19 अप्रैल से जमशेदपुर में पंद्रहवां अंतराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव शुरू हो रहा है जिसमें विभिन्न देशों की 30 बहुचर्चित फ़िल्मों का प्रदर्शन किया जाएगा। यों तो महोत्सव के विदेशी खंड में जापान, इटली, जर्मनी, हंगरी, रूस, स्पेन समेत कई देशों की 30 फ़िल्में दिखाई जाएंगी,मगर विख्यात जापानी निर्देशक अकीरा कुरासोवा की जन्मशती होने के कारण, इस महोत्सव में श्रद्धांजलि के तौर पर उनकी कुछ चुनिंदा फ़िल्मे खासतौर से दिखायी जा रही हैं। पाठकों को ध्यान होगा कि फ़िल्म जगत में अपने विशिष्ट योगदान के लिए वर्ष 1989 में लाइफटाइम अचीवमेंट का विशेष ऑस्कर हासिल करने वाले अकीरा का छह सितम्बर 1998 को निधन हो गया था। उन्होंने अपने जीवन में कुल 30 फ़िल्मों का निर्देशन किया था जिनमें से कई फिल्में शेक्सपीयर, मैक्सिम गोर्की, लियो टॉल्सटॉय तथा दस्तोयेवस्की की रचनाओं से प्रेरित बतायी जाती हैं। उन्हीं कुरासोवा पर जाने-माने फिल्म व कला समीक्षक विनोद भारद्वाज जी का यह आलेख देखिए नई दुनिया के 11 अप्रैल के अंक सेः
"यह वर्ष महान जापानी फिल्मकार अकीरा कुरोसावा का जन्म शताब्दी वर्ष भी है। कुरोसावा का जन्म टोक्यो के ओमोरी इलाके में २३ मार्च, १९१० को हुआ था। निर्देशक के रूप में उन्होंने अपनी पहली फिल्म "सांशीरो सुगाता" १९४३ में बनाई थी, उनकी आखिरी यानी "फेयरवेल" फिल्म "मादादायो" १९९३ में बनी थी यानी पचास साल तक वह फिल्म निर्देशन से जुड़े रहे। यह भी गौर करने की बात है कि १९७० में जब उनकी फिल्म "दोदेसकादेन" बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हुई थी तो निराशा के अंधेरे में कुरोसावा ने आत्महत्या करने की भी कोशिश की थी। उनके शरीर के जख्मों को ठीक होने में थोड़ा समय लगा पर कुरोसावा के भीतर का रचनाकार एक बार फिर से नए साहस और रचनात्मकता के साथ सक्रिय हो गया। उन्होंने सोवियत-जापान सहयोग से बनी अपनी अगली फिल्म "देरस उजाला" (१९७५) बनाई। साइबेरिया के बर्फीले उजाड़ में लगभग चार साल तक इस फिल्म की शूटिंग चलती रही पर यह महान फिल्मकार अपनी निराशा के अंधकार से बाहर निकलकर "कागेमुशा" (१९८०), "रैन" (१९८५) सरीखी चर्चित फिल्में बना सका। कुरोसावा की फिल्मकार के रूप में वास्तविक ख्याति "राशोमोन" (१९५०), "इकुरू" (१९५२), "थ्रोन ऑफ ब्लड" (१९५७), "सैवेन सामुराई" (१९५४) सरीखी पचास के दशक में बनी कालजयी फिल्मों के कारण ही है। "सैवेन सामुराई" ने हॉलीवुड के कमर्शियल फिल्म तंत्र को भी काफी प्रभावित किया था। कुरोसावा की सामुराई फिल्म सबसे अधिक लोकप्रिय है पर "राशोमोन" संभवतः उनकी सबसे बड़ी फिल्म है। "थ्रोन ऑफ ब्लड" में शेक्सपीयर के नाटक "मैकबेथ" को एक नया रूप दिया गया था।
कुरोसावा ने शुरू में एक चित्रकार की प्रतिभा दिखाई थी। एक वरिष्ठ सेना के अफसर (जो बाद में खेलकूद के प्रशिक्षक हो गए थे) की सातवीं और सबसे छोटी संतान कुरोसावा ने १७ साल की उम्र में एक आर्ट स्कूल में दाखिला लिया था। इस स्कूल में पश्चिमी कला शैली में प्रशिक्षण दिया जाता था। कुरोसावा के लिए जब कमर्शियल आर्टिस्ट के रूप में सफल होना कठिन साबित हुआ तो उन्होंने १९३६ में फिल्म स्टूडियो में सह निर्देशन से अपने नए कॅरिअर की शुरुआत की। कुरोसावा मानते थे कि सिनेमा विधा साहित्य, संगीत, कला, रंगमंच, स्थापत्य आदि से भले ही मिलती-जुलती है पर फिर भी वह अद्वितीय है। फिल्मकार के रूप में कुरोसावा अपनी वास्तविक शुरुआत "ड्रंकेन एंजेल" (१९४८) से मानते हैं। इसी फिल्म में उनके सर्वाधिक प्रिय अभिनेता तोशीरो मिफूने थे जो बाद में उनकी अनेक कालजयी फिल्मों के नायक बने। मिफूने हालांकि फिल्मों में पहले काम कर चुके थे पर एक फिल्म के केंद्र में वह पहली बार थे।
