इस ब्लॉग पर केवल ऐसी ख़बरें लेने की कोशिश है जिनकी चर्चा कम हुई है। यह बहुभाषी मंच एक कोशिश है भोजपुरी और मैथिली फ़िल्मों से जुड़ी ख़बरों को भी एक साथ पेश करने की। आप यहां क्रॉसवर्ड भी खेल सकते हैं।
Friday, April 30, 2010
Thursday, April 29, 2010
ताज़ पर एक और फिल्म
आगरा में आने वाले पर्यटकों को ताजमहल के साथ-साथ इसके इतिहास और मुगल संस्कृति से भी रूबरू कराने की कवायद शुरू हो गई है। आगरा में पर्यटन से संबंध रखने वाले एक व्यावसायी ने इसके लिए पहल करते हुए ताजमहल के बनने के इतिहास को लेकर फिल्म बनाई है। इसका प्रदर्शन कमानी सभागार में होगा। अलीगढ़ की अल-नूर चैरीटेबल सोसायटी की अध्यक्ष और उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी की पत्नी सलमा अंसारी के अनुसार उनकी संस्था क्षेत्र में गरीब बच्चों को तालीम देने के लिए काम कर रही हैं। कलाकृति कल्चर और कंजरवेशन सेंटर आगरा ने उनके इस काम में योगदान देने के लिए एक फिल्म बनाई है। कमानी सभागार में ५ मई को इसका प्रदर्शन होगा। प्रदर्शन में होने वाली कमाई उनकी संस्था के माध्यम से गरीब बच्चों के तालीम पर खर्च होगी। संस्था के सचिव पवन जैन के अनुसार इस फिल्म के माध्यम से महज ८० मिनट में पूरे इतिहास को समेटने का प्रयास किया गया है। इसके माध्यम से आगरा में पयर्टन को भी बढ़ावा मिलेगा।
(नई दुनिया,दिल्ली,29.4.2010)
(नई दुनिया,दिल्ली,29.4.2010)
Wednesday, April 28, 2010
फिल्म पहेली-1
बायें से दायें-
1. खबर है कि ओशो पर बनने वाली फिल्म के लिए इस कलाकार को लीड में लेने पर विचार किया जा रहा है।
4. नो वन किल्ड जेसिका की एक प्रमुख अभिनेत्री।
9. गश्मीर महाजनी और ट्विंकल पटेल की फिल्म।
11. पाठशाला में कितने गाने हैं ?
14. कुछ करिए में मुख्य भूमिका इस गायक की है।
15. पाठशाला का एक अभिनेता।
ऊपर से नीचे-
2. मनमोहन देसाई की इस फिल्म को रजनीकांत ने मावीरन नाम से तमिल में बनाया था।
3. हाल ही में, ह्यूस्टन में आयोजित फेस्टिवल में,बोधिसत्व और एक ठो चांस के अलावा इस फिल्म को भी रेमी अवार्ड मिला।
5. फिल्म अपार्टमेंट में किस अभिनेत्री के स्नान दृश्य को लेकर पिछले दिनों काफी चर्चा हुई है।
6. काजोल को दीनानाथ पुरस्कार मुंबई के किस सभागार में दिया गया ?
7. अमिताभ किस राज्य के ब्रांड एंबेसडर बने हैं ?
8. राजकपूर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड इस वर्ष इन्हें दिया जा रहा है।
10. इस वर्ष के फाल्के रत्न अवार्ड विजेता।
12. हाल की किस फिल्म में,लड़की का किरदार निभाने वाले बाल कलाकार की कहानी है ?
13. उदिता गोस्वामी को लेकर जगमोहन मुंधरा यह फिल्म बना रहे हैं।
1. खबर है कि ओशो पर बनने वाली फिल्म के लिए इस कलाकार को लीड में लेने पर विचार किया जा रहा है।
4. नो वन किल्ड जेसिका की एक प्रमुख अभिनेत्री।
9. गश्मीर महाजनी और ट्विंकल पटेल की फिल्म।
11. पाठशाला में कितने गाने हैं ?
14. कुछ करिए में मुख्य भूमिका इस गायक की है।
15. पाठशाला का एक अभिनेता।
ऊपर से नीचे-
2. मनमोहन देसाई की इस फिल्म को रजनीकांत ने मावीरन नाम से तमिल में बनाया था।
3. हाल ही में, ह्यूस्टन में आयोजित फेस्टिवल में,बोधिसत्व और एक ठो चांस के अलावा इस फिल्म को भी रेमी अवार्ड मिला।
5. फिल्म अपार्टमेंट में किस अभिनेत्री के स्नान दृश्य को लेकर पिछले दिनों काफी चर्चा हुई है।
6. काजोल को दीनानाथ पुरस्कार मुंबई के किस सभागार में दिया गया ?
7. अमिताभ किस राज्य के ब्रांड एंबेसडर बने हैं ?
8. राजकपूर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड इस वर्ष इन्हें दिया जा रहा है।
10. इस वर्ष के फाल्के रत्न अवार्ड विजेता।
12. हाल की किस फिल्म में,लड़की का किरदार निभाने वाले बाल कलाकार की कहानी है ?
13. उदिता गोस्वामी को लेकर जगमोहन मुंधरा यह फिल्म बना रहे हैं।
Tuesday, April 27, 2010
इस "अपार्टमेंट" से बेघर भले
अपार्टमेंट के निर्देशक जगमोहन मूंधरा बवंडर और प्रोवोक्ड वाले नहीं हैं। ये मूंधरा हैं LA Goddess, Sexual Malice और Tropical Heat वाले। आपने सुना है इन फिल्मों के बारे में क्या? चलिए कोई बात नहीं। बाद में उन्होंने कामसूत्र और शूट ऑन साइट बनाई जिसे अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा के रूप में प्रचारित किया गया। इन फिल्मों के बारे में आपने थोड़ा सुना होगा । वही मूंधरा इस बार लाए हैं अपार्टमेंट। तनुश्री दत्ता,नीतू चन्द्रा,रोहित राय,अनुपम खेर,बॉबी डार्लिंग,मुश्ताक खान,नसार अब्दुल्लाह अभिनीत इस फिल्म के गीत लिखे हैं सईद गुलरेज ने। संगीत है बप्पी दा का। 108 मिनट की इस फिल्म को सेंसर ने ए सर्टिफिकेट दिया है।
मूंधरा की पिछली फिल्मों की ही तरह इस फिल्म में भी महिलाएं केंद्रीय भूमिका में हैं। फिल्म में तनुश्री एक एयरहोस्टेस बनी है जो अपने ब्वॉयफ्रेंड रोहित राय के साथ एक अपार्टमेंट में रहती है। रोहित एक विज्ञापन कंपनी में मैनेजर हैं जिन्हें लड़कियों से अफेयर के कारण तनुश्री उसे फ्लैट से निकाल देती है। अब तनु को फ्लैट के ईएमआई के लिए पैसा चाहिए। सो वह फ्लैट का एक कमरा नीतू चंद्रा को किराए पर देती है। नीतू एक छोटे से शहर से,मुंबई पहुंची है-बड़े सपने लेकर। मुंबई के इस अपार्टमेंट में उनके पड़ोसी हैं-कवि और गीतकार अनुपम खेर। तन्हा के साथ है उनकी बिल्ली-शहजादी। अनुपम खेर भी परेशान हैं क्योंकि प्रोड्यूसर चाहता है कि वे चोली के पीछे जैसे गाने लिखें। फिल्म के अंत में, सीधी-सादी दिखने वाली नीतू का दूसरा चेहरा तनु के सामने आता है जब नीतू अनुपम खेर की हत्या कर देती है। कुल मिलाकर,मूवी ऐसे वर्क कल्चर को दर्शाती है, जहां हर कोई नैतिक मूल्यों को दरकिनार कर शॉर्टकट से अपनी मंजिल पाना चाह रहा है।
टाइम्स ऑफ इंडिया में निखत काजमी ने नीतू चंद्रा के कारण ही इस फिल्म को देखने लायक बताया है। नवभारत टाइम्स में चंद्रमोहन शर्मा लिखते हैं कि दो महिला किरदारों के आसपास घूमती इस मूवी में नीतू निश्चित तौर से तनुश्री पर भारी पड़ी हैं। उन्होंने अनुपम खेर के अभिनय को ठीक-ठाक बताया है मगर दैनिक भास्कर ने अनुपम खेर के अभिनय की तारीफ की है।
सबने माना है कि इस फिल्म में गानों की जरूरत नहीं थी मगर मूंधरा को नौ-नौ गाने फिट करना ठीक लगा। चंद्रमोहन शर्मा लिखते हैं कि इस छोटी सी कहानी को जगमोहन शुरू से ही पटरी पर नहीं ला पाए हैं और शायद इसी वजह से उन्होंने गानों का सहारा लिया है। मगर बप्पी दा का एक भी गाना ऐसा नहीं है जो हॉल से बाहर गुनगुनाया जा सके। ओ जाने जान जान और टाइटिल सांग ये है मुंबई को अच्छे फिल्मांकन के कारण कुछ हद तक बर्दाश्त किया जा सकता है।
हिंदुस्तान टाइम्स में मयंक शेखर ने इसे 2004 की थर्ड क्लास फिल्म गर्लफ्रेंड जैसी बताते हुए केवल एक स्टार के बराबर माना है। दैनिक भास्कर लिखता है कि फिल्म को थ्रिलर के रूप में प्रचारित किया गया मगर इसमें थ्रिलर का कोई मसाला नहीं है। पत्र की ओर से फिल्म को मिले सिर्फ डेढ स्टार। इंडियन एक्सप्रेस में शुभ्रा गुप्ता ने फिल्म की कहानी को चुराई हुई बताया है । तिस पर से घटिया एक्टिंग तथा रद्दी गाने। लिहाजा केवल दो स्टार। मेल टुडे में विनायक जबर्दस्त गुस्से में हैं। लिखते हैं कि यह फिल्म बिना निर्देशक के बनी लगती है और ऐसी फिल्म की समीक्षा तो दूर,इसके बारे में बात तक की जानी चाहिए या नहीं,इस पर भी विचार करने की जरूरत है। तब भी उन्होंने दो स्टार दे ही दिए। निखत काजमी की टिप्पणी है कि यह फिल्म तभी देखी जा सकती है जब आप इसके हॉलीवुड संस्करण सिंगल ह्वाइट वीमन न देखने का वायदा करें। उन्हें यह फिल्म तीन स्टार के बराबर लगी है। चंद्रमोहन शर्मा ने भी इसे फैमिली क्लास और एंटरटेनमेंट की चाह रखने वालों को अपसेट करने वाली मूवी बताने के बावजूद तीन स्टार दिए हैं।
मूंधरा की पिछली फिल्मों की ही तरह इस फिल्म में भी महिलाएं केंद्रीय भूमिका में हैं। फिल्म में तनुश्री एक एयरहोस्टेस बनी है जो अपने ब्वॉयफ्रेंड रोहित राय के साथ एक अपार्टमेंट में रहती है। रोहित एक विज्ञापन कंपनी में मैनेजर हैं जिन्हें लड़कियों से अफेयर के कारण तनुश्री उसे फ्लैट से निकाल देती है। अब तनु को फ्लैट के ईएमआई के लिए पैसा चाहिए। सो वह फ्लैट का एक कमरा नीतू चंद्रा को किराए पर देती है। नीतू एक छोटे से शहर से,मुंबई पहुंची है-बड़े सपने लेकर। मुंबई के इस अपार्टमेंट में उनके पड़ोसी हैं-कवि और गीतकार अनुपम खेर। तन्हा के साथ है उनकी बिल्ली-शहजादी। अनुपम खेर भी परेशान हैं क्योंकि प्रोड्यूसर चाहता है कि वे चोली के पीछे जैसे गाने लिखें। फिल्म के अंत में, सीधी-सादी दिखने वाली नीतू का दूसरा चेहरा तनु के सामने आता है जब नीतू अनुपम खेर की हत्या कर देती है। कुल मिलाकर,मूवी ऐसे वर्क कल्चर को दर्शाती है, जहां हर कोई नैतिक मूल्यों को दरकिनार कर शॉर्टकट से अपनी मंजिल पाना चाह रहा है।
टाइम्स ऑफ इंडिया में निखत काजमी ने नीतू चंद्रा के कारण ही इस फिल्म को देखने लायक बताया है। नवभारत टाइम्स में चंद्रमोहन शर्मा लिखते हैं कि दो महिला किरदारों के आसपास घूमती इस मूवी में नीतू निश्चित तौर से तनुश्री पर भारी पड़ी हैं। उन्होंने अनुपम खेर के अभिनय को ठीक-ठाक बताया है मगर दैनिक भास्कर ने अनुपम खेर के अभिनय की तारीफ की है।
सबने माना है कि इस फिल्म में गानों की जरूरत नहीं थी मगर मूंधरा को नौ-नौ गाने फिट करना ठीक लगा। चंद्रमोहन शर्मा लिखते हैं कि इस छोटी सी कहानी को जगमोहन शुरू से ही पटरी पर नहीं ला पाए हैं और शायद इसी वजह से उन्होंने गानों का सहारा लिया है। मगर बप्पी दा का एक भी गाना ऐसा नहीं है जो हॉल से बाहर गुनगुनाया जा सके। ओ जाने जान जान और टाइटिल सांग ये है मुंबई को अच्छे फिल्मांकन के कारण कुछ हद तक बर्दाश्त किया जा सकता है।
हिंदुस्तान टाइम्स में मयंक शेखर ने इसे 2004 की थर्ड क्लास फिल्म गर्लफ्रेंड जैसी बताते हुए केवल एक स्टार के बराबर माना है। दैनिक भास्कर लिखता है कि फिल्म को थ्रिलर के रूप में प्रचारित किया गया मगर इसमें थ्रिलर का कोई मसाला नहीं है। पत्र की ओर से फिल्म को मिले सिर्फ डेढ स्टार। इंडियन एक्सप्रेस में शुभ्रा गुप्ता ने फिल्म की कहानी को चुराई हुई बताया है । तिस पर से घटिया एक्टिंग तथा रद्दी गाने। लिहाजा केवल दो स्टार। मेल टुडे में विनायक जबर्दस्त गुस्से में हैं। लिखते हैं कि यह फिल्म बिना निर्देशक के बनी लगती है और ऐसी फिल्म की समीक्षा तो दूर,इसके बारे में बात तक की जानी चाहिए या नहीं,इस पर भी विचार करने की जरूरत है। तब भी उन्होंने दो स्टार दे ही दिए। निखत काजमी की टिप्पणी है कि यह फिल्म तभी देखी जा सकती है जब आप इसके हॉलीवुड संस्करण सिंगल ह्वाइट वीमन न देखने का वायदा करें। उन्हें यह फिल्म तीन स्टार के बराबर लगी है। चंद्रमोहन शर्मा ने भी इसे फैमिली क्लास और एंटरटेनमेंट की चाह रखने वालों को अपसेट करने वाली मूवी बताने के बावजूद तीन स्टार दिए हैं।
Monday, April 26, 2010
बिहार की पहली हिंदी फिल्मः "जो दिल में आ जाए"
बिहार को मूलतः भोजपुरी फिल्मों के लिए ही जाना जाता है। वर्ष के हिसाब से मैथिली फिल्मों का इतिहास भी वहां बहुत पुराना है मगर संख्या के लिहाज से मैथिली फिल्मों की संख्या बहुत थोड़ी है। अभी पिछले दिनों ही अंगपुत्र फिल्म की खबर इस ब्लॉग पर विस्तार से दी गई जो अंगिका भाषा की पहली फिल्म है। अब एक नई शुरूआत यह हुई है कि बिहार में हिंदी फिल्म बनने जा रही है। जो दिल में आ जाए नामक इस फिल्म के निर्माता अमित कुमार विरला और निर्देशक महेश कुमार झा-दोनों मधेपुरा जिले के हैं। श्री विरला इससे पहले बांगला में मदर और आई लव यू नाम की दो फिल्में बना चुके हैं। उन्होंने कहा है कि वे इस हिंदी फिल्म की ज्यादातर शूटिंग बिहार में ही करेंगे और इसमें संगीत पक्ष पर ज्यादा ज़ोर दिया जाएगा। उन्होंने फिल्म में बिहार और झारखंड के कलाकारों को पूरा मौका देने की बात भी कही है। फिल्म के अगले साल मार्च में रिलीज होने की संभावना है।
Sunday, April 25, 2010
सिटी ऑफ गोल्डः समीक्षकों की नज़र से
इस हफ्ते रिलीज बहुचर्चित फिल्म है महेश मांजरेकर की सिटी ऑफ गोल्ड। सचिन खेडे़कर, शशांक शेंडे,कश्मीरा शाह,अंकुश चौधरी,सीमा विश्वास,वीणा जमकार, करण, पटेल, समीर, सतीश कौशिक, सिद्धार्थ जादव,और गणेश यादव अभिनीत इस फिल्म के निर्माता हैं अरुण रंगचारी । 144 मिनट की इस फिल्म में गीत है श्रीरंग गोडबोले का और संगीत अजीत परब का । सेंसर ने इसे दिया है है- यू / ए सर्टिफिकेट ।
यह फिल्म अस्सी के दशक में मुंबई की कपड़ा मिलों में हुई हड़ताल और सरकार तथा अफसरशाहों के साथ मिल मालिकों की सांठगांठ के शिकार हुई युवा पीढी की कहानी है। इस कहानी में लोभी पूंजीपति,समर्पित यूनियन लीडर,क्रूर भाई लोग और सेक्स-सब कुछ है। मगर कहानी का केंद्र है मध्यवर्गीय धुरी परिवार जिसके चार बच्चों की अलग –अलग राहों से फिल्म की कहानी आगे बढती है। परिवार का बड़ा बेटा कहानी सुनाता है और फ्लैशबैक के जरिए हम आज की चमचमाती मुम्बई की स्याह हकीकत से वाकिफ होते हैं। कहानी का हर प्लॉट आपको मुंबई के उस दौर की याद दिलाता है, जब अपनी मुनाफाखोरी की चाहत में मिल मालिकों ने 8 लाख से ज्यादा लोगों के सामने भुखमरी का संकट पैदा कर दिया था।
फिल्म के ज्यादातर कलाकार मराठी सिनेमा या स्टेज से है और अपनी भूमिका में सभी जमे हैं। सचिन खेडे़कर , गणेश यादव , करण पटेल , सीमा बिश्वास सहित सभी कलाकार का अभिनय बेमिसाल है। दैनिक जागरण में अजय ब्रह्मात्मज ने खासकर विनीत और करण से काफी उम्मीदें लगाई हैं। इंडियन एक्सप्रेस में शुभ्रा गुप्ता ने लिखा है कि हर पात्र अपने चरित्र के अनुकूल,सहज और वास्तविक प्रतीत होता है मगर असली स्टार वे हैं जिन्होंने सिनेमा के पर्दे पर पहली बार मौजूदगी दर्ज कराई है । टाइम्स ऑफ इँडिया में निखत काजमी ने लिखा है कि यह हाल के वर्षों की सर्वोत्तम अभिनय वाली फिल्मों में से है।
इस फिल्म में मांजरेकर की वास्तव की विशेषताएं साफ दिखती हैं। नवभारत टाइम्स में चंद्रमोहन शर्मा के अनुसार, फिल्म का निर्देशन कसा हुआ और गतिशील है। दैनिक भास्कर में राजेश यादव ने इसे महेश मांजरेकर के निर्देशन का कमाल ही बताया है कि हर पात्र दर्शकों से बात करता हुआ प्रतीत होता है। शुभ्रा गुप्ता लिखती हैं कि महेश ने इस फिल्म को सिर्फ कहानी पढकर नहीं बनाया बल्कि उस पीड़ा को महसूस कर बनाया है जो सैकड़ों परिवारों ने भोगी थी।
