपन तो उनका नाम तक नहीं जानते थे, हालांकि अपन को यह भ्रम नहीं है कि अपन जो जानते हैं, सिर्फ वही जानने योग्य होता है । उनके बारे में छपी एक छोटी खबर के मुताबिक उनसे मलयालम के टीवी चैनल पर पूछा गया कि क्या आपने अपने वास्तविक जीवन में अपनी नौकरानी को इश्किया निगाहों से देखा है तो जयराम ने कहा बताते हैं, "मेरी नौकरानी तमिल औरतों की तरह काली-कलूटी, भैंस जैसी मोटी है । उसकी तरफ मैं देख भी कैसे सकता हूं ।"

आजकल चलन है बहुत स्मार्ट बनने का, बहुत होशियारी बघारने का, दर्शकों का उन बातों से भी मनोरंजन करने का जिनसे कि मनोरंजन नहीं हो सकता। हो सकता है, उसी अंदाज में जयराम ने यह बात भी कही हो । मैं कल्पना कर सकता हूं कि वे इसके बाद मुस्कराए भी होंगे और हो सकता है, उनसे साक्षात्कार लेने वाला खुद भी मुस्कराया हो । फिर वे अगले सवाल और जवाब पर आ गए होंगे । अंत में जयराम बहुत आत्मविश्वास के साथ टेलीविजन चैनल के स्टूडिओ से बाहर निकले होंगे और हो सकता है कि उनसे इंटरव्यू लेने वाला भी अपने आपको बहुत धन्य मान रहा हो । जयराम को क्या पता रहा होगा कि जिसे वह मात्र मजाक समझ रहे थे, जिसे वह केवल अपनी "स्मार्टनेस" का प्रदर्शन समझ रहे थे, उस पर हंगामा भी हो सकता है जो कि थोड़ा-बहुत तमिलनाडु में हुआ । इसके बाद जयराम को माफी भी मांगनी पड़ गई । किसी अल्पज्ञात संगठन ने उनके घर पर हमला किया और उनकी कार को नुकसान पहुंचाया । एक महिला वकील अदालत में उनके खिलाफ चली गईं । बहरहाल, माफी मांगने से असली मामला खत्म नहीं हो जाता । मुद्दे वहीं के वहीं हैं ।

जयराम हो सकता है करोड़ों में खेलते हों, देखने में वे खूबसूरत भी होंगे, हो सकता है, अगर उन्होंने शादी की हो तो उनकी बीवी हो - मगर उनकी एक यह टिप्पणी बताती है कि वह पैसे तथा लोकप्रियता के नशे में चूर एक आदमी हैं जिसे कहते समय इस बात का कोई अहसास नहीं रहता कि उन्होंने क्या कह दिया है । वह भूल गए शायद कि वे एक ऐसे देश के नागरिक हैं जिसके अधिकांश लोग काले या सांवले हैं और हो सकता है, जयराम खुद भी सांवले-गेहुंए रंग के हों । उनकी तमिल फिल्मों के अधिकांश दर्शक भी काले-सांवले रंग के ही हैं और लगभग यही बात उनके मलयाली दर्शकों पर भी लागू होती है । फिर भी काले रंग की एक मोटी स्त्री को- जो उनके घर पर कामकाज करती है - सिर्फ इसी रूप में वे याद कर पाते हैं । यह ठीक है कि जयराम अपनी नौकरानी को लालची नजरों से नहीं देखते यानी उसे उपभोग की वस्तु नहीं मानते लेकिन उन्हें इस विचार से कोई बुनियादी ऐतराज नहीं है, बशर्ते कि नौकरानी उनके तथाकथित सौंदर्यबोध के हिसाब से सुंदर होती! शायद उन्हें इस बात की तकलीफ भी है कि वह औरत जो उनके घर काम करने आती है, इतनी काली और मोटी क्यों है, क्यों उसमें उपभोग की वस्तु होने की संभावना नहीं है?

इससे यह भी साबित होता है कि जयराम के घर जो नौकरानी आती है, उसका आकार और उसका रंग उनके मन में इतनी वितृष्णा पैदा करता है कि वे उसे एक इनसान मानने से भी इनकार कर देते हैं । उसकी तरफ चूंकि लालसाभरी नजरों से देखना संभव नहीं है तो वे उसे शायद देखते भी नहीं हैं, उससे कभी दो शब्द भी संभवतः नहीं बोलते हैं । उसके प्रति, उसके श्रम के प्रति उनके मन में कोई इज्जत नहीं है । वह जयराम के लिए घर की एक झाडू है, वाशिंग मशीन है । उनका यह नजरिया उस इनसान के प्रति है जो उनकी खुद की जरूरत और अपनी भी किसी मजबूरी के कारण जयराम के घर रोज काम करने आता है । कोई भी सभ्य आदमी बल्कि सभ्य आदमी ही क्यों, कोई साधारण इनसान भी ऐसे किसी सवाल का सामना होने पर इतना बेशर्मीभरा जवाब शायद नहीं देता। कोई भी ऐसा व्यक्ति- जिसका दिमाग ठीक है- टीवी चैनल पर ही क्यों, निजी जिंदगी में भी अपनी नौकरानी को इस नजर से नहीं देख सकता है कि वह उपभोग की वस्तु है या नहीं है और अगर नहीं है तो उसे वह काली भैंस बताकर अपमानित नहीं कर सकता था, हालांकि हम अधिकांश भारतीय काली भैंस का दूध पीते हैं, उसी के दूध से बनाई चाय-काफी पीते हैं । उस गाय का दूध आखिर हममें से कितनों को नसीब होता है जिसकी पूजा हम अपनी माता मानकर किया करते हैं ?

