सिनेमा, जिसके भविष्य के बारे में इसके आविष्कारक लुमियर बंधु भी बहुत आश्वस्त नहीं थे, आज भारतीय जीवन का जरूरी हिस्सा बना हुआ है। 7 जुलाई 1896 को जब भारत में पहली बार किसी फिल्म का प्रदर्शन हुआ था, तबसे आज तक सिनेमा की गंगा में न जाने कितना पानी बह चुका है। हम अपने निजी और सामाजिक जीवन की भी सिनेमा के बगैर कल्पना करें तो वह श्वेत-श्याम ही दिखेगा। सिनेमा ने समाज के सच को एक दस्तावेज की तरह संजो रखा है। चाहे वह 1930 में आरएसडी चौधरी की बनाई व्रत हो, जिसमें मुख्य पात्र महात्मा गांधी जैसा दिखता था और इसी वजह से ब्रितानी सरकार ने इस फिल्म को बैन भी कर दिया था, चाहे 1937 में वी शांताराम की दुनिया न माने। बेमेल विवाह पर बनी इस फिल्म को सामाजिक समस्या पर बनी कालजयी फिल्मों में शुमार किया जा सकता है। जिस दौर में पाकिस्तान अलग करने की मांग और सांप्रदायिक वैमनस्य जड़ें जमा चुका था, 1941 में फिल्म बनी पड़ोसी, जो सांप्रदायिक सौहार्द्र पर आधारित थी। फिल्म शकुंतला के भरत को नए भारत के मेटाफर के रूप में इस्तेमाल किया गया था। जाति हालांकि आज भी लगान और राजनीति तक में दिखी है, लेकिन इससे बहुत पहले 1936 में ही देविका रानी और अशोक कुमार बॉम्बे टॉकीज की अछूत कन्या में जाति प्रथा का मुद्दा उठा चुके थे। दलित मुद्दे पर फिल्मों में बाद में बनी फिल्म सुजाता को कोई कैसे बिसरा सकता है। देश आजाद हुआ तो एक नए किस्म का आदर्शवाद छाया था। फिल्में भी इस लहर से अछूती नहीं थीं। देश के नवनिर्माण में उसने कदमताल करते हुए युवा वर्ग को नई दिशा, नई सोच और नए सपने बुनने के अवसर प्रदान किए। 50 का दशक संयुक्त परिवार और सामाजिक समरसता की फिल्मों का दशक था। संसार, घूंघट, घराना, और गृहस्थी जैसी फिल्मों ने समाज की पारिवारिक इकाई में भरोसे को रूपहले परदे पर आवाज दी। इन्हीं मूल्यों और सुखांत कहानियों के बीच कुछ ऐसी फिल्में भी इस दौर में आई, जिन्होंने समाज में वैचारिक स्तर पर आ रहे बदलाव को रेखांकित भी किया। एक ओर तो राज कपूर, दिलीप कुमार और देव आनंद की तिकड़ी अपने रोमांस के सुनहरे रोमांस से दुनिया जीत रही थी, लेकिन राज कपूर की फिल्मों में एक वैचारिक रुझान साफ दिख रहा था, और वह असर था मार्क्सवराद का। गौरी से कैरियर शुरू करने वाले राज कपूर अभिनेता के तौर पर चार्ली-चैप्लिन का भारतीय संस्करण पेश करने की कोशिश में थे। हालांकि श्री 420 में वह नायिका के साथ एक ही छतरी के नीचे बारिश में भींगकर गाते भी हैं, और इस तरह राज कपूर ने दब-छिपकर रहने वाले भारतीय रोमांस को एक नया अहसास दिया। हालांकि, भारतीय सिनेमा के संदर्भ में किसी विचारधारा की बात थोड़ी असंगत लग सकती है, लेकिन पचास के दशक के शुरुआती दौर में विचारधारा का असर फिल्मों पर दिखा। बिमल रॉय की दो बीघा जमीन भारत में नव-यथार्थवाद का मील का पत्थर