कहानी से लगता नहीं कि इस फिल्म में गानों की गुंजाइश नहीं थी, फिर भी महेश ने एक गाना रखा है जो चंद्रमोहन शर्मा जी के मुताबिक, कहानी की गति में बाधक नहीं बनता।
महेश मांजरेकर को यह फिल्म बनाने में चार साल से भी ज्यादा का वक्त लगा है क्योंकि ऐसे प्लॉट मुनाफे का सौदा नहीं होते । अधिकतर समीक्षकों ने माना है कि उन्होंने बॉक्स ऑफिस कमाई से इतर रहते हुए, फिल्म को बनाने में कोई समझौता किया भी नहीं है। परन्तु,हिंदुस्तान टाइम्स में मयंक शेखर की टिप्पणी है कि ऐसी कहानी में परिवार का बैकड्रॉप बताना जरूरी होता है जो इस फिल्म में नहीं है। उन्होंने कई दृश्यों को 70 के दशक की फिल्मों से प्रेरित बताते हुए लिखा है कि इस प्रकार का प्लॉट स्थानीय जनता को ज्यादा भाता है और कोई आश्चर्य नहीं कि यह फिल्म पहले मराठी में बनाई गई थी। लिखते हैं कि घिनौने सच के नाम पर फिल्म में जिन लालबाग,परेल और डेज्लाइल रोड का जिक्र किया गया है,वे अभी निर्माणाधीन हीं हैं। उन्होंने इसे दिए सिर्फ दो स्टार। मगर मराठी फिल्म लालबाग परेल(मराठी) के इस हिंदी रूपांतर के बारे में कई अन्य समीक्षकों ने माना है कि मल्टीप्लेक्स कल्चर और टीनएजर्स की पसंद को फोकस करती फिल्मों के बीच हड़ताल , भुखमरी और तेज रफ्तार बढ़ते क्राइम पर फिल्म बनाना जोखिम भरा तो है ही,मगर एक सुखद अनुभूति से कम नहीं है। मेल टुडे में विनायक चक्रवर्ती लिखते हैं कि फिल्म के शॉट इतने डार्क और कहानी इतनी भारी-भरकम है कि अधिकतर दर्शकों को शायद ही रास आए। उनका मानना है कि कहानी का मुंबई केंद्रित होना भी पैन-इंडियन फिल्मों के दर्शक पसंद नहीं करेंगे। लिहाजा,उनकी ओर से फिल्म को ढाई स्टार। टकराव से अधिक ध्यान बिखराव,भटकाव और टूटन पर केंद्रित करने के आधार पर दैनिक जागरण ने इसे तीन स्टार दिया है। राजेश यादव ने इसे रियलिस्टिक सिनेमा का बेहतरीन उदाहरण मानते हुए तीन स्टार दिए हैं। शुभ्रा गुप्ता ने लिखा है कि फिल्म की कहानी बहुत पुरानी है और इसमें कोई नया खुलासा नहीं किया गया है मगर जितना ही है,वह बेहद प्रभावशाली और विश्वसनीय तरीके से है। उन्होंने भी इसे तीन स्टार के बराबर माना है। चंद्रमोहन शर्मा ने मांजरेकर के निर्देशन,बेहतरीन अभिनय और संघर्षमय माहौल की अच्छई प्रस्तुति के कारण फिल्म को साढे तीन स्टार दिया है। हिंदुस्तान ने स्पीडब्रेकर के बदला लेने के तरीके को बचकाना बताया है मगर कुल मिलाकर इसे अर्थपूर्ण मनोरंजन में विश्वास रखने वालों की फिल्म बताते हुए मस्त श्रेणी के ठीक बीचोबीच रखा है जिसे साढे तीन स्टार के बराबर माना जा सकता है। निखत काजमी ने इसे आधुनिक दीवार कहा है और माना है कि जो लोग महेश मांजरेकर की सर्वश्रेष्ठ फिल्म वास्तव को मानते रहे हैं,वे इस फिल्म को देखकर अपनी राय बदलने को मजबूर होंगे। टाइम्स ऑफ इंडिया की ओर से फिल्म को सबसे ज्यादा चार स्टार।
(तस्वीर नवभारत टाइम्स से साभार)
यह फिल्म अस्सी के दशक में मुंबई की कपड़ा मिलों में हुई हड़ताल और सरकार तथा अफसरशाहों के साथ मिल मालिकों की सांठगांठ के शिकार हुई युवा पीढी की कहानी है। इस कहानी में लोभी पूंजीपति,समर्पित यूनियन लीडर,क्रूर भाई लोग और सेक्स-सब कुछ है। मगर कहानी का केंद्र है मध्यवर्गीय धुरी परिवार जिसके चार बच्चों की अलग –अलग राहों से फिल्म की कहानी आगे बढती है। परिवार का बड़ा बेटा कहानी सुनाता है और फ्लैशबैक के जरिए हम आज की चमचमाती मुम्बई की स्याह हकीकत से वाकिफ होते हैं। कहानी का हर प्लॉट आपको मुंबई के उस दौर की याद दिलाता है, जब अपनी मुनाफाखोरी की चाहत में मिल मालिकों ने 8 लाख से ज्यादा लोगों के सामने भुखमरी का संकट पैदा कर दिया था।
फिल्म के ज्यादातर कलाकार मराठी सिनेमा या स्टेज से है और अपनी भूमिका में सभी जमे हैं। सचिन खेडे़कर , गणेश यादव , करण पटेल , सीमा बिश्वास सहित सभी कलाकार का अभिनय बेमिसाल है। दैनिक जागरण में अजय ब्रह्मात्मज ने खासकर विनीत और करण से काफी उम्मीदें लगाई हैं। इंडियन एक्सप्रेस में शुभ्रा गुप्ता ने लिखा है कि हर पात्र अपने चरित्र के अनुकूल,सहज और वास्तविक प्रतीत होता है मगर असली स्टार वे हैं जिन्होंने सिनेमा के पर्दे पर पहली बार मौजूदगी दर्ज कराई है । टाइम्स ऑफ इँडिया में निखत काजमी ने लिखा है कि यह हाल के वर्षों की सर्वोत्तम अभिनय वाली फिल्मों में से है।
इस फिल्म में मांजरेकर की वास्तव की विशेषताएं साफ दिखती हैं। नवभारत टाइम्स में चंद्रमोहन शर्मा के अनुसार, फिल्म का निर्देशन कसा हुआ और गतिशील है। दैनिक भास्कर में राजेश यादव ने इसे महेश मांजरेकर के निर्देशन का कमाल ही बताया है कि हर पात्र दर्शकों से बात करता हुआ प्रतीत होता है। शुभ्रा गुप्ता लिखती हैं कि महेश ने इस फिल्म को सिर्फ कहानी पढकर नहीं बनाया बल्कि उस पीड़ा को महसूस कर बनाया है जो सैकड़ों परिवारों ने भोगी थी।
कहानी से लगता नहीं कि इस फिल्म में गानों की गुंजाइश नहीं थी, फिर भी महेश ने एक गाना रखा है जो चंद्रमोहन शर्मा जी के मुताबिक, कहानी की गति में बाधक नहीं बनता।
महेश मांजरेकर को यह फिल्म बनाने में चार साल से भी ज्यादा का वक्त लगा है क्योंकि ऐसे प्लॉट मुनाफे का सौदा नहीं होते । अधिकतर समीक्षकों ने माना है कि उन्होंने बॉक्स ऑफिस कमाई से इतर रहते हुए, फिल्म को बनाने में कोई समझौता किया भी नहीं है। परन्तु,हिंदुस्तान टाइम्स में मयंक शेखर की टिप्पणी है कि ऐसी कहानी में परिवार का बैकड्रॉप बताना जरूरी होता है जो इस फिल्म में नहीं है। उन्होंने कई दृश्यों को 70 के दशक की फिल्मों से प्रेरित बताते हुए लिखा है कि इस प्रकार का प्लॉट स्थानीय जनता को ज्यादा भाता है और कोई आश्चर्य नहीं कि यह फिल्म पहले मराठी में बनाई गई थी। लिखते हैं कि घिनौने सच के नाम पर फिल्म में जिन लालबाग,परेल और डेज्लाइल रोड का जिक्र किया गया है,वे अभी निर्माणाधीन हीं हैं। उन्होंने इसे दिए सिर्फ दो स्टार। मगर मराठी फिल्म लालबाग परेल(मराठी) के इस हिंदी रूपांतर के बारे में कई अन्य समीक्षकों ने माना है कि मल्टीप्लेक्स कल्चर और टीनएजर्स की पसंद को फोकस करती फिल्मों के बीच हड़ताल , भुखमरी और तेज रफ्तार बढ़ते क्राइम पर फिल्म बनाना जोखिम भरा तो है ही,मगर एक सुखद अनुभूति से कम नहीं है। मेल टुडे में विनायक चक्रवर्ती लिखते हैं कि फिल्म के शॉट इतने डार्क और कहानी इतनी भारी-भरकम है कि अधिकतर दर्शकों को शायद ही रास आए। उनका मानना है कि कहानी का मुंबई केंद्रित होना भी पैन-इंडियन फिल्मों के दर्शक पसंद नहीं करेंगे। लिहाजा,उनकी ओर से फिल्म को ढाई स्टार। टकराव से अधिक ध्यान बिखराव,भटकाव और टूटन पर केंद्रित करने के आधार पर दैनिक जागरण ने इसे तीन स्टार दिया है। राजेश यादव ने इसे रियलिस्टिक सिनेमा का बेहतरीन उदाहरण मानते हुए तीन स्टार दिए हैं। शुभ्रा गुप्ता ने लिखा है कि फिल्म की कहानी बहुत पुरानी है और इसमें कोई नया खुलासा नहीं किया गया है मगर जितना ही है,वह बेहद प्रभावशाली और विश्वसनीय तरीके से है। उन्होंने भी इसे तीन स्टार के बराबर माना है। चंद्रमोहन शर्मा ने मांजरेकर के निर्देशन,बेहतरीन अभिनय और संघर्षमय माहौल की अच्छई प्रस्तुति के कारण फिल्म को साढे तीन स्टार दिया है। हिंदुस्तान ने स्पीडब्रेकर के बदला लेने के तरीके को बचकाना बताया है मगर कुल मिलाकर इसे अर्थपूर्ण मनोरंजन में विश्वास रखने वालों की फिल्म बताते हुए मस्त श्रेणी के ठीक बीचोबीच रखा है जिसे साढे तीन स्टार के बराबर माना जा सकता है। निखत काजमी ने इसे आधुनिक दीवार कहा है और माना है कि जो लोग महेश मांजरेकर की सर्वश्रेष्ठ फिल्म वास्तव को मानते रहे हैं,वे इस फिल्म को देखकर अपनी राय बदलने को मजबूर होंगे। टाइम्स ऑफ इंडिया की ओर से फिल्म को सबसे ज्यादा चार स्टार।
(तस्वीर नवभारत टाइम्स से साभार)
Saturday, April 24, 2010
अमिताभ को लीवर सिरोसिस
पिछले कुछ वर्षों में,एक से अधिक सार्वजनिक मौकों पर, महानायक अमिताभ अचानक बीमार पड़े। उन्हें आनन-फानन में अस्पताल ले जाया गया। कुछ दिन भर्ती भी रहे अस्पताल में और फिर कहा गया कि सब कुछ ठीक है,घबराने की कोई बात नहीं और अमिताभ जल्दी ही अपना नॉर्मल शिड्यूल शुरू करेंगे। मगर आज उन्होंने खुद अपने ब्लॉग में खुलासा किया है कि वे लीवर सिरोसिस से पीड़ित हैं
जबकि वह मद्यपान नहीं करते। अमिताभ के मुताबिक 1982 में ‘कुली’ की शूटिंग के दौरान हुई दुर्घटना के बाद से उन्हें यह बीमारी है।28 साल पहले ‘कुली’ की शूटिंग के दौरान अमिताभ एक दुर्घटना का शिकार हो गए थे। 2 अगस्त 1982 को, पुनीत इस्सर के साथ फाइट सीन में अमिताभ घायल हुए थे । उसके बाद उनका ऑपरेशन किया गया था जिसके बाद वे महीनों बीमार रहे। उन्हें बहुत अधिक खून की ज़रूरत थी। बिग बी को बचाने के लिए खून की ज़रूरत को देखते हुए कई लोग रक्तदान के लिए आगे आए। दो सौ लोगों ने रक्तदान किया और 60 बोतल खून इकट्ठा कर अमिताभ को चढ़ाया गया लेकिन इससे उन्हें एक नई परेशानी हो गई।
उन्होंने अपने ब्लॉग पर लिखा है, ‘‘दोस्त, रिश्तेदार, शुभचिंतक और हमारी दवा कंपनी के कर्मचारी रक्तदान के लिए तैयार थे। मैं बच गया। यह 1982 की बात है लेकिन साल 2000-2002 में एक नियमित जांच के दौरान यह सामने आया, जो तब तक पता नहीं चला था।’’
अमिताभ कहते हैं कि उस दौरान एक अज्ञात दाता के रक्तदान से उन्हें यह बीमारी हुई। उस व्यक्ति का रक्त ऑस्ट्रेलियन ऐन्टिजन हेपेटाइटिस से संक्रमित था। उसके रक्तदान से यह उनके शरीर में पहुंच गया। बिग बी कहते हैं कि आठ साल पहले कराए गए एमआरआई से पता चला कि उसकी वजह से उनका 25 प्रतिशत लीवर ख़राब हो चुका था। तब से अब उन्हें हर तीन महीने में चिकित्सकीय जांच करानी पड़ती है। अमूमन, लिवर सिरोसिस की बीमारी शराब की लत, हिपेटाइटिस बी और सी के कारण होती है जिसमें यकृत धीरे धीरे काम करना बंद कर देता है। मशहूर हस्तियों के रोग का खुलासा जल्दी नहीं होता। आखिर उनके व्यावसायिक हित जो जुड़े होते हैं। अस्पतालों और डाक्टरों को भी चुप्पी बरतने की हिदायत दी जाती है। ऐसे कई मामले हैं जब आखिरी दिनों तक लोगों को भनक नहीं लगी कि अमुक व्यक्ति किस रोग से पीड़ित है। अभिनेता राजकुमार के देहान्त के बाद ही यह सार्वजनिक हुआ था कि उन्हें गले का कैंसर था।
उन्होंने अपने ब्लॉग पर लिखा है, ‘‘दोस्त, रिश्तेदार, शुभचिंतक और हमारी दवा कंपनी के कर्मचारी रक्तदान के लिए तैयार थे। मैं बच गया। यह 1982 की बात है लेकिन साल 2000-2002 में एक नियमित जांच के दौरान यह सामने आया, जो तब तक पता नहीं चला था।’’
अमिताभ कहते हैं कि उस दौरान एक अज्ञात दाता के रक्तदान से उन्हें यह बीमारी हुई। उस व्यक्ति का रक्त ऑस्ट्रेलियन ऐन्टिजन हेपेटाइटिस से संक्रमित था। उसके रक्तदान से यह उनके शरीर में पहुंच गया। बिग बी कहते हैं कि आठ साल पहले कराए गए एमआरआई से पता चला कि उसकी वजह से उनका 25 प्रतिशत लीवर ख़राब हो चुका था। तब से अब उन्हें हर तीन महीने में चिकित्सकीय जांच करानी पड़ती है। अमूमन, लिवर सिरोसिस की बीमारी शराब की लत, हिपेटाइटिस बी और सी के कारण होती है जिसमें यकृत धीरे धीरे काम करना बंद कर देता है। मशहूर हस्तियों के रोग का खुलासा जल्दी नहीं होता। आखिर उनके व्यावसायिक हित जो जुड़े होते हैं। अस्पतालों और डाक्टरों को भी चुप्पी बरतने की हिदायत दी जाती है। ऐसे कई मामले हैं जब आखिरी दिनों तक लोगों को भनक नहीं लगी कि अमुक व्यक्ति किस रोग से पीड़ित है। अभिनेता राजकुमार के देहान्त के बाद ही यह सार्वजनिक हुआ था कि उन्हें गले का कैंसर था।
अमिताभ का ब्लॉग
Friday, April 23, 2010
उत्तराखंड में पहला अंतर्राष्ट्रीय फिल्मोत्सव शुरू
उत्तराखंड का पहला अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह आज से देहरादून में शुरू हो रहा है। सप्ताह भर चलने वाले इस समारोह में देश-विदेश की 70 फिल्में प्रदर्शित की जा रही हैं। इनमें मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल की तीस पुरस्कार विजेता फिल्में, फिल्म प्रभाग की 33 चुंनिंदा डाक्यूमेंट्री, एनिमेशन व राज्य -आधारित फिल्में और बाल फिल्म समिति की छह फिल्में शामिल हैं। सूचना और प्रसारण मंत्रालय के फिल्म प्रभाग तथा उत्तरांचल फिल्म चैंबर आफ कामर्स, देहरादून के संयुक्त तत्वावधान में हो रहा यह फिल्म समारोह 29 अप्रैल तक छायादीप सिनेमा में चलेगा। फिल्म प्रभाग फिल्मों के निर्माण और वितरण तथा लघु फिल्मों के संवर्द्धन का कार्य करता है।
समारोह के पहले दिन आज मनोहर सिंह निर्देशित फ्रेमिंग टाइम तथा कुलदीप सिन्हा निर्देशित रफी: वी रिमेंबर यू दिखाई जा रही हैं।
फिल्मोत्सव का आयोजन नितान्त गैर-व्यवसायिक तौर पर किया जा रहा है और दर्शक इसका लुत्फ मुफ्त में उठा सकेंगे। इसके लिए उन्हें सिर्फ 100 रूपए का पंजीकरण शुल्क देना होगा। इसके एवज में उन्हें डेलीगेट कार्ड मिलेगा जिसे दिखाकर वे 29 तारीख तक फिल्में देख सकेंगे। यह कार्ड उद्घाटन और समापन समारोह के लिए मान्य नहीं है। डेलीगेट के रूप में पंजीकरण 18 तारीख तक चलेगा। इसके बाद 50 रूपए का दंड शुल्क देकर 20 तारीख तक कार्ड बनवाया जा सकता है।
यह समारोह उत्तराखंड,बाकी राज्यों तथा विश्व सिनेमा के विचारों,संस्कृति और अनुभव को शेयर करने का एक मंच माना जा रहा है।समारोह का उद्देश्य उत्तराखंड में फिल्म उद्योग को प्रोत्साहित करना, पर्यावरण संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक बनाना,देवभूमि उत्तराखंड की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के प्रति लोगों में जागरूकता का प्रसार करना,गंगा,वनक्षेत्र,जैव-विविधता तथा हिमालय के संरक्षण को प्रोत्साहित करना है। यह समारोह उत्तराखंड के फिल्म निर्माताओं को बेहतर मंच भी उपलब्ध कराएगा।
समारोह के पहले दिन आज मनोहर सिंह निर्देशित फ्रेमिंग टाइम तथा कुलदीप सिन्हा निर्देशित रफी: वी रिमेंबर यू दिखाई जा रही हैं।
फिल्मोत्सव का आयोजन नितान्त गैर-व्यवसायिक तौर पर किया जा रहा है और दर्शक इसका लुत्फ मुफ्त में उठा सकेंगे। इसके लिए उन्हें सिर्फ 100 रूपए का पंजीकरण शुल्क देना होगा। इसके एवज में उन्हें डेलीगेट कार्ड मिलेगा जिसे दिखाकर वे 29 तारीख तक फिल्में देख सकेंगे। यह कार्ड उद्घाटन और समापन समारोह के लिए मान्य नहीं है। डेलीगेट के रूप में पंजीकरण 18 तारीख तक चलेगा। इसके बाद 50 रूपए का दंड शुल्क देकर 20 तारीख तक कार्ड बनवाया जा सकता है।