क्या सफल होने का मतलब अपनी बुनियादी संवेदना को खो देना है? किसी को कुछ भी कहने का अधिकार हासिल कर लेना है? फिल्म के अभिनेता-अभिनेत्री भी अपनी तमाम फूहड़ताओं के बावजूद अपने को "कलाकार" मानते हैं, वे इस गौरव से वंचित होना नहीं चाहते । तो अपने आपको कलाकार मानने वाला (चाहे यह उसका भ्रम क्यों न हो?) कोई भी व्यक्ति-चाहे वह पुरुष हो या स्त्री - किसी के भी प्रति ऐसी अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल आखिर कैसे कर सकता है ? कैसे लोगों के रंग को, उनके मोटे होने को मजाक का विषय बना सकता है ? और सामान्यतः लोकप्रिय माध्यमों में काम करने वाले लोग इस मामले में ज्यादा सावधान होते हैं, उन्हें होना भी चाहिए क्योंकि उनकी अंतिम सफलता इस बात पर निर्भर होती है कि वे साधारण से साधारण दर्शक से कितना अधिक जुड़ते हैं, कितने स्वीकार्य बनते हैं ? अमिताभ बच्चन, आमिर खान, शाहरुख खान, सलमान खान आदि जब छोटे पर्दे पर आते हैं (और आजकल टेलीविजन पर आना उनकी व्यावसायिक मजबूरी बन चुकी है) तो कोशिश करते हैं कि साधारण से साधारण दर्शक को भी वे प्रभावित करें क्योंकि फिल्म के अभिनेता-अभिनेत्री सिर्फ इस आधार पर नहीं चलते कि वे कितना अच्छा अभिनय करते हैं बल्कि इस आधार पर चलते हैं कि उनकी कुल छवि कैसी है? शाहरुख खान का अभिनय कभी कमाल का नहीं होता मगर अपने से हजार गुना अच्छा अभिनय करने वाले नसीरुद्दीन शाह और पंकज कपूर से वे कई गुना ज्यादा लोकप्रिय हैं। यही सलमान खान के बारे में भी सच है। इसलिए,और भी यह समझ मे नहीं आता कि कैसे एक लोकप्रिय अभिनेता अपना इतना घिनौना रूप टीवी पर दिखा सकता है? कैसे स्त्री को सिर्फ शरीर में तब्दील करने की हिमाकत,उसे सेक्स की वस्तु बना कर पेश कर सकता है? हालांकि कहा जा सकता है कि अधिकांश लोकप्रिय फिल्में,टीवी सीरियल,फैशन शो,विज्ञापन आदि और क्या करते हैं? लेकिन वहां स्त्री को वस्तु बना कर भी उससे एक रिश्ता जोड़ते हुए अभिनेता दिखते हैं,प्यार के तथाकथित बंधन में बंधे हुए दिखते हैं और जिस स्त्री को माल के रूप मे,उपभोग की वस्तु के रूप मे वे नहीं दिखाते,उससे वे एक सम्मानजनक संबंध बनाते हैं। आज की तारीख़ मे किसी काली और मोटी औरत को भैंस के रूप में चित्रित करने की हिम्मत बंबइया फिल्में तो कर ही नहीं सकतीं,मेरा ख्याल है कि तमिल-मलयालम फिल्में सेक्स-हिंसा आदि की भरमार के बावजूद नहीं करती होंगी। इसलिए तमिल दर्शकों को (और मलयालम दर्शकों को भी क्यों नहीं?) ऐसे अभिनेता को अस्वीकार करना चाहिए। ऐसे लोगों के दंभ तथा बदजुबानी का माकूल जवाब यही हो सकता है कि लोग उनकी फिल्में न देखें। यह बात तमिल-मलयालम दर्शकों तक पहुंचे न पहुंचे,फिर भी कहने लायक तो है और इसलिए भी कहने लायक है कि ऐसी गलती बॉलीवुड न करे कभी।

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