द जैपनीज वाइफ कोई दो साल पहले बनी थी और दुनिया भर के फिल्म फेस्टिवल में सराहे जाने के बावजूद भारत में यह इस हफ्ते रिलीज हुई है। राहुल बोस,चिगुसा तकाकू,राइमा सेन और मौसमी चटर्जी अभिनीत इस फिल्म का निर्देशन किया है अपर्णा सेन ने। कुणाल बसु के उपन्यास(लघु कथा) पर बनी इस फिल्म की अवधि है दो घंटे।
फिल्म सुंदरबन के एक छोटे से गांव के स्कूल शिक्षक स्नेहमय(राहुल बोस) की कहानी बयां करती है। स्नेहमय जापान में किराने की दुकान चलाने वाली मियागी(चिगुसा तकाकू) को अपना पत्र-मित्र बनाता है। पत्र के जरिए ही दोनों मिलते हैं,प्रेम करते हैं और फिर शादी भी हो जाती है। मगर वास्तविक जीवन में,अपने-अपने कारणों से,दोनों मिल नहीं पाते। भाषा,विश्वास,संस्कृति और परम्पराओँ का अंतर तो है,मगर प्यार और भावनाएँ फिर भी बनी रहती हैं-स्नेहमय के जीवन में विधवा संध्या(राइमा सेन) के प्रवेश के बावजूद।
लगभग दो दशकों की कहानी दिखाने वाली इस फिल्म की सिनेमैटोग्राफी को सबने सराहा है।
मेल टुडे में विनायक चक्रवर्ती लिखते हैं कि अपर्णा सेन 36 चौरंगी लेन और मिस्टर एंड मिसेज अय्यर में भी दिखा चुकी हैं कि उनमें मूल कथा को केंद्रीय थीम बनाए रखने का शानदार हुनर है और इस फिल्म में भी कथा कहने की उनकी शैली अद्भुत है। नवभारत टाइम्स में चंद्रमोहन शर्मा लिखते हैं कि चंद सिंपल किरदारों पर बनी फिल्म की सुस्त रफ्तार भी दर्शकों को अगर फिल्म से शुरू से आखिर तक बांध पाती है , तो इसका केडिट अपर्णा सेन के सशक्त निर्देशन को जाता है। समुद्र किनारे बसे सुंदरवन गांव के परिवेश और ग्रामीण माहौल को अपर्णा ने बेहद सटीक ढंग से पेश किया है। मगर हिंदुस्तान टाइम्स में मयंक शेखर कहते हैं कि 30 से ज्यादा फिल्में बना चुकीं अपर्णा की शायद यह पहली फिल्म है जिसकी पटकथा इतनी कमज़ोर है।
टाइम्स ऑफ इँडिया में निखत काजमी ने राहुल बोस के अभिनय और बंगाली शैली वाले उच्चारण की जमकर तारीफ की है। इंडियन एक्सप्रेस में शुभ्रा गुप्ता का कहना है कि राहुल की डायलॉग डिलीवरी वायस ओवर के कारण लाउड हो गई है। उन्होंने राइमा सेन का रोल काफी छोटा होने की ओर भी इशारा किया है हालांकि हिंदुस्तान में विशाल ठाकुर का कहना है कि चार-पांच डायलॉग के बावजूद,अपने हाव-भाव से ही राइमा ने बहुत-कुछ कह दिया है। मयंक शखर ने इसे राहुल बोस की अब तक की सबसे बढिया एक्टिंग कहा है।
विशाल ठाकुर कहते हैं कि कहानी और पटकथा फिल्म में उत्सुकता पैदा करते हैं मगर विनायक चक्रवर्ती कहते हैं कि फिल्म की कहानी किसी लघुकथा जैसी है और भारतीय दर्शक फीचर फिल्म से ऐसी अपेक्षा नहीं रखते।
