नई सदी के पहले दस वर्ष में आमिर खान ने ‘लगान’ से लेकर ‘पीपली लाइव’ तक सार्थक मनोरंजन गढ़ा और सामाजिक सोद्देश्यता की ‘रंग दे बसंती’ और ‘३ इडियट्स’ फिल्म में काम किया। उन्होंने ‘गजनी’ के लिए जबरदस्त कसरत की। इस दशक में विविध भूमिकाओं के निर्वाह के लिए उन्होंने अपनी शरीर रूपी बांसुरी पर अलग-अलग सुर साधे। वह तन, मन और धन से अपने काम में डूबे रहे। इस दशक में राजकुमार हीरानी और इम्तियाज अली ने भी बहुत श्रेष्ठ काम किया, फिर भी किसी एक को दशक का शिखर पुरुष चुनना चाहें तो आमिर खान का नाम ही उभरता है।
अनुषा रिजवी ने आमिर के लिए ‘पीपली लाइव’ बनाई है, जिसे अनेक अंतरराष्ट्रीय समारोहों में सराहा जा चुका है और अब यह फिल्म भारत में प्रदर्शित होने जा रही है। भारत में विगत साठ वर्षो से हमने साधन-संपन्न इंडिया और साधनहीन भारत रचकर देश की ऊर्जा का अन्यायपूर्ण बंटवारा कर दिया है। महानगर जलसाघरों की तरह सज रहे हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में अनगिनत किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं। सरकार ने व्याधि की जड़ पर आक्रमण नहीं करते हुए उस डाली को काटने का प्रयास किया जिस पर झूलकर किसान आत्महत्या करते हैं। मरने वाले के परिवार को मुआवजा दिया जाता है और इस तरह जीवित व्यक्ति को मरने पर बाध्य किया जाता है। हमारे भारत महान में मृत व्यक्ति के श्राद्ध में पकवान पकते हैं और जीवित व्यक्ति दाने-दाने को तरसता है।
‘पीपली लाइव’ के प्रोमो देखकर लगता है कि हबीब तनवीर की शैली में यह फिल्म गढ़ी गई है। ज्ञातव्य है कि हबीब तनवीर ने जनजातियों से अनगढ़ लोगों को लेकर लोक शैली में अनेक नाटक रचे। हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और श्रीलाल शुक्ल की व्यंग्य रचनाओं में भारत के विरोधाभास और विसंगतियां खूब साफ उभरकर आती हैं और ‘पीपली लाइव’ उसी शैली की सेल्युलाइड पर गढ़ी रचना है। अभिव्यक्ति के सारे माध्यम एक-दूसरे से जुड़े होते हैं और एक अदृश्य तार है जो तमाम विचारवान लोगों के बीच मौजूद है।
‘महंगाई डायन’ नामक गीत लोकप्रिय हो रहा है, क्योंकि समाज उसमें अपने कष्ट देख रहा है। लोकगीतों का जन्म आम आदमी के हृदय में होता है, इसलिए वे अमर हैं। फिल्मों में प्रारंभ से ही इनका उपयोग होता रहा है। ‘तीसरी कसम’ का ‘चलत मुसाफिर मोह लिया रे..’ याद आता है। ज्ञातव्य है कि इस गीत में राज कपूर मात्र खंजड़ी बजा रहे हैं और किशन धवन तथा अन्य अभिनेता गीत गा रहे हैं। ‘पीपली लाइव’ में यही भावना और शैली नजर आ रही है। चेतन आनंद ने देव आनंद अभिनीत ‘फंटूश’ नामक फिल्म बनाई थी। कोई आधी सदी पहले की बात है। उम्र की धुंध के परे सिर्फ इतना याद है कि बेरोजगारी से त्रस्त एक युवा आत्महत्या करना चाहता है और एक व्यापारी उसे कुछ दिन रुकने को कहकर उसका बीमा करवा लेता है। आत्महत्या के लिए मुकर्रर दिन आने तक नायक को प्यार हो जाता है और वह जीना चाहता है, परंतु उसने तो आत्महत्या का वादा किया है। ऊंची इमारत से कूदने के दृश्य के लिए व्यापारी ने टिकट बेचे हैं, मीडिया का मजमा लगा है। वह एक अद्भुत व्यंग्य फिल्म थी।
गौरतलब है कि ‘फंटूश’ आजादी के पांच या सात वर्ष बाद की फिल्म है। गोयाकि आत्महत्या का सिलसिला लगातार जारी है। हमारे नेता न उस समय शर्मसार थे, न आज उनके माथे पर बल पड़ता है। जनता तब भी गैर-जवाबदारों को चुनती थी, आज भी चुनती है। क्या इसीलिए भारत को अनंत संभावनाओं वाला देश कहते हैं? आज कॉमनवेल्थ खेलों के नाम पर लाख करोड़ के घपले की खबर है। यह राशि यूरोप के किसी छोटे देश के वार्षिक बजट के बराबर है। ऐसा विराट भ्रष्टाचार भी पचा लिया जाता है। हालात ऐसे हैं कि हर संवेदनशील व्यक्ति आत्महत्या करना चाहता है, जो पागल होने से बेहतर है(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,12.8.2010)।
bahut badhiya
ReplyDeletem fir se blog jagat me aa gya hun