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Sunday, August 29, 2010

एशियाई सिनेमा की यात्राःविनोद भारद्वाज

आज एशियाई सिनेमा की विशिष्ट पहचान दुनिया भर में बन चुकी है। एक जमाने में एशियाई सिनेमा का अर्थ सत्यजित राय, कुरोसावा, मिजोगुची, ओजू आदि फिल्मकारों तक सीमित था। लेकिन वर्ष १९८८ में जब फिल्म समीक्षक अरुणा वासुदेव ने मुख्यतः महिलाओं की एक प्रतिबृद्ध टीम (लतिका पाडगांवकर, रश्मि दोरायस्वामी आदि) के सहयोग से एशियाई सिनेमा की पहली महत्वपूर्ण पत्रिका "सिनेमाया" का प्रकाशन दिल्ली से शुरू किया था, तो यह एक नई और लगभग क्रांतिकारी बात थी। पिछले दिनों दिल्ली में नेटपैक (एशियाई सिनेमा पर केंद्रित संस्था) के बीस साल पूरे होने पर एक महत्वपूर्ण आयोजन इमेजिंग एशिया (१८-२२ अगस्त) के अवसर पर नेटपैक और प्रकाशक "विजडम ट्री" ने "एशियन फिल्म जर्नीज" पुस्तक का प्रकाशन किया है। इस पुस्तक का संपादन लतिका पाडगांवकर और रश्मि डोरायस्वामी ने किया है और यह अरुणा वासुदेव को समर्पित हैं। इस पुस्तक में "सिनेमाया" और सिनेफैन (फिल्म महोत्सव) के कैटलॉग से चुने गए लेखों और भेंटवार्त्ताओं को संकलित किया गया है। "सिनेमाया" का प्रकाशन अब बंद हो चुका है। पर पुस्तक में संकलित सामग्री का स्थायी महत्व है।

पुस्तक मेंअरुणा वासुदेव ने अपने संस्मरण में "सिनेमाया" के जन्म की दिलचस्प कहानी बताई है। एक समय में अरुणा वासुदेव और वरिष्ठ फिल्म समीक्षक और फिल्मकार चिदानंद दासगुप्त ने एशियाई, अफ्रीकी और लातीनी अमेरिकी सिनेमा पर फोकस के इरादे से एक ऐसी महत्वाकांक्षी पत्रिका की योजना बनाई थी जो अंग्रेजी फ्रांसीसी और स्पानी भाषा में एक साथ सामने आए। खुद अरुणा वासुदेव ने स्वीकार किया है कि यह एक "वाइल्ड आइडिया" था। पर अचानक १९८८ में अरुणा ने अपनी एक छोटी पर मेहनती टीम बनाई और "सिनेमाया" का पहला अंक सामने आ गया। जापान के चर्चित और विवादास्पद फिल्मकार नागिसा ओशिमा से कहा गया कि आप हमारे लिए एक फिल्म निर्देशक का कॉलम लिखें। ओशिमा ने पहले अंक के लिए तोक्यो से एक पत्र भेजा जो पुस्तक में संकलित हैं। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम भी पहले अंक को आर्थिक सहयोग देने के लिए तैयार हो गया। १३ अक्टूबर, १९८८ को सिनेमाया का जन्म हुआ। अरुणा वासुदेव की टीम ने २००४ तक पत्रिका के ६१ अंक निकाले। इस बीच सिनेफैन फिल्मोत्सव ने २००४ में "सिनेमाया" और "सिनेफैन" दोनों को अपना हिस्सा बना लिया। ओशियान ने "सिनेमाया" के छह अंक निकालने के बाद उसे बंद कर दिया गया। "सिनेफैन" को शुरू में काफी ग्लैमरस बना दिया गया। ओशियान कला की कमाई से "सिनेफैन" को चला रहा था। २००८ से कला बाजार लड़खड़ाने लगा। "सिनेफैन" पर भी इसका निषेधी असर पड़ा। इस साल यह हो पाएगा या नहीं यह स्पष्ट नहीं है लेकिन "नेटपैक" के माध्यम से वासुदेव ने अपने पुराने सपने को एक नया अवतार दे दिया है। फ्रांसीसी सांस्कृतिक केंद्र, स्पानी सांस्कृति केंद्र , इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, द एशियन हेरिटेज फांउडेशन, एनएफडीसी आदि की मदद से वासुदेव ने एक बार फिर से विनम्र शुरुआत कर दी है। आज भले ही एशियाई सिनेमा पर फोकस की कोई खास समस्या नहीं रह गई है पर जब "सिनेमाया" शुरू हुई थी तो एशियाई सिनेमा को ऐसे फोरम की सख्त जरूरत थी। सिनेमाया का इतिहास एशियाई सिनेमा पर सार्थक फोकस की कहानी है(नई दुनिया,दिल्ली,29.8.2010)।

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