यह समारोह उत्तराखंड,बाकी राज्यों तथा विश्व सिनेमा के विचारों,संस्कृति और अनुभव को शेयर करने का एक मंच माना जा रहा है।समारोह का उद्देश्य उत्तराखंड में फिल्म उद्योग को प्रोत्साहित करना, पर्यावरण संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक बनाना,देवभूमि उत्तराखंड की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के प्रति लोगों में जागरूकता का प्रसार करना,गंगा,वनक्षेत्र,जैव-विविधता तथा हिमालय के संरक्षण को प्रोत्साहित करना है। यह समारोह उत्तराखंड के फिल्म निर्माताओं को बेहतर मंच भी उपलब्ध कराएगा।
"आज के करण-अर्जुन" रिलीज
सीनियर अउर जूनियर निरहुआ अभिनीत मल्टीस्टारर फिल्म आज के करण अर्जुन आज बिहार-झारखंड के 50 सिनेमाघर में फिल्म रिलीज रिलीज हो गईल। कल एह फिलिम के पटना मे मोना टाकीज में प्रीमियर भईल जे भोजपुरी सिनेमा के इतिहास में,कवनो फिलिम के पहिला प्रीमियर रहे। एह प्रीमियर में फिलिम के हीरो-हीरोईन अउर निर्माता-निर्देशक भी उपस्थित रहलें। कैपिटल फिल्म्स अउर यशी फिल्म्स के एह फिलिम मे दू गो भाईयन का उपर भइल अत्याचार आ क्रूरता के बदला लेबे के कहानी बा। हैरी फर्नाण्डिज निर्देशित एह फिलिम में रउरा के दिनेश-पाखी आ प्रवेश-कृशा के रोमांटिक जोड़ी देखे के मिली। ई पहिला मौका ह जब दुनू निरहुआ एक साथ कवनो फिलिम में आइल बाड़ें।
एह में कहानी ह शकुंतला देवी आ रामजी के परिवार के। किसान रामजी सिंह आ उनका सात साल के बेटा के, गाँव के जमींदार आ ओकर मुनीम मिल के हत्या करत बाड़े मगर मौत के ट्रेन एक्सीडेंट के रूप दे दीहल जाला। रामजी के दूसरका बेटा अर्जुन शहर में पढ़ाई करत बा आ ओहिजे ओकर मुलाकात विजय से होला। विजय सुनीता से अउर अर्जुन चंदा से प्यार करत बा। विजय से करण के संबंध का ह, अर्जुन के भाई करण आ पिता के मौत कइसे भईल अउर अर्जुन आ विजय खून के रिश्ता में कइसे बंध जात बाड़ें,कहानी एही के इर्द-गिर्द घूमेली।
पिता के भूमिका में किरण कुमार आ महतारी का भूमिका में नीलिमा सिंह के देखब। टीनू वर्मा क्रूर जमींदार बनल बाड़े जवन के बारे मे एह ब्लॉग पर रउआ के पहिले समाचार दीहल गईल रहे। एक्शन,रोमांस और बदला के भावना पर आधारित एह फिलिम में गुफी पेंटल अउर सूर्या के भी बाड़ें।
Thursday, April 22, 2010
"मृत्युंजय" में सिंक साउंड के मज़ा
एन.एन.सिप्पी प्रोडक्शन के अगिला फिलिम मृत्युंजय मे रउआ के सिंक साउंड के मजा मिली। सिंक साउंड के माने बा शूटिंग के दौरान बोलल गईल डायलाग के हू-ब-हू प्रस्तुति। इहां जानत होखब कि फिलिम में शूटिंग के दौरान बोलल गईल डायलॉग फिल्म में नइखे रखल जाला काहे कि अइसन डायलॉग मेंबहुते तरह के कमी रह जाला। एह से,शूटिंग खतम हो गइला के बाद,डायलॉग के डब कइल जाला जे से ओह के,मिक्सिंग वगैरह कर के, तकनीकी रूप से अउर निमन बनावल जा सके। मगर रउआ मृत्युंजय में डायलॉग उहे रूप में सुन सकब जवन रूप में ई शूटिंग के क्रम में रिकार्ड कईल गईल रहे। एह फिलिम में डिजिटल साउंड तकनीक के भी इस्तेमाल कईल गईल ह। दिनेश लाल यादव निरहुआ,रिंकू घोष,बृजेश त्रिपाठी,मनोज टाइगर,संजय पांडे अउर गोपाल राय अभिनीत एह फिलिम के निर्माता बाड़ें प्रवेश सिप्पी अउर निर्देशन बा जगदीश शर्मा के। फिलिम में गीत बा प्यारेलाल यादव के अउर संगीत ह धनंजय मिश्रा के। मानल जा रहल बा कि सिंक साउंड कैमरा अउर डॉल्बी डिजिटल साउंड से भोजपुरी सिनेमा के विकास के नइका दिसा मिली।
मराठी और भोजपुरीःमिटने लगी दूरी
दो साल पहले मराठी और गैर मराठी के नाम पर भाषाई और क्षेत्रीय जुनून की जो हिंसा महाराष्ट्र के विभिन्न हिस्सों में नज़र आई थी,उसकी लपटें भोजपुरी फिल्म दिखा रहे सिनेमाघरों तक भी पहुंची थीं, मगर अब हालात बदल रहे हैं। अंधेरी के फन रिपब्लिक में एक मराठीभाषी प्रोड्यूसर नंदा लक्ष्मण शेलार की भोजपुरी फिल्म 'देवर भाभी' के मुहूर्त पर तो यही लगा।
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के उपाध्यक्ष एवं प्रवक्ता डॉ. वागीश सारस्वत ने जब इस फिल्म का शुभारंभ करते हुए कहा कि यह सही दिशा में 'दो कदम तुम भी चलो, दो कदम हम भी चलें' की एक नई पहल है, तो लोगों की तालियों से यही आवाज गूंजी कि कटुता मिटने लगी है, दिलों की दूरी घटने लगी है और मौसम आशिकाना होने लगा है।
नंदा लक्ष्मण शेलार के परिवार के लोग एमएनएस और मराठी चित्रपट शाखा से सक्रिय रूप से जुड़े हैं। उन्होंने बताया,'ऐक्ट्रेस के तौर पर मैं फिल्म इंडस्ट्री से लंबे अरसे से जुड़ी रही हूं। सोचा, क्यों न भोजपुरी फिल्म बनाई जाए। आपसी सद्भाव बढ़ेगा और भूमिपुत्र टेक्नीशियनों के लिए रोजगार का अवसर भी।' फिल्म के निर्देशक बी.एन.तिवारी के अनुसार, भाषाई और क्षेत्रीय भावनाओं के कारण यहां दो-तीन साल से भोजपुरी सिनेमा के व्यवसाय पर बहुत बुरा असर पड़ा था। उम्मीद है, अब अब हालात सुधरेंगे।
इन दिनों कई मराठीभाषी निर्माता जहां भोजपुरी फिल्में बना रहे हैं, वहीं कई उत्तर भारतीय निर्माता मराठी सिनेमा से जुड़ रहे हैं। पेशे से चिकित्सक डॉ. अनिल सक्सेना ने मराठी एक्टर सिद्धार्थ जाधव को हीरो लेकर मराठी फिल्म 'भैरू पहलवान की जै' पूरी कर ली है, जबकि ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रैटिक फ्रंट के मुम्बई प्रदेश अध्यक्ष तरुण राठी 'मी मराठी' चैनल के लिए मराठी रिऐलिटी शो 'अरे वाह शाबास' तैयार कर शाबासी लूट रहे हैं।
अब वह 'पर्व दुसरा' स्पेशल बना रहे हैं जिसमें 18 से 80 साल की मराठी महिलाएं हिस्सा ले रही हैं। मराठी फिल्म की तैयारी में जुटे तरुण राठी के अनुसार,'भाषा कोई भी हो, फिल्म ऐसी बनाओ जो अच्छी हो और समाज को जोड़ने का काम करे।'
भोजपुरी सिनेमा के महानायक एवं बिहार प्रदेश कांग्रेस के कल्चरल सेल के अध्यक्ष कुणाल सिंह ने कहा,'मराठी और भोजपुरी सिनेमा के बीच सद्भाव जरूरी है। मराठी निर्माता अनिल आचरेकर की भोजपुरी 'तुलसी' में काम करना मेरे लिए सुखद अनुभव रहा। एक-दूसरे के रीति-रिवाजों को जानने का मौका मिला।' तीन दशक से अमिताभ बच्चन के मेकअपमैन दीपक सावंत ने दो भोजपुरी फिल्में 'गंगा' और 'गंगोत्री' बनाईं और अमिताभ तथा हेमामालिनी से काम करवाया। दीपक के मुताबिक, 'भोजपुरी बड़ी मीठी भाषा है। मराठी से इसका कोई विवाद नहीं। राजनीतिक नेताओं से मेरा अनुरोध है कि वे अपना काम यानी समाज सेवा करें और हमें अपना काम यानी जनता का मनोरंजन करने दें।'
(मिथिलेष सिन्हा,नवभारत टाइम्स,19.4.2010)
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के उपाध्यक्ष एवं प्रवक्ता डॉ. वागीश सारस्वत ने जब इस फिल्म का शुभारंभ करते हुए कहा कि यह सही दिशा में 'दो कदम तुम भी चलो, दो कदम हम भी चलें' की एक नई पहल है, तो लोगों की तालियों से यही आवाज गूंजी कि कटुता मिटने लगी है, दिलों की दूरी घटने लगी है और मौसम आशिकाना होने लगा है।
नंदा लक्ष्मण शेलार के परिवार के लोग एमएनएस और मराठी चित्रपट शाखा से सक्रिय रूप से जुड़े हैं। उन्होंने बताया,'ऐक्ट्रेस के तौर पर मैं फिल्म इंडस्ट्री से लंबे अरसे से जुड़ी रही हूं। सोचा, क्यों न भोजपुरी फिल्म बनाई जाए। आपसी सद्भाव बढ़ेगा और भूमिपुत्र टेक्नीशियनों के लिए रोजगार का अवसर भी।' फिल्म के निर्देशक बी.एन.तिवारी के अनुसार, भाषाई और क्षेत्रीय भावनाओं के कारण यहां दो-तीन साल से भोजपुरी सिनेमा के व्यवसाय पर बहुत बुरा असर पड़ा था। उम्मीद है, अब अब हालात सुधरेंगे।
इन दिनों कई मराठीभाषी निर्माता जहां भोजपुरी फिल्में बना रहे हैं, वहीं कई उत्तर भारतीय निर्माता मराठी सिनेमा से जुड़ रहे हैं। पेशे से चिकित्सक डॉ. अनिल सक्सेना ने मराठी एक्टर सिद्धार्थ जाधव को हीरो लेकर मराठी फिल्म 'भैरू पहलवान की जै' पूरी कर ली है, जबकि ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रैटिक फ्रंट के मुम्बई प्रदेश अध्यक्ष तरुण राठी 'मी मराठी' चैनल के लिए मराठी रिऐलिटी शो 'अरे वाह शाबास' तैयार कर शाबासी लूट रहे हैं।
अब वह 'पर्व दुसरा' स्पेशल बना रहे हैं जिसमें 18 से 80 साल की मराठी महिलाएं हिस्सा ले रही हैं। मराठी फिल्म की तैयारी में जुटे तरुण राठी के अनुसार,'भाषा कोई भी हो, फिल्म ऐसी बनाओ जो अच्छी हो और समाज को जोड़ने का काम करे।'
भोजपुरी सिनेमा के महानायक एवं बिहार प्रदेश कांग्रेस के कल्चरल सेल के अध्यक्ष कुणाल सिंह ने कहा,'मराठी और भोजपुरी सिनेमा के बीच सद्भाव जरूरी है। मराठी निर्माता अनिल आचरेकर की भोजपुरी 'तुलसी' में काम करना मेरे लिए सुखद अनुभव रहा। एक-दूसरे के रीति-रिवाजों को जानने का मौका मिला।' तीन दशक से अमिताभ बच्चन के मेकअपमैन दीपक सावंत ने दो भोजपुरी फिल्में 'गंगा' और 'गंगोत्री' बनाईं और अमिताभ तथा हेमामालिनी से काम करवाया। दीपक के मुताबिक, 'भोजपुरी बड़ी मीठी भाषा है। मराठी से इसका कोई विवाद नहीं। राजनीतिक नेताओं से मेरा अनुरोध है कि वे अपना काम यानी समाज सेवा करें और हमें अपना काम यानी जनता का मनोरंजन करने दें।'
(मिथिलेष सिन्हा,नवभारत टाइम्स,19.4.2010)
अंगिका भाषा की फिल्म "अंगपुत्र" प्रदर्शन को तैयार
देश में फिल्मों का कारोबार मुंबई से बाहर पाँव पसार रहा है और यह पिछड़े माने जाने वाले राज्यों तक पहुंच गया है। पंजाबी, बांग्ला, भोजपुरी से लेकर गढ़वाली, छत्तीसगढ़ी और झारखंड की स्थानीय बोलियों तक में फिल्में बन रही हैं। बिहार में भोजपुरी के अतिरिक्त मैथिली फिल्म उद्योग की ही छिटपुट चर्चा होती रही है जिसकी नई फिल्म-हमर अप्पन गाम अप्पन लोक का निर्माण प्रगति पर होने की सूचना है। इसी क्रम में ताजा एंट्री है अंगिका भाषा की मल्टीस्टारर फिल्म अंगपुत्र जो 30 अप्रैल को रिलीज हो रही है। इसमें,भोजपुरी और अंगिका लोकगीतों के मशहूर गायक-अभिनेता सुनील छैला बिहारी प्रमुख भूमिका में हैं। नायिका है अपराजिता । फिल्म में आप सीनी राकेश पाण्डे, ललितेश झा, छोटू छलिया, अपराजिता, रीमा सिंह, रीना रानी, मानसी पांडे, डा. अभय आशियाना, रेणु तिवारी और बलमा बिहारी को भी देख सकेंगे। रौशन क्रियेशन और सरगम बिहार फिल्म्स के बैनर तले बनी इस फीचर फिल्म में दस गाने हैं। फिल्म पर लागत आई है-70 लाख रूपए। इस पारिवारिक फिल्म की पूरी शूटिंग अंगप्रदेश,यानी,भागलपुर और इसके आसपास के इलाके में हुई है।
'अंगपुत्र' एक बांझ महिला की कहानी है । उसके विधुर श्वसुर को शादी करनी पड़ती है। उसके घर एक हमउम्र सास आती है। घर की एकमात्र महिला होने के कारण उसे ही रस्म अदायगी करनी होती है। कालांतर में उसकी सास एक बेटे को जन्म देने के बाद मर जाती है। महिला अपने देवर को बेटे के समान पालती है। आगे चलकर, समाज भाभी-देवर के रिश्ते को गलत नाम दे देता है। नायक यानी 'अंगपुत्र' भाभी को निर्दोष साबित कसम लेता है । भाभी की भूमिका मानसी पाण्डेय और भाई की ललितेश झा ने निभाई है। फिल्म के लेखक-निर्देशक हैं राजीव रंजन दास।
कुछेक क्षेत्रीय फिल्म उद्योगों की जबरदस्त लोकप्रियता ने अन्य क्षेत्रीय निर्माणों को प्रोत्साहन दिया है। पंजाब और बंगाल का फिल्म उद्योग तो काफी पुराना है।
पॉलीवुड यानी पंजाब के फिल्म उद्योग में, आजादी के समय, हिंदी फिल्मों के अभिनेता-अभिनेत्री भी काम करते थे। पहली पंजाबी फिल्म शीला 1932 में बनी थी। इसमें मुख्य भूमिका मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहां ने निभाई थी जो उनकी यह पहली फिल्म भी थी। पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी, दारा सिंह वगैरह पंजाबी फिल्मों में भी नियमित तौर पर काम करते थे। देश के बंटवारे का इस उद्योग पर खासा असर पड़ा। फिलहाल पंजाबी फिल्म उद्योग अर्थात् पॉलीवुड की स्थिति अच्छी है। 1950 से अब तक करीब 900 फिल्में बन चुकी हैं। नानक नाम जहाज, चन परदेसी और सतलज दे कंडे आदि फिल्मों को राष्ट्रीय अवार्ड भी मिले हैं। पंजाबी में हर साल नौ से 11 फिल्में बन रही हैं।
बँगला फिल्म उद्योग यानी टॉलीवुड तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर का है। इस उद्योग ने भारतीय फिल्मों को बढ़ाने में भी बड़ा योगदान दिया है। सत्यजीत राय,बुद्धदेब दास गुप्ता,ऋत्विक घटक,गौतम घोष,ऋतुपर्णो घोष,अपर्णा सेन,मृणाल सेन और तपन सिन्हा जैसे कालजयी निर्देशक आज दुनिया भर में जाने जाते हैं।
मलयालम सिनेमा यानी मॉलीवुड देश के सबसे समृद्ध और पुराने क्षेत्रीय फिल्म उद्योगों में से है। मोहनलाल इसका सबसे बड़ा नाम हैं। ये वही मोहनलाल हैं,जिनके साथ हाल ही में,अमिताभ ने बिना फीस के काम करने की बात कही है। शुरुआती दौर से यह उद्योग हिंदी के समानांतर चल रहा है। मलयालम की पहली फिल्म-विगथकुमारन (मूक) 1928 में बनी थी। 1933 में मार्तण्डवर्मा बोलती फिल्म बनी। अडूर गोपालकृष्णन, श्याम बेनेगल, प्रियदर्शन सभी भारतीय फिल्म उद्योग को मलयालयम सिनेमा की देन है। 2007 तक निर्देशन के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में 40 सम्मान मलयालम सिनेमा को मिले हैं। हेराफेरी, हंगामा, हलचल,क्योंकि समेत हिंदी की बेहिसाब फिल्में मलयालम फिल्मों पर आधारित हैं। मेजर रवि के निर्देशन में बनने वाली सुनील शेट्टी की अगली एक्शन फिल्म भी मलयालम सुपरहिट कीर्तिचक्र का री-मेक होगी। रोहित शेट्टी भी अजय देवगन को लेकर पुत्तिया मुगम की रीमेक बनाने वाले हैं।
स्थानीय बोलियों की कई फिल्मों ने अच्छा कारोबार किया है। भाषाई आधार पर खड़े इन उद्योगों ने "छॉलीवुड" और "झॉलीवुड" जैसे नाम ईजाद कर लिए है। ऐसी फिल्में क्षेत्रीय जरूरत के हिसाब से स्थानीय बोलियों में बनाई जाती हैं और इनका दर्शक वर्ग भी वही है जो मनोरंजन के लिए ज्यादा रकम नहीं देना चाहते। ग्रामीणों के लिए अपनी बोली में यह मनोरंजन का इससे बढिया मसाला नहीं हो सकता ।
छत्तीसगढ़ी यानी छॉलीवुड की पहली फिल्म कहि देबे संदेश 1966 में बनी थी। 70 के दशक में घरबार और गृहस्थी नाम की फिल्में आईं । छत्तीसगढ़ की मया नाम की फिल्म ने हाल में तीन करोड़ रूपए का कारोबार किया है। इन दोनों ही फिल्मों मे स्थानीय लोगों को लिया गया था। फिल्म के गाने मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर ने गाए थे। मोर छइयां-भुइयां(2000) छॉलीवुड की सुपरहिट फिल्म है। इसी वर्ष मोरे सपना का राजा रिलीज हुई मगर तकनीकी खामियों के कारण नहीं चल सकी। प्रेम चंद्राकर मया दे दे मया ले ले सहित अब तक तीन-चार हिट फिल्में दे चुके हैं। संतोष जैन की जय बमलेश्वरी फिल्म छह हफ्ते से चल रही है। छॉलीवुड में अब तक बाहर से हीरोइनें ली जाती रही हैं मगर अब स्थानीय स्तर पर भी तलाश की जा रही है।
