इस हफ्ते रिलीज बहुचर्चित फिल्म है महेश मांजरेकर की सिटी ऑफ गोल्ड। सचिन खेडे़कर, शशांक शेंडे,कश्मीरा शाह,अंकुश चौधरी,सीमा विश्वास,वीणा जमकार, करण, पटेल, समीर, सतीश कौशिक, सिद्धार्थ जादव,और गणेश यादव अभिनीत इस फिल्म के निर्माता हैं अरुण रंगचारी । 144 मिनट की इस फिल्म में गीत है श्रीरंग गोडबोले का और संगीत अजीत परब का । सेंसर ने इसे दिया है है- यू / ए सर्टिफिकेट ।
यह फिल्म अस्सी के दशक में मुंबई की कपड़ा मिलों में हुई हड़ताल और सरकार तथा अफसरशाहों के साथ मिल मालिकों की सांठगांठ के शिकार हुई युवा पीढी की कहानी है। इस कहानी में लोभी पूंजीपति,समर्पित यूनियन लीडर,क्रूर भाई लोग और सेक्स-सब कुछ है। मगर कहानी का केंद्र है मध्यवर्गीय धुरी परिवार जिसके चार बच्चों की अलग –अलग राहों से फिल्म की कहानी आगे बढती है। परिवार का बड़ा बेटा कहानी सुनाता है और फ्लैशबैक के जरिए हम आज की चमचमाती मुम्बई की स्याह हकीकत से वाकिफ होते हैं। कहानी का हर प्लॉट आपको मुंबई के उस दौर की याद दिलाता है, जब अपनी मुनाफाखोरी की चाहत में मिल मालिकों ने 8 लाख से ज्यादा लोगों के सामने भुखमरी का संकट पैदा कर दिया था।
फिल्म के ज्यादातर कलाकार मराठी सिनेमा या स्टेज से है और अपनी भूमिका में सभी जमे हैं। सचिन खेडे़कर , गणेश यादव , करण पटेल , सीमा बिश्वास सहित सभी कलाकार का अभिनय बेमिसाल है। दैनिक जागरण में अजय ब्रह्मात्मज ने खासकर विनीत और करण से काफी उम्मीदें लगाई हैं। इंडियन एक्सप्रेस में शुभ्रा गुप्ता ने लिखा है कि हर पात्र अपने चरित्र के अनुकूल,सहज और वास्तविक प्रतीत होता है मगर असली स्टार वे हैं जिन्होंने सिनेमा के पर्दे पर पहली बार मौजूदगी दर्ज कराई है । टाइम्स ऑफ इँडिया में निखत काजमी ने लिखा है कि यह हाल के वर्षों की सर्वोत्तम अभिनय वाली फिल्मों में से है।
इस फिल्म में मांजरेकर की वास्तव की विशेषताएं साफ दिखती हैं। नवभारत टाइम्स में चंद्रमोहन शर्मा के अनुसार, फिल्म का निर्देशन कसा हुआ और गतिशील है। दैनिक भास्कर में राजेश यादव ने इसे महेश मांजरेकर के निर्देशन का कमाल ही बताया है कि हर पात्र दर्शकों से बात करता हुआ प्रतीत होता है। शुभ्रा गुप्ता लिखती हैं कि महेश ने इस फिल्म को सिर्फ कहानी पढकर नहीं बनाया बल्कि उस पीड़ा को महसूस कर बनाया है जो सैकड़ों परिवारों ने भोगी थी।
कहानी से लगता नहीं कि इस फिल्म में गानों की गुंजाइश नहीं थी, फिर भी महेश ने एक गाना रखा है जो चंद्रमोहन शर्मा जी के मुताबिक, कहानी की गति में बाधक नहीं बनता।
महेश मांजरेकर को यह फिल्म बनाने में चार साल से भी ज्यादा का वक्त लगा है क्योंकि ऐसे प्लॉट मुनाफे का सौदा नहीं होते । अधिकतर समीक्षकों ने माना है कि उन्होंने बॉक्स ऑफिस कमाई से इतर रहते हुए, फिल्म को बनाने में कोई समझौता किया भी नहीं है। परन्तु,हिंदुस्तान टाइम्स में मयंक शेखर की टिप्पणी है कि ऐसी कहानी में परिवार का बैकड्रॉप बताना जरूरी होता है जो इस फिल्म में नहीं है। उन्होंने कई दृश्यों को 70 के दशक की फिल्मों से प्रेरित बताते हुए लिखा है कि इस प्रकार का प्लॉट स्थानीय जनता को ज्यादा भाता है और कोई आश्चर्य नहीं कि यह फिल्म पहले मराठी में बनाई गई थी। लिखते हैं कि घिनौने सच के नाम पर फिल्म में जिन लालबाग,परेल और डेज्लाइल रोड का जिक्र किया गया है,वे अभी निर्माणाधीन हीं हैं। उन्होंने इसे दिए सिर्फ दो स्टार। मगर