स्टोरी राइटर और डायरेक्टर : अश्विनी धीर
संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती
सेंसर सर्टिफिकेट : यू
अवधि : 122 मिनट
हमारी रेटिंगः***1/2
फिल्म के डायरेक्टर अश्विनी धीर का नाम स्मॉल स्क्रीन पर उनके सुपर हिट कॉमिडी सीरियल ऑफिस - ऑफिस की वजह से जाना पहचाना है। वैसे , इससे पहले भी अश्विनी ने नामी स्टार्स के साथ एक लाइट कॉमिडी फिल्म बनाई थी , लेकिन वह फिल्म कब आई और कब गई , पता तक नहीं चला। अब उन्होंने एक बार फिर लंबे गेप के बाद बिग स्क्रीन पर वापसी की है। इस बार भी उन्होंने अपने पसंदीदा सब्जेक्ट कॉमिडी पर ही फोकस किया है। अश्विनी ने इस बार बॉक्स ऑफिस पर बिकाऊ स्टार कास्ट का सहारा लिया है। साथ ही लाइट कॉमिडी बेस्ड कहानी में कुछ नया परोसने की भी कोशिश की है। दरअसल , बॉलिवुड में कॉमिडी को बेस बनाकर कम अवधि की फीचर फिल्म बनाने का ट्रेंड अब पनपना शुरू हुआ है। हॉलिवुड में ऐसी फिल्मों का ट्रेंड बरसों से चल रहा है और काफी पसंद भी किया जाता है। इस फिल्म को देखने के बाद लगता है कि अश्विनी कहीं न कहीं बासु भट्टाचार्य और ऋषिकेश मुखर्जी से काफी हद तक प्रभावित हैं , तभी तो पूरी फिल्म एक फैमिली और सोसायटी में रहने वाले चंद पात्रों के इर्द - गिर्द टिकी है।
कहानी : फिल्म की कहानी वर्किंग कपल पुनीत ( अजय देवगन ) और मुनमुन ( कोंकणा सेन शर्मा ) और उनके सात साल के इकलौते बेटे पर टिकी है। फिल्म में दिखाया गया है कि आज महानगरों की तेज रफ्तार जिंदगी में पति - पत्नी अपनी फैमिली की जिम्मेदारी किस तरह उठा रहे हैं। पुनीत को अपने बेटे के कुछ सवालों का जवाब देना मुश्किल लगता है। उसी बेटे से जब टीचर पूछता है कि अतिथि का क्या मतलब होता है , तो वह नहीं बता पाता क्योंकि उसके घर तो कभी अतिथि आया ही नहीं। बेटा अब वही सवाल घर में आकर अपने डैड से पूछता है। इसी बीच इन सबकी खुशहाल जिंदगी में कभी न खत्म होने वाली मुश्किलों का दौर उस वक्त शुरू होता है , जब उनके घर एक रिश्ते में बहुत दूर से पुनीत के चाचा लंबोदर बाजपेयी ( परेश रावल ) आ धमकते हैं। पुनीत उन्हें नहीं जानता , लेकिन लंबोदर चाचा तो उससे मनवा ही लेते हैं कि वही उनका भतीजा पप्पू है। खैर , घर आए इस अनचाहे अतिथि को पुनीत और मुनमुन यह सोचकर रखते हैं कि चलो दो - चार दिन में तो हुजूर चले ही जाएंगे। लेकिन उन्हें क्या मालूम कि यह अनचाहा अतिथि लंबोदर बाजपेयी आया भी अपनी मर्जी से है और जाएगा भी अपनी मर्जी से। चाचा जी को इससे कुछ लेना देना नहीं कि उनकी वजह से पुनीत की फैमिली कभी न खत्म होने वाली मुश्किलों में घिर जाती है।
स्क्रिप्ट : फिल्म के डायलॉग असरदार , सटीक और मन को छूने वाले हैं। ऐसा ही एक डायलॉग कुछ इस तरह है , ' भगवान भी हमारे घर कभी गणेश जी के रूप में , तो कभी नवरात्र के रूप में आते हैं , लेकिन निश्चित अवधि के बाद घर से चले जाते हैं। ' फिल्म के क्लाइमैक्स में इस अनचाहे अतिथि के अचानक लापता होने पर पुनीत की फैमिली ही नहीं , बल्कि सोसायटी का हर वह शख्स परेशान है , जो इन्हीं चाचा जी के जाने की दुआएं मांगता था।