झालीवुड यानी झारखंड में नागपुरी, खोरथा और संथाली बोलियो में फिल्में बन रही हैं। यहां फिल्म की शुरूआत का श्रेय लोहरदगा के सहदेव परिवार और रांची के गांगुली परिवार को जाता है। आक्रान्त(1988) यहां की पहली फीचर फिल्म थी जिसमें वन कटाई,मजदूरों के प्रवास,घूसखोरी,भ्रष्टाचार आदि स्थानीय मुद्दे उठाए गए थे। विनोद कुमार के निर्देशन में बनी इस फिल्म की शूटिंग रांची और मुंबई में की गई थी और इसर फिल्म में सदाशिव अमरापुरकर भी थे। बाद में, स्थानीय कलाकारों को लेकर धनंजय प्रताप तिवारी ने नागपुरी में सोनाकर नागपुर (1992) बनाई जिसमें सिर्फ स्थानीय कलाकार थे। ब्लैक आइरन मैन बिरसा और उलगुलान-एक क्रांति दो अन्य नागपुरी फिल्में हैं। तुआर,माई का दुलारा,प्यार कर और मेहँदी कुछ अन्य चर्चित झालीवुड फिल्में हैं। पिछले साल ही फिल्म जुगानी रिलीज हुई थी। दशरथ मानसी ने संथाली में फिल्म बनाई थी, लेकिन इन फिल्मों का संगीत लोकसंगीत तक सीमित था। आधुनिक संगीत का नजारा पहली बार,सुपरहिट फिल्म प्रीत में देखने को मिला। इस फिल्म की थीम भी अब तक बनने वाली फिल्मों से हटकर राजनीति पर आधारित थी। इसके दो गाने काली गोरी मेम संग चले.. और जेनी मन का फैशन हाय रे.. के कैसेट और सीडी खूब बिके। झालीवुड की सबसे महंगी फिल्म मितवा परदेसी इसी वर्ष बनी है। इस पर 28 लाख की लागत आई है। अनिल सिकदर की फिल्म हमार झारखंड के छैला ने भी बढि़या कारोबार किया है। यह डिजिटल फार्मेट में बनी पहली फिल्म थी जिसमें विस्थापन और बाहरी लोगों द्वारा शोषण की समस्या को दिखाया गया था।
गढवाली सिनेमा ने 2008 में अपनी रजत जयंती मनाई थी। पहली गढवाली फिल्म जग्वाल 1983 में रिलीज हुई थी। कबि सुख कबि दुःख(1986), कौथिग और घरजवैं(1987),रैबार(1990),बंटवारू(1992),बेटी-ब्वारू(1996),तेरी सौं(2003) और चेलि(2006) अब तक की प्रमुख गढवाली फिल्में हैं। पहली कुमाउंनी फिल्म मेघा आ 1987 में प्रदर्शित हुई थी। पहली गुजराती फिल्म नरसिंह मेहता 1932 में रिलीज हुई थी। 1988 तक,गुजराती में प्रतिवर्ष लगभग 40 फिल्में बनती थीं जिनकी संख्या इन दिनों आर्थिक संकट के कारण घटकर 10-12 रह गई है। यहां के फिल्म उद्योग को बचाने के लिए गुजरात सरकार ने 2005 में 100 प्रतिशत कर रियायत की घोषणा भी की थी। केतन मेहता की पहली फिल्म भवानी भवाई(1988) गुजराती में ही थी। हिमाचली फिल्म उद्योग अपने शुरूआती दौर में हैं।
स्थानीय स्तर पर और डिजिटल एचडी फार्म में बनी इन फिल्मों की डबिंग, मार्केटिंग –सब स्थानीय स्तर पर होती है। देखना यह है कि ये फिल्में हिंदी फिल्मों की तकनीक और मसाले से किस हद तक मुकाबला कर पाती हैं।
'अंगपुत्र' एक बांझ महिला की कहानी है । उसके विधुर श्वसुर को शादी करनी पड़ती है। उसके घर एक हमउम्र सास आती है। घर की एकमात्र महिला होने के कारण उसे ही रस्म अदायगी करनी होती है। कालांतर में उसकी सास एक बेटे को जन्म देने के बाद मर जाती है। महिला अपने देवर को बेटे के समान पालती है। आगे चलकर, समाज भाभी-देवर के रिश्ते को गलत नाम दे देता है। नायक यानी 'अंगपुत्र' भाभी को निर्दोष साबित कसम लेता है । भाभी की भूमिका मानसी पाण्डेय और भाई की ललितेश झा ने निभाई है। फिल्म के लेखक-निर्देशक हैं राजीव रंजन दास।
कुछेक क्षेत्रीय फिल्म उद्योगों की जबरदस्त लोकप्रियता ने अन्य क्षेत्रीय निर्माणों को प्रोत्साहन दिया है। पंजाब और बंगाल का फिल्म उद्योग तो काफी पुराना है।
पॉलीवुड यानी पंजाब के फिल्म उद्योग में, आजादी के समय, हिंदी फिल्मों के अभिनेता-अभिनेत्री भी काम करते थे। पहली पंजाबी फिल्म शीला 1932 में बनी थी। इसमें मुख्य भूमिका मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहां ने निभाई थी जो उनकी यह पहली फिल्म भी थी। पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी, दारा सिंह वगैरह पंजाबी फिल्मों में भी नियमित तौर पर काम करते थे। देश के बंटवारे का इस उद्योग पर खासा असर पड़ा। फिलहाल पंजाबी फिल्म उद्योग अर्थात् पॉलीवुड की स्थिति अच्छी है। 1950 से अब तक करीब 900 फिल्में बन चुकी हैं। नानक नाम जहाज, चन परदेसी और सतलज दे कंडे आदि फिल्मों को राष्ट्रीय अवार्ड भी मिले हैं। पंजाबी में हर साल नौ से 11 फिल्में बन रही हैं।
बँगला फिल्म उद्योग यानी टॉलीवुड तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर का है। इस उद्योग ने भारतीय फिल्मों को बढ़ाने में भी बड़ा योगदान दिया है। सत्यजीत राय,बुद्धदेब दास गुप्ता,ऋत्विक घटक,गौतम घोष,ऋतुपर्णो घोष,अपर्णा सेन,मृणाल सेन और तपन सिन्हा जैसे कालजयी निर्देशक आज दुनिया भर में जाने जाते हैं।
मलयालम सिनेमा यानी मॉलीवुड देश के सबसे समृद्ध और पुराने क्षेत्रीय फिल्म उद्योगों में से है। मोहनलाल इसका सबसे बड़ा नाम हैं। ये वही मोहनलाल हैं,जिनके साथ हाल ही में,अमिताभ ने बिना फीस के काम करने की बात कही है। शुरुआती दौर से यह उद्योग हिंदी के समानांतर चल रहा है। मलयालम की पहली फिल्म-विगथकुमारन (मूक) 1928 में बनी थी। 1933 में मार्तण्डवर्मा बोलती फिल्म बनी। अडूर गोपालकृष्णन, श्याम बेनेगल, प्रियदर्शन सभी भारतीय फिल्म उद्योग को मलयालयम सिनेमा की देन है। 2007 तक निर्देशन के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में 40 सम्मान मलयालम सिनेमा को मिले हैं। हेराफेरी, हंगामा, हलचल,क्योंकि समेत हिंदी की बेहिसाब फिल्में मलयालम फिल्मों पर आधारित हैं। मेजर रवि के निर्देशन में बनने वाली सुनील शेट्टी की अगली एक्शन फिल्म भी मलयालम सुपरहिट कीर्तिचक्र का री-मेक होगी। रोहित शेट्टी भी अजय देवगन को लेकर पुत्तिया मुगम की रीमेक बनाने वाले हैं।
स्थानीय बोलियों की कई फिल्मों ने अच्छा कारोबार किया है। भाषाई आधार पर खड़े इन उद्योगों ने "छॉलीवुड" और "झॉलीवुड" जैसे नाम ईजाद कर लिए है। ऐसी फिल्में क्षेत्रीय जरूरत के हिसाब से स्थानीय बोलियों में बनाई जाती हैं और इनका दर्शक वर्ग भी वही है जो मनोरंजन के लिए ज्यादा रकम नहीं देना चाहते। ग्रामीणों के लिए अपनी बोली में यह मनोरंजन का इससे बढिया मसाला नहीं हो सकता ।
छत्तीसगढ़ी यानी छॉलीवुड की पहली फिल्म कहि देबे संदेश 1966 में बनी थी। 70 के दशक में घरबार और गृहस्थी नाम की फिल्में आईं । छत्तीसगढ़ की मया नाम की फिल्म ने हाल में तीन करोड़ रूपए का कारोबार किया है। इन दोनों ही फिल्मों मे स्थानीय लोगों को लिया गया था। फिल्म के गाने मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर ने गाए थे। मोर छइयां-भुइयां(2000) छॉलीवुड की सुपरहिट फिल्म है। इसी वर्ष मोरे सपना का राजा रिलीज हुई मगर तकनीकी खामियों के कारण नहीं चल सकी। प्रेम चंद्राकर मया दे दे मया ले ले सहित अब तक तीन-चार हिट फिल्में दे चुके हैं। संतोष जैन की जय बमलेश्वरी फिल्म छह हफ्ते से चल रही है। छॉलीवुड में अब तक बाहर से हीरोइनें ली जाती रही हैं मगर अब स्थानीय स्तर पर भी तलाश की जा रही है।
झालीवुड यानी झारखंड में नागपुरी, खोरथा और संथाली बोलियो में फिल्में बन रही हैं। यहां फिल्म की शुरूआत का श्रेय लोहरदगा के सहदेव परिवार और रांची के गांगुली परिवार को जाता है। आक्रान्त(1988) यहां की पहली फीचर फिल्म थी जिसमें वन कटाई,मजदूरों के प्रवास,घूसखोरी,भ्रष्टाचार आदि स्थानीय मुद्दे उठाए गए थे। विनोद कुमार के निर्देशन में बनी इस फिल्म की शूटिंग रांची और मुंबई में की गई थी और इसर फिल्म में सदाशिव अमरापुरकर भी थे। बाद में, स्थानीय कलाकारों को लेकर धनंजय प्रताप तिवारी ने नागपुरी में सोनाकर नागपुर (1992) बनाई जिसमें सिर्फ स्थानीय कलाकार थे। ब्लैक आइरन मैन बिरसा और उलगुलान-एक क्रांति दो अन्य नागपुरी फिल्में हैं। तुआर,माई का दुलारा,प्यार कर और मेहँदी कुछ अन्य चर्चित झालीवुड फिल्में हैं। पिछले साल ही फिल्म जुगानी रिलीज हुई थी। दशरथ मानसी ने संथाली में फिल्म बनाई थी, लेकिन इन फिल्मों का संगीत लोकसंगीत तक सीमित था। आधुनिक संगीत का नजारा पहली बार,सुपरहिट फिल्म प्रीत में देखने को मिला। इस फिल्म की थीम भी अब तक बनने वाली फिल्मों से हटकर राजनीति पर आधारित थी। इसके दो गाने काली गोरी मेम संग चले.. और जेनी मन का फैशन हाय रे.. के कैसेट और सीडी खूब बिके। झालीवुड की सबसे महंगी फिल्म मितवा परदेसी इसी वर्ष बनी है। इस पर 28 लाख की लागत आई है। अनिल सिकदर की फिल्म हमार झारखंड के छैला ने भी बढि़या कारोबार किया है। यह डिजिटल फार्मेट में बनी पहली फिल्म थी जिसमें विस्थापन और बाहरी लोगों द्वारा शोषण की समस्या को दिखाया गया था।
गढवाली सिनेमा ने 2008 में अपनी रजत जयंती मनाई थी। पहली गढवाली फिल्म जग्वाल 1983 में रिलीज हुई थी। कबि सुख कबि दुःख(1986), कौथिग और घरजवैं(1987),रैबार(1990),बंटवारू(1992),बेटी-ब्वारू(1996),तेरी सौं(2003) और चेलि(2006) अब तक की प्रमुख गढवाली फिल्में हैं। पहली कुमाउंनी फिल्म मेघा आ 1987 में प्रदर्शित हुई थी। पहली गुजराती फिल्म नरसिंह मेहता 1932 में रिलीज हुई थी। 1988 तक,गुजराती में प्रतिवर्ष लगभग 40 फिल्में बनती थीं जिनकी संख्या इन दिनों आर्थिक संकट के कारण घटकर 10-12 रह गई है। यहां के फिल्म उद्योग को बचाने के लिए गुजरात सरकार ने 2005 में 100 प्रतिशत कर रियायत की घोषणा भी की थी। केतन मेहता की पहली फिल्म भवानी भवाई(1988) गुजराती में ही थी। हिमाचली फिल्म उद्योग अपने शुरूआती दौर में हैं।
स्थानीय स्तर पर और डिजिटल एचडी फार्म में बनी इन फिल्मों की डबिंग, मार्केटिंग –सब स्थानीय स्तर पर होती है। देखना यह है कि ये फिल्में हिंदी फिल्मों की तकनीक और मसाले से किस हद तक मुकाबला कर पाती हैं।
Wednesday, April 21, 2010
मनोज कुमार और गोवारिकर को पुरस्कार
तमाम अटकलों पर विराम लगाते हुए महाराष्ट्र सरकार ने इस बार का राजकपूर लाइफ अचीवमेंट अवार्ड ,देशभक्ति की भावना पर आधारित फिल्मों के लिए भारत कुमार के नाम से मशहूर मनोज कुमार को देने का फैसला किया है।
मनोज कुमार का जन्म ब्रिटिश भारत में,उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत में अबोताबाद में 24 जुलाई,1937 को हुआ था। उनका मूल नाम हरिकिशन गिरि गोस्वामी है। उन्होंने दिल्ली के हिंदू कॉलेज से स्नातक की उपाधि ली है। फैशन(1957) उनकी पहली फिल्म थी । उन्हें पहली बार कांच की गुड़िया(1960) में लीड रोल मिला। शहीद(1965) से उनकी छवि देशभक्तिपूर्ण फिल्मों के नायक की हो गई। 1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद,प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने उनसे जय जवान जय किसान नारे पर फिल्म बनाने को कहा । उपकार इसी का नतीजा थी जिसके लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार के अलावा सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्मफेअर अवार्ड भी मिला था। उनकी आखिरी प्रमुख फिल्म क्लर्क(1989) थी। 2007 में,ओम शांति ओम में उन्हें जिस तरह से फिल्माया गया उसे भद्दा मजाक बताते हुए मनोज कुमार ने मुकदमा तक दायर करने की धमकी दी थी। वे होम्योपैथी के भी अच्छे जानकार बताए जाते हैं।
समारोह में,फिल्म लगान के निर्देशक आशुतोष गोवारिकर को राज कपूर स्पेशल कंट्रीब्यूशन अवार्ड दिया जाएगा। उनके निर्देशन में बनी पहली फिल्म पहला नशा (1993)थी मगर उन्हें जाना गया लगान,स्वदेश और जोधा-अकबर के निर्देशन के लिए। इन दिनों वे चिटगांव विद्रोह पर,अभिषेक और दीपिका को लेकर खेलें हम जी जान से बना रहे हैं।
मराठी फिल्म उद्योग में असाधारण योगदान के लिए वी. शांताराम अवार्ड आशा काले को दिया जा रहा है। अभिनेता और निर्माता सचिन पिलगांवकर को वी. शांताराम स्पेशल कंट्रीब्यूशन अवार्ड से नवाजा जाएगा।
यह अवार्ड हिंदी फिल्म उद्योग में उपलब्धियां हासिल करने वाले कलाकार को दिया जाता है।
विजेताओं को पुरस्कार स्वरूप दो लाख रुपये,स्मृति-चिह्न और प्रशस्ति पत्र प्रदान किया जाएगा। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री 27 अप्रैल को गेटवे ऑफ इंडिया परिसर में आयोजित समारोह में ये पुरस्कार प्रदान करेंगे।
मनोज कुमार का जन्म ब्रिटिश भारत में,उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत में अबोताबाद में 24 जुलाई,1937 को हुआ था। उनका मूल नाम हरिकिशन गिरि गोस्वामी है। उन्होंने दिल्ली के हिंदू कॉलेज से स्नातक की उपाधि ली है। फैशन(1957) उनकी पहली फिल्म थी । उन्हें पहली बार कांच की गुड़िया(1960) में लीड रोल मिला। शहीद(1965) से उनकी छवि देशभक्तिपूर्ण फिल्मों के नायक की हो गई। 1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद,प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने उनसे जय जवान जय किसान नारे पर फिल्म बनाने को कहा । उपकार इसी का नतीजा थी जिसके लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार के अलावा सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्मफेअर अवार्ड भी मिला था। उनकी आखिरी प्रमुख फिल्म क्लर्क(1989) थी। 2007 में,ओम शांति ओम में उन्हें जिस तरह से फिल्माया गया उसे भद्दा मजाक बताते हुए मनोज कुमार ने मुकदमा तक दायर करने की धमकी दी थी। वे होम्योपैथी के भी अच्छे जानकार बताए जाते हैं।
समारोह में,फिल्म लगान के निर्देशक आशुतोष गोवारिकर को राज कपूर स्पेशल कंट्रीब्यूशन अवार्ड दिया जाएगा। उनके निर्देशन में बनी पहली फिल्म पहला नशा (1993)थी मगर उन्हें जाना गया लगान,स्वदेश और जोधा-अकबर के निर्देशन के लिए। इन दिनों वे चिटगांव विद्रोह पर,अभिषेक और दीपिका को लेकर खेलें हम जी जान से बना रहे हैं।
मराठी फिल्म उद्योग में असाधारण योगदान के लिए वी. शांताराम अवार्ड आशा काले को दिया जा रहा है। अभिनेता और निर्माता सचिन पिलगांवकर को वी. शांताराम स्पेशल कंट्रीब्यूशन अवार्ड से नवाजा जाएगा।
यह अवार्ड हिंदी फिल्म उद्योग में उपलब्धियां हासिल करने वाले कलाकार को दिया जाता है।
विजेताओं को पुरस्कार स्वरूप दो लाख रुपये,स्मृति-चिह्न और प्रशस्ति पत्र प्रदान किया जाएगा। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री 27 अप्रैल को गेटवे ऑफ इंडिया परिसर में आयोजित समारोह में ये पुरस्कार प्रदान करेंगे।
टर्मिनेटर और इरेजर की वापसी
कैलिफोर्निया के गवर्नर आर्नोल्ड श्वाजनेगर पांच साल बाद फिर से पर्दे पर वापसी कर रहे हैं। उनकी नई फिल्म है द एक्सपेंडेबल्स। इस एक्शन फिल्म में श्वाजनेगर हास्य भूमिका में दिखेंगे। यह फिल्म अगस्त में रिलीज होनी है। इस फिल्म में ब्रूस विलिस,सिल्वेस्टर स्टेलॉन और मिकी राउरकी मुख्य भूमिका में हैं। यह फिल्म बूढे सैनिकों के एक समूह की कहानी कहती है।
