रंगमंच से अपने करियर की शुरुआत करने वाले एक गुजराती परिवार के इस युवक की दिली इच्छा तो आखिरकार फिल्मों में आने की ही थी और ऐसा ही हुआ भी। वे खुद कहा करते थे कि - रंगमंच को तो मैंने इसलिए अपनाया था कि अपनी अभिनय क्षमता की थाह पा सकूं। वैसे मेरा अंतिम लक्ष्य तो फिल्में ही थीं।" हालांकि शुरुआत में उन्हें बी ग्रेड स्टंट फिल्में मिली या फिर छोटी भूमिकाएं। एक बार तो वे ऑडिशन में रिजेक्ट भी कर दिए गए लेकिन अभिनय के इस हीरे की परख आखिरकार हुई और थोड़ी देर से ही सही साठ के दशक में निशान, आशीर्वाद, गौरी, स्मगलर आदि जैसी कई फिल्में करने के बाद सन् १९७० में आई "खिलौना" ने उन्हें ख्यातनाम बना दिया। एक मानसिक संतुलन खो बैठे प्रेमी का यह रोल उन्हें ऊंचाई पर ले गया। फिर तो सीता और गीता, कोशिश, नया दिन नई रात, आंधी, मौसम, शतरंज के खिलाड़ी, अर्जुन पंडित और ब्लॉकबस्टर शोले जैसी कई सफलताएं उनके खाते में जुड़ती ही चली गईं। अपनी भूमिकाओं के प्रति संजीव का समर्पण इस दीवानगी की हद तक था कि वे हर रोल को एक नई चुनौती की तरह लेकर उस पर सौ प्रतिशत खरे उतरते थे।
अर्जुन की तरह उनका भी पूरा ध्यान सिर्फ चिड़िया की आंख पर केंद्रित होता था और सितारा हैसियत, नंबरों का तमगा या पुरस्कार जैसी बात को उन्होंने कभी अपने दिमाग पर चढ़ने नहीं दिया। जिंदगी भर उन्होंने एक कलाकार की तरह ही काम किया। उनकी प्रतिभा का सही उपयोग करने में गुलजार सबसे आगे रहे। एक समय था जब गुलजार और संजीव एक-दूसरे के पर्याय बन चुके थे और उनकी "ट्यूनिंग" इतनी अच्छी थी कि वे एक-दूसरे का मन पढ़ पाते थे।
सबसे खास बात जिसने संजीव को उनके समकक्षों और हर अभिनेता से अलग बनाया वह ये थी कि उन्होंने कम उम्र में भी प्रौढ़ भूमिकाएं करने से गुरेज नहीं किया। बल्कि कई बार तो वे अपनी नायिकाओं के पिता के रोल भी उसी दक्षता से निभा गए जिनके साथ उन्होंने रूमानी भूमिकाएं की थीं। जया भादुड़ी और शर्मिला टैगोर इसका उदाहरण हैं। तब भी और आज भी, अधेड़ होते नायक तक इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाए। शोले के ठाकुर और कोशिश के मूकबधिर युवा से लेकर नया दिन नई रात के नौ अलग रूपों वाले व्यक्ति तक संजीव ने कम समय में कई कीर्तिमान रच डाले। उन्हें दो राष्ट्रीय पुरस्कारों के अलावा कई अन्य सम्मान भी प्राप्त हुए।
यह विडंबना ही है कि खुशमिजाज और प्रतिभाशाली इस अभिनेता को सब कुछ मिलते हुए भी मोहब्बत के नाम पर बेरुखी ही हाथ आई और हेमामालिनी के लिए दिल में सच्चा प्यार लिए वे बिना और किसी से शादी किए ही दुनिया से चले गए।
यह भी उतना ही दर्दनाक था कि अंतिम समय तक उनके साथ रहीं और उन्हें सच्चे दिल से चाहने वाली सुलक्षणा पंडित भी उनके मन के उस कोने से हेमा की तस्वीर नहीं मिटा सकीं। बकौल सुलक्षणा -" मैंने संजीव कुमार से बहुत प्यार किया था और उनकी बायपास सर्जरी के बाद जब एक दिन हनुमान मंदिर में मैंने उनसे अपनी मांग में सिंदूर भरने को कहा तो उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि वे कभी भी अपने पहले प्यार हेमा मालिनी को नहीं भूल सकते।"