ऐक्टिंग : इस फिल्म में मुख्य रोल निभा रहे तीनों कलाकारों अजय , कोंकणा और परेश सभी ऐसे कलाकार हैं , जिन्हें देश - विदेश में कई अवॉर्ड मिल चुके हैं। पुनीत के रोल में अजय और अनचाहे मेहमान के आने से हर वक्त टेंशन में रहने वाली मुनमुन के रोल में कोंकणा का जवाब नहीं। लेकिन फिल्म की असली यूएसपी तो लंबोदर चाचा ( परेश रावल ) हैं। वह जब भी स्क्रीन पर आए , उनके सामने हर कोई बौना लगा। ऐसा नहीं कि डायरेक्टर ने दूसरे स्टार्स से बेहतर काम नहीं लिया। अखिलेंद्र मिश्रा और संजय मिश्रा का काम भी लाजवाब है।
संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती के संगीत में इस बार पहले जैसी मेलॉडी तो नहीं दिखी। हां , अजय झींगरन की आवाज में गाया फिल्म का टाइटिल सॉन्ग पूरी फिल्म में जब भी सुनाई दिया , दर्शक झूम उठे।
डायरेक्शन : लंबे गेप के बाद अश्विनी ने अपनी काबिलियत का लोहा मनवाया। सिर्फ दो घंटे की एक ट्रैक पर बनी इस फिल्म में अश्विनी कहीं बॉक्स ऑफिस के मोह में इधर - उधर नहीं भटके। साथ ही उन्होंने फैमिली के साथ देखी जा सकने वाली साफ सुथरी अच्छी कॉमिडी फिल्म बनाकर इंडस्ट्री के ऐसे निर्देशकों की याद दिला दी , जो बिना डबल मीनिंग डायलॉग का सहारा या अश्लीलता के बिना ऐसी फिल्में बनाते थे , जो फैमिली क्लास ही नहीं , हर दर्शक वर्ग को पसंद आती। एक्शन सीन कहानी में फिट करने के चलते स्क्रिप्ट से थोड़ा जरूर भटके।
क्यों देखें : अगर टेंशन भगाना चाहते हैं , तो इस अतिथि से हॉल में जाकर मिल आइए। अगर आपका कभी किसी ऐसे अनचाहे मेहमान से वास्ता पड़ा है , जिसने आपकी लाइफ डिस्टर्ब कर दी हो , तो इस फिल्म को जरूर देखिए। परेश रावल का जीवंत अभिनय और फिल्म की कई परिस्थितियां आपको जरूर गुदगुदाएंगी।
(चंद्रप्रकाश शर्मा,नभाटा,दिल्ली)
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दैनिक भास्कर मे राजेश यादव ने इस फिल्म को तीन स्टार देते हुए लिखा हैः
अश्विनी धीर के निर्देशन में बनीं फिल्म अतिथि तुम कब जाओगे? हॉस्य,मनोरंजन के साथ भावनात्मक संदेश देती है। फिल्म में छोटे- छोटे कथानक जुड़कर हॉस्य का ऐसा पिटारा बुनते है जो दर्शक को गुदगुदाता है। हॉस्य जो कुछ कह जाता है, बात जो दिल को छू जाती है, अतिथि और मेजबान के बीच संवाद करती यह फिल्म ऋषिकेष मुखर्जी की फिल्मों की याद दिलाती है। अश्विनी धीर ने फिल्म की पटकथा को शरद जोशी की लघुकथा तुम कब जाओगे अतिथि से रूपांतरित किया है और यह इस फिल्म की सबसे खास बात है। बात जो हंसाती है, बात जो दिल को छू जाती है और और अनकही बातों के अशाब्दिक संप्रेषण से जो मनोरंजन निकलता है वह दर्शक का मन मोह लेने वाला है, वहीं फिल्म में संवाद से हॉस्य का पिटारा गुदगुदाता है।
