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Friday, July 9, 2010

कब लौटेगा खलनायकों का दौर

हिंदी फिल्मों का एक सच है कि अगर नायक को बड़ा बनाना हो तो खलनायक को मजबूत बनाओ। उसे नायक जैसा बना दो। रामायण और महाभारत केवल राम और कृष्ण की वजह से ही नहीं, रावण और दुर्योधन की वजह से भी असरदार हैं। हिंदुस्तानी सिनेमा के पहले दशक में धार्मिक कथाओं और किंवदंतियों पर सारी फिल्में बनीं। इन कथाओं के नायक देव थे और खलनायक राक्षसगण। हिंदुस्तानी सिनेमा में गांधी जी का असर बेहद खास था और शायद इसी वजह से पहले चार दशक तक खलनायक बर्बर नहीं थे और उनके चरित्र भी सुपरिभाषित नहीं थे। उस दौर में प्रेम या अच्छाई का विरोध करने वाले अंधविश्वासग्रस्त लोग थे। अछूत कन्या में प्रेम-कथा के विरोध करने वाले जाति प्रथा में सचमुच विश्वास करते थे। इसी तरह महबूब खान की नजमा में पारंपरिक मूल्य वाला मुस्लिम ससुर परदा प्रथा नामंजूर करने वाली डॉक्टर बहू का विरोध करता है और 1937 में दुनिया ना माने का वृद्ध विधुर युवा कन्या से शादी को अपना अधिकार ही मानता है। पचास और साठ के दशक में साहूकार के साथ दो और खलनायक जुड़े- डाकू और जमींदार। खलनायक का ये चरित्र साहूकारी पाश का सूदखोर महाजन मंटो की लिखी किसान हत्या से होते हुए अपनी बुलंदियों पर महबूब खान की औरत में पहुंचा और कन्हैयालाल ने इसी भूमिका को एक बार फिर 1956 में मदर इंडिया में प्रस्तुत किया। भारत में डाकू की एक छवि रॉबिनहुडनुमा व्यक्ति की भी रही है और समाज में मौजूद अन्याय और शोषण की वजह से मजबूरी में डाकू बनने वाले किरदार लोकप्रिय रहे हैं। सुनील दत्त की सतही मुझे जीने दो के बाद यह पात्र दिलीप कुमार की गंगा-जमुना में क्लासिक डायमेंशन पाता है। सत्तर और अस्सी के दशक में तस्कर और व्यापारी विलेन बन गए और अब वे अधिक सुविधा-संपन्न और खतरनाक भी हो गए थे। चूंकि स्मगलिंग विदेशों में होती थी, इसलिए खलनायक के साथ एक अंग्रेज-सा दिखने वाला किरदार भी परदे पर आने लगा, जो दर्शकों की सहूलियत के लिए हिंदी बोलता था। यह उस युग की बात है, जब अर्थनीति सेंटर में थी और आज जब अर्थनीति की रचना में लेफ्ट शामिल है, गुरु जैसी फिल्म बनती है, जिसमें पूंजीपति खलनायक होते हुए भी नायक की तरह पेश है और आखिरी रील में वह स्वयं को महात्मा गांधी के समकक्ष खड़ा करने का बचकाना प्रयास भी करता है। पांचवें और छठे दशक में ही देव आनंद के सिनेमा पर दूसरे विश्वयुद्ध के समय में अमेरिका में पनपे नोए सिनेमा का प्रभाव रहा और खलनायक भी जरायमपेशा अपराधी रहे हैं, जो महानगरों के अनियोजित विकास की कोख से जन्मे थे। फिर समाज में हाजी मस्तान का उदय हुआ। सलीम-जावेद ने मेर्लिन ब्रेंडो की वाटर फ्रंट के असर और हाजी मस्तान की छवि में दीवार के एंटी-नायक को गढ़ा, जिसमें उस दौर के ग़ुस्से को भी आवाज मिली। इसी वक्त नायक-खलनायक की छवियों का घालमेल भी शुरू हुआ। श्याम बेनेगल की अंकुर और निशांत में खलनायक तो जमींदार ही रहे, लेकिन अब वे राजनीति में सक्रिय हो चुके थे। इसी क्रम में पुलिस में अपराध के प्रवेश को गोविंद निहलानी की अ‌र्द्धसत्य में