स्वागत

Saturday, April 17, 2010

पाठशालाःकुछ भी सीखने को नहीं

काफी प्रोमोशन के बाद आखिरकार शाहिद की पाठशाला रिलीज हो गई । 129 मिनट की इस फिल्म में उनके साथ हैं आयशा टाकिया,नाना पाटेकर,अंजन श्रीवास्तव,सौरभ शुक्ला और सुष्मिता मुखर्जी,स्वीनी खेरा,द्विज यादव। निर्देशन है मिलिन्द उके का और गीत-संगीत हनीफ शेख का। लेखन व पटकथा अहमद खान का है। नाम के अनुरूप ही सेंसर सर्टिफिकेट मिला है-यू।

फिल्म में हैं सरस्वती विद्या मंदिर के प्रिंसिपल आदित्य सहाय ( नाना पाटेकर ) । फर्स्ट डिवीजनर थे,चाहते तो डाक्टरी,इंजीनियरी की लाईन चुन सकते थे मगर चुनी शिक्षा की लाइन ताकि देश की भावी पीढ़ी का भविष्य संवार सकें। शादी भी यह सोचकर नहीं की कि कहीं परिवार के कारण स्कूल के छात्रों से उनकी दूरियां न बढ़ जाएं। लेकिन बदलते समय के साथ,स्कूल प्रबंधन और ट्रस्टी ने स्कूल को अब मुनाफा कमाने का ज़रिया बना लेते हैं। स्कूल परिसर में चैनलों और फिल्मों की शूटिंग होने लगी और छात्रों को पढाई छोड़ इन शोज में भीड़ का हिस्सा बनना पड़ता है। ज्यादा कमाई के चक्कर में हॉस्टल में भोजन शुल्क दोगुना कर दिया जाता है और फीस भी काफी बढ़ा दी गई है। फिर,जैसा कि प्रायः फिल्मों में होता है,युवा चेहरे की एंट्री के साथ ही स्थितियां बदलने लगती हैं। यह युवा चेहरा है स्कूल के अंग्रेजी टीचर राहुल प्रकाश ( शाहिद कपूर ) का जो हॉस्टल प्रभारी अंजलि माथुर ( आयशा टाकिया ) और सीनियर स्पोर्ट्स टीचर चौहान ( सुशांत सिंह ) छात्रों को साथ लेकर प्रबंधन के खिलाफ आंदोलन शुरू करता हैं।

इसमें शक नहीं कि देश में शिक्षा और बच्चों को केंद्र में रखकर फिल्म बनाने की सख्त आवश्यकता है। आज बच्चों का बचपन गुम हो रहा है और खुद माता-पिता भी चाहते हैं कि उनके बच्चे रॉकस्टार बन जाएं तो अच्छा। पाठशाला इन्हीं मुद्दों को उठाती है। मोहब्बतें,तारे ज़मीं पर और थ्री इडियट्स से इतर, इस फिल्म में शिक्षा के नाम पर पब्लिक स्कूलों में चल रही लूटखसोट के अलावा स्कूल मैनेजमेंट के सामने असहाय प्रिंसिपल को दिखाया गया है।

एक केंद्रीय विषय के रूप में,बॉलीवुड में यह विषय शायद पहली बार उठाया गया है। मगर नेक इरादा ही काफी नहीं होता। ऐसे महत्वपूर्ण विषय के लिए जितनी कसी पटकथा होनी चाहिए,उसका यहां सख्त अभाव है। एशियन एज में सुपर्णा शर्मा लिखती हैं कि इसकी कहानी इतनी ढीली है और आगे के दृश्यों का पूर्वानुमान लगाना इतना सहज है कि मुद्दे की गंभीरता कमज़ोर पड़ जाती है। मेल टुडे में विनायक चक्रवर्ती लिखते हैं कि इस फिल्म की पटकथा औंधे मुंह गिरती है-खासकर मध्यांतर के बाद। हिंदुस्तान में विशाल ठाकुर लिखते हैं कि फिल्म पर मुद्दा हावी रहा और कहानी कहीं है ही नहीं। नई दुनिया में मृत्युंजय प्रभाकर लिखते हैं कि पाठशाला इस विषय को संवेदनशील तरीके से सामने लाती है कि छात्रों को दरअसल एक स्कूल से क्या चाहिए। फिल्म अपने विषय की गंभीरता के कारण लोगों को जो़ड़ती तो है लेकिन बहुत देर तक बांध नहीं पाती। एक समय के बाद पटकथा और निर्देशक का फोकस खो जाता है। फिल्म को सारे पात्र अपनी भूमिका से आगे ब़ढ़ाते हैं चाहे वह शिक्षक हों या छात्र लेकिन पटकथा की कमजोरी और फिल्म को समेटने की हड़बड़ी इसे बेमज़ा कर देती है।

