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Saturday, July 10, 2010

बेचारी नहीं रहीं नायिकाएं

"ये एक मजलूम लड़की है, जो इत्तेफाकन मेरी पनाह में आ गई है।" फिल्म पाकीजा में यह डायलॉग बोलते वक्त राजकुमार को इस बात का जरा भी इल्म नहीं रहा होगा कि वह भारतीय सिनेमा के एक सच का खुलासा कर रहे हैं। भारतीय फिल्मों की नायिका दशकों से मजलूम होने का बोझ ढोती आ रही हैं और यह सिलसिला कुछ अर्थो में आज भी कायम है। हिंदुस्तानी सिनेमा के शुरुआती दौर में नायिकाओं के किरदार भी पुरुष ही निभाया करते थे और सोलंके नामक एक अभिनेता को नारी की भूमिका निभाने के लिए पुरस्कार भी मिला था। गौर से देखें तो आज तक फिल्मों में नारी पात्रों को पुरुषवादी नजरिए और अहं के साथ ही गढ़ा गया है। हिंदुस्तानी सिनेमा के पहले दशक की फिल्में धार्मिक किस्म की थीं और उनमें महिलाएं देवियों जैसी थीं, जबकि कैकेयी और मंथरा वगैरह बुरी महिला पात्रों के स्टीरियोटाइप बने। गांधी जी के असर में भारतीय समाज और सिनेमा दोनों ही बदलने लगे। 1937 में वी शांताराम की दुनिया न माने में बूढे़ विधुर से ब्याही नवयुवती इस बेमेल विवाह को नाजायज मानती है, लेकिन दुनिया न माने की शांता आप्टे को छोड़ दें तो शोभना समर्थ से लेकर तदबीर की नरगिस या तानसेन की खुर्शीद तक सभी नायिकाएं वैसी ही गढ़ी गई, जैसा हमारा समाज आज तक चाहता आया है। महबूब खान ने 1939 में औरत और 1956 में इसका भव्य रंगीन संस्करण मदर इंडिया बनाई। केंद्रीय पात्र अपने सबसे लाडले विद्रोही पुत्र को गोली मार देती है, क्योंकि वह गांव की लाज को विवाह मंडप से उठाकर भाग रहा था। नरगिस द्वारा अभिनीत इस किरदार को ही दीवार में निरूपा राय के रूप में एक और शेड मिलता है। बाद में मां के चरित्र का सशक्त विस्तार राम लखन, करण अर्जुन और रंग दे बसंती में दिखता है। आजादी के बाद के आदर्श प्रेरित कुछ फिल्मों में नारी मन को भी उकेरने की कोशिश की गई। अमिया चक्रवर्ती की सीमा और बिमल रॉय की बंदिनी में महिला पात्रों ने कमाल किया। बिमल रॉय की सुजाता तो ऋषिकेश मुखर्जी की अनुपमा और अनुराधा भी नारी की पारंपरिक छवि को जीती हैं। लेकिन फिल्म जंगली के साथ रंगीन होते ही हिंदुस्तानी सिनेमा की पलायनवादी धारा ने नारी को वस्तु की तरह प्रस्तुत करना शुरू कर दिया। सातवें दशक में श्याम बेनेगल ने अंकुर और निशांत में महिलाओं के खिलाफ सामंतवादी अन्याय की कहानी पेश की और यह भी स्थापित किया कि भारतीय लोकतंत्र सामंतवाद का नया चेहरा है, लेकिन इस दौर की मुख्यधारा के सिनेमा में महिला किरदारों का काम महज नाच-गाने तक ही सीमित रहा। नरगिस, कामिनी कौशल, मधुबाला और गीता बाली के साथ मीना कुमारी और नलिनी जयवंत भी अपने अभिनय से दर्शकों पर छाप छोड़ चुकी थीं। फिर भी अंदाज दिलीप कुमार की ही फिल्म मानी जाती रही, बरसात राजकपूर की और महल अशोक कुमार की। हालांकि राज कपूर की सत्यम् शिवम् सुंदरम् में अंग प्रदर्शन चरम पर था तो बाद में प्रेम रोग