जिस तरह की जीवनशैली हम जी रहे हैं और उसमें जैसी बेसब्री, भागमभाग और कामयाबियों की लोलुपता नजर आ रही है उसे देखकर तो नहीं लगता कि कोई एक शख्स इस दुनिया से रुखसत होने के तीस बरस बाद भी जमाने की यादों में बसा रह सकता है। ऐसा यदि है तो मानना होगा कि कुछ तो करिश्मा है उस इंसान के नाम और काम का जिससे वह सिर्फ और सिर्फ आवाज के बूते पर हमारे बीच मौजूद है।
३१ जुलाई को यदि किसी पाक रूह की बात चल रही हो तो अमूमन लोग समझ जाते हैं कि इशारा मोहम्मद रफी की तरफ है। आज इस बात को दोहराना नहीं चाहता कि रफी साहब की पहली फिल्म कौन सी थी, उन्होंने कितने नगमों को स्वर दिया और कैसे वे सहगल का आशीर्वाद पाकर मुंबई पहुँचे और किस तरह का स्ट्रगल उन्होंने किया। ये सारी बातें तकरीबन हर रफी प्रेमी को मालूम है और उतनी ही मालूम है जितनी उनके परिजनों और मित्रों को मालूम होगी। ये रफी-प्रेमी भी ऐसे जिन्होंने रफी को देखा भी नहीं और सिर्फ उस आवाज के पारस-स्पर्श की अनुभूति दामन थाम कर उनके मुरीद बने रहे।
आज जरा यह तलाश लिया जाए या दोहरा लिया जाए कि तीस बरस बाद जुबान,पहनावा, लहजा और परिवेश बदल जाने के बाद भी रफी का जादू जस का तस क्यों बना हुआ है। दरअसल पहला कारण तो है लाजवाब संगीतकारों की धुनों के वे कारनामे जो अब दस्तावेज बन गए हैं। फेहरिस्त लंबी हो जाएगी इसलिए नहीं लिखना चाहता, लेकिन इशारा भर कर देता हूँ कि हुस्नलाल भगतराम, नौशाद, रोशन, एसडी बर्मन से लेकर मदनमोहन, आरडी बर्मन और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल तक रफी साहब ने हमेशा एक विनम्र विद्यार्थी की तरह अपने संगीतकारों को उस्ताद जैसा मान दिया। जैसा बताया गया वैसा गाया और निभाया। उनकी गायन यात्रा में ही कई साजिंदे अपनी मेहनत और रचनाशीलता के बूते पर संगीतकार बनकर स्थापित हुए, लेकिन रफी साहब ने हमेशा संगीतकार नाम की संस्था को भरपूर इज्जत बख्शी और उनकी कम्पोजिशन्स पर ईमानदार परिश्रम किया।
दूसरी बात; मोहम्मद रफी कम पढ़े-लिखे जरूर थे लेकिन उन्हें कविता-शायरी की अद्भुत समझ थी। उनकी कोई भी फिल्मी, गैर फिल्मी या भाषाई रचना सुन लीजिए। आप महसूस करेंगे कि शब्द कुछ ऐसी शफ्फाक सफाई से झर रहे हैं कि शायद इन शब्दों का अल्टीमेट तलफ्फुज बस यही हो सकता है। हम सब जानते हैं रफी साहब जिस विधा के गायक थे वह शब्द-प्रधान गायकी है। वैसे यह काम इतना आसान नहीं जितना रफी गीतों में सुनाई देता है। यह इसलिए कि गीत के शब्द को संगीतकार अपनी सोच की सुरभि देता है और गमक, हरकत और मुरकी से उसे सजाता है। शब्द का आलोक भी बना रहे और धुन भी जगमगाए यह सुगम संगीत की पहली जरूरत होती है। रफी साहब यहाँ भी विलक्षण हैं। शब्द के वजन को अपने कंठ की कमानी पर तानते हुए वे कब एक प्लेबैक सिंगर से स्वर-गंधर्व बन जाते हैं मालूम ही नहीं पड़ता। देवास के मरहूम उस्ताद रज्जबअली खाँ साहब शास्त्रीय संगीत के दुर्वासा, परशुराम या विश्वामित्र थे। उनकी तेज तबीयत का सभी को अंदाज था। वे कभी सिनेमाघर में फिल्म देखने नहीं गए लेकिन जिन दिनों हातिमताई फिल्म का गीत परवरदिगारे आलम तेरा ही है सहारा गली-गली गूँज रहा था तब वे सिर्फ इस गीत के लिए सिनेमाघर पहुँचे और पूरे गीत के दौरान जार-जार रोते रहे। यह एक वाकया रफी साहब की आवाज की कैफियत का पता देने और पाए को साबित करने के लिए काफी है।
आखिरी में सबसे अहम बात, अच्छा गायक होने के पहले रफी साहब एक आलादर्जा इंसान थे। उनकी जिंदगी में कभी कोई विवादास्पद वाकया सुनने में नहीं आया। हमेशा उनकी नेकी, विनम्रता और सरलता के चर्चे चले जो आज तक जारी हैं। गाने-बजाने वालों की दुनिया में लफड़ों की कमी नहीं लेकिन रफी साहब हमेशा फिल्मी चक्करों से परे रहे।
रफी साहब की बरसी पर छोटे मुँह बड़ी बात कहने की जुर्रत कर रहा हूँ; क्षमा करें, तमाम गाने-बजाने वालों की बिरादरी के नुमाइंदो से कहना चाहता हूँ कि रफी के गले जैसी उस्तादी ईश्वर प्रदत्त होती है लेकिन शराफत के आदाब हमें खुद सीखने होते हैं। रफी के गीतों को फॉलो करने के पहले हमें उनके व्यक्तित्व की शुचिता और पवित्रता का अनुसरण शुरू करना होगा। गुलूकारी के कायदे तो रियाज से भी आ जाएँगे।
वक्त बेरहमी और बेशर्मी से बेसुरापन परोस रहा है। आसरा है तो मो. रफी और उनके समकालीन दीगर गायकों के गाए गीतों का। स्वर का ये बेजोड़ कारीगर हमारे बीच सरगम की कशीदाकारी करने आया था, अपना काम किया और चल दिया। सूफी, दरवेश और फकीर तबीयत वाले मोहम्मद रफी ने जिस धुन को स्वर दिया वह अमर हो गई; जिस कविता/शायरी को अपने कंठ के भीतर उतारा वह कालजयी हो गई। यह रफी का ही तो करिश्मा है जो किसी मुसलमान को अपने भजन से पिघला सकता है और किसी हिन्दू को नातिया-कलाम से रुला सकता है। अल्लाह तेरा अहसान कि पंडित मोहम्मद रफी को हमारे बीच भेजकर हमारे कान को सुरीलेपन का आचमन करवाया वरना हम संसारी कैसे जानते कि स्वर की पाकीजगी किस बला का नाम है(संजय पटेल,नई दुनिया,इन्दौर,31.7.2010)।