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Thursday, April 22, 2010

अंगिका भाषा की फिल्म "अंगपुत्र" प्रदर्शन को तैयार

देश में फिल्मों का कारोबार मुंबई से बाहर पाँव पसार रहा है और यह पिछड़े माने जाने वाले राज्यों तक पहुंच गया है। पंजाबी, बांग्ला, भोजपुरी से लेकर गढ़वाली, छत्तीसगढ़ी और झारखंड की स्थानीय बोलियों तक में फिल्में बन रही हैं। बिहार में भोजपुरी के अतिरिक्त मैथिली फिल्म उद्योग की ही छिटपुट चर्चा होती रही है जिसकी नई फिल्म-मर अप्पन गाम अप्पन लोक का निर्माण प्रगति पर होने की सूचना है। इसी क्रम में ताजा एंट्री है अंगिका भाषा की मल्टीस्टारर फिल्म अंगपुत्र जो 30 अप्रैल को रिलीज हो रही है। इसमें,भोजपुरी और अंगिका लोकगीतों के मशहूर गायक-अभिनेता सुनील छैला बिहारी प्रमुख भूमिका में हैं। नायिका है अपराजिता । फिल्म में आप सीनी राकेश पाण्डे, ललितेश झा, छोटू छलिया, अपराजिता, रीमा सिंह, रीना रानी, मानसी पांडे, डा. अभय आशियाना, रेणु तिवारी और बलमा बिहारी को भी देख सकेंगे। रौशन क्रियेशन और सरगम बिहार फिल्म्स के बैनर तले बनी इस फीचर फिल्म में दस गाने हैं। फिल्म पर लागत आई है-70 लाख रूपए। इस पारिवारिक फिल्म की पूरी शूटिंग अंगप्रदेश,यानी,भागलपुर और इसके आसपास के इलाके में हुई है।
'अंगपुत्र' एक बांझ महिला की कहानी है । उसके विधुर श्वसुर को शादी करनी पड़ती है। उसके घर एक हमउम्र सास आती है। घर की एकमात्र महिला होने के कारण उसे ही रस्म अदायगी करनी होती है। कालांतर में उसकी सास एक बेटे को जन्म देने के बाद मर जाती है। महिला अपने देवर को बेटे के समान पालती है। आगे चलकर, समाज भाभी-देवर के रिश्ते को गलत नाम दे देता है। नायक यानी 'अंगपुत्र' भाभी को निर्दोष साबित कसम लेता है । भाभी की भूमिका मानसी पाण्डेय और भाई की ललितेश झा ने निभाई है। फिल्म के लेखक-निर्देशक हैं राजीव रंजन दास।
कुछेक क्षेत्रीय फिल्म उद्योगों की जबरदस्त लोकप्रियता ने अन्य क्षेत्रीय निर्माणों को प्रोत्साहन दिया है। पंजाब और बंगाल का फिल्म उद्योग तो काफी पुराना है।
पॉलीवुड यानी पंजाब के फिल्म उद्योग में, आजादी के समय, हिंदी फिल्मों के अभिनेता-अभिनेत्री भी काम करते थे। पहली पंजाबी फिल्म शीला 1932 में बनी थी। इसमें मुख्य भूमिका मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहां ने निभाई थी जो उनकी यह पहली फिल्म भी थी। पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी, दारा सिंह वगैरह पंजाबी फिल्मों में भी नियमित तौर पर काम करते थे। देश के बंटवारे का इस उद्योग पर खासा असर पड़ा। फिलहाल पंजाबी फिल्म उद्योग अर्थात् पॉलीवुड की स्थिति अच्छी है। 1950 से अब तक करीब 900 फिल्में बन चुकी हैं। नानक नाम जहाज, चन परदेसी और सतलज दे कंडे आदि फिल्मों को राष्ट्रीय अवार्ड भी मिले हैं। पंजाबी में हर साल नौ से 11 फिल्में बन रही हैं।
बँगला फिल्म उद्योग यानी टॉलीवुड तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर का है। इस उद्योग ने भारतीय फिल्मों को बढ़ाने में भी बड़ा योगदान दिया है। सत्यजीत राय,बुद्धदेब दास गुप्ता,ऋत्विक घटक,गौतम घोष,ऋतुपर्णो घोष,अपर्णा सेन,मृणाल सेन और तपन सिन्हा जैसे कालजयी निर्देशक आज दुनिया भर में जाने जाते हैं।
मलयालम सिनेमा यानी मॉलीवुड देश के सबसे समृद्ध और पुराने क्षेत्रीय फिल्म उद्योगों में से है। मोहनलाल इसका सबसे बड़ा नाम हैं। ये वही मोहनलाल हैं,जिनके साथ हाल ही में,अमिताभ ने बिना फीस के काम करने की बात कही है। शुरुआती दौर से यह उद्योग हिंदी के समानांतर चल रहा है। मलयालम की पहली फिल्म-विगथकुमारन (मूक) 1928 में बनी थी। 1933 में मार्तण्डवर्मा बोलती फिल्म बनी। अडूर गोपालकृष्णन, श्याम बेनेगल, प्रियदर्शन सभी भारतीय फिल्म उद्योग को मलयालयम सिनेमा की देन है। 2007 तक निर्देशन के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में 40 सम्मान मलयालम सिनेमा को मिले हैं। हेराफेरी, हंगामा, हलचल,क्योंकि समेत हिंदी की बेहिसाब फिल्में मलयालम फिल्मों पर आधारित हैं। मेजर रवि के निर्देशन में बनने वाली सुनील शेट्टी की अगली एक्शन फिल्म भी मलयालम सुपरहिट कीर्तिचक्र का री-मेक होगी। रोहित शेट्टी भी अजय देवगन को लेकर पुत्तिया मुगम की रीमेक बनाने वाले हैं।