विधवा समस्या पर सार्थक फिल्म थी। राजकपूर को यह श्रेय जरूर देना चाहिए कि उनकी नायिकाएं किसी भी अर्थ में हीरो से कमतर नहीं रहीं। वे औरत को उसी रूप में पेश करते रहे, जिस रूप में वह हमारे समाज की देहरी के अंदर और बाहर रही है। अमिताभ बच्चन के दौर में मारधाड़ में नायिका कहीं हाशिए पर फिसल गई। अभिमान या मिली जैसी फिल्में जया भादुड़ी पर मेहरबान ज़रूर हुई, पर इसी बीच परवीन बॉबी और जीनत अमान जैसी अभिनेत्रियों को केवल अपने जिस्म का जलवा दिखाकर ही संतुष्ट होना पड़ा। सत्तर के दशक में भी नायिकाएं त्यागमयी, स्नेही और नायक की राह में आंचल बिछाए बैठी एक आदर्श नारी बनी रहीं। इसके साथ ही ख़ूबसूरत होना और पार्क में साइकिल चलाते हुए गाना भी उनकी मजबूरी रही है। अस्सी का दशक हिंदी फिल्मों में कई लिहाज से अराजकता का दशक माना जाता है। इस दशक में कथा और चश्मेबद्दूर या गोलमाल जैसी अलग महिला किरदारों वाली फिल्में तो आती हैं, पर यह परंपरा कायम नहीं रह पाती। महेश भट्ट की अर्थ ने हालांकि महिला किरदारों की परंपरा को नए अर्थ दिए। फिल्म से हमें साधारण चेहरे-मोहरे, लेकिन असाधारण प्रतिभा वाली अभिनेत्री शबाना आजमी मिलीं। भट्ट की इस फिल्म ने एक मशहूर अभिनेत्री का मर्द पर हद से ज्यादा आश्रय और बरसों से परित्यक्ता पत्नी के आत्मसम्मान को दिखाया। सुबह और भूमिका भी इसी दशक में आई और स्मिता पाटिल अपनी चमत्कारिक अभिनय क्षमता का लोहा मनवा गई। अपनी मादक छवि से परेशानहाल डिंपल ने जख्मी औरत, रूदाली और लेकिन से महिला किरदारों के अलग आयाम प्रस्तुत किए। सावन भादो से एक अनगढ़ लड़की के रूप में आई रेखा ने उमराव जान और खूबसूरत जैसी फिल्मों से अपना अलग मुकाम बनाया, लेकिन उनके किरदार में वैविध्य खून भरी मांग से ही आया। काजोल दुश्मन और बाजीगर में कुछ अलग किस्म की भूमिकाओं में दिखीं, लेकिन यहां भी उन किरदारों को हीरो का सहारा चाहिए था। रानी के ब्लैक में कमाल के पीछे कहीं अमिताभ बच्चन का चेहरा झांकता रहा। बहरहाल, रवीना टंडन की सत्ता या गुलजार की हू तू तू बेशक महिलाओं पर बनी अच्छी राजनीतिक कहानियां हैं। ऐसी ही कुछ प्रकाश झा की राजनीति भी है, जिसमें पहली बार कैटरीना कैफ सिर्फ पलकें झपकाने की बजाय अभिनय करती नजर आई हैं। बाजार की शक्तियों ने नायिकाओं को अभिनेत्री के आसन से उतार कर आइटम बना दिया। मल्लिका शेरावतों और मलाइका अरोड़ाओं के सामने तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त बेहद सीधे-साधे गीत नजर आते हैं। हाल की इश्किया में विद्या बालन का किरदार अलग है। मिस्टर एंड मिसेज अय्यर और पेज थ्री की कोंकणा हालांकि शबाना और स्मिता की याद दिलाती हैं, लेकिन आज भी भारतीय दर्शक अपनी हीरोइन से यही कहना चाहता है- आपके पांव देखे, बहुत खूबसूरत हैं। इन्हें जमीन पर न रखिएगा, मैले हो जाएंगे..।
(मंजीत ठाकुर,दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,१०.७.२०१०)

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