कुरोसावा को फिल्म लेखक सिद्धांत का असली अनुयायी माना जाता है क्योंकि पटकथा, संपादन, शूटिंग सभी चरणों में वह बहुत करीब से और मेहनत से काम करते थे। उनकी समझ और संवेदना में अतीत और आधुनिकता, पश्चिम और पूर्व का द्वंद्व और तनाव हमेशा मौजूद रहा बल्कि कुरोसावा पर यह भी आरोप लगाए जाते थे कि वह पूरी तरह से जापानी नहीं हैं।
कुरोसावा ने एक भेंटवार्ता में कहा है कि वह मूक फिल्मों को सवाक् फिल्मों से बेहतर और सुंदर मानते हैं। "राशोमोन" के निर्माण के समय उनके दिमाग में यह बात भी थी। "आधुनिक चित्रकला की एक तकनीक सरलीकरण भी है इसलिए मैं अपनी फिल्म में इस सरलीकरण को लाना चाहता था।" कुरोसावा के प्रिय लेखक रूसी उपन्यासकार दोस्तोएवस्की थे। "वह एक ऐसे लेखक हैं जो मानवीय अस्तित्व के बारे में सर्वाधिक ईमानदारी से लिखते थे। जब मैंने उनके उपन्यास से प्रेरित फिल्म "द इडियट" १९५१ में बनाई तो मैं सचमुच उन्हें समझ सका। वह बुरी तरह से "सब्जेक्टिव" नजर आते हैं लेकिन तब आपको यह अहसास भी होता है कि एक लेखक ऑब्जेक्टिव लेखन नहीं कर सकता है। "द इडियट" बनाते हुए मुझे कड़ी मेहनत करनी पड़ी। कई बार मुझे लगा कि जैसे मैं मर जाना चाहता हूं। दोस्तोएवस्की खुद ही बहुत वजनी हैं और अब मैं उनके वजन के नीचे दबा पड़ा था। मैं अच्छी तरह जानता हूं कि भारी भरकम सूमो पहलवान कैसा महसूस करते हैं पर मेरे लिए यह अद्भुत अनुभव भी था।"
"सैवेन सामुराई" फिल्म के निर्माण के दौरान कुरोसावा को महसूस हुआ कि जापानी फिल्में आमतौर पर हलकी, सादी होती हैं-जापानी भोजन की तरह। पर उन्हें लगा कि अब हमारी फिल्मों और हमारे भोजन को अधिक समृद्ध होना चाहिए। इस कोशिश में कुरोसावा की फिल्म कला का व्याकरण भी समझा जा सकता है।"
(विनोद भारद्वाज जी का यह आलेख नई दुनिया,दिल्ली संस्करण के 11 अप्रैल,2010 अंक मेंफिल्म के 'लेखक' होने का अर्थ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है)
"यह वर्ष महान जापानी फिल्मकार अकीरा कुरोसावा का जन्म शताब्दी वर्ष भी है। कुरोसावा का जन्म टोक्यो के ओमोरी इलाके में २३ मार्च, १९१० को हुआ था। निर्देशक के रूप में उन्होंने अपनी पहली फिल्म "सांशीरो सुगाता" १९४३ में बनाई थी, उनकी आखिरी यानी "फेयरवेल" फिल्म "मादादायो" १९९३ में बनी थी यानी पचास साल तक वह फिल्म निर्देशन से जुड़े रहे। यह भी गौर करने की बात है कि १९७० में जब उनकी फिल्म "दोदेसकादेन" बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हुई थी तो निराशा के अंधेरे में कुरोसावा ने आत्महत्या करने की भी कोशिश की थी। उनके शरीर के जख्मों को ठीक होने में थोड़ा समय लगा पर कुरोसावा के भीतर का रचनाकार एक बार फिर से नए साहस और रचनात्मकता के साथ सक्रिय हो गया। उन्होंने सोवियत-जापान सहयोग से बनी अपनी अगली फिल्म "देरस उजाला" (१९७५) बनाई। साइबेरिया के बर्फीले उजाड़ में लगभग चार साल तक इस फिल्म की शूटिंग चलती रही पर यह महान फिल्मकार अपनी निराशा के अंधकार से बाहर निकलकर "कागेमुशा" (१९८०), "रैन" (१९८५) सरीखी चर्चित फिल्में बना सका। कुरोसावा की फिल्मकार के रूप में वास्तविक ख्याति "राशोमोन" (१९५०), "इकुरू" (१९५२), "थ्रोन ऑफ ब्लड" (१९५७), "सैवेन सामुराई" (१९५४) सरीखी पचास के दशक में बनी कालजयी फिल्मों के कारण ही है। "सैवेन सामुराई" ने हॉलीवुड के कमर्शियल फिल्म तंत्र को भी काफी प्रभावित किया था। कुरोसावा की सामुराई फिल्म सबसे अधिक लोकप्रिय है पर "राशोमोन" संभवतः उनकी सबसे बड़ी फिल्म है। "थ्रोन ऑफ ब्लड" में शेक्सपीयर के नाटक "मैकबेथ" को एक नया रूप दिया गया था।