आस्ट्रिया में पैदा हुए श्वाजनेगर कि पिछली फिल्म अराउंड द वर्ल्ड इन 80 डेज 2004 में रिलीज हुई थी। 2006 में रिलीज कार्स में उनकी आवाज मात्र थी। इरेजर, टर्मिनेटर,ट्रू लाइज उनकी जबरदस्त हिट फिल्म रही हैं। जिंगल ऑल द वे और किंडरगार्टन कॉप जैसी हास्य फिल्मों में भी दर्शक उन्हें देख चुके हैं। श्वाजनेगर पहली मर्तबा तब चर्चा में आए थे जब 22 साल की उम्र में उन्होंने मिस्टर यूनिवर्स का खिताब जीता। मिस्टर ओलम्पिया का खिताब भी वे सात बार जीत चुके हैं। उनकी पहली फिल्म हरक्युलिस 1970 में रिलीज हुई थी। स्टे हंग्री(1977) के लिए उन्हें गोल्डन ग्लोब मिला था। कम से कम चार टेलीविजन शो में भी दर्शक उनसे रू-ब-रू हो चुके हैं।
आस्ट्रिया में पैदा हुए श्वाजनेगर कि पिछली फिल्म अराउंड द वर्ल्ड इन 80 डेज 2004 में रिलीज हुई थी। 2006 में रिलीज कार्स में उनकी आवाज मात्र थी। इरेजर, टर्मिनेटर,ट्रू लाइज उनकी जबरदस्त हिट फिल्म रही हैं। जिंगल ऑल द वे और किंडरगार्टन कॉप जैसी हास्य फिल्मों में भी दर्शक उन्हें देख चुके हैं। श्वाजनेगर पहली मर्तबा तब चर्चा में आए थे जब 22 साल की उम्र में उन्होंने मिस्टर यूनिवर्स का खिताब जीता। मिस्टर ओलम्पिया का खिताब भी वे सात बार जीत चुके हैं। उनकी पहली फिल्म हरक्युलिस 1970 में रिलीज हुई थी। स्टे हंग्री(1977) के लिए उन्हें गोल्डन ग्लोब मिला था। कम से कम चार टेलीविजन शो में भी दर्शक उनसे रू-ब-रू हो चुके हैं।
बॉलीवुड में बिहार
Tuesday, April 20, 2010
काजोल को दीनानाथ पुरस्कार
काजोल को सिनेमा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए मास्टर दीनानाथ विशेष पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा। उन्हें यह पुरस्कार षणमुखानंद सभागार में 24 अप्रैल को एक कार्यक्रम में पार्श्व गायिका लता मंगेशकर देंगी । इस पुरस्कार के तहत 50 हजार की नकद राशि और एक स्मृति चिह्न प्रदान किया जाता है । काजोल के अलावा गायक हरिहरन, पंडित शिवानंद पाटिल और प्रशांत दामले को भी इस पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा। यह पुरस्कार प्रतिवर्ष 24 अप्रैल को लता मंगेशकर अपने पिता दीनानाथ मंगेशकर की पुण्यतिथि पर स्वयं प्रदान करती हैं।
काजोल की पिछली फिल्म "माई नेम इज खान" थी । पाठक जानते ही हैं कि काजल की फिल्मी पृष्ठभूमि रही है। उनकी माँ तनुजा और नानी शोभना समर्थ भी अभिनेत्री थीं। उनकी छोटी बहन तनिषा भी अब फिल्मों मैं काम कर रही हैं। उनके पिता का नाम शोमू मुखर्जी भी फिल्में बनाते थे। काजोल ने अपना फिल्मी सफ़र फिल्म बेख़ुदी से शुरू किया था। बाज़ीगर और दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे ने उन्हें स्टार हीरोईन बनाया। उन्होंने अजय देवगन से २४ फरवरी 1999को विवाह किया था। न्यसा उनकी बिटिया है ।
काजोल की पिछली फिल्म "माई नेम इज खान" थी । पाठक जानते ही हैं कि काजल की फिल्मी पृष्ठभूमि रही है। उनकी माँ तनुजा और नानी शोभना समर्थ भी अभिनेत्री थीं। उनकी छोटी बहन तनिषा भी अब फिल्मों मैं काम कर रही हैं। उनके पिता का नाम शोमू मुखर्जी भी फिल्में बनाते थे। काजोल ने अपना फिल्मी सफ़र फिल्म बेख़ुदी से शुरू किया था। बाज़ीगर और दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे ने उन्हें स्टार हीरोईन बनाया। उन्होंने अजय देवगन से २४ फरवरी 1999को विवाह किया था। न्यसा उनकी बिटिया है ।
तीन भारतीय फिल्मों को रेमी अवार्ड
तीन भारतीय फिल्मों-"बोधिसत्व","एक ठो चांस" और "सलून" ने 43वें ह्यूस्टन अंतरराष्ट्रीय फिल्म एवं वीडियो फेस्टिवल में प्रतिष्ठित रेमी पुरस्कार जीते हैं। फीचर फिल्म श्रेणी का प्लेटिनम रेमी पुरस्कार बोधिसत्व को मिला। बोधिसत्व ने डेमी मूर-डेविड डुकोवनी की द जोंस और बेंजामिन बैरट की ला मिशन जैसी बड़ी फिल्मों को पीछे छोड़ते हुए यह पुरस्कार जीता। महज सात दिनों में तैयार की गई यह फिल्म ह्यूस्टन के युवा फिल्म निर्माता सैन बनर्जी की है और इसकी शूटिंग कोलकाता में की गई थी। जाने-माने अभिनेता सौमित्र चटर्जी इस फिल्म में मुख्य भूमिका में है। फिल्म में एक लड़की (त्रिशा राय) और उसके पिता (सौमित्र चटर्जी) के बीच मानसिक संघर्ष को दिखाया गया है। लड़की मानती है कि उसकी मां की आत्महत्या के लिए उसका पिता बोधिसत्व(सौमित्र चटर्जी) जिम्मेदार है।
सिल्वर रेमी पुरस्कार कामेडी / फीचर फिल्म श्रेणी में प्रीतीश नंदी कम्युनिकेशंस की सलून को मिला। सत्य घटना पर आधारित इस फिल्म का निर्देशन किया है नवोदित निखिल नागेश भट्ट ने। यह फिल्म भारतीय मध्यवर्ग की कहानी बयां करती है जिसमें आम जनता भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों को सबक सिखाती है। इस फिल्म में मुख्य भूमिका गौरव कपूर,रज़क खान,साक्षी तंवर,बृजेन्द्र काला,मुरली शर्मा,गायत्री चौधरी और अरिंदम मित्रा की है।
एक ठो चांस भी प्रीतीश नंदी कम्युनिकेशंस की ही फिल्म है जिसमें अमृता अरोड़ा,रजत कपूर,सौरभ शुक्ला और विनय पाठक मुख्य भूमिका में हैं। इसे विदेशी फीचर फिल्म का विशेष जूरी अवार्ड दिया गया है। इसका निर्देशन सईद अख्तर मिर्ज़ा ने किया है। यह फिल्म इन दिनों सिंगापुर में चल रहे फिल्म फेस्टिवल में भी दिखाई जा रही है। यह फिल्म मुंबई में अपना भाग्य आजमाने प्रतिपल आ रहे लोगों की दास्तान बताती है। फिल्म बेहद साधारण तरीके से मनुष्य के स्वभाव को असाधारण बयां करती है।
Monday, April 19, 2010
सेंसर प्रमाणपत्र होंगे अंतर्राष्ट्रीय स्तर के
समय के साथ हमारा सिनेमा बदल रहा है और ऐसे में उस पर विवाद भी बढ़ रहे हैं। अब इन विवादों को रोकने के लिए सरकार फिल्म प्रमाणपत्रों को अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप बनाने की तैयारी कर रही है। इसके लिए सिनेमेटोग्राफी एक्ट, 1952 में बदलाव की तैयारी है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने नए सिनेमेटोग्राफी एक्ट, 2010 का मसौदा तैयार कर लिया है। इसमें फिल्म प्रमाणपत्र की पुरानी तीन श्रेणियों को खत्म कर नई पांच श्रेणियां और विशेष श्रेणी बनाई गई हैं। उल्लेखनीय है केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) अभी तक यू (सभी के लिए), ए (वयस्कों या 18 वर्ष से अधिक उम्र के लिए) और यू/ए (कुछ दृश्यों को छोड़ कर सभी के योग्य) श्रेणियों में प्रमाणपत्र जारी करता है। नए नियमों के अतिरिक्त सेंसर बोर्ड को उन फिल्मों पर रोक लगाने का भी अधिकार होगा, जो उसके मुताबिक देश की संप्रभुता, अखंडता, कानून-व्यवस्था और सुरक्षा के साथ छेड़छाड़ करती हैं। इनके अतिरिक्त नैतिक आचरण, किसी व्यक्ति या समुदाय के मान-सम्मान अथवा अदालत की अवहेलना करने वाली फिल्मों को बोर्ड प्रमाणपत्र देने से इन्कार कर सकेगा। मसौदे के अनुसार, सरकार सेंसर बोर्ड के क्षेत्रीय कार्यालयों में भी सलाहकार समितियां नियुक्त करेगी जिसमें न्यायपालिका के सदस्य भी होंगे, जो समाज पर फिल्म के प्रभाव का विश्लेषण करेंगे। नए मसौदे में कहा गया है कि सलाहकार समिति में अनिवार्य रूप से एक-तिहाई महिला सदस्य होंगी।
(दैनिक जागरण,19.4.2010)
(दैनिक जागरण,19.4.2010)
गुजराती रंग में नजर आएंगे अमिताभ
गुजरात के ब्रांड एंबेसडर अमिताभ बच्चन अब गुजराती रंग में नजर आएंगे। वे गुजरात के पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए बनने वाली एड फिल्म की शूटिंग के लिए आगामी मई-जून में गुजरात आ रहे हैं। वे विजुअल एड फिल्मों के अलावा स्टिल फोटोग्राफी यानी कि पोस्टर्स और बैनर्स में भी दिखाई देंगे। गुजरात पर्यटन से संबंधित छह विज्ञापन फिल्मों की शूटिंग करने के लिए जगह तय कर लिए गए हैं जिसमें सोमनाथ मंदिर प्रमुख है।
गुजरात पर्यटन विभाग के एक अधिकारी ने बताया कि अमिताभ की एड फिल्मों के लिए वित्त विभाग ने पहले चरण के लिए 1.4 करोड़ रुपए खर्च की मंजूरी दी है। ब्रांड एंबेसडर अमिताभ बच्चन द्वारा राज्य के पर्यटन का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचार किया जाना है। उधर, पर्यटन विभाग के सचिव विपुल मित्रा ने बताया कि वे मुंबई में चार बार अमिताभ से मिल चुके हैं। उनकी शूटिंग की तारीख शीघ्र तय होने के आसार हैं।
फोटोग्राफी के लिए तैयार हो रहा स्टूडियो
गुजरात पर्यटन विभाग ने अमिताभ की एड फिल्मों के अलावा डिजिटल फोटोग्राफी करने का निश्चय किया है जिससे कि उनके पोस्टर्स व बैनर्स बनाए जा सकें। फोटोग्राफ लेने के लिए खास स्टूडियो तैयार किया जा रहा है। इसमें साइंस ब्यूटी, मेला, उत्सव, हैंडीक्रॉफ्ट, गुजरात के भातीगल लोकनृत्य व क्रूज जैसे लोकेशन बनाए जाएंगे। गांधीजी के लैंडमार्क स्थलों के अलावा फिल्म बनाने के लिए महत्वपूर्ण लोकेशन हैं जहां स्टिल फोटोग्राफी की जाएगी।
22 को खुलेंगी निविदाएं
पर्यटन निगम द्वारा फोटोग्राफी के लिए 22 अप्रैल को निविदाएं खोली जाएंगी। अमिताभ के चेहरे और आवाज का उपयोग फिल्मों तथा प्रचार-सामग्रियों में किया जाएगा।
(गौतम पुरोहित,दैनिक भास्कर,19.4.2010)
फूंक-2:फूंक दो
क्या आपको कौए से डर लगता है? यदि नहीं ,तो रामगोपाल वर्मा आपके लिए लाए हैं फूंक-2। यह फिल्म उन्होंने निर्देशित तो नहीं की है मगर बनी है उन्हीं के बैनर तले । सुदीप, अमृता खानविलकर, नीरू सिंह, एहसास चानना, अश्विनी कलसेकर, अनु अंसारी, गणेश यादव, जाकिर हुसैन, विकास श्रीवास्तव, जीवा और अमित साध के अभिनय वाली इस फिल्म का निर्देशन किया है मिलिंद गदगकर ने जो इस फिल्म के लेखक भी हैं। भुतहा फिल्म है इसलिए पार्श्व संगीतकार का नाम बताना जरूरी है। ये हैं राहुल पंडीरकर।
फिल्म की कहानी वहीं से शुरू होती है जहां पहला संस्करण समाप्त हुआ था। पिछली फिल्म में काले जादू और तंत्र - मंत्र की ताकत से मधु ( अश्विनी कालेसकर ) राजीव ( सुदीप ) की बेटी रक्षा ( अहसास चानना ) को अपने वश में कर लेती है। राजीव एक तांत्रिक की मदद से मधु को उसके अंजाम तक पहुंचाता है। राजीव अब पुराना घर छोड़कर समुद्र किनारे बने बंगले में रक्षा और बेटे रोहन ( रिषभ जैन ), पत्नी आरती ( अमृता खानविलकर ) के साथ नई जिंदगी शुरू करता है। उधर , मधु मरने के बाद राजीव और उसकी फैमिली से बदला लेने के लिए गुडि़या में समा जाती है। खेल के दौरान रक्षा की नजर इस खूबसूरत गुडि़या पर पड़ती है और वह इसे घर ले जाती है। यहीं से शुरु होता है राजीव की खुशहाल जिंदगी में खौफनाक साये का प्रवेश और अपनों की हत्या का सिलसिला। राजीव तांत्रिकों के जरिए इस मुसीबत से निजात पाने की कोशिश करता है लेकिन भूतनी तांत्रिकों को ही उडा देती है।
टाइम्स ऑफ इंडिया में निखत काजमी ठीक लिखते हैं कि जिसने फूंक न देखी हो उसे पता ही नहीं चलेगा कि मधु कौन और सुदीप के परिवार की खून की प्यासी क्यों है। हिंदुस्तान में विशाल ठाकुर लिखते हैं कि मिलिंद दूसरे संस्करण में उतनी मुस्तैदी नहीं बरत सके और उन्होंने कहानी शुरू करने के चक्कर में ही फिल्म को इंटरवल तक लटकाए रखा। नभाटा में चंद्रमोहन शर्मा ने लिखा है कि काश,पब्लिसिटी की बजाए स्क्रिप्ट पर ध्यान दिया गया होता। उनके अनुसार,खासकर क्लाइमेक्स इतना लंबा है कि दर्शक उकताने लगता है।
विशाल ठाकुर को सुदीप के साथ अमृता की केमिस्ट्री जमी है। उधर,दैनिक भास्कर में राजेश यादव और मेल टुडे में विनायक चक्रवर्ती के अनुसार,यह फिल्म केवल बाल कलाकार एहसास चानना के अभिनय के लिए देखी जा सकती है। । मगर नभाटा में चंद्रमोहन शर्मा लिखते हैं कि पिछली बार डराने में लगी बेबी एहसास चानना इस बार खुद डरती है। उन्हें अमृता खानविलकर का रोल पसंद आया है। निखत काजमी को लगा है कि तमाम कोशिश के बावजूद सुदीप रण जितना प्रभावित नहीं करते।
विनायक चक्रवर्ती लिखते हैं कि कैमरा वर्क ऐसा है मानो कैमरामैन नशे में हो। वे कहते हैं कि विश्वास नहीं होता कि ये उसी रामगोपाल वर्मा के बैनर की फिल्म है जिसने 1993 में रात बनाई थी जिसे बॉलीवुड की सबसे अच्छी हॉरर फिल्म माना जा सकता है।
अगर आपने फूंक और अज्ञात देखी हो,तो आप आसानी से समझ सकते हैं कि रामगोपाल वर्मा का डराने का फंडा क्या होता है। यह फंडा है तेज़ साउंड इफेक्ट का और अजीबोगरीब चेहरे को अचानक क्लोजअप में दिखाने का। ऐसी फिल्मों में कहानी से ज्यादा हॉरर पक्ष पर जोर दिया जाता है। मगर दैनिक जागरण में अजय ब्रह्मात्मज ने साफ लिखा है कि कहानी में घटनाएं रहेंगी, तभी तकनीक से उन्हें खौफनाक बनाया जा सकेगा। उन्हें यह फिल्म एक स्टार के बराबर लगी है। रिपीट कैमरा एंगल और सीक्वल जैसा दम न होने के कारण हिंदुस्तान ने इसे सुस्त श्रेणी में रखा है जिसे डेढ स्टार के बराबर माना जा सकता है। दैनिक भास्कर में राजेश यादव लिखते हैं कि हॉरर फिल्म का दर्शक आत्मा और मनुष्य का संघर्ष ढूंढता है लेकिन फूंक-2 न सिर्फ निराश करती है बल्कि एक दो बार तो साउंड इफेक्ट का प्रभाव डराने की बजाए हंसने पर मजबूर कर देता है। उनकी ओर से फिल्म को मिले दो स्टार। विनायक चक्रवर्ती लिखते हैं कि फूंक में डराने की कोशिश की गई थी मगर फूंक-2 में वह कोशिश भी कहीं नहीं दिखती। लिहाजा उन्होंने भी फिल्म को दिए दो स्टार। इंडियन एक्सप्रेस में शुभ्रा शर्मा को शक है कि कुछेक दृश्य एकाध जापानी फिल्मों की नकल हैं। उन्होंने बच्चों को इस फिल्म से दूर रखने की हिदायत देते हुए इसे दो स्टार दिए हैं। चंद्रमोहन शर्मा लिखते हैं कि अगर भूत देखकर हंसने का इरादा हो,तभी यह फिल्म देखिए। उनकी ओर से फिल्म को ढाई स्टार। निखत काजमी ने इसे ओरिजिनल फूंक से बेहतर बताते हुए ढाई स्टार दिया है। एशियन एज ने चुटकी ली है कि इस फिल्म की हर भूतनी को बालकनी का झूला प्रिय है। अखबार ने ध्यान दिलाया है कि यह वही फिल्म है जिसे हॉल में अकेले देखने पर रामगोपाल वर्मा ने 5 लाख रूपए की ईनाम देने की घोषणा की थी। अगर वे अपनी शर्त पर कायम रह सकें,तो अगले कई हफ्तों तक उन्हें चेक साईन करने से फुरसत नहीं मिलेगी। फिर भी,एशियन एज ने इस फिल्म को अधिकतम 3 स्टार दिए हैं। इस बीच खबर आई है कि रामगोपाल वर्मा फूंक-2 को अकेले देखने की हिम्मत जुटाने वाले हितेश शर्मा को अपनी फूंक-3 में रोल देने जा रहे हैं। यानी,इंतजार करिए फूंक के एक और सीक्वल का ! निखत काजमी ने कहा है कि बॉलीवुड की हॉरर फिल्मों का स्तर ऊपर उठाने की ज़रूरत है। क्या रामगोपाल वर्मा सुन रहे हैं?
