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Thursday, July 8, 2010

बदलता दौर,बदलते नायकःमंजीत ठाकुर

भारत में सिनेमा जब शुरु हुआ, तो फिल्में मूल रुप से पौराणिक आख्यानों पर आधारित हुआ करती थीं। लिहाजा, हमारे नायक भी मूल रुप से हरिश्चंद्र, राम या बिष्णु के किरदारों में आते थे। पहली बोलती फिल्म आलम आरा (1931) के पहले ही हिंदी सिनेमा की अधिकांश परिपाटियाँ तय हो चुकी थीं, लेकिन जब पर्दे पर आवाज़ें सुनाई देने लगीं तो अभिनेताओं के चेहरों और देह-भाषा के साथ अभिनय में गले और स्वर की अहमियत बढ़ गई। 1940 का दशक हिंदी सिनेमा का एक संक्रमण युग था। वह सहगल, पृथ्वीराज कपूर, सोहराब मोदी, जयराज, प्रेम अदीब, किशोर साहू, मोतीलाल, अशोक कुमार सरीखे छोटी-बड़ी प्रतिभाओं वाले नायकों का जमाना था तो दूसरी ओर दिलीप कुमार, देव आनंद, किशोर कुमार और भारत भूषण जैसे नए लोग दस्तक दे रहे थे। पारसी और बांग्ला अभिनय की अतिनाटकीय शैलियां बदलते युग और समाज में हास्यास्पद लगने लगीं, उधर बरुआ ने बांग्ला देवदास में नायक की परिभाषा को बदल दिया। अचानक सहगल और सोहराब मोदी जैसे स्थापित नायक अभिनय-शैली में बदलाव की वजह से भी पुराने पड़ने लगे। मोतीलाल और अशोक कुमार पुराने और नए अभिनय के बीच की दो अहम कडि़यां हैं। इन दोनों में मोतीलाल सहज-स्वाभाविक अभिनय करने में बाज़ी मार ले जाते हैं, लेकिन कलकत्ता में लगातार तीन साल चलने वाली किस्मत में अशोक कुमार एक अलग पहचान बनाने में कामयाब रहे। आजादी के आसपास ही परदे पर देवानंद, राजकपूर और दिलीप कुमार सितारे की तरह उगे। दिलीप कुमारनुमा रोमांस का मतलब था ट्रैजिक रोमांस। दिलीप कुमार, रोमांस हो या भक्ति, मूल रुप से अपनी अदाकारी को केंद्र में रखते थे, और वे ट्रेजिडी किंग के नाम से मशहूर भी हो गए। दिलीप कुमार ने अभिनय की हदें बदल डालीं। आजादी के बाद के युवाओं में रोमांस का पुट भरा, देवानंद ने। देवानंद कालेज के लड़कों में, एडोलसेंट लेवल पर काफी लोकप्रिय थे। देव आनंद हॉलीवुड के बड़े नायक ग्रेगरी पेक से प्रभावित तो हुए, लेकिन पेक की कुछ अदाओं को छोड़कर उन्होंने उनसे अच्छा अभिनय कभी नहीं सीखा जो पेक की रोमन हॉलिडे, टु किल ए मॉकिंग बर्ड या दि गांस ऑफ नावारोने में दिखाई देता है। एक मजेदार प्लेब्वॉय बनकर ही रह गए देवानंद की लोकप्रियता कई बार दिलीप कुमार और राजकपूर से ज्यादा साबित हुई। इस तिकड़ी में देव ही ऐसे थे जिनकी नकल करोड़ों दर्शकों ने की, लेकिन उनके किसी समकालीन ने उसकी नकल करने की ज़ुर्रत नहीं की। राजकपूर, एक अच्छे अभिनेता तो थे ही, लेकिन उससे भी बड़े निर्देशक थे। अपनी फिल्मों में अदाकार के तौर पर उन्होंने हमेशा आम आदमी को उभारने की कोशिश की। आरके लक्ष्मण के आम आदमी की तरह के चरित्र उन्होंने रुपहले परदे पर साकार करने की कोशिश की। राज कपूर, दिलीप कुमार और देवानंद, ये तीनों एक स्टाइल आइकन थे, लेकिन इन तीनों का जादू तब चुकने लगा, जब एक किस्म का रियलिटी चेक जिदंगी में आया। इस तिकड़ी के शबाब के दिनों में ही बलराज साहनी ने दो बीघा जमीन के जरिए मा‌र्क्सवादी विचारों को सिनेमाई स्वर दिए। दो बीघा जमीन उस जमाने की पहली फिल्म थी, जिसमें इटैलियन नवयथार्थवाद की झलक तो थी ही, इसका कारोबार भी उम्दा रहा था। फिल्म में बेदखल सीमांत किसान की भूमिका को बलराज ने जीवंत कर दिया था। बेहद हैंडसम रहे साहनी हिंदी सिनेमा