मराठी फिल्म लालबाग परेल(मराठी) के इस हिंदी रूपांतर के बारे में कई अन्य समीक्षकों ने माना है कि मल्टीप्लेक्स कल्चर और टीनएजर्स की पसंद को फोकस करती फिल्मों के बीच हड़ताल , भुखमरी और तेज रफ्तार बढ़ते क्राइम पर फिल्म बनाना जोखिम भरा तो है ही,मगर एक सुखद अनुभूति से कम नहीं है। मेल टुडे में विनायक चक्रवर्ती लिखते हैं कि फिल्म के शॉट इतने डार्क और कहानी इतनी भारी-भरकम है कि अधिकतर दर्शकों को शायद ही रास आए। उनका मानना है कि कहानी का मुंबई केंद्रित होना भी पैन-इंडियन फिल्मों के दर्शक पसंद नहीं करेंगे। लिहाजा,उनकी ओर से फिल्म को ढाई स्टार। टकराव से अधिक ध्यान बिखराव,भटकाव और टूटन पर केंद्रित करने के आधार पर दैनिक जागरण ने इसे तीन स्टार दिया है। राजेश यादव ने इसे रियलिस्टिक सिनेमा का बेहतरीन उदाहरण मानते हुए तीन स्टार दिए हैं। शुभ्रा गुप्ता ने लिखा है कि फिल्म की कहानी बहुत पुरानी है और इसमें कोई नया खुलासा नहीं किया गया है मगर जितना ही है,वह बेहद प्रभावशाली और विश्वसनीय तरीके से है। उन्होंने भी इसे तीन स्टार के बराबर माना है। चंद्रमोहन शर्मा ने मांजरेकर के निर्देशन,बेहतरीन अभिनय और संघर्षमय माहौल की अच्छई प्रस्तुति के कारण फिल्म को साढे तीन स्टार दिया है। हिंदुस्तान ने स्पीडब्रेकर के बदला लेने के तरीके को बचकाना बताया है मगर कुल मिलाकर इसे अर्थपूर्ण मनोरंजन में विश्वास रखने वालों की फिल्म बताते हुए मस्त श्रेणी के ठीक बीचोबीच रखा है जिसे साढे तीन स्टार के बराबर माना जा सकता है। निखत काजमी ने इसे आधुनिक दीवार कहा है और माना है कि जो लोग महेश मांजरेकर की सर्वश्रेष्ठ फिल्म वास्तव को मानते रहे हैं,वे इस फिल्म को देखकर अपनी राय बदलने को मजबूर होंगे। टाइम्स ऑफ इंडिया की ओर से फिल्म को सबसे ज्यादा चार स्टार।
(तस्वीर नवभारत टाइम्स से साभार)
यह फिल्म अस्सी के दशक में मुंबई की कपड़ा मिलों में हुई हड़ताल और सरकार तथा अफसरशाहों के साथ मिल मालिकों की सांठगांठ के शिकार हुई युवा पीढी की कहानी है। इस कहानी में लोभी पूंजीपति,समर्पित यूनियन लीडर,क्रूर भाई लोग और सेक्स-सब कुछ है। मगर कहानी का केंद्र है मध्यवर्गीय धुरी परिवार जिसके चार बच्चों की अलग –अलग राहों से फिल्म की कहानी आगे बढती है। परिवार का बड़ा बेटा कहानी सुनाता है और फ्लैशबैक के जरिए हम आज की चमचमाती मुम्बई की स्याह हकीकत से वाकिफ होते हैं। कहानी का हर प्लॉट आपको मुंबई के उस दौर की याद दिलाता है, जब अपनी मुनाफाखोरी की चाहत में मिल मालिकों ने 8 लाख से ज्यादा लोगों के सामने भुखमरी का संकट पैदा कर दिया था।
फिल्म के ज्यादातर कलाकार मराठी सिनेमा या स्टेज से है और अपनी भूमिका में सभी जमे हैं। सचिन खेडे़कर , गणेश यादव , करण पटेल , सीमा बिश्वास सहित सभी कलाकार का अभिनय बेमिसाल है। दैनिक जागरण में अजय ब्रह्मात्मज ने खासकर विनीत और करण से काफी उम्मीदें लगाई हैं। इंडियन एक्सप्रेस में शुभ्रा गुप्ता ने लिखा है कि हर पात्र अपने चरित्र के अनुकूल,सहज और वास्तविक प्रतीत होता है मगर असली स्टार वे हैं जिन्होंने सिनेमा के पर्दे पर पहली बार मौजूदगी दर्ज कराई है । टाइम्स ऑफ इँडिया में निखत काजमी ने लिखा है कि यह हाल के वर्षों की सर्वोत्तम अभिनय वाली फिल्मों में से है।