हरिहर जरीवाला... एक नाम जो फिल्म जगत में कई-कई मील के पत्थर कायम कर गया। ऐसे फिल्म जगत में जहां लोग अपनी सफलताओं का ढिंढोरा ज्यादा पीटते हैं और हर पल नंबरों के खेल में बने रहते हैं। हरिभाई ने नंबर का यह गणित जाना ही नहीं। जाना होता तो शायद अपनी जिंदगी में कुछ नंबर और जोड़ लेते। पर उन्होंने तो हमेशा केवल हर रोल की चुनौती को स्वीकार कर उसमें डूब जाना ही सीखा था... जो बहुत कम कलाकार कर पाते हैं। इसलिए फिल्म जगत के आकाश में सितारों के ढेर हो सकते हैं, लेकिन संजीव जैसे अपने प्रकाश से चमकते कलाकार कम ही होते हैं और इनके आगे हर सितारा फीका पड़ जाता है।
(मालविका कौशल,नई दुनिया,दिल्ली,27.2.10)
अर्जुन की तरह उनका भी पूरा ध्यान सिर्फ चिड़िया की आंख पर केंद्रित होता था और सितारा हैसियत, नंबरों का तमगा या पुरस्कार जैसी बात को उन्होंने कभी अपने दिमाग पर चढ़ने नहीं दिया। जिंदगी भर उन्होंने एक कलाकार की तरह ही काम किया। उनकी प्रतिभा का सही उपयोग करने में गुलजार सबसे आगे रहे। एक समय था जब गुलजार और संजीव एक-दूसरे के पर्याय बन चुके थे और उनकी "ट्यूनिंग" इतनी अच्छी थी कि वे एक-दूसरे का मन पढ़ पाते थे।
सबसे खास बात जिसने संजीव को उनके समकक्षों और हर अभिनेता से अलग बनाया वह ये थी कि उन्होंने कम उम्र में भी प्रौढ़ भूमिकाएं करने से गुरेज नहीं किया। बल्कि कई बार तो वे अपनी नायिकाओं के पिता के रोल भी उसी दक्षता से निभा गए जिनके साथ उन्होंने रूमानी भूमिकाएं की थीं। जया भादुड़ी और शर्मिला टैगोर इसका उदाहरण हैं। तब भी और आज भी, अधेड़ होते नायक तक इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाए। शोले के ठाकुर और कोशिश के मूकबधिर युवा से लेकर नया दिन नई रात के नौ अलग रूपों वाले व्यक्ति तक संजीव ने कम समय में कई कीर्तिमान रच डाले। उन्हें दो राष्ट्रीय पुरस्कारों के अलावा कई अन्य सम्मान भी प्राप्त हुए।
यह विडंबना ही है कि खुशमिजाज और प्रतिभाशाली इस अभिनेता को सब कुछ मिलते हुए भी मोहब्बत के नाम पर बेरुखी ही हाथ आई और हेमामालिनी के लिए दिल में सच्चा प्यार लिए वे बिना और किसी से शादी किए ही दुनिया से चले गए।
यह भी उतना ही दर्दनाक था कि अंतिम समय तक उनके साथ रहीं और उन्हें सच्चे दिल से चाहने वाली सुलक्षणा पंडित भी उनके मन के उस कोने से हेमा की तस्वीर नहीं मिटा सकीं। बकौल सुलक्षणा -" मैंने संजीव कुमार से बहुत प्यार किया था और उनकी बायपास सर्जरी के बाद जब एक दिन हनुमान मंदिर में मैंने उनसे अपनी मांग में सिंदूर भरने को कहा तो उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि वे कभी भी अपने पहले प्यार हेमा मालिनी को नहीं भूल सकते।"
हरिहर जरीवाला... एक नाम जो फिल्म जगत में कई-कई मील के पत्थर कायम कर गया। ऐसे फिल्म जगत में जहां लोग अपनी सफलताओं का ढिंढोरा ज्यादा पीटते हैं और हर पल नंबरों के खेल में बने रहते हैं। हरिभाई ने नंबर का यह गणित जाना ही नहीं। जाना होता तो शायद अपनी जिंदगी में कुछ नंबर और जोड़ लेते। पर उन्होंने तो हमेशा केवल हर रोल की चुनौती को स्वीकार कर उसमें डूब जाना ही सीखा था... जो बहुत कम कलाकार कर पाते हैं। इसलिए फिल्म जगत के आकाश में सितारों के ढेर हो सकते हैं, लेकिन संजीव जैसे अपने प्रकाश से चमकते कलाकार कम ही होते हैं और इनके आगे हर सितारा फीका पड़ जाता है।
(मालविका कौशल,नई दुनिया,दिल्ली,27.2.10)
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