कुरोसावा ने शुरू में एक चित्रकार की प्रतिभा दिखाई थी। एक वरिष्ठ सेना के अफसर (जो बाद में खेलकूद के प्रशिक्षक हो गए थे) की सातवीं और सबसे छोटी संतान कुरोसावा ने १७ साल की उम्र में एक आर्ट स्कूल में दाखिला लिया था। इस स्कूल में पश्चिमी कला शैली में प्रशिक्षण दिया जाता था। कुरोसावा के लिए जब कमर्शियल आर्टिस्ट के रूप में सफल होना कठिन साबित हुआ तो उन्होंने १९३६ में फिल्म स्टूडियो में सह निर्देशन से अपने नए कॅरिअर की शुरुआत की। कुरोसावा मानते थे कि सिनेमा विधा साहित्य, संगीत, कला, रंगमंच, स्थापत्य आदि से भले ही मिलती-जुलती है पर फिर भी वह अद्वितीय है। फिल्मकार के रूप में कुरोसावा अपनी वास्तविक शुरुआत "ड्रंकेन एंजेल" (१९४८) से मानते हैं। इसी फिल्म में उनके सर्वाधिक प्रिय अभिनेता तोशीरो मिफूने थे जो बाद में उनकी अनेक कालजयी फिल्मों के नायक बने। मिफूने हालांकि फिल्मों में पहले काम कर चुके थे पर एक फिल्म के केंद्र में वह पहली बार थे।
कुरोसावा को फिल्म लेखक सिद्धांत का असली अनुयायी माना जाता है क्योंकि पटकथा, संपादन, शूटिंग सभी चरणों में वह बहुत करीब से और मेहनत से काम करते थे। उनकी समझ और संवेदना में अतीत और आधुनिकता, पश्चिम और पूर्व का द्वंद्व और तनाव हमेशा मौजूद रहा बल्कि कुरोसावा पर यह भी आरोप लगाए जाते थे कि वह पूरी तरह से जापानी नहीं हैं।
कुरोसावा ने एक भेंटवार्ता में कहा है कि वह मूक फिल्मों को सवाक् फिल्मों से बेहतर और सुंदर मानते हैं। "राशोमोन" के निर्माण के समय उनके दिमाग में यह बात भी थी। "आधुनिक चित्रकला की एक तकनीक सरलीकरण भी है इसलिए मैं अपनी फिल्म में इस सरलीकरण को लाना चाहता था।" कुरोसावा के प्रिय लेखक रूसी उपन्यासकार दोस्तोएवस्की थे। "वह एक ऐसे लेखक हैं जो मानवीय अस्तित्व के बारे में सर्वाधिक ईमानदारी से लिखते थे। जब मैंने उनके उपन्यास से प्रेरित फिल्म "द इडियट" १९५१ में बनाई तो मैं सचमुच उन्हें समझ सका। वह बुरी तरह से "सब्जेक्टिव" नजर आते हैं लेकिन तब आपको यह अहसास भी होता है कि एक लेखक ऑब्जेक्टिव लेखन नहीं कर सकता है। "द इडियट" बनाते हुए मुझे कड़ी मेहनत करनी पड़ी। कई बार मुझे लगा कि जैसे मैं मर जाना चाहता हूं। दोस्तोएवस्की खुद ही बहुत वजनी हैं और अब मैं उनके वजन के नीचे दबा पड़ा था। मैं अच्छी तरह जानता हूं कि भारी भरकम सूमो पहलवान कैसा महसूस करते हैं पर मेरे लिए यह अद्भुत अनुभव भी था।"
"सैवेन सामुराई" फिल्म के निर्माण के दौरान कुरोसावा को महसूस हुआ कि जापानी फिल्में आमतौर पर हलकी, सादी होती हैं-जापानी भोजन की तरह। पर उन्हें लगा कि अब हमारी फिल्मों और हमारे भोजन को अधिक समृद्ध होना चाहिए। इस कोशिश में कुरोसावा की फिल्म कला का व्याकरण भी समझा जा सकता है।"
(विनोद भारद्वाज जी का यह आलेख नई दुनिया,दिल्ली संस्करण के 11 अप्रैल,2010 अंक मेंफिल्म के 'लेखक' होने का अर्थ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है)
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