Saturday, April 17, 2010
पाठशालाःकुछ भी सीखने को नहीं
काफी प्रोमोशन के बाद आखिरकार शाहिद की पाठशाला रिलीज हो गई । 129 मिनट की इस फिल्म में उनके साथ हैं आयशा टाकिया,नाना पाटेकर,अंजन श्रीवास्तव,सौरभ शुक्ला और सुष्मिता मुखर्जी,स्वीनी खेरा,द्विज यादव। निर्देशन है मिलिन्द उके का और गीत-संगीत हनीफ शेख का। लेखन व पटकथा अहमद खान का है। नाम के अनुरूप ही सेंसर सर्टिफिकेट मिला है-यू।
फिल्म में हैं सरस्वती विद्या मंदिर के प्रिंसिपल आदित्य सहाय ( नाना पाटेकर ) । फर्स्ट डिवीजनर थे,चाहते तो डाक्टरी,इंजीनियरी की लाईन चुन सकते थे मगर चुनी शिक्षा की लाइन ताकि देश की भावी पीढ़ी का भविष्य संवार सकें। शादी भी यह सोचकर नहीं की कि कहीं परिवार के कारण स्कूल के छात्रों से उनकी दूरियां न बढ़ जाएं। लेकिन बदलते समय के साथ,स्कूल प्रबंधन और ट्रस्टी ने स्कूल को अब मुनाफा कमाने का ज़रिया बना लेते हैं। स्कूल परिसर में चैनलों और फिल्मों की शूटिंग होने लगी और छात्रों को पढाई छोड़ इन शोज में भीड़ का हिस्सा बनना पड़ता है। ज्यादा कमाई के चक्कर में हॉस्टल में भोजन शुल्क दोगुना कर दिया जाता है और फीस भी काफी बढ़ा दी गई है। फिर,जैसा कि प्रायः फिल्मों में होता है,युवा चेहरे की एंट्री के साथ ही स्थितियां बदलने लगती हैं। यह युवा चेहरा है स्कूल के अंग्रेजी टीचर राहुल प्रकाश ( शाहिद कपूर ) का जो हॉस्टल प्रभारी अंजलि माथुर ( आयशा टाकिया ) और सीनियर स्पोर्ट्स टीचर चौहान ( सुशांत सिंह ) छात्रों को साथ लेकर प्रबंधन के खिलाफ आंदोलन शुरू करता हैं।
इसमें शक नहीं कि देश में शिक्षा और बच्चों को केंद्र में रखकर फिल्म बनाने की सख्त आवश्यकता है। आज बच्चों का बचपन गुम हो रहा है और खुद माता-पिता भी चाहते हैं कि उनके बच्चे रॉकस्टार बन जाएं तो अच्छा। पाठशाला इन्हीं मुद्दों को उठाती है। मोहब्बतें,तारे ज़मीं पर और थ्री इडियट्स से इतर, इस फिल्म में शिक्षा के नाम पर पब्लिक स्कूलों में चल रही लूटखसोट के अलावा स्कूल मैनेजमेंट के सामने असहाय प्रिंसिपल को दिखाया गया है।
एक केंद्रीय विषय के रूप में,बॉलीवुड में यह विषय शायद पहली बार उठाया गया है। मगर नेक इरादा ही काफी नहीं होता। ऐसे महत्वपूर्ण विषय के लिए जितनी कसी पटकथा होनी चाहिए,उसका यहां सख्त अभाव है। एशियन एज में सुपर्णा शर्मा लिखती हैं कि इसकी कहानी इतनी ढीली है और आगे के दृश्यों का पूर्वानुमान लगाना इतना सहज है कि मुद्दे की गंभीरता कमज़ोर पड़ जाती है। मेल टुडे में विनायक चक्रवर्ती लिखते हैं कि इस फिल्म की पटकथा औंधे मुंह गिरती है-खासकर मध्यांतर के बाद। हिंदुस्तान में विशाल ठाकुर लिखते हैं कि फिल्म पर मुद्दा हावी रहा और कहानी कहीं है ही नहीं। नई दुनिया में मृत्युंजय प्रभाकर लिखते हैं कि पाठशाला इस विषय को संवेदनशील तरीके से सामने लाती है कि छात्रों को दरअसल एक स्कूल से क्या चाहिए। फिल्म अपने विषय की गंभीरता के कारण लोगों को जो़ड़ती तो है लेकिन बहुत देर तक बांध नहीं पाती। एक समय के बाद पटकथा और निर्देशक का फोकस खो जाता है। फिल्म को सारे पात्र अपनी भूमिका से आगे ब़ढ़ाते हैं चाहे वह शिक्षक हों या छात्र लेकिन पटकथा की कमजोरी और फिल्म को समेटने की हड़बड़ी इसे बेमज़ा कर देती है।
मृत्यंजय प्रभाकर ने लिखा है कि शाहिद के काम में विश्वसनीयता है लेकिन उनका चॉकलेटी चेहरा आ़ड़े आता है। ऊपर से फिल्म में उन्हें जिस तरह के वस्त्र पहनाए गए हैं वह किसी मजनू के ज्यादा और स्कूल टीचर के कम लगते हैं। नवभारत टाइम्स में चंद्रमोहन शर्मा को शाहिद का रोल ठीक लगा है। उनके हिसाब से,नाना अपनी गुस्सैल इमेज से बाहर नहीं निकल पाए मगर आएशा और सुशांत कुछ प्रभावित करते हैं। उनके अलावा,सुपर्णा शर्मा ने भी मास्टर द्विज यादव,अविका गौड़ और मास्टर अली हाजी के रोल को पसंद किया है। हिंदुस्तान में विशाल ठाकुर का कहना है कि शाहिद की बॉडी लैंग्वेज टीचर की लगती ही नहीं है। उनके हिसाब से,आयशा टाकिया फ्रेश लगी हैं और सौरभ शुक्ला एकमात्र ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने शुरू से अंत तक बांधे रखा। और नाना पाटेकर जैसी स्टारकास्ट के बावजूद इन दोनों कलाकारों का एक भी दृश्य ऐसा नहीं है जिसे याद रखा जा सके। मगर दैनिक जागरण में अजय ब्रह्मात्मज ने लिखा है कि सारे कलाकार ढीले-ढाले और थके-थके से हैं और यह फिल्म इनके निकृष्ट परफार्मेंस के लिए याद रखी जा सकती है।
फिल्म के दो गाने ऐ खुदा और कैलाश खेर का गाया तेरी मर्जी जाने खुदा अच्छे लगते हैं।
मृत्युंजय प्रभाकर लिखते हैं कि एक दिन की छात्र ह़ड़ताल से सरकार को हिलते हुए देखना अविश्वसनीय लगता है। ऊपर से मुद्दे को उठाने के लिए मीडिया का इस्तेमाल भी दूर की कौ़ड़ी है। हम सभी जानते हैं कि यह वही मीडिया है जिसे भूत-प्रेत और दूसरे मनोरंजन वाले खबरों में ज्यादा भरोसा है। लंबे बोझिल दृश्यों और कई अन्य भटकावों के कारण विशाल ठाकुर ने इसे पकाऊ और सुस्त के बीच रखा है जिसे एक स्टार के बराबर माना जा सकता है। दैनिक जागरण ने भी इसे एक स्टार दिया है। स्कूल में टीवी चैनलों वाले दृश्यों पर हिंदुस्तान टाइम्स में मयंक शेखर लिखते हैं हमारे फिल्म निर्माता दिन भर टीवी ही देखकर बिताते हैं ताकि कोई प्लॉट निकाल सकें इसलिए फिल्म में भी टीवी चैनल का मोह छोड़ नहीं पाए। वे व्यंग्य करते हैं कि यह फिल्म कपिल सिब्बल जी से ज्यादा अंबिका सोनी जी को पसंद आयेगी। उनकी ओर से भी इस फिल्म को मिले केवल एक स्टार। इंडियन एक्सप्रेस में शुभ्रा गुप्ता ने कथानक का पूर्वानुमान सहज होने के कारण फिल्म को दो स्टार दिए हैं। विनायक चक्रवर्ती कहते हैं कि यदि पेशेवर तरीके से हैंडल किया गया होता तो पाठशाला बनाने का ख्याल बुरा नहीं था। उन्होंने इसे ढाई स्टार के दिए हैं। सुपर्णा शर्मा लिखती हैं कि इस फिल्म में बुद्धि पर भावना को तरजीह दी गई है। उन्होंने उस दृश्य का हवाला देकर,फीस के अभाव में एक बच्चे को दिन भर धूप में खड़ा रहने की सज़ा दी जाती है और शाहिद उसकी फीस भरते हैं,बहुत मार्मिक बताते हुए इसे तीन स्टार दिया है। नभाटा ने भी,मौजूदा शिक्षा व्यवस्था की खामियों, पब्लिक स्कूलों द्वारा की जा रही लूट-खसोट तथा शिक्षकों के मूकदर्शक बने रहने की असरदार प्रस्तुति के आधार पर इसे तीन स्टार दिए हैं।
Friday, April 16, 2010
ओशो को फिल्माने की चुनौती
भारत पर विदेशियों ने बहुत काम किया है और उनमें से कई काम अतुलनीय महत्व के हैं। गांधी फिल्म बनाकर रिचर्ड एटनबरो ने विश्व सिनेमा को जो दिया,वह किसी से छिपा नहीं है। अब खबर आ रही है कि फिर एक विदेशी निर्माता-निर्देशक एक भारतीय हस्ती पर फिल्म बनाने की तैयारी कर रहा है । अबकी बारी है ओशो की जिनकी भूमिका के लिए कमल हासन और संजय दत्त जैसे किसी अभिनेता को लेने की योजना बनाई जा रही है। यह प्रोजेक्ट है इटली के निर्देशक एंटोनियो लाक्शीन सुकामेली का जो भारत और दूसरे देशों की प्रोडक्शन कंपनियों से इस बारे में बातचीत कर रहे हैं। श्री सुकामेली 1978 में भारत आगमन के बाद ओशो के शिष्य बन गए थे । उन्होंने इस प्रोजेक्ट पर कोई पाँच साल पहले ही काम शुरू कर दिया था। इन दिनों वे भारत में हैं और इस परियोजना के बारे में बातचीत कर रहे हैं। शूटिंग अगले साल शुरू होने की संभावना है। जाहिर है, फिल्म का एक हिस्सा भारत में भी शूट किया जाएगा।
सुकामेली ब्लू लाइन तथा जोरबा-II बुद्धा जैसी गंभीर और दार्शनिक फिल्में बना चुके हैं। उन्होंने अपने नए प्रोजेक्ट के लिए कबीरबेदी और इरफान खान से भी बात की है। श्री सुकामेली क्लारा की भूमिका के लिए किसी हॉलीवुड अभिनेत्री को लेना चाहते हैं। फिल्म में दिखाया जाएगा कि कैसे ओशो के जीवन और खासकर अमरीका से उन्हें निकाले जाने के मामले की पड़ताल के लिए क्लारा भारत आईं मगर सुरक्षा प्रमुख सत्यम के प्रेमजाल में फंस गईं ।
इस खबर के साथ एक सूचना यह भी आ रही है कि ओशो के जीवन पर चंडीगढ की एक भारतीय कंपनी मीडिया वन वेंचर ने गुरु ऑफ सेक्स नामक फिल्म बनाने की घोषणा की थी जिसमें सर बेन किंग्सले को लीड रोल में लिया जाना था। वह फिल्म तो नहीं बनी,अलबत्ता इस खबर से इतना तो पता चलता ही है कि जब भारतीय फिल्मकार ओशो को फिल्म का विषय बनाना चाहता है तो उसके मन में ओशो की छवि क्या होती है । यह छवि है सेक्स गुरु की। जाहिर है,सेक्स पर सार्वजनिक रूप से बात करना अपने यहां निषिद्ध है। सेक्स समझिए और कीजिए खूब मगर बोलिए चूं भी नहीं। हम देख ही रहे हैं कि आज सभी तथाकथित धर्माचार्य राम-नाम की रट लगाकर किस कदर जनता का मन बहलाने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं,मगर बुरे ग्रह हैं कि पीछा छोड़ ही नहीं रहे। रह-रह कर आश्रम में तरह-तरह के यौनाचार की ख़बरें आती ही रहती हैं। पोप तक परेशान और क्षमायाचना की मुद्रा में हैं।
यह भी ध्यान दिला दें कुछ माह पूर्व,ओशो के शिष्य रहे विनोद खन्ना ने भी ओशो पर एक किताब लिखने की घोषणा की थी। जब उनसे इस बाबत पूछा गया,तो उन्होंने कहा था,"ओशो केवल एक व्यक्ति नहीं हैं,वे एक बहुत बड़ी घटना हैं। किसी एक किताब में उन्हें संपूर्णता से समेटना संभव नहीं है।" ओशो के निकट रहा व्यक्ति ऐसा सोचता ही है। इसलिए,यह अच्छी बात है कि ओशो पर इस बार फिल्म बनाने की पहल भी ओशो के एक शिष्य ने ही की है। श्री सुकालेमी ने अब तक जैसी फिल्मे बनाई हैं,उससे उम्मीद बंधती है कि वे विवादित प्रसंगों की सनसनी पेश करने की बजाए उन देसनाओं पर ज़ोर देंगे जिन पर ओशो से पहले किसी ने वैसी दृष्टि से विचार नहीं किया था। यह एक सच्चाई है कि सार्वजनिक स्वीकृति से हिचक के बावजूद,आज ओशो की पुस्तकें दुनिया की सबसे ज्यादा पढी गई पुस्तकें हैं। गंभीरतम दर्शन की सरलतम अभिव्यक्ति यदि कहीं देखनी हो,तो वे ओशो की पुस्तकों मे ही देखी जा सकती हैं। यदि भाव और संदेश का यह प्रवाह सुकालेमी अपनी फिल्म में बनाए रख सके,तो मानकर चलिए कि वे सफलता के चरम पर होंगे। ओशो के प्रशंसक करोड़ों की संख्या में हैं और उनकी उम्मीदों पर ख़रा उतरना स्वयं सुकालेमी के करियर के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी। ओशो बेहद महत्वपूर्ण विषय हैं और उन पर बनी कोई भी फिल्म दुनिया भर के सिने प्रेमियों की जिज्ञासा का विषय होगी। फिल्म अच्छी बनी तो उन्हें विश्व सिनेमा में अमर बना सकती है। अन्यथा,दूसरे सिरे के खतरे का अनुमान आप कर सकते हैं।
(सबसे ऊपर की तस्वीर श्री सुकामेली की जोरबा इल बुद्धा की कास्टिंग से ली गई है। अंतिम तस्वीर क्लारा नामक उस महिला की है जिसका जिक्र इस पोस्ट में किया गया है। कमल हासन की तस्वीर टाइम्स ऑफ इंडिया से साभार।)
(सबसे ऊपर की तस्वीर श्री सुकामेली की जोरबा इल बुद्धा की कास्टिंग से ली गई है। अंतिम तस्वीर क्लारा नामक उस महिला की है जिसका जिक्र इस पोस्ट में किया गया है। कमल हासन की तस्वीर टाइम्स ऑफ इंडिया से साभार।)
"मुझे बारिश में भीगना अच्छा लगता है,क्योंकि तब कोई मेरे आंसू नहीं देख सकता": चार्ली चैपलिन
1894 में,रंगरूटों के मनोरंजन के लिए लंदन में रखे गए एक कार्यक्रम में गायिका-अभिनेत्री लिली हर्ले की आवाज एकदम से बैठ गई। फौजी दर्शक उन पर फब्तियां कसने लगे। तब हर्ले उदास चेहरे और अवसाद लिए बेटे के पास पहुंचीं। उधर ,थिएटर मैनेजर को समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। अचानक , मैनेजर ने हर्ले के बेटे को स्टेज पर भेज दिया। उस बच्चे ने स्टेज पर गाना शुरू किया। दर्शकों का इतना मनोरंजन हुआ कि उन्होंने खूब पैसे फेंके। कार्यक्रम की समाप्ति पर जब मां बेटे को लेने स्टेज पर आईं,तो दर्शकों ने जोरदार तालियों से उनका स्वागत किया। यह लिली हर्ले का आखिरी और उनके बेटे चार्ली स्पेन्सर चैपलिन का पहला स्टेज शो था। तब चैपलिन महज पाँच साल के थे। आज उन्हीं चार्ली चैपलिन का जन्म दिन है।
अ वूमन ऑफ पेरिस,द गोल्ड रश,द सर्कस,सिटी लाइट्स,मॉडर्न टाइम्स,लाइम लाइट औरअ किंग इन न्यूयार्क उनकी कुछ जबर्दस्त चर्चित फिल्में हैं। द ग्रेड डिक्टेटर(1940) उनकी पहली फिल्म है जिसमें डायलॉग थे। अ काउंटेस फ्रॉम हांगकांग उनकी आखिरी फिल्म है। द ट्रैम्प की उनकी भूमिका सबसे ज्यादा चर्चित मानी जाती है। चैपलिन Monsieur Verdoux को अपनी सबसे पसंदीदा फिल्म बताते थे मगर प्रशंसक द किड को उनकी सबसे परफेक्ट और सबसे पर्सनल फिल्म मानते हैं। द सर्कस के लिए चैपलिन को पहला एकेडमी अवार्ड मिला। गांधी जी ने चैपलिन से एक मुलाकात में कहा था कि बढता मशीनीकरण एक बड़ी समस्या है। कहते हैं कि चैपलिन की फिल्म मॉडर्न टाइम्स,गांधीजी के इसी सिद्धांत से प्रभावित थी। द गोल्ड रश और द सर्कस उनकी सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्में हैं।
अमूमन,स्क्रिप्ट के पूरा होने के बाद शूटिंग शुरू की जाती है मगर चैपलिन ने ऐसा कभी नहीं किया। उनके विचार अकसर बदलते रहते। नतीजा-रीशूट पर रीशूट। कई दृश्य सौ-सौ बार री-शूट किये गए। यही कारण है कि चैपलिन की फिल्में तैयार होने में वर्षों लेती थीं और उनके अन्य समकालीनों की तुलना में हम चैपलिन के फिल्मों की संख्या काफी कम पाते हैं।