मृत्यंजय प्रभाकर ने लिखा है कि शाहिद के काम में विश्वसनीयता है लेकिन उनका चॉकलेटी चेहरा आ़ड़े आता है। ऊपर से फिल्म में उन्हें जिस तरह के वस्त्र पहनाए गए हैं वह किसी मजनू के ज्यादा और स्कूल टीचर के कम लगते हैं। नवभारत टाइम्स में चंद्रमोहन शर्मा को शाहिद का रोल ठीक लगा है। उनके हिसाब से,नाना अपनी गुस्सैल इमेज से बाहर नहीं निकल पाए मगर आएशा और सुशांत कुछ प्रभावित करते हैं। उनके अलावा,सुपर्णा शर्मा ने भी मास्टर द्विज यादव,अविका गौड़ और मास्टर अली हाजी के रोल को पसंद किया है। हिंदुस्तान में विशाल ठाकुर का कहना है कि शाहिद की बॉडी लैंग्वेज टीचर की लगती ही नहीं है। उनके हिसाब से,आयशा टाकिया फ्रेश लगी हैं और सौरभ शुक्ला एकमात्र ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने शुरू से अंत तक बांधे रखा। और नाना पाटेकर जैसी स्टारकास्ट के बावजूद इन दोनों कलाकारों का एक भी दृश्य ऐसा नहीं है जिसे याद रखा जा सके। मगर दैनिक जागरण में अजय ब्रह्मात्मज ने लिखा है कि सारे कलाकार ढीले-ढाले और थके-थके से हैं और यह फिल्म इनके निकृष्ट परफार्मेंस के लिए याद रखी जा सकती है।

फिल्म के दो गाने ऐ खुदा और कैलाश खेर का गाया तेरी मर्जी जाने खुदा अच्छे लगते हैं।

मृत्युंजय प्रभाकर लिखते हैं कि एक दिन की छात्र ह़ड़ताल से सरकार को हिलते हुए देखना अविश्वसनीय लगता है। ऊपर से मुद्दे को उठाने के लिए मीडिया का इस्तेमाल भी दूर की कौ़ड़ी है। हम सभी जानते हैं कि यह वही मीडिया है जिसे भूत-प्रेत और दूसरे मनोरंजन वाले खबरों में ज्यादा भरोसा है। लंबे बोझिल दृश्यों और कई अन्य भटकावों के कारण विशाल ठाकुर ने इसे पकाऊ और सुस्त के बीच रखा है जिसे एक स्टार के बराबर माना जा सकता है। दैनिक जागरण ने भी इसे एक स्टार दिया है। स्कूल में टीवी चैनलों वाले दृश्यों पर हिंदुस्तान टाइम्स में मयंक शेखर लिखते हैं हमारे फिल्म निर्माता दिन भर टीवी ही देखकर बिताते हैं ताकि कोई प्लॉट निकाल सकें इसलिए फिल्म में भी टीवी चैनल का मोह छोड़ नहीं पाए। वे व्यंग्य करते हैं कि यह फिल्म कपिल सिब्बल जी से ज्यादा अंबिका सोनी जी को पसंद आयेगी। उनकी ओर से भी इस फिल्म को मिले केवल एक स्टार। इंडियन एक्सप्रेस में शुभ्रा गुप्ता ने कथानक का पूर्वानुमान सहज होने के कारण फिल्म को दो स्टार दिए हैं। विनायक चक्रवर्ती कहते हैं कि यदि पेशेवर तरीके से हैंडल किया गया होता तो पाठशाला बनाने का ख्याल बुरा नहीं था। उन्होंने इसे ढाई स्टार के दिए हैं। सुपर्णा शर्मा लिखती हैं कि इस फिल्म में बुद्धि पर भावना को तरजीह दी गई है। उन्होंने उस दृश्य का हवाला देकर,फीस के अभाव में एक बच्चे को दिन भर धूप में खड़ा रहने की सज़ा दी जाती है और शाहिद उसकी फीस भरते हैं,बहुत मार्मिक बताते हुए इसे तीन स्टार दिया है। नभाटा ने भी,मौजूदा शिक्षा व्यवस्था की खामियों, पब्लिक स्कूलों द्वारा की जा रही लूट-खसोट तथा शिक्षकों के मूकदर्शक बने रहने की असरदार प्रस्तुति के आधार पर इसे तीन स्टार दिए हैं।

2 comments:

  1. ACHI JANKARI DI AAP NE


    SHEKHAR KUMAWAT

    http://kavyawani.blogspot.com/

    ReplyDelete
  2. अभी तो देखी नहीं, अब विचारते हैं कि कब देखें. आभार आपका.

    ReplyDelete

न मॉडरेशन की आशंका, न ब्लॉग स्वामी की स्वीकृति का इंतज़ार। लिखिए और तुरंत छपा देखिएः