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Saturday, July 10, 2010

सार्थक सिनेमा यानी आवाम की आवाज

सार्थक सिनेमा समाज का ऐसा सच है, जो परिस्थितियों को ज्यों का त्यों परोसने की क्षमता रखता है। असल में यह थियेटर का ही दूसरा रूप है, जो रंगमंच की जगह पर्दे पर साकार होता है। इसमें सच कहने, समाज को उद्वेलित करने और उसे दिशा देने की भी ताकत है। इसीलिए बाजार इसे समाज से दूर रखना चाहता है। दैनिक जागरण की यह पहल दून में एक नई सोच डेवलप करेगी। अतीक अहमद, वरिष्ठ रंगकर्मी आर्ट मूवी का इंपेक्ट बहुत अधिक है। सिनेमा का यह ऐसा संस्करण है, जो सीधे-सीधे आमजन की मनोदशा को प्रभावित करता है। ऐसी फिल्में आज भी बड़ी तादाद में बन रही हैं, लेकिन बाजारू ताकतें उन्हें जनमानस तक नहीं पहुंचने देना चाहतीं। उदाहरण के तौर पर इसे लव मैरिज व अरेंज्ड मैरेज के रूप में भी देखा जा सकता है। लव मैरिज में दिखावा नहीं है, फिर समाज के कथित हितचिंतक इसे बर्दाश्त नहीं कर पाते। जबकि अरेंज्ड मैरेज में दिखावा है, चोंचलेबाजी है, एक-दूसरे को नीचा दिखाने की मनोवृत्ति है, फिर भी इसे आदर्श माना जाता है। बबीता अनंत, वरिष्ठ रंगकर्मी सार्थक सिनेमा क्षेत्र की भावनाओं को उभारने का भी महत्वपूर्ण माध्यम है। देश में जितने भी बड़े आंदोलन हुए, उन्हें कहीं न कहीं सार्थक सिनेमा ने ताकत दी। आजादी के दौर में वह सार्थक सिनेमा ही था, जिसने अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला दीं। यूरोप और अमरीका में आज भी सार्थक सिनेमा खूब बनता है, जिसके कद्रदान पूरी दुनिया में हैं,लेकिन इन्हीं देशों की शह पर भारत में इसे दरकिनार रखने की कोशिशें हो रही हैं। ऐसे मौके पर जागरण का यह प्रयास नि:संदेह सराहनीय है। दिनेश गुसाई, फिल्म मेकर सार्थक सिनेमा ने समाज को नई ऊंचाइयां दी हैं। खासतौर पर रीजनल सिनेमा में इसकी काफी पैठ रही है। जिस भी क्षेत्र या प्रांत में सार्थक सिनेमा मजबूत रहा, वहां समाज में क्रिएटिविटी भी ज्यादा देखने को मिलती है। सीमित संसाधनों में समाज के मनोभावों को व्यक्त करने का इससे बेहतर जरिया और कोई हो ही नहीं सकता। बलराज नेगी, फिल्म अभिनेता सब जानते हैं कि व्यावसायिक सिनेमा मनुष्य को कहां ले जा रहा है। वह जीवन के करीब है न यथार्थ के। दरअसल हमने सिनेमा को महज मनोरंजन का साधन समझ लिया है। यहां तक कि वंचित तबके के लोग भी उसमें दिखने वाली बड़ी गाडि़यों व खूबसूरत बालाओं की मृगमरीचिका के जरिए अपने जीवन का कटु यथार्थ भूलने की कोशिश करते हैं। दरअसल हमारे देश में सिनेमा को लेकर समाज को शिक्षित ही नहीं किया गया। हम सिनेमा का व्याकरण ही नहीं जानते। ऐसे में सार्थक सिनेमा ही उम्मीद जगाता है। सुभाष पंत, वरिष्ठ हिंदी कथाकार कला फिल्मों को सार्थक सिनेमा की संज्ञा तभी दी जा सकती है, जब वह समाज को सकारात्मक बदलाव की दिशा दे। दरअसल होता यह है कि कला फिल्मों के नाम पर समाज का संकट यथार्थवादी दृष्टि के साथ तो प्रस्तुत किया जाता है, मगर उसका विकल्प क्या है, यह बताने की जरूरत नहीं समझी जाती। फिर समाज को भटकाव में छोड़ने वाले को सार्थक सिनेमा कैसे माना जा सकता है। विजय गौड़, वरिष्ठ रंगकर्मी, कवि-उपन्यासकार मैं कला की बजाय सार्थक सिनेमा की बात करूंगा। सार्थक सिनेमा वही है, जो जनता की मुश्किलें हल करने का कोई रास्ता सुझाए। हाल में बहुत सी ऐसी फिल्में आईं, जो अच्छी फिल्मों का भ्रम पैदा करती हैं, मसलन स्लम डॉग मिलिनियर। मगर, वह कहीं न कहीं अपनी अंतर्वस्तु में व्यवसाय को तवज्जो दे रही होती हैं। यहां तक कि आम जनता की सोच को एक खास दृष्टि से प्रभावित करने की कोशिश करती हैं। उनमें व्यक्तिवाद व भाग्यवाद को जगाती हैं। सार्थक सिनेमा तो वह है जो अपना मुहावरा खुद गढ़े। राजेश सकलानी, वरिष्ठ हिंदी कवि सार्थक सिनेमा की बात ऋत्विक घटक के जिक्र के बगैर शुरू ही नहीं की जा सकती। ऋत्विक घटक ने ही भारतीय सिनेमा को यथार्थपरक सोच व दिशा दी थी। उन्होंने ही भारतीय सिनेमा को महज मनोरंजन का साधन बने रहने के कुचक्र से मुक्त किया। उनकी फिल्में समाज परिवर्तन की चाह पैदा करती है। मेरी नजर में सार्थक सिनेमा बदलाव का औजार है। यह समानांतर फिल्मों का ही असर है कि आज बॉलीवुड दर्शकों के लिए नए विषय तलाश रहा है। डॉ. अतुल शर्मा रंगकर्मी, दैनिक जागरण,देहरादून ,१०.७.२०१०)

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