लेखन,संगीत और खेल से भी चैपलिन को बेहद लगाव था। उन्होंने कम से कम चार किताबें “My Trip Abroad”, “A Comedian Sees the World”, “My Autobiography” और “My Life in Pictures”लिखी हैं। बिना किसी प्रशिक्षण के,कई प्रकार के वाद्य वे समान कुशलता से बजा सकते थे। “Sing a Song”; “With You Dear in Bombay”; “There’s Always One You Can’t Forget”, “Smile”, “Eternally” और “You are My Song” उनके कुछ बहुचर्चित गाने हैं। उनकी तमाम फिल्मों के साउंडट्रैक भी खुद उन्हीं ने तैयार किए थे। वे अकेले ऐसे कॉमेडियन हैं जिन्होंने अपनी सभी फिल्मों का निर्माण,लेखन,अभिनय और निर्देशन तो खुद किया ही,पैसों का बंदोवस्त भी स्वयं वही करते रहे।
चैपलिन की प्रतिभा सार्वकालिक महत्व की है। उनकी लोकप्रियता को भुनाने की अनेक कोशिशें की गई हैं-विज्ञापनों से लेकर एनीमेशन तक में। संभावना बनी है कि अब आप चार्ली चैपलिन को एनिमेशन अवतार में टेलीविजन पर देख सकें। भारतीय एनिमेशन और स्पेशल इफेक्ट्स कंपनी डीक्यू एंटरटेनमेंट पहली बार एक महान कॉमेडी शो को एनिमेशन फॉर्मेट में पेश करने जा रहा है। डीक्यू एंटरटेनमेंट ने फ्रांसीसी कंपनी मेथड एनिमेशन और एमके2 के साथ मिल कर चैपलिन घराने से चार्ली चैपलिन के एनिमेशन पुनर्निर्माण अधिकार खरीद लिए हैं।
तीन वर्ष पूर्व बिहार में भी, भोजपुरी फिल्म अभिनेता परवीन सिंह सिसोदिया ‘चार्ली चैपलिन’ का भोजपुरी संस्करण बनाने की तैयारी की थी। कहा गया था कि यह भोजपुरी संस्करण बिहार और उत्तर प्रदेश की ग्रामीण पृष्ठभूमि पर तैयार होगा। गौरतलब है कि सिसोदिया ने भोजपुरी फिल्म ‘हम हईं गंवार’ में चार्ली चैपलिन का रोल किया था। उस प्रोजेक्ट का क्या हुआ,पता नहीं। इस वर्ष 9 जनवरी को हरियाणा के यमुनानगर में हुए अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में भी चैपलिन की द ग्रेड डिक्टेटर दिखाई गई थी।
चैपलिन मूक फिल्मों के युग के सबसे रचनात्मक और प्रभावी व्यक्तित्व थे। राजकपूर उनके प्रशंसक थे और उनके अभिनय पर चैपलिन का इतना असर था कि उन्हें भारतीय सिनेमा का चार्ली चैपलिन भी कहा जाता है। जॉनी वाकर भी उन्हें अपना आदर्श मानते थे। बॉलीवुड में,चौथे दशक के हास्य अभिनेता चार्ली ने अपना नाम चैपलिन से प्रभावित होकर ही रखा था; उनका असली नाम नूर मोहम्मद था।
मगर,अक्सर, बाहर से हमेशा हंसते-हंसाते रहने वालों का अंतर्मन गहरी उदासी लिए होता है। महमूद के करोड़ों प्रशंसक होंगे मगर स्वयं महमूद अपने अंतिम दिनों में इतने अकेले और उदास थे कि एक चैनल पर इंटरव्यू के दौरान ही फूट-फूट कर रोने लगे। प्रकृति की अजीब विडम्बना है कि अधिकतर हास्य कलाकारों का जीवन कई तरह संघर्षों और दुखों से भरा रहा है। चार्ली चैपलिन भी इसके अपवाद नहीं थे। जब वे महज सात साल के थे, तभी उनके माता-पिता का तलाक हो गया। इसके बाद उनकी मां का संतुलन बिगड़ गया। अंतत: उन्हें मनोरोगियों के अस्पताल में भर्ती कराना पडा । मां के देहान्त के बाद चैपलिन को कुछ वक्त अनाथालय तक में बिताना पडा। लंबे समय तक वे अपने शराबी पिता(यद्यपि वे बेहद प्रतिभाशाली गायक और अभिनेता थे) और सौतेली मां के दुर्व्यवहार को झेलते रहे। चैपलिन कहते थे कि हंसी के बिना बीता कोई भी दिन व्यर्थ है। मगर स्वयं चैपलिन भी,सफलता के चरम पर पहुंचने के बावजूद, ,अपने बचपन और मां को याद कर अक्सर उदास हो जाते थे।
कहते हैं कि चैपलिन अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जिसने अपनी कला से इतने सारे लोगों का मनोरंजन किया,जब उन्हें इसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत थी । वे भावुक हृदय थे। उन्हें अपने कुत्ते मट से बेहद प्यार था। एकबार जब वे विदेश के म्यूजिकल टूर पर गए,तो मट ने खाना-पीना छोड़ दिया और अंततः उसकी मौत हो गई। चार्ली ने उसे अपने स्टूडियो में ही दफनाया और शिलालेश पर लिखाःदिल टूटने से मौत। कहते हैं कि एक बार सड़क के एक कुत्ते की कातरता को देखकर चैपलिन इस कदर भावुक हुए कि उन्होंने उसे होटल ले जाकर खिलाया। बिना शब्दों के भी बहुत कुछ समझने का हुनर उनमें था और शायद,मूक अभिनय से बहुत कुछ कहने की प्रेरणा भी उन्हें ऐसी ही घटनाओं से मिली हो।
जार्ज बर्नाड शॉ ने उन्हें फिल्म उद्योग का एकमात्र जीनियस कहा था।1999में,अमरीकन फिल्म इंस्टीट्यूट ने चैपलिन को दुनिया के सार्वकालिक 10 सर्वश्रेष्ठ पुरूष फिल्मी हस्तियों में से एक माना है।चैपलिन की आठ संतानें हैं। मनोरंजन उद्योग में 75 वर्षों तक सक्रिय रहने के बाद,1977 में क्रिसमस के दिन, चैपलिन दुनिया को अलविदा कह गये।
(चित्र विवरण- पहली तस्वीर फिल्म द ग्रेट डिक्टेटर से। दूसरी तस्वीर चैपलिन के म्यूजियम की है। तीसरी तस्वीर में चैपलिन अपनी पत्नी ऊना ओ नील के साथ हैं-1972 में एकेडमी अवार्ड के दौरान)
अमूमन,स्क्रिप्ट के पूरा होने के बाद शूटिंग शुरू की जाती है मगर चैपलिन ने ऐसा कभी नहीं किया। उनके विचार अकसर बदलते रहते। नतीजा-रीशूट पर रीशूट। कई दृश्य सौ-सौ बार री-शूट किये गए। यही कारण है कि चैपलिन की फिल्में तैयार होने में वर्षों लेती थीं और उनके अन्य समकालीनों की तुलना में हम चैपलिन के फिल्मों की संख्या काफी कम पाते हैं।
लेखन,संगीत और खेल से भी चैपलिन को बेहद लगाव था। उन्होंने कम से कम चार किताबें “My Trip Abroad”, “A Comedian Sees the World”, “My Autobiography” और “My Life in Pictures”लिखी हैं। बिना किसी प्रशिक्षण के,कई प्रकार के वाद्य वे समान कुशलता से बजा सकते थे। “Sing a Song”; “With You Dear in Bombay”; “There’s Always One You Can’t Forget”, “Smile”, “Eternally” और “You are My Song” उनके कुछ बहुचर्चित गाने हैं। उनकी तमाम फिल्मों के साउंडट्रैक भी खुद उन्हीं ने तैयार किए थे। वे अकेले ऐसे कॉमेडियन हैं जिन्होंने अपनी सभी फिल्मों का निर्माण,लेखन,अभिनय और निर्देशन तो खुद किया ही,पैसों का बंदोवस्त भी स्वयं वही करते रहे।
चैपलिन की प्रतिभा सार्वकालिक महत्व की है। उनकी लोकप्रियता को भुनाने की अनेक कोशिशें की गई हैं-विज्ञापनों से लेकर एनीमेशन तक में। संभावना बनी है कि अब आप चार्ली चैपलिन को एनिमेशन अवतार में टेलीविजन पर देख सकें। भारतीय एनिमेशन और स्पेशल इफेक्ट्स कंपनी डीक्यू एंटरटेनमेंट पहली बार एक महान कॉमेडी शो को एनिमेशन फॉर्मेट में पेश करने जा रहा है। डीक्यू एंटरटेनमेंट ने फ्रांसीसी कंपनी मेथड एनिमेशन और एमके2 के साथ मिल कर चैपलिन घराने से चार्ली चैपलिन के एनिमेशन पुनर्निर्माण अधिकार खरीद लिए हैं।
तीन वर्ष पूर्व बिहार में भी, भोजपुरी फिल्म अभिनेता परवीन सिंह सिसोदिया ‘चार्ली चैपलिन’ का भोजपुरी संस्करण बनाने की तैयारी की थी। कहा गया था कि यह भोजपुरी संस्करण बिहार और उत्तर प्रदेश की ग्रामीण पृष्ठभूमि पर तैयार होगा। गौरतलब है कि सिसोदिया ने भोजपुरी फिल्म ‘हम हईं गंवार’ में चार्ली चैपलिन का रोल किया था। उस प्रोजेक्ट का क्या हुआ,पता नहीं। इस वर्ष 9 जनवरी को हरियाणा के यमुनानगर में हुए अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में भी चैपलिन की द ग्रेड डिक्टेटर दिखाई गई थी।
चैपलिन मूक फिल्मों के युग के सबसे रचनात्मक और प्रभावी व्यक्तित्व थे। राजकपूर उनके प्रशंसक थे और उनके अभिनय पर चैपलिन का इतना असर था कि उन्हें भारतीय सिनेमा का चार्ली चैपलिन भी कहा जाता है। जॉनी वाकर भी उन्हें अपना आदर्श मानते थे। बॉलीवुड में,चौथे दशक के हास्य अभिनेता चार्ली ने अपना नाम चैपलिन से प्रभावित होकर ही रखा था; उनका असली नाम नूर मोहम्मद था।
मगर,अक्सर, बाहर से हमेशा हंसते-हंसाते रहने वालों का अंतर्मन गहरी उदासी लिए होता है। महमूद के करोड़ों प्रशंसक होंगे मगर स्वयं महमूद अपने अंतिम दिनों में इतने अकेले और उदास थे कि एक चैनल पर इंटरव्यू के दौरान ही फूट-फूट कर रोने लगे। प्रकृति की अजीब विडम्बना है कि अधिकतर हास्य कलाकारों का जीवन कई तरह संघर्षों और दुखों से भरा रहा है। चार्ली चैपलिन भी इसके अपवाद नहीं थे। जब वे महज सात साल के थे, तभी उनके माता-पिता का तलाक हो गया। इसके बाद उनकी मां का संतुलन बिगड़ गया। अंतत: उन्हें मनोरोगियों के अस्पताल में भर्ती कराना पडा । मां के देहान्त के बाद चैपलिन को कुछ वक्त अनाथालय तक में बिताना पडा। लंबे समय तक वे अपने शराबी पिता(यद्यपि वे बेहद प्रतिभाशाली गायक और अभिनेता थे) और सौतेली मां के दुर्व्यवहार को झेलते रहे। चैपलिन कहते थे कि हंसी के बिना बीता कोई भी दिन व्यर्थ है। मगर स्वयं चैपलिन भी,सफलता के चरम पर पहुंचने के बावजूद, ,अपने बचपन और मां को याद कर अक्सर उदास हो जाते थे।
कहते हैं कि चैपलिन अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जिसने अपनी कला से इतने सारे लोगों का मनोरंजन किया,जब उन्हें इसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत थी । वे भावुक हृदय थे। उन्हें अपने कुत्ते मट से बेहद प्यार था। एकबार जब वे विदेश के म्यूजिकल टूर पर गए,तो मट ने खाना-पीना छोड़ दिया और अंततः उसकी मौत हो गई। चार्ली ने उसे अपने स्टूडियो में ही दफनाया और शिलालेश पर लिखाःदिल टूटने से मौत। कहते हैं कि एक बार सड़क के एक कुत्ते की कातरता को देखकर चैपलिन इस कदर भावुक हुए कि उन्होंने उसे होटल ले जाकर खिलाया। बिना शब्दों के भी बहुत कुछ समझने का हुनर उनमें था और शायद,मूक अभिनय से बहुत कुछ कहने की प्रेरणा भी उन्हें ऐसी ही घटनाओं से मिली हो।
जार्ज बर्नाड शॉ ने उन्हें फिल्म उद्योग का एकमात्र जीनियस कहा था।1999में,अमरीकन फिल्म इंस्टीट्यूट ने चैपलिन को दुनिया के सार्वकालिक 10 सर्वश्रेष्ठ पुरूष फिल्मी हस्तियों में से एक माना है।चैपलिन की आठ संतानें हैं। मनोरंजन उद्योग में 75 वर्षों तक सक्रिय रहने के बाद,1977 में क्रिसमस के दिन, चैपलिन दुनिया को अलविदा कह गये।
(चित्र विवरण- पहली तस्वीर फिल्म द ग्रेट डिक्टेटर से। दूसरी तस्वीर चैपलिन के म्यूजियम की है। तीसरी तस्वीर में चैपलिन अपनी पत्नी ऊना ओ नील के साथ हैं-1972 में एकेडमी अवार्ड के दौरान)
सिटी ऑफ गोल्ड
महेश मांजरेकर बेहद प्रतिभाशाली व्यक्तित्व हैं। कथा, पटकथा, निर्माण, निर्देशन और अभिनय सबके लिए उन्हें पुरस्कार मिल चुके हैं। वास्तव,अस्तित्व और विरुद्ध जैसी यथार्थवादी फिल्में बना चुके महेश सिटी ऑफ गोल्ड से, फिर से निर्देशन में लौट रहे हैं। उनकी यह फिल्म अस्सी के दशक में मुंबई के कपड़ा मिल मजदूरों की दयनीय दशा को दर्शकों के सामने रखेगी।
यह फिल्म 1982 में कपड़ा मिलों में हुई हड़ताल और उसके बाद मुकदमों के अंतहीन सिलसिले पर आधारित है। हड़ताल से तीन लाख से ज्यादा मजदूर प्रभावित हुए थे और उनके आठ लाख से ज्यादा परिजन आज भी उस घटना का दुष्परिणाम भुगत रहे हैं। जयंत पवार की स्क्रिप्ट पढने के बाद वे इतने व्यथित हैं कि उन्होंने कहा कि वे इसके अलावा वे कुछ और सोच ही नहीं पा रहे हैं। मांजरेकर स्वयं वडाला मे रहे हैं और उन्होंने इन मजदूरों के परिजनों की तकलीफों को बेहद करीब से देखा है।
महेश को नहीं लगता कि तीन दशक पुराने विषय के साथ आज के युवाओं को जोड़ना मुश्किल होगा। उन्हें विश्वास है कि जब जोधा-अकबर और नाजियों पर आधारित हॉलीवुड फिल्म से युवा जुड़ सकते हैं तो तीन दशक पुराने विषय के साथ क्यों नहीं।
खबर है कि कुरुक्षेत्र और वास्तव में आइटम नम्बर कर चुकीं कश्मीरा शाह की इस फिल्म में प्रमुख भूमिका में होंगी। सतीश कौशिक,सीमा विश्वास,करन पटेल,सिद्धार्थ जाधव,रीमा लागू,सचिन खेडेकर,चेतन हंसराज और शिवाजी सतम,अंकुश चौधरी,समीर धर्माधिकारी,अनुषा दांडेकर,वीना झमकार और शशांक शिंदे की भी इस फिल्म में महत्वपूर्ण भूमिका होगी।
बतौर निर्देशक महेश की पिछली फिल्म देह(2007) थी। उनका कहना है कि उन्होंने निर्देशन इसलिए छोड़ी कि वे नाच-गानों वाली मुंबईया फिल्मों का ग्रामर समझ नहीं पा रहे थे। पाठकों को ध्यान होगा कि महेश मांजरेकर की फिल्म दबंग की इन दिनों शूटिंग चल रही है जिसमें उनके साथ सलमान,ओमपुरी,डिम्पल,अनुपम खेर,विनोद खन्ना,अरबाज खान और माही गिल प्रमुख भूमिकाओं में हैं।
यह फिल्म 1982 में कपड़ा मिलों में हुई हड़ताल और उसके बाद मुकदमों के अंतहीन सिलसिले पर आधारित है। हड़ताल से तीन लाख से ज्यादा मजदूर प्रभावित हुए थे और उनके आठ लाख से ज्यादा परिजन आज भी उस घटना का दुष्परिणाम भुगत रहे हैं। जयंत पवार की स्क्रिप्ट पढने के बाद वे इतने व्यथित हैं कि उन्होंने कहा कि वे इसके अलावा वे कुछ और सोच ही नहीं पा रहे हैं। मांजरेकर स्वयं वडाला मे रहे हैं और उन्होंने इन मजदूरों के परिजनों की तकलीफों को बेहद करीब से देखा है।
महेश को नहीं लगता कि तीन दशक पुराने विषय के साथ आज के युवाओं को जोड़ना मुश्किल होगा। उन्हें विश्वास है कि जब जोधा-अकबर और नाजियों पर आधारित हॉलीवुड फिल्म से युवा जुड़ सकते हैं तो तीन दशक पुराने विषय के साथ क्यों नहीं।
खबर है कि कुरुक्षेत्र और वास्तव में आइटम नम्बर कर चुकीं कश्मीरा शाह की इस फिल्म में प्रमुख भूमिका में होंगी। सतीश कौशिक,सीमा विश्वास,करन पटेल,सिद्धार्थ जाधव,रीमा लागू,सचिन खेडेकर,चेतन हंसराज और शिवाजी सतम,अंकुश चौधरी,समीर धर्माधिकारी,अनुषा दांडेकर,वीना झमकार और शशांक शिंदे की भी इस फिल्म में महत्वपूर्ण भूमिका होगी।
