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Sunday, August 1, 2010

सिनेमा रच रहा नया सौंदर्य-शास्त्रःआमिर ख़ान

अब लोग इस मामले में एकमत हो चुके हैं कि बॉलीवुड में एक नए तरह का सिनेमा अपनी संपूर्ण अर्थ छवि के साथ उपस्थित हो चुका है। कमाल की बात यह है कि यह सिनेमा बिना किसी आंदोलन के सामने आया है। दो-तीन दशक पहले समानांतर सिनेमा आंदोलन की पहल हुई थी, लेकिन इधर ऐसा कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ी है। नए फिल्मकार आते गए और नए सिनेमा के लिए जगह बनती चली गई। हालांकि यह अभी शुरुआत है। समकालीन यथार्थ को अपने अंदाज में अभिव्यक्त करता यह सिनेमा अपना सौंदर्य शास्त्र खुद रच रहा है। मैं बीस साल से इसी तरह के सिनेमा के बारे में सोचता आ रहा हूं। अब जाकर मेरी इच्छा पूरी हुई है। लगान और तारे जमीन पर जैसी फिल्मों की सफलता ने मेरा साहस बढ़ाया और इसी का परिणाम है कि मैं पीपली लाइव और धोबी घाट जैसी फिल्में बनाने के बारे में सोच पाया। यों तो मैं किसी भी तरह की पॉलिटिक्स से दूर हूं, लेकिन आम आदमी के प्रति तो मेरी जवाबदेही बनती ही है। कुछ लोगों का कहना है कि पीपली लाइव का गाना, सखि सैंया तो खूबई कमात हैं, महंगाई डायन खाए जात है.. सरकार के लिए मुसीबत बन गया है। जब भी मीडिया को महंगाई की बात करनी होती है, तो इस गाने को प्रस्तुत कर दिया जाता है। असल में शाइनिंग इंडिया सच नहीं है। महंगाई हर किसी की कमर तोड़े जा रही है। हमने इसी बात की अभिव्यक्ति एक गाने के माध्यम से की है। अगर इस गाने को आज की कठिन परिस्थिति की अभिव्यक्ति के लिए सटीक मान लिया गया है, तो यह हमारी सफलता है। पीपली लाइव में आज की व्यवस्था पर व्यंग्य किया गया है। यह व्यंग्य कई स्तरों पर है। इसमें हमने अपनी सोसाइटी के दोहरेपन को दिखाया है। राजनीतिक व्यवस्था का मजाक उड़ाया है। यहां तक कि मीडिया के लोगों की टीआरपी वाली मानसिकता को भी सामने रखा है। मैंने अपने आपको भी नहीं बख्शा है। हमारे सामने ऐसा यथार्थ है, जो आंखों को नम कर देता है। फिल्म के केंद्रीय पात्र नत्था के मुंह से निकले भोले वाक्य भले ही हमारे मुंह पर मुस्कान ले आते हैं, लेकिन भीतर ही भीतर हमें रुलाते भी हैं। मुझे लगता है कि आज हमें इस तरह के सिनेमा की सख्त जरूरत है। फिल्म में मनोरंजन के साथ मैसेज भी हो। सिनेमा में यह सब करने की बड़ी क्षमता है। इस अंतर्निहित क्षमता के कारण ही यह विधा इतनी लोकप्रिय है। लेकिन इस तरह की फिल्मों के साथ कई तरह की समस्याएं आती हैं। इन फिल्मों की स्कि्रप्ट बड़ी जटिल होती है। इन्हें परदे पर उतारना बहुत मुश्किल होता है। कहानी से ज्यादा किरदारों के व्यवहार पर ध्यान देना पड़ता है। ऐसी फिल्में स्टारडम से शून्य होती हैं। यही कारण है कि इन फिल्मों के प्रमोशन और रिलीज के लिए काफी सतर्क प्लानिंग करनी पड़ती है। मेरा मानना है कि लीक से हटकर फिल्म बनाने में जोखिम तो है, पर ईमानदारी से बनाए हुए सिनेमा को दर्शक खूब प्यार देते हैं। मुन्ना भाई सिरीज की फिल्में हों या थ्री इडियट्स, ये सारी फिल्में जोखिम उठाकर ही बनाई गई हैं। इन फिल्मों ने अपना सौंदर्य शास्त्र खुद रचा है और ये बड़ी हिट साबित हुई हैं। पीपली लाइव ग्रामीण भारत के यथार्थ को सामने रखती है। इस फिल्म में किसान की जगह जुलाहा या कुम्हार होता, तब भी कहानी यही रहती। मेरा मानना है कि शहर और गांव के बीच प्रगति की खाई लगातार चौड़ी होती गई है। यह चिंताजनक बात है। गांवों की समस्याओं पर गौर ही नहीं किया गया। हालांकि पहले की तुलना में गांवों का विकास हुआ है, परंतु यह ज्यादा प्रभावी नहीं है। तारे जमीन पर के निर्माण के दौरान जब मैं लोगों को बताता था कि मैं डिस्लेक्सिया नाम की बीमारी पर फिल्म बना रहा हूं, तो वे कहते थे कि मैं पागल हो गया हूं। इसी तरह, जब मैंने रंग दे बसंती साइन की थी, तब लोगों ने इसे मेरा सनक भरा फैसला कहा। दरअसल, तब तक भगत सिंह पर चार फिल्में आ चुकी थीं और सारी फ्लॉप हो गई थीं। लेकिन मैं वही काम करता हूं, जिसमें मुझे आनंद मिलता है। मैं सफल होने के लिए काम नहीं करता। मेरा मानना है कि लगन से काम करो, तो सफलता खुद-ब-खुद आपके पास खड़ी हो जाती है। मैं पैसा बनाने के लिए भी काम नहीं करता, इसलिए अपने निर्णय पर दृढ़ रहता हूं। हालांकि जीवन में कई क्षण ऐसे भी आते हैं, जब आत्मसंशय घेर लेता है(दैनिक जागरण,भोपाल,1.8.2010)।

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