है। लेकिन ज्यादातर भारतीय फिल्मों में जिस वामपंथी विचारधारा के दर्शन होते हैं, वह कोई क्रांतिकारी विचारधारा न होकर सामाजिक न्याय की हिमायत करने वाला है। इसमें समाज सुधार, भूमि सुधार, गांधीवादी दर्शन और सामाजिक न्याय सभी कुछ शामिल है, लेकिन हर आदर्शवाद की तरह फिल्मों का यह गांधी प्रेरित आदर्शवाद ज्यादा दिन टिका नहीं। ऐसे में आराधना से राजेश खन्ना का आविर्भाव हुआ। राजेश खन्ना का रोमांस लोगों को पथरीली दुनिया से दूर ले जाता, यहां लोगों ने परदे पर बारिश के बाद सुनसान मकान में दो जवां दिलों को आग जलाकर फिर वह सब कुछ करते देखा, जो सिर्फ उनके ख्वाबों में था। इस तरह का पलायनवाद ज्यादा टिकाऊ होता नहीं। सो, ताश के इस महल को बस एक फूंक की दरकार थी। दर्शक बेचैन था। महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और पंगु होती व्यवस्था से लड़ने वाली एक बुलंद आवाज की जरूरत थी। ऐसे में एक लंबे लड़के की बुलंद आवाज परदे पर गूंजने लग गई। इस नौजवान के पास इतना दम था कि वह व्यवस्था से खुद लोहा ले सके और खुद्दारी इतनी कि फेंके हुए पैसे तक नहीं उठाता। कुछ लोग तो इतना तक कहते हैं कि अमिताभ नाम के इसी गुस्सैल नौजवान ने सत्तर के दशक में एक बड़ी क्रांति की राह रोक दी। बहरहाल, अमिताभ का गुस्सा भी कुली, इंकलाब आते-आते टाइप्ड हो गया। जब भी इस अमिताभ ने खुद को या अपनी आवाज को किसी मैं आजाद हूं में या अग्निपथ में बदलना चाहा, लोगों ने स्वीकार नहीं किया। तो नएपन के इस अभाव की वजह से लाल बादशाह, मृत्युदाता और कोहराम का पुराने बिल्लों और उन्हीं टोटकों के साथ वापस आया अमिताभ लोगों को नहीं भाया। वजह, उदारीकरण के दौर में भारतीय जनता का मानस बदल गया था। अब लोगों के पास खर्च करने के लिए पैसा था तो वे रोटी के मसले पर क्यों गुस्सा जाहिर करें। ऐसे में एक और नए लड़के ने दस्तक दी। यह लड़का कूल है। इतना कि अपने प्यार को पाने लंदन से पंजाब के गांव तक चला आए। परदेसी भारतीयों की कहानियों पर और परदेसी भारतीयों के लिए बनाई गई फिल्मों में शाहरुख खान का किरदार राज मल्होत्रा एक सिंबल के तौर पर उभरा। हालांकि परदेसी भारतीयों के लिए बनाए जा रहे सिनेमा में तड़क-भड़क ज्यादा हो गया और भारत के आम आदमी का सिनेमा के कथानक से रिश्ता कमजोर हो गया। ऐसे में मिडिल सिनेमा ताजा हवा का झोंका बनकर आया है। व्यावसायिक रूप से सफल इन फिल्मों का क्राफ्ट और कंटेंट दोनों मुख्यधारा की फिल्मों से बेहतर है। आमिर खान की लगान, तारे जमीं पर जैसी कई फिल्मों, शाहरुख की स्वदेश और चक दे इंडिया, और श्याम बेनेगल की वेलकम टू सज्जनपुर और वेलडन अब्बा ने सामयिक विषयों को फिल्मों में जगह दी है। और तब अलग से यह कहने की जरूरत रह नहीं जाती कि सिनेमा समाज का अक्स है। (जारी..)
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