इस फिल्म के प्रीमियर पर, शबाना आजमी पैर में फ्रैक्चर होने के बावजूद आईं और कह गईं कि सही मायने में अपर्णा ही सत्यजीत रे की वारॊस है। मगर समीक्षकों में इस फिल्म को लेकर मिली-जुली प्रतिक्रिया रही है। मयंक शेखर ने चुटकी लेते हुए कहा है कि फिल्म के नायक के घर ओँकारा फिल्म चलती है और टेलीविजन पर राष्ट्रीय बहसें भी होती हैं मगर बेचारे नायक के पास जापान सम्पर्क करने के लिए न तो कोई सेलफोन है,न एसएमएस का सहारा; बस,लिफाफे का ही सहारा। इंटरनेट की तो बात ही क्या! कहानी के लापता होने की शिकायत करते हुए उन्होंने इसे महज दो स्टार दिया है। शुभ्रा गुप्ता ने माना है कि यह फिल्म किसी हाइकू की तरह है जिसमें किसी बात पर ज़ोर दिए बगैर बहुत कुछ कहा गया है जो भारतीय फिल्मों में बिरले ही देखने को मिलता है । पतंग उड़ाने वाले दृश्य को शुभ्रा गुप्ता और मयंक शेखर दोनों ने फिल्म की गति में बाधक माना है। शुभ्रा गुप्ता ने इसे तीन स्टार दिया है। विनायक चक्रवर्ती की टिप्पणी है कि जो फिल्म केवल यह दिखाना चाहती हो कि बंगाल का सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश विदेशी संस्कृति का कितना सम्मान करता है,समझा जा सकता है कि दो साल तक क्यों उसे कोई खरीदार नहीं मिला। फिर भी,उनकी ओर से फिल्म को साढे तीन स्टार। चंद्रमोहन शर्मा कहते हैं कि बेशक आज की तेज रफ्तार जिंदगी के बीच इंटरनेट और वेस्टर्न कल्चर के इस दौर में ऐसी कहानी टीनएजर्स को अविश्सनीय लगे , लेकिन अपर्णा ने इसे इतने रोचक ढंग से पेश किया है कि अगर यंगस्टर्स फिल्म देखते हैं , तो उन्हें भी इस बिल्कुल अजीब दिखने वाली लव स्टोरी पर यकीन आ जाए। इसलिए उनकी ओर से भी फिल्म को साढे तीन स्टार। निखत काजमी ने यह मानते हुए कि यह फिल्म आपको एक ऐसी दुनिया में ले जाती है,शारीरिक और सांस्कृतिक दूरियों के बावजूद प्रेम और जुड़ाव बना रहता है,इसे चार स्टार दिया है। विशाल ठाकुर ने भी इसे गंभीर और अर्थपूर्ण फिल्म बताते हुए इसे मस्त और झकास के ठीक बीचोबीच रखा है जिसे चार स्टार के बराबर माना जा सकता है। हिंदुस्तान की समीक्षा अलग से देखिएः
फिल्म सुंदरबन के एक छोटे से गांव के स्कूल शिक्षक स्नेहमय(राहुल बोस) की कहानी बयां करती है। स्नेहमय जापान में किराने की दुकान चलाने वाली मियागी(चिगुसा तकाकू) को अपना पत्र-मित्र बनाता है। पत्र के जरिए ही दोनों मिलते हैं,प्रेम करते हैं और फिर शादी भी हो जाती है। मगर वास्तविक जीवन में,अपने-अपने कारणों से,दोनों मिल नहीं पाते। भाषा,विश्वास,संस्कृति और परम्पराओँ का अंतर तो है,मगर प्यार और भावनाएँ फिर भी बनी रहती हैं-स्नेहमय के जीवन में विधवा संध्या(राइमा सेन) के प्रवेश के बावजूद।
लगभग दो दशकों की कहानी दिखाने वाली इस फिल्म की सिनेमैटोग्राफी को सबने सराहा है।
मेल टुडे में विनायक चक्रवर्ती लिखते हैं कि अपर्णा सेन 36 चौरंगी लेन और मिस्टर एंड मिसेज अय्यर में भी दिखा चुकी हैं कि उनमें मूल कथा को केंद्रीय थीम बनाए रखने का शानदार हुनर है और इस फिल्म में भी कथा कहने की उनकी शैली अद्भुत है। नवभारत टाइम्स में चंद्रमोहन शर्मा लिखते हैं कि चंद सिंपल किरदारों पर बनी फिल्म की सुस्त रफ्तार भी दर्शकों को अगर फिल्म से शुरू से आखिर तक बांध पाती है , तो इसका केडिट अपर्णा सेन के सशक्त निर्देशन को जाता है। समुद्र किनारे बसे सुंदरवन गांव के परिवेश और ग्रामीण माहौल को अपर्णा ने बेहद सटीक ढंग से पेश किया है। मगर हिंदुस्तान टाइम्स में मयंक शेखर कहते हैं कि 30 से ज्यादा फिल्में बना चुकीं अपर्णा की शायद यह पहली फिल्म है जिसकी पटकथा इतनी कमज़ोर है।
