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Saturday, July 10, 2010

सौ बरस का होने को है सार्थक सिनेमा

देश में सार्थक सिनेमा करीब सौ साल की उम्र पार कर चुका है। सार्थक सिनेमा यानि जिसे आज कला या समानांतर फिल्मों के नाम से भी जाना जाता है। इसकी शुरूआत 1920-30 के दशक से हुई थी। शुरुआती फिल्मों की बात करें तो वी शांताराम ने 1925 में साहूकारों के कर्ज में डूबे भारतीय किसान की नियति पर पहली मूक सार्थक फिल्म सावकारी पाश बनाई थी। इसके बाद उन्होंने 1937 में समाज में महिलाओं की दशा पर दुनिया ना माने फिल्म का निर्माण किया, लेकिन सही मायने में समानांतर सिनेमा आंदोलन ने 1940 से 60 के दशकों में आकार लेना शुरू किया। यह देश में उथल-पुथल का दौर था। लोगों का कांग्रेस के एकछत्र राज से मोहभंग होने लगा था। भारतीय सिनेमा का यह सुनहरा दौर था। सत्यजीत रॉय, ऋत्विक घटक, बिमल रॉय, मृणाल सेन, ख्वाजा अहमद अब्बास, चेतन आनंद और वी शांताराम जैसे निर्देशकों ने इस दौरान सिनेमा को महज मनोरंजन के बजाय, समाज के अध्ययन का औजार और सामाजिक सरोकार के विषयों पर फिल्में बनानी शुरू कीं। चेतन आनंद की नीचा नगर वह पहली फिल्म थी, जिसने पहले कांस फिल्म समारोह (1946) में ग्रांड पुरस्कार जीता। 1950 व 60 के दशकों में फिल्मों के बुद्धिजीवी संगीतमय फिल्मों से उचाट हो गए और देश में पहली बार नव यथार्थवादी फिल्में बननी शुरू हुई। सत्यजीत राय के बाद श्याम बेनेगल, मृणाल सेन, अडूर गोपालकृष्णन, गिरीश कसारवल्ली और बिमल रॉय ने पाथेर पांचाली, अपराजितो, द व‌र्ल्ड ऑफ अपु, दो बीघा जमीन जैसी फिल्में बनाईं। इसी बीच हृषिकेश मुखर्जी ने एक नई धारा को जन्म दिया, जिसे मध्यमार्गी सिनेमा कहा जाता है। ये फिल्में न तो मुंबईया सिनेमा की तरह कल्पना की उड़ान थीं, न उनके विषय समानांतर सिनेमा की तरह ठोस यथार्थवादी थे। ये फिल्में मध्यमवर्ग की कहानी कहती थीं। एक तरह से कहा जाए तो ये कला व व्यावसायिक सिनेमा का फ्यूजन थीं। इसी दौर में गुरुदत्त की फिल्म प्यासा (1957) ने टाइम मैगजीन की ऑल टाइम सौ फिल्मों में जगह बनाई। 1960 के दशक में बंगाली फिल्म निर्देशक ऋत्विक घटक के बिना भारतीय कला फिल्मों का इतिहास अधूरा है। फिल्म एंड टीवी इंस्टीट्यूट के निदेशक रहे घटक ने सत्यजीत राय से पहले ही कला फिल्म नागरिक बनाई थी, लेकिन वह 1977 में उनकी मौत से पहले रिलीज ही नहीं हो पाई। 1970 से 80 के दशक में हिंदी समानांतर सिनेमा एक बार भी चर्चा में आ गया। इस दौर में गुलजार, श्याम बेनेगल, सईद अख्तर मिर्जा, महेश भट्ट और गोविंद निहलानी ने सार्थक सिनेमा को नए मुकाम पर पहंुचाया। श्याम बेनेगल की फिल्म अंकुर इस दौर की एक मशहूर फिल्म है। इसी दौर ने शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, नसीरुद्दीन शाह, अमोल पालेकर, ओमपुरी, कुलभूषण खरबंदा, पंकज कपूर जैसे शानदार अभिनेताओं को जन्म दिया। रेखा, अमिताभ बच्चन और हेमामालिनी ने इसी दौर में कला सिनेमा का रुख किया। देश में आर्थिक उदारीकरण के साथ ही 1990 के दशक की शुरूआत में फिल्मों की बढ़ती लागत और सरकारी मदद में कमी से कला सिनेमा को गहरा धक्का लगा। निर्माताओं ने भी उनके विषयों से दूर होना शुरू कर दिया। मगर 90 का दशक खत्म होते-होते व्यावसायिक सिनेमा के आगे भी विषयों का संकट गहराने लगा। नए विषयों से दर्शकों को जोड़ने की चाह में निर्माताओं ने नए विषयों को लेने की हिम्मत दिखानी शुरू की और कला सिनेमा को एक नई जिंदगी मिली। मणिरत्नम की दिल से व युवा, तिग्मांशु धूलिया की हासिल इस दौर में बेहतरीन कला फिल्मों के कुछ उदाहरण हैं(अरविंद शेखर,दैनिक जागरण,देहरादून ,१०.७.२०१०) ।

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