इस फिल्म में मांजरेकर की वास्तव की विशेषताएं साफ दिखती हैं। नवभारत टाइम्स में चंद्रमोहन शर्मा के अनुसार, फिल्म का निर्देशन कसा हुआ और गतिशील है। दैनिक भास्कर में राजेश यादव ने इसे महेश मांजरेकर के निर्देशन का कमाल ही बताया है कि हर पात्र दर्शकों से बात करता हुआ प्रतीत होता है। शुभ्रा गुप्ता लिखती हैं कि महेश ने इस फिल्म को सिर्फ कहानी पढकर नहीं बनाया बल्कि उस पीड़ा को महसूस कर बनाया है जो सैकड़ों परिवारों ने भोगी थी।
कहानी से लगता नहीं कि इस फिल्म में गानों की गुंजाइश नहीं थी, फिर भी महेश ने एक गाना रखा है जो चंद्रमोहन शर्मा जी के मुताबिक, कहानी की गति में बाधक नहीं बनता।
महेश मांजरेकर को यह फिल्म बनाने में चार साल से भी ज्यादा का वक्त लगा है क्योंकि ऐसे प्लॉट मुनाफे का सौदा नहीं होते । अधिकतर समीक्षकों ने माना है कि उन्होंने बॉक्स ऑफिस कमाई से इतर रहते हुए, फिल्म को बनाने में कोई समझौता किया भी नहीं है। परन्तु,हिंदुस्तान टाइम्स में मयंक शेखर की टिप्पणी है कि ऐसी कहानी में परिवार का बैकड्रॉप बताना जरूरी होता है जो इस फिल्म में नहीं है। उन्होंने कई दृश्यों को 70 के दशक की फिल्मों से प्रेरित बताते हुए लिखा है कि इस प्रकार का प्लॉट स्थानीय जनता को ज्यादा भाता है और कोई आश्चर्य नहीं कि यह फिल्म पहले मराठी में बनाई गई थी। लिखते हैं कि घिनौने सच के नाम पर फिल्म में जिन लालबाग,परेल और डेज्लाइल रोड का जिक्र किया गया है,वे अभी निर्माणाधीन हीं हैं। उन्होंने इसे दिए सिर्फ दो स्टार। मगर मराठी फिल्म लालबाग परेल(मराठी) के इस हिंदी रूपांतर के बारे में कई अन्य समीक्षकों ने माना है कि मल्टीप्लेक्स कल्चर और टीनएजर्स की पसंद को फोकस करती फिल्मों के बीच हड़ताल , भुखमरी और तेज रफ्तार बढ़ते क्राइम पर फिल्म बनाना जोखिम भरा तो है ही,मगर एक सुखद अनुभूति से कम नहीं है। मेल टुडे में विनायक चक्रवर्ती लिखते हैं कि फिल्म के शॉट इतने डार्क और कहानी इतनी भारी-भरकम है कि अधिकतर दर्शकों को शायद ही रास आए। उनका मानना है कि कहानी का मुंबई केंद्रित होना भी पैन-इंडियन फिल्मों के दर्शक पसंद नहीं करेंगे। लिहाजा,उनकी ओर से फिल्म को ढाई स्टार। टकराव से अधिक ध्यान बिखराव,भटकाव और टूटन पर केंद्रित करने के आधार पर दैनिक जागरण ने इसे तीन स्टार दिया है। राजेश यादव ने इसे रियलिस्टिक सिनेमा का बेहतरीन उदाहरण मानते हुए तीन स्टार दिए हैं। शुभ्रा गुप्ता ने लिखा है कि फिल्म की कहानी बहुत पुरानी है और इसमें कोई नया खुलासा नहीं किया गया है मगर जितना ही है,वह बेहद प्रभावशाली और विश्वसनीय तरीके से है। उन्होंने भी इसे तीन स्टार के बराबर माना है। चंद्रमोहन शर्मा ने मांजरेकर के निर्देशन,बेहतरीन अभिनय और संघर्षमय माहौल की अच्छई प्रस्तुति के कारण फिल्म को साढे तीन स्टार दिया है। हिंदुस्तान ने स्पीडब्रेकर के बदला लेने के तरीके को बचकाना बताया है मगर कुल मिलाकर इसे अर्थपूर्ण मनोरंजन में विश्वास रखने वालों की फिल्म बताते हुए मस्त श्रेणी के ठीक बीचोबीच रखा है जिसे साढे तीन स्टार के बराबर माना जा सकता है। निखत काजमी ने इसे आधुनिक दीवार कहा है और माना है कि जो लोग महेश मांजरेकर की सर्वश्रेष्ठ फिल्म वास्तव को मानते रहे हैं,वे इस फिल्म को देखकर अपनी राय बदलने को मजबूर होंगे। टाइम्स ऑफ इंडिया की ओर से फिल्म को सबसे ज्यादा चार स्टार।
(तस्वीर नवभारत टाइम्स से साभार)
बहुत खूब कुमार राधारमण जी,
ReplyDeleteविभिन्न फिल्म समीक्षाओं की बहुत शानदार ढंग से प्रस्तुत किया है आपने.