स्थानीय बोलियों की कई फिल्मों ने अच्छा कारोबार किया है। भाषाई आधार पर खड़े इन उद्योगों ने "छॉलीवुड" और "झॉलीवुड" जैसे नाम ईजाद कर लिए है। ऐसी फिल्में क्षेत्रीय जरूरत के हिसाब से स्थानीय बोलियों में बनाई जाती हैं और इनका दर्शक वर्ग भी वही है जो मनोरंजन के लिए ज्यादा रकम नहीं देना चाहते। ग्रामीणों के लिए अपनी बोली में यह मनोरंजन का इससे बढिया मसाला नहीं हो सकता ।
छत्तीसगढ़ी यानी छॉलीवुड की पहली फिल्म कहि देबे संदेश 1966 में बनी थी। 70 के दशक में घरबार और गृहस्थी नाम की फिल्में आईं । छत्तीसगढ़ की मया नाम की फिल्म ने हाल में तीन करोड़ रूपए का कारोबार किया है। इन दोनों ही फिल्मों मे स्थानीय लोगों को लिया गया था। फिल्म के गाने मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर ने गाए थे। मोर छइयां-भुइयां(2000) छॉलीवुड की सुपरहिट फिल्म है। इसी वर्ष मोरे सपना का राजा रिलीज हुई मगर तकनीकी खामियों के कारण नहीं चल सकी। प्रेम चंद्राकर मया दे दे मया ले ले सहित अब तक तीन-चार हिट फिल्में दे चुके हैं। संतोष जैन की जय बमलेश्वरी फिल्म छह हफ्ते से चल रही है। छॉलीवुड में अब तक बाहर से हीरोइनें ली जाती रही हैं मगर अब स्थानीय स्तर पर भी तलाश की जा रही है।
झालीवुड यानी झारखंड में नागपुरी, खोरथा और संथाली बोलियो में फिल्में बन रही हैं। यहां फिल्म की शुरूआत का श्रेय लोहरदगा के सहदेव परिवार और रांची के गांगुली परिवार को जाता है। आक्रान्त(1988) यहां की पहली फीचर फिल्म थी जिसमें वन कटाई,मजदूरों के प्रवास,घूसखोरी,भ्रष्टाचार आदि स्थानीय मुद्दे उठाए गए थे। विनोद कुमार के निर्देशन में बनी इस फिल्म की शूटिंग रांची और मुंबई में की गई थी और इसर फिल्म में सदाशिव अमरापुरकर भी थे। बाद में, स्थानीय कलाकारों को लेकर धनंजय प्रताप तिवारी ने नागपुरी में सोनाकर नागपुर (1992) बनाई जिसमें सिर्फ स्थानीय कलाकार थे। ब्लैक आइरन मैन बिरसा और उलगुलान-एक क्रांति दो अन्य नागपुरी फिल्में हैं। तुआर,माई का दुलारा,प्यार कर और मेहँदी कुछ अन्य चर्चित झालीवुड फिल्में हैं। पिछले साल ही फिल्म जुगानी रिलीज हुई थी। दशरथ मानसी ने संथाली में फिल्म बनाई थी, लेकिन इन फिल्मों का संगीत लोकसंगीत तक सीमित था। आधुनिक संगीत का नजारा पहली बार,सुपरहिट फिल्म प्रीत में देखने को मिला। इस फिल्म की थीम भी अब तक बनने वाली फिल्मों से हटकर राजनीति पर आधारित थी। इसके दो गाने काली गोरी मेम संग चले.. और जेनी मन का फैशन हाय रे.. के कैसेट और सीडी खूब बिके। झालीवुड की सबसे महंगी फिल्म मितवा परदेसी इसी वर्ष बनी है। इस पर 28 लाख की लागत आई है। अनिल सिकदर की फिल्म हमार झारखंड के छैला ने भी बढि़या कारोबार किया है। यह डिजिटल फार्मेट में बनी पहली फिल्म थी जिसमें विस्थापन और बाहरी लोगों द्वारा शोषण की समस्या को दिखाया गया था।
गढवाली सिनेमा ने 2008 में अपनी रजत जयंती मनाई थी। पहली गढवाली फिल्म जग्वाल 1983 में रिलीज हुई थी। कबि सुख कबि दुःख(1986), कौथिग और घरजवैं(1987),रैबार(1990),बंटवारू(1992),बेटी-ब्वारू(1996),तेरी सौं(2003) और चेलि(2006) अब तक की प्रमुख गढवाली फिल्में हैं। पहली कुमाउंनी फिल्म मेघा आ 1987 में प्रदर्शित हुई थी। पहली गुजराती फिल्म नरसिंह मेहता 1932 में रिलीज हुई थी। 1988 तक,गुजराती में प्रतिवर्ष लगभग 40 फिल्में बनती थीं जिनकी संख्या इन दिनों आर्थिक संकट के कारण घटकर 10-12 रह गई है। यहां के फिल्म उद्योग को बचाने के लिए गुजरात सरकार ने 2005 में 100 प्रतिशत कर रियायत की घोषणा भी की थी। केतन मेहता की पहली फिल्म भवानी भवाई(1988) गुजराती में ही थी। हिमाचली फिल्म उद्योग अपने शुरूआती दौर में हैं।
स्थानीय स्तर पर और डिजिटल एचडी फार्म में बनी इन फिल्मों की डबिंग, मार्केटिंग –सब स्थानीय स्तर पर होती है। देखना यह है कि ये फिल्में हिंदी फिल्मों की तकनीक और मसाले से किस हद तक मुकाबला कर पाती हैं।

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