बतौर निर्देशक महेश की पिछली फिल्म देह(2007) थी। उनका कहना है कि उन्होंने निर्देशन इसलिए छोड़ी कि वे नाच-गानों वाली मुंबईया फिल्मों का ग्रामर समझ नहीं पा रहे थे। पाठकों को ध्यान होगा कि महेश मांजरेकर की फिल्म दबंग की इन दिनों शूटिंग चल रही है जिसमें उनके साथ सलमान,ओमपुरी,डिम्पल,अनुपम खेर,विनोद खन्ना,अरबाज खान और माही गिल प्रमुख भूमिकाओं में हैं।
दिल्ली में आज से बंगलादेशी फिल्म समारोह
आज से दिल्ली में बंगलादेशी फिल्मों का समारोह शुरू हो रहा है। भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के फिल्मोत्सव निदेशालय द्वारा भारत स्थित बंगलादेश उच्चायोग के सौजन्य से आयोजित इस तीन दिवसीय समारोह में कुल छह फिल्में दिखाई जानी हैं। ये हैं- ऑनटोर जत्रा,जॉयजत्रा,बैचलर,रूपकथार गोल्पो,मतिर मोइना और अहा। तीन दिन के इस समारोह का उद्घाटन कर रहे हैं केंद्रीय सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री चौधरी मोहन जतुआ। यह आयोजन रखा गया है सिरीफोर्ट सभागार-II में जिसमें आज शाम सात बजे, सुश्री अयूपी करीम के निर्देशन में बनी 116 मिनट की फिल्म आयना दिखाई जाएगी। शनिवार और रविवार की फिल्मों के प्रदर्शन का समय कृपया विज्ञापन से नोट करें। प्रवेश गेट नम्बर 4 से और निःशुल्क है। सभी फिल्मों के सब-टाइटल्स अँग्रेजी में दिए गए हैं।
Thursday, April 15, 2010
आज के करण-अर्जुन में टीनू वर्मा
स्टंटमैन,निर्माता,निर्देशक,लेखक अउर अभिनेता टीनू वर्मा के रउआ 23 अप्रैल से रिलीज हो रहल आज के करण-अर्जुन में देख सकब। ई टीनू वर्मा उहे बाड़ें जवन के इहां लोगन मेला अउर मां तुझे सलाम में खलनायक के रूप में देखले रहीं। गदर,कहो न प्यार है अउर वीर के खतरनाक एक्शन सीन उनुकरे निर्देशित कइल रहे। उहे टीनू वर्मा के रउआ आज के करण-अर्जुन में खलनायक के रोल में देखब। अभय सिन्हा अउर टी.पी.अग्रवाल निर्मित एह फिलिम में टीनू गांव के ठाकुर बनल बाड़ें अउर आपन बहिन के परिवार के तबाह कर ताड़ें। बड़ा होके भगिना सब कइसे मामा से बदला लेवेला,इहे एह फिलिम के मुख्य कथानक ह। एह ब्लॉग पर हम रउआ के सूचित कइले रहलीं कि एह फिलिम में सीनियर अउर जूनियर निरहुआ पहिली बेर एक साथ नज़र अइहें। कैपिटल फिल्म्स प्राइवेट लिमिटेड अउर यशी फिल्म्स प्राइवेट लिमिटेड के बैनर तले बनल एह फिलिम में पाखी हेगड़े,कृशा खंडेलवाल,अनूप अरोड़ा,नीलिमा सिंह,सुदेश कौल अउर किरण कुमार के मुख्य भूमिका बा।
एकर बाद, रउआ टीनू वर्मा के गंगा जमुना सरस्वती अउर कुरूक्षेत्र में भी देखब।
एकर बाद, रउआ टीनू वर्मा के गंगा जमुना सरस्वती अउर कुरूक्षेत्र में भी देखब।
Tuesday, April 13, 2010
माया तेरे रूप अनेक
अपने बॉलीवुड को यों ही मायानगरी नहीं कहा जाता। यहां कई प्रतिभाशाली गायक आए और कोरस का हिस्सा बनकर रह गए। कई अभिनेत्रियां आईं तो हीरोईन बनने मगर हीरोईनों के साथ डांस से ज्यादा का अवसर न पा सकीं। दूसरी तरफ हैं वे लोग जिनमें से कोई कंडक्टर था तो कोई खानसामा मगर आज उनके भाव आसमान छू रहे हैं। और तो और,ऐसे स्टार की भी कमी नहीं है जो कहते हैं कि उन्होंने तो फिल्म को अपना करियर बनाने की कभी सोची ही नहीं थी। यह सब तो बस बाई चांस किसी से मुलाकात हुई,ऑफर मिला और हो गया। 10 अप्रैल के नई दुनिया के इंद्रधनुष में ऐसे ही कुछ सितारों का हवाला दिया गया हैः
तो अपने सरकिट मतलब अशरद वारसी ने भी फिल्मों में आने से पहले कई काम किए। आर्थिक तंगी की स्थिति में १७ साल की उम्र में उन्हें एक कॉस्मेटिक कंपनी के लिए डोर-टू-डोर सेल्समैनशिप करनी पड़ी। १८ साल की उम्र में माता-पिता के न रहने से अपने प्रारंभिक दिनों में उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा। बाद में एक फोटोग्राफी लैब के लिए काम किया। इस बीच डांस के लिए उनके पागलपन ने उन्हें मुंबई के अकबर सामी के डांस ग्रुप का हिस्सा बनाया। इसने उन्हें कोरियाग्राफर के तौर पर काम दिलाया। फिर तो मंजिल की तरफ जाने वाले दरवाजे नजर आने लगे। उन्होंने महेश भट्ट के सहायक के तौर पर १९८७ में "ठिकाना" और "काश" के लिए भी काम किया।
अमीषा पटेल भी बस पहुंच ही गईं बॉलीवुड। अमीषा ने मैसेच्युसेट्स (अमेरिका) के टफ्ट्स विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र पढ़ा। अपने ग्रेजुएशन के बाद खांडवाला सिक्योरिटीज लिमिटेड में इकनॉमिक एनलिस्ट के तौर पर अपना करियर शुरू किया। बाद में उन्हें मोरगन स्टेनले की ओर से भी ऑफर मिला था लेकिन वे भारत लौट आईं। यहां लौटकर उन्होंने सत्यदेव दुबे के थिएटर ग्रुप के साथ काम किया। यहां से रास्ता खुला "कहो न प्यार है" के लिए।
अब शर्मिला टैगोर की बेटी सोहा अली को ही ले लें। बैंक में काम करती थीं लेकिन फिल्मों की चकाचौंध ने ऐसा खींचा कि यहां आकर कहने लगीं "दिल मांगे मोर"। फिल्मों में आने से पहले सोहा फोर्ड फाउंडेशन और फिर सिटी बैंक में काम करती थीं लेकिन पहुंचना तो यहां था ना!
सुनील शेट्टी तो बाकायदा स्थापित बिजनेसमैन थे, अजी थे क्या हैं। वे "मिसचीफ" नामक कपड़ों के ब्रांड और होटलों की श्रृंखला के मालिक हैं। साथ ही हाल ही में उन्होंने पॉपकॉर्न इंटरटेनमेंट नामक एक कंपनी शुरू की है जो बॉलीवुड के एक्टरों के विदेशों में शो और कॉन्सर्टों का आयोजन करती है। अब वे यहां कैसे हैं, इसे जाने ही दें।
अक्की बाबा उर्फ अक्षय कुमार की कहानी और भी दूसरी है। ये पंजाबी पुत्तर अमृतसर में पैदा हुए और जल्दी ही परफॉमर और डांसर के तौर पर ख्याति हासिल कर ली लेकिन फिल्म... इससे पहले बहुत पापड़ बेले। मुंबई के डॉन बॉस्को और फिर खालसा कॉलेज में पढ़ने के बाद वे बैंकॉक में मार्शल आर्ट सीखने गए तो शेफ का काम भी किया। मुंबई आने के बाद यहां मार्शल आर्ट सिखाने लगे। यहीं उनके किसी स्टूडेंट जो कि बाद में एक फोटोग्राफर बना, ने उन्हें मॉडलिंग का रास्ता दिखाया। बस फिर तो चल निकली भाई की।
अदिति गोवित्रीकर तो बाकायदा डॉक्टर हैं लेकिन यहां की चमक ने उन्हें ऐसा चौंधियाया कि सब कुछ छोड़-छाड़कर उतर गईं मॉडलिंग की दुनिया में। पहले ग्लैडरेग्स मेगा मॉडल कॉन्टेस्ट में बेस्ट बॉडी और बेस्ट फेस का अवॉर्ड जीता, फिर १९९७ में एशियन सुपर मॉडल कॉन्टेस्ट जीतकर ग्लैमर की दुनिया की हो गईं।
अब इन्हें ही लें । ये हैं बोमन ईरानी । इनके लिए तो फिल्मी दुनिया तक आने का सफर वाकई "जाते थे जापान पहुंच गए चीन" जैसा रहा। १९५७ में मुंबई में जन्मे बोमन ४४ साल की उम्र में "एवरीबडी सेज आय एम फाइन" में एक छोटे-से रोल में आए। फिल्मों में आने से पहले १९८२ से ८५ तक उन्होंने जीवन बीमा निगम में काम किया। कुछ साल उन्होंने आलू की चिप्स का अपना पारिवारिक व्यवसाय भी संभाला। १९८७ में उन्होंने प्रोफेशनल फोटोग्राफी शुरू की, जो १९८९ तक चली। फिर उन्होंने रंगमंच पर एक्टिंग शुरू की। उसके बाद कहीं वे सवार हो पाए फिल्मी रेल पर । हां लेकिन एक्टिंग के प्रति उनका प्यार स्कूल और फिर आगे चलकर कॉलेज में भी रहा।
जॉन अब्राहम ने अपना करियर मीडिया फर्म टाइम एंड स्पेस मीडिया इंटरटेनमेंट प्रमोशन लिमिटेड से शुरू किया था। यह फर्म बंद हो गया। बाद में उन्होंने मीडिया प्लानर के तौर पर इंटरप्राइजेस-नेक्सस के लिए भी काम किया। आखिरकार वे मॉडलिंग के जरिए पहुंच गए हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री।
अपनी पहली ही फिल्म "किसना" में अपने बेहतरीन नृत्य गीत के लिए ख्याति पाई नृत्यांगना ईशा शरवानी के लिए पहली और आखिरी लगन नृत्य है। क्यों न हो उनके माता-पिता ने तिरुअनंतपुरम में "द एकेडमी फॉर आर्ट रिसर्च, ट्रेनिंग एंड इन्नोवेशन" की स्थापना जो की। फिर ईशा सात साल की उम्र से ही अपनी माँ से कल्लरीपयट्टू, कथक और छाऊ नृत्य सीख रही थीं और अब वे दुनियाभर में इसका प्रदर्शन भी कर रही हैं।
अब इन मोहतरमा का तो किस्सा ही निराला है। ये तो पता नहीं कहां जाना चाहती थीं लेकिन पहुंच गईं एक शादी में! जी हां, "लव सेक्स और धोखा" की कलाकार इंदौर की २२ वर्षीय नेहा चौहान को ही लें। फिल्म के बारे में तो उन्होंने सोचा भी नहीं था। दिबाकर बनर्जी (फिल्म के डायरेक्टर) ने उन्हें एक शादी के वीडियो में देखा और उन्हें ऑडिशन के लिए बुला भेजा। बस, हो गया धोखा।
तो अपने सरकिट मतलब अशरद वारसी ने भी फिल्मों में आने से पहले कई काम किए। आर्थिक तंगी की स्थिति में १७ साल की उम्र में उन्हें एक कॉस्मेटिक कंपनी के लिए डोर-टू-डोर सेल्समैनशिप करनी पड़ी। १८ साल की उम्र में माता-पिता के न रहने से अपने प्रारंभिक दिनों में उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा। बाद में एक फोटोग्राफी लैब के लिए काम किया। इस बीच डांस के लिए उनके पागलपन ने उन्हें मुंबई के अकबर सामी के डांस ग्रुप का हिस्सा बनाया। इसने उन्हें कोरियाग्राफर के तौर पर काम दिलाया। फिर तो मंजिल की तरफ जाने वाले दरवाजे नजर आने लगे। उन्होंने महेश भट्ट के सहायक के तौर पर १९८७ में "ठिकाना" और "काश" के लिए भी काम किया।
अमीषा पटेल भी बस पहुंच ही गईं बॉलीवुड। अमीषा ने मैसेच्युसेट्स (अमेरिका) के टफ्ट्स विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र पढ़ा। अपने ग्रेजुएशन के बाद खांडवाला सिक्योरिटीज लिमिटेड में इकनॉमिक एनलिस्ट के तौर पर अपना करियर शुरू किया। बाद में उन्हें मोरगन स्टेनले की ओर से भी ऑफर मिला था लेकिन वे भारत लौट आईं। यहां लौटकर उन्होंने सत्यदेव दुबे के थिएटर ग्रुप के साथ काम किया। यहां से रास्ता खुला "कहो न प्यार है" के लिए।
अब शर्मिला टैगोर की बेटी सोहा अली को ही ले लें। बैंक में काम करती थीं लेकिन फिल्मों की चकाचौंध ने ऐसा खींचा कि यहां आकर कहने लगीं "दिल मांगे मोर"। फिल्मों में आने से पहले सोहा फोर्ड फाउंडेशन और फिर सिटी बैंक में काम करती थीं लेकिन पहुंचना तो यहां था ना!
सुनील शेट्टी तो बाकायदा स्थापित बिजनेसमैन थे, अजी थे क्या हैं। वे "मिसचीफ" नामक कपड़ों के ब्रांड और होटलों की श्रृंखला के मालिक हैं। साथ ही हाल ही में उन्होंने पॉपकॉर्न इंटरटेनमेंट नामक एक कंपनी शुरू की है जो बॉलीवुड के एक्टरों के विदेशों में शो और कॉन्सर्टों का आयोजन करती है। अब वे यहां कैसे हैं, इसे जाने ही दें।
अक्की बाबा उर्फ अक्षय कुमार की कहानी और भी दूसरी है। ये पंजाबी पुत्तर अमृतसर में पैदा हुए और जल्दी ही परफॉमर और डांसर के तौर पर ख्याति हासिल कर ली लेकिन फिल्म... इससे पहले बहुत पापड़ बेले। मुंबई के डॉन बॉस्को और फिर खालसा कॉलेज में पढ़ने के बाद वे बैंकॉक में मार्शल आर्ट सीखने गए तो शेफ का काम भी किया। मुंबई आने के बाद यहां मार्शल आर्ट सिखाने लगे। यहीं उनके किसी स्टूडेंट जो कि बाद में एक फोटोग्राफर बना, ने उन्हें मॉडलिंग का रास्ता दिखाया। बस फिर तो चल निकली भाई की।
अदिति गोवित्रीकर तो बाकायदा डॉक्टर हैं लेकिन यहां की चमक ने उन्हें ऐसा चौंधियाया कि सब कुछ छोड़-छाड़कर उतर गईं मॉडलिंग की दुनिया में। पहले ग्लैडरेग्स मेगा मॉडल कॉन्टेस्ट में बेस्ट बॉडी और बेस्ट फेस का अवॉर्ड जीता, फिर १९९७ में एशियन सुपर मॉडल कॉन्टेस्ट जीतकर ग्लैमर की दुनिया की हो गईं।
अब इन्हें ही लें । ये हैं बोमन ईरानी । इनके लिए तो फिल्मी दुनिया तक आने का सफर वाकई "जाते थे जापान पहुंच गए चीन" जैसा रहा। १९५७ में मुंबई में जन्मे बोमन ४४ साल की उम्र में "एवरीबडी सेज आय एम फाइन" में एक छोटे-से रोल में आए। फिल्मों में आने से पहले १९८२ से ८५ तक उन्होंने जीवन बीमा निगम में काम किया। कुछ साल उन्होंने आलू की चिप्स का अपना पारिवारिक व्यवसाय भी संभाला। १९८७ में उन्होंने प्रोफेशनल फोटोग्राफी शुरू की, जो १९८९ तक चली। फिर उन्होंने रंगमंच पर एक्टिंग शुरू की। उसके बाद कहीं वे सवार हो पाए फिल्मी रेल पर । हां लेकिन एक्टिंग के प्रति उनका प्यार स्कूल और फिर आगे चलकर कॉलेज में भी रहा।
जॉन अब्राहम ने अपना करियर मीडिया फर्म टाइम एंड स्पेस मीडिया इंटरटेनमेंट प्रमोशन लिमिटेड से शुरू किया था। यह फर्म बंद हो गया। बाद में उन्होंने मीडिया प्लानर के तौर पर इंटरप्राइजेस-नेक्सस के लिए भी काम किया। आखिरकार वे मॉडलिंग के जरिए पहुंच गए हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री।
अपनी पहली ही फिल्म "किसना" में अपने बेहतरीन नृत्य गीत के लिए ख्याति पाई नृत्यांगना ईशा शरवानी के लिए पहली और आखिरी लगन नृत्य है। क्यों न हो उनके माता-पिता ने तिरुअनंतपुरम में "द एकेडमी फॉर आर्ट रिसर्च, ट्रेनिंग एंड इन्नोवेशन" की स्थापना जो की। फिर ईशा सात साल की उम्र से ही अपनी माँ से कल्लरीपयट्टू, कथक और छाऊ नृत्य सीख रही थीं और अब वे दुनियाभर में इसका प्रदर्शन भी कर रही हैं।
अब इन मोहतरमा का तो किस्सा ही निराला है। ये तो पता नहीं कहां जाना चाहती थीं लेकिन पहुंच गईं एक शादी में! जी हां, "लव सेक्स और धोखा" की कलाकार इंदौर की २२ वर्षीय नेहा चौहान को ही लें। फिल्म के बारे में तो उन्होंने सोचा भी नहीं था। दिबाकर बनर्जी (फिल्म के डायरेक्टर) ने उन्हें एक शादी के वीडियो में देखा और उन्हें ऑडिशन के लिए बुला भेजा। बस, हो गया धोखा।
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