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Monday, April 12, 2010

रहमान के वंदे मातरम में मौलिकता नहीं-मन्नाडे

लखनऊ के स्कार्पियो क्लब का नजारा रविवार की शाम बदला हुआ था। बाहर गाडि़यों की लम्बी कतारें और भीतर मंच की तरफ टकटकी लगाये बैठा सजे-धजे हजारों लोगों का हुजूम बिना कहे बता रहा था कि यहां कुछ खास होने वाला है और सबको बेसब्री से उसका इंतजार है। रात करीब पौने नौ बजे अचानक मंच पर एक शख्सियत को देखते ही लोग कुर्सियों से उठ खड़े हुए और यह क्लब तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। भूरे रंग में बंद गले का सफारी सूट पहने मन्ना डे मंच पर आ चुके थे। मन्ना डे ने लोगों से विराजने को कहा और बताया कि 40 साल पहले उन्हें लखनऊ बुलाया गया था लेकिन तब का कुछ याद नहीं है। मौजूद लोगों का उत्साह और सुनने की ललक देख कर उन्होंने कहा कि पहले अपनी पसन्द के गाने सुनाऊंगा फिर आपकी फरमाइश पूरी करूंगा। एक निजी मोबाइल फोन सेवा प्रदाता कंपनी की तरफ से आयोजित संगीत संध्या ऐ मेरे प्यारे वतन के सफर की शुरुआत उन्होंने शंकर-जयकिशन के संगीत से सजे भजन भय भंजना वन्दना सुन हमारी, दरस तेरे मांगे ये तेरा पुजारी से की तो समूचा परिवेश भक्तिमय हो गया। वही खनकती जादू भरी आवाज, शास्त्रीय पक्षों से सजी स्वर लहरी और स्वर के संतुलित उतार-चढ़ाव के बीच फिर मन्ना डे ने एक के बाद एक लगातार अपने लोकप्रिय गीत सुनाये। इसमें दिल का हाल सुने दिल वाला, अब कहां जायें हम, तू प्यार का सागर है व लपक-झपक तू आ रे बदरिया शामिल थे। इससे पहले कार्यक्रम की शुरुआत मुम्बई से आयी मीना देसाई ने की। मन्ना डे ने उनके साथ कई युगल गीत भी सुनाये।
(दैनिक जागरण,लखनऊ संस्करण से साभार)
नाइफा द्वारा शहीदों के सम्मान में आयोजित इस कार्यक्रम में मन्नाडे ने यह कहकर विवाद पैदा कर दिया कि रहमान ने वंदे मातरम गाते समय वंदे को ज्यादा लंबा क्यों खींचा। उनका कहना था कि मेरे लिए वंदे का कोई मतलब नहीं है क्योंकि एक मां को सम्मान देने का यह तरीका नहीं हो सकता। इसी बारे में हिंदुस्तान,पटना संस्करण में छपी खबर देखिएः


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