के पहले असली किसान-मजदूर के रूप में पहचाने गए। दरअसल, अभिनय के मामले में अपने समकालीनों से बीस ही रहे साहनी, ओमपुरी, नसीर और इरफान के पूर्वज ठहरते हैं। गुरुदत्त बेहद निजी किस्म की फिल्में बनाते थे, लेकिन उनका दायरा बेहद सार्वजनिक हुआ करता था। गुरुदत्त ने परदे पर एक अलग तरीके के नायक की रचना की। कागज के फूल के नायक ने दुनिया के बेगानेपन पर अपनी तल्ख टिप्पणी छोड़ी। इसी दशक में मदर इंडिया भी आई। परदे पर विद्रोह और आदर्शवाद साथ दिखा। भारत माता के रूप में उकेरी गई नरगिस ने अपने ही डकैत बेटे को गोली मारकर आदर्शवाद की नई छवि गढ़ दी, लेकिन दर्शकों का एक ऐसा वर्ग तैयार होना शुरु हो चुका था, जिसकी सहानुभूति डकैत बेटे सुनील दत्त से थी। उधर अभिनय-शैली के मामले शुरू में एल्विस प्रेस्ली से प्रभावित शम्मी कपूर ने बाद में खुद की जंगली शैली विकसित की । इसका गहरा असर जितेंद्र, मिथुन चक्रवर्ती वगैरह से होता हुआ गोविंदा तक आता है। 1969 में शक्ति सामंत की ब्लॉक बस्टर फिल्म आराधना ने रोमांस के एक नए नायक को जन्म दिया, जो पूछ रहा था, मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू। इसके साथ ही हिंदी सिनेमा में सुपरस्टारडम की शुरुआत हुई। राजेश खन्ना दिलीप कुमार की परंपरा में थे और रोमांटिक किरदारों में नजर आते रहे। किशोर कुमार की आवाज गीतों के लिए परदे पर राजेश खन्ना की आवाज बन गई, और इसने राजेश खन्ना को एक मैटिनी आइडल बना दिया। परदे पर रोमांस की तमाम कोशिशों के बाद फिल्म जंजीर में एक बागी तेवर की धमक दिखी, जिसे लोगों ने अमिताभ बच्चन के नाम से जाना। गुस्सैल निगाहों को बेचैन हाव-भाव और संजीदा-विद्रोही आवाज ने फिल्म जगत को एक नई देह-भाषा दी। एक ऐसे समय जब पूरा देश जमाखोरी और ठेकेदारों-साहूकारों के गठजोड़ तले पिस रहा था, अमिताभ बच्चन ने जंजीर और दीवार जैसी फिल्मों के जरिए नौजवानों के गुस्से को परदे पर साकार कर दिया। विजय नाम का यह नौजवान इंसाफ के लिए लड़ रहा था और उसे न्याय नहीं मिले तो वह अकेला मैदान में कूद पड़ता था, लेकिन बदलते वक्त के साथ इस नौजवान के चरित्र में भी बदलाव आया। जंजीर में उसूलों के लिए सब-इंसपेक्टरी छोड़ देने वाला नौजवान फिल्म देव तक अधेड़ हो जाता है। देव में इस नौजवान के पुलिस कमिश्नर बनते ही उसूल बदल जाते हैं। नब्बे के दशक की शुरुआत में अमिताभ बच्चन का गुस्सैल नौजवान अप्रासंगिक होता दिखा। नब्बे के दशक में भारत बदला, नई नीतियां आ गईं और तरक्की की ओर जाने के रास्ते बदल गए, तो बागी तेवरों के लिए दर्शकों के लिए जो अपील थी, वह खत्म होने लगी। उदारीकरण होने लगा तो नए हिंदुस्तान को दिखाने के लिए सिनेमा में नए चेहरों की जरुरत पड़ी। इस मौके को वैश्रि्वक भारतीय बने राज मल्होत्रा यानी शाहरुख ने थाम लिया। इनका किरदार नौकरी के लिए कतार में नहीं लगता, उसे भूख की चिंता नहीं है, वह एनआरआई है और अपने प्यार को पाने लंदन से पंजाब के गांव तक आ जाता है। आमिर में शाहरुख जैसी अपील तो नही है, लेकिन वह अदाकारी में शाहरुख से कई कदम आगे हैं। शाहरुख तड़क-भड़क में आगे हैं, लेकिन अपनी फिल्मों में मैथड एक्टिंग के जरिए आमिर, शाहरुख के जादू पर काबू पा लेते हैं। एक तरह से आमिर मिडिल सिनेमा में मील के पत्थर हंै तो शाहरुख सुपर सितारे की परंपरा के वाहक(दैनिक जागरण,8.7.2010)।

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