आवाज मिली और पुलिस के राजनीतिकरण और जातिवाद के असर को देव में पेश किया गया। इसी दौरान खलनायक अब पूरे देश पर अपना अधिकार चाहने लगे। सिनेमा ने अजीबोगरीब दिखने वाले, राक्षसों-सी हंसी हंसने वाले, सिंहासन पर बैठे, काल्पनिक दुनिया के से खलनायकों को जन्म दिया। शाकाल, डॉक्टर डैंग और मोगैंबो इन्हीं में से थे। इसी बीच 1975 में एक ऐसा खलनायक आया, जिसके बुरा होने की कोई वजह नहीं थी। वह बस बुरा था। वह गब्बर सिंह था, जिसका नाम सुनकर पचास कोस दूर रोते बच्चे भी सो जाते थे। हिंदी समझने वाला ऐसा भारतीय मुश्किल से ही मिलेगा, जिसने अब तेरा क्या होगा बे कालिया न सुना हो। अमजद खान के बाद वैसा खौफ सिर्फ दुश्मन और संघर्ष के आशुतोष राणा ने ही पैदा किया। इन दोनों फिल्मों का सीरियल किलर नब्बे के दशक के उत्तरा‌र्द्ध के उन खलनायकों का प्रतिनिधित्व करता है, जो मानसिक रूप से बीमार थे। मानसिक अपंगता के साथ शारीरिक अपंगता भी बॉलीवुड में खलनायकों के गुण की तरह इस्तेमाल की जाती रही है। अपनी क्षतिग्रस्त आंख के कारण ललिता पवार सालों तक दुष्ट सास के रोल करती रहीं। डर के हकलाते शाहरुख और ओमकारा का लंगड़ा त्यागी भी इसी कड़ी में हैं। इसी बीच हीरो हीरोइन के घर से भागकर शादी करने वाली फिल्मों ने उनके माता-पिता को ही खलनायक बनाना शुरू कर दिया। इसके उलट बागबां और अवतार की संतानें अपने माता-पिता की खलनायक ही बन गई। कश्मीर में आतंकवाद बढ़ा तो रोजा ने पाकिस्तान और आतंकवादियों के रूप में बॉलीवुड को एक नया दुश्मन दिया। इन्ही दिनों बॉलीवुड के चरित्र वास्तविक जीवन के चरित्रों की तरह आधे भले-आधे बुरे होने लगे। परिंदा, बाजीगर, डर, अंजाम और अग्निसाक्षी जैसी फिल्मों ने एक नई परिपाटी शुरू की, जिनके मुख्य चरित्र नकारात्मकता लिए हुए थे। लेकिन पहले सूरज बड़जात्या और फिर आदित्य चोपड़ा और करण जौहर ने अपनी फिल्मों से विलेन को गायब कर दिया। दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे में पिता शुरू में विरोध करते हैं और लगता है कि वे हीरो-हीरोइन के प्रेम में विघ्न पैदा करेंगे, लेकिन हीरोइन उनसे बगावत नहीं करती और हीरो मुकाबला नहीं करता। दोनों पिता का दिल जीतते हैं। इस कहानी में हीरोइन का मंगेतर हीरो के मुकाबले में आता है, लेकिन पूरी कहानी में उसकी जगह किसी प्यादे से ज्यादा नहीं है। संयोग ऐसा रहा कि तीनों की फिल्में सफल रहीं। लिहाजा, बाकी निर्देशकों को भी लगा कि अब फिल्मों में विलेन की जरूरत नहीं रह गई है। पिछले दस सालों में तनुजा चंद्रा की फिल्म दुश्मन का गोकुल पंडित ही ऐसा विलेन आया है, जिसे देखकर घृणा होती है। फिल्मों से खलनायकों की अनुपस्थिति का सबसे बड़ा नुकसान यही हुआ कि फिल्मों की कहानियों से नाटकीयता गायब हो गई है। बहरहाल, सिनेमा अपने एकआयामी चरित्रों और कथानकों के साथ जी रहा है, लेकिन तय है कि खलनायकों की वापसी होगी, क्योंकि खलनायकत्व उत्तेजक है(मंजीत टाकुर,दैनिक जागरण,9.7.2010)।

1 comment:

  1. Bina khalnayak ke, kahani ke maza kuchh adhura reh jata hai.

    Nice post !

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