टाइम्स ऑफ इँडिया में निखत काजमी ने राहुल बोस के अभिनय और बंगाली शैली वाले उच्चारण की जमकर तारीफ की है। इंडियन एक्सप्रेस में शुभ्रा गुप्ता का कहना है कि राहुल की डायलॉग डिलीवरी वायस ओवर के कारण लाउड हो गई है। उन्होंने राइमा सेन का रोल काफी छोटा होने की ओर भी इशारा किया है हालांकि हिंदुस्तान में विशाल ठाकुर का कहना है कि चार-पांच डायलॉग के बावजूद,अपने हाव-भाव से ही राइमा ने बहुत-कुछ कह दिया है। मयंक शखर ने इसे राहुल बोस की अब तक की सबसे बढिया एक्टिंग कहा है।
विशाल ठाकुर कहते हैं कि कहानी और पटकथा फिल्म में उत्सुकता पैदा करते हैं मगर विनायक चक्रवर्ती कहते हैं कि फिल्म की कहानी किसी लघुकथा जैसी है और भारतीय दर्शक फीचर फिल्म से ऐसी अपेक्षा नहीं रखते।
इस फिल्म के प्रीमियर पर, शबाना आजमी पैर में फ्रैक्चर होने के बावजूद आईं और कह गईं कि सही मायने में अपर्णा ही सत्यजीत रे की वारॊस है। मगर समीक्षकों में इस फिल्म को लेकर मिली-जुली प्रतिक्रिया रही है। मयंक शेखर ने चुटकी लेते हुए कहा है कि फिल्म के नायक के घर ओँकारा फिल्म चलती है और टेलीविजन पर राष्ट्रीय बहसें भी होती हैं मगर बेचारे नायक के पास जापान सम्पर्क करने के लिए न तो कोई सेलफोन है,न एसएमएस का सहारा; बस,लिफाफे का ही सहारा। इंटरनेट की तो बात ही क्या! कहानी के लापता होने की शिकायत करते हुए उन्होंने इसे महज दो स्टार दिया है। शुभ्रा गुप्ता ने माना है कि यह फिल्म किसी हाइकू की तरह है जिसमें किसी बात पर ज़ोर दिए बगैर बहुत कुछ कहा गया है जो भारतीय फिल्मों में बिरले ही देखने को मिलता है । पतंग उड़ाने वाले दृश्य को शुभ्रा गुप्ता और मयंक शेखर दोनों ने फिल्म की गति में बाधक माना है। शुभ्रा गुप्ता ने इसे तीन स्टार दिया है। विनायक चक्रवर्ती की टिप्पणी है कि जो फिल्म केवल यह दिखाना चाहती हो कि बंगाल का सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश विदेशी संस्कृति का कितना सम्मान करता है,समझा जा सकता है कि दो साल तक क्यों उसे कोई खरीदार नहीं मिला। फिर भी,उनकी ओर से फिल्म को साढे तीन स्टार। चंद्रमोहन शर्मा कहते हैं कि बेशक आज की तेज रफ्तार जिंदगी के बीच इंटरनेट और वेस्टर्न कल्चर के इस दौर में ऐसी कहानी टीनएजर्स को अविश्सनीय लगे , लेकिन अपर्णा ने इसे इतने रोचक ढंग से पेश किया है कि अगर यंगस्टर्स फिल्म देखते हैं , तो उन्हें भी इस बिल्कुल अजीब दिखने वाली लव स्टोरी पर यकीन आ जाए। इसलिए उनकी ओर से भी फिल्म को साढे तीन स्टार। निखत काजमी ने यह मानते हुए कि यह फिल्म आपको एक ऐसी दुनिया में ले जाती है,शारीरिक और सांस्कृतिक दूरियों के बावजूद प्रेम और जुड़ाव बना रहता है,इसे चार स्टार दिया है। विशाल ठाकुर ने भी इसे गंभीर और अर्थपूर्ण फिल्म बताते हुए इसे मस्त और झकास के ठीक बीचोबीच रखा है जिसे चार स्टार के बराबर माना जा सकता है। हिंदुस्तान की समीक्षा अलग से देखिएः
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