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Tuesday, July 13, 2010

कला का काला यथार्थ

पिछले दिनों एक पुलिस अधिकारी ने मुझसे कहा, क्या आप जानते हैं कि 37 वर्षीया मॉडल विवेका बाबाजी की पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार विवेका ने फांसी लगाने से पहले शराब और नशीली दवाओं का सेवन किया था। इसके बाद उन्होंने बॉलीवुड पर चढ़ाई कर दी, आप जैसे जिम्मेदार लोगों को फैशन और फिल्मी दुनिया में शराबखोरी व नशाखोरी के महिमामंडन को कम करने का प्रयास करना चाहिए। नौजवानों को इस किस्म की तेज रफ्तार वाली जिंदगी के खतरों के प्रति आगाह किया जाना चाहिए। लोगों की सोच बदलनी चाहिए। इसे बदलने में पुलिसवालों के बजाय आप जैसे कलाकार अधिक कारगर सिद्ध हो सकते हैं। नशीली दवाओं और शराब के प्रति फिल्मी सितारों और ग्लैमर उद्योग की ललक साफ जाहिर है और इसे आसानी से समझा जा सकता है। फिल्म स्टार जिस तनाव से गुजरते हैं उससे उबरने के लिए वे इस प्रकार के व्यसनों के गुलाम हो जाते हैं। जब तक सफलता का उत्सव न मना लें, इसे मान्यता नहीं मिलती। नौजवान और अनुभवहीन को इस दलदल में उतार दें और देखें कि किस तरह वे बर्बादी के कगार पर पहुंच जाते हैं, खासतौर पर ललित कलाओं में इस प्रकार के व्यसनों को विरासत के तौर पर लिया जाता है। केएल सहगल, मीना कुमारी, ऋत्विक घटक, गुरुदत्त भी पीने वालों में शामिल थे। वे पीने के बाद अक्सर बखेड़ा खड़ा कर देते थे। कला की दुनिया के लोग कहते हैं कि विलक्षण प्रतिभा के धनी कलाकार विचारोत्तेजना और रचनात्मकता में वृद्धि के लिए नशीली दवाओं और शराब का सहारा लेते हैं, किंतु इन सितारों के करीबियों का कहना है कि ये लोग शराब का सेवन अपनी उच्च संवेदनशीलता की पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए आत्म-ध्यान के रूप में करते हैं। सवाल यह है कि क्या शराब और नशीले पदार्थ रचनात्मकता बढ़ाते हैं? शराब और नशीली दवाएं, दोनों का सेवन करने और फिर इन्हें छोड़ देने पर आज मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूं कि यह खतरनाक सोच है। तमाम कलाकारों को एक साथ चिल्लाकर पूरे राष्ट्र को बता देना चाहिए कि शराब वास्तव में रचनात्मकता को कुचलती है। मिर्जा गालिब के समय से ही बहुत से कलाकार और लेखक शराब के नशे में डूबे रहे हैं। विशेषज्ञ आपको बता सकते हैं कि उन्होंने अपनी अधिकांश महान रचनाएं तब दीं जब वे किसी नशीले पदार्थ के प्रभाव में नहीं थे। आठवें दशक में वापस लौटते हैं। तब मैं भी बहुत अधिक शराब पीता था। मुझे लगता था कि अल्कोहल मुझे उस स्थान पर ले जाता है जहां मैं खुद को दीन-दुनिया से बेखबर और सुरक्षित महसूस करता था। शायद यही कारण है कि शराब को रचनात्मकता में सहयोगी माना जाता है। नशीले पदार्थ कुछ समय के लिए उद्दात्त भावनाओं में बहा ले जाते हैं, किंतु जैसे ही इनका असर खत्म होता है, आप और भी अकेले और असुरक्षित महसूस करने लगते हैं। जैसे ही आप जिंदगी की सच्चाइयों से रू-ब-रू होते हैं, आपको इनका खोखलापन नजर आने लगता है। जब आप नियंत्रण खोने लगते हैं, जैसाकि मैंने खोया था तो आप जमीनी धरातल पर आकर गिरते हैं और आपको धक्का लगता है। ऐसा हममें से बहुत से लोगों के साथ होता है। विख्यात साहित्यकार जावेद अख्तर भी एक समय शराब की गिरफ्त में आ गए थे, किंतु मेरी तरह उन्होंने भी अरसा पहले बोतल से किनारा कर लिया। शराब छोड़ने के बाद अब उनकी रचनात्मकता में और निखार आ गया है। संजय दत्त भी इस मिथक के शिकार थे कि नशीली दवाएं चित्त शांत रखने में मदद करती हैं। नशीली दवाओं के साथ उनके रोमांस ने उन्हें मरने के कगार पर पहुंचा दिया था। अगर वह आज जिंदा हैं तो इसका श्रेय उनके पिता सुनील दत्त को जाता है। फिल्मी दुनिया की चमक-दमक में खुद को साबित करना खासा मुश्किल काम है। कलाकार आम तौर पर अधिक संवेदनशील होते हैं। ऐसे में इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि वे अपनी भावनाओं के ज्वार को बांधने के लिए नशीले पदार्र्थो की गिरफ्त में आ जाएं। और जब ऐसा हो जाता है तो उनके प्रियजनों और परिजनों को उन्हें इस नरक से निकालने में खुद को होम करना पड़ता है। जावेद और मैं अंदर से इतने मजबूत थे कि इस लत के जाल को काट पाए। संजय भाग्यशाली थे कि उन्हें सुनील दत्त का प्यार मिला और वह इस पर विजय हासिल कर पाए, किंतु विवेका भाग्यशाली नहीं थीं। अगर कोई उन्हें प्यार करने वाला होता तो उन्होंने खुदकुशी नहीं की होती। जीवन में शराब और नशीली दवाएं आपकी कोई सहायता नहीं कर सकतीं। पैसा भी काम नहीं आएगा। आपको अंधेरे से उजाले की ओर ले जाने में अंत:चेतना ही काम आएगी। इसी की तलाश करें। यह आपके पास है। जीवन की अमूल्य भेंट को शराब और नशे में न गलाएं। अंतश्चेतना ही आपकी रचनात्मक ऊर्जा को प्र”वलित कर सकती है(महेश भट्ट,दैनिक जागरण,13.7.2010)।

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