फिल्म मुंबई में रह रहे एक ऐसे मध्यमवर्गीय परिवार से जुड़ी है, इस परिवार में पुनीत (अजय देवगन), और मुनमुन (कोंकणा सेन) की घरेलु जिंदगी में उस वक्त विचित्र स्थिति बन जाती है जब उनके यहां मेहमान के रूप में दूर के रिश्ते के चाचा (परेश रावल ) रहने के लिए आ जाते है। महानगरीय जिंदगी में चाचा जी अपनी बहुत सी बातों क साथ समझौता कर रहने लगते है, उधर पुनीत और मुनमुन अपने इस नए मेहमान के कारण परेशान रहने लगते है। वे अपने यहां आए इस बिन बुलाए मेहमान को विदा करने के लिए कई जतन करते है और इन सब बातों के बीच से निकलता है बेहतरीन हॉस्य और दिल को छू लेने वाली बात।
शहर बड़े हुए है, और परिवार छोटे और रिश्तों के ताने -बाने में भी एक बदलाव ,अतिथि को भगवान मानने वाले इस देश में अतिथि तुम कब जावोगे के संदेश के साथ बॉक्स ऑफिस पर आई इस फिल्म में अजय, कोंकणा और परेश की तिकड़ी ने बेहतरीन अभिनय किया है। परेश ने चाचा जी के रोल में कमाल का अभिनय किया है और कॉमेडी के जिस अंदाज को वह जीते है वह दर्शक को गुदगुदाता है। वहीं अजय देवगन और कोंकड़ा की टायमिंग और टयूनिंग रंग जमाने वाली है। कम बजट में स्वस्थ मनोरंजन की बात करती इस फिल्म में ऐसा बहुत कुछ है जो बॉलीवुड के लेखन और मनोरंजन की स्वस्थ परंपरा की तरफ हमारा ध्यान ले जाता है।
फिल्म में प्रीतम चक्रवर्ती का संगीत है और इरशाद कामिल के बोल फिल्म की थीम के अनुरूप है, पुराने गीत के तर्ज पर टाइटल सांग के बोल में एक खास तरह की मधुरता है। बॉलीवुड में ऐसी फिल्में बेहद सफल रहीं है जो किसी बेहतरीन किताब से रंपातरिंत कर फिल्मी पटकथा के रूप में आई है। फिल्म के निर्देशक अश्विनी धीर को इस बात के लिए साधुवाद दिया जा सकता है कि उन्होंने कम बजट में बेहतरीन हॉस्य रचने का प्रयास किया है।
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राजस्थान पत्रिका मे रामकुमार सिंह जी की दृष्टि भी देखिएः
हमारे यहां अतिथि भगवान माना गया है लेकिन इस फिल्म का शीर्षक ही यह दुआ कर रहा है कि अतिथि घर छोडकर जाए। मुंबई में फिल्म राइटर पुनीत के घर उनके दूर के रिश्तेदार लंबोदर चाचा आए हैं। पुनीत और उसकी कामकाजी पत्नी मुनमुन ने शुरूआती दिनों में आदर भाव दिखाया लेकिन धीरे धीरे इस अतिथि की वजह से उनकी निजी जिंदगी में भूचाल आ गया। माता पिता के कामकाजी और शहरी जीवन शैली से अकेलेपन से जूझ रहा उनका छह साल का बच्चा लंबोदर चाचा से घुलमिल गया है। लंबोदर चाचा के पास मुंबई में आस पास के गांव के परिचित लोगों की सूची हैं जिन्हें उन्होंने याद किया है। कुल मिलाकर लंबोदर चाचा गांव के हैं और पुनीत और उसकी पत्नी पर शहरीकरण का पूरा रंग है। उन्हें अतिथि बोझ ही लगता है। सबके पास अपनी थोडी सी स्पेस है और दिल बुरी तरह संकरा। दोनों पति पत्नी हर मुमकिन कोशिश करते हैं कि वे लंबोदर चाचा को वहां से निकालें लेकिन लंबोदर चाचा है कि धीरे धीरे मोहल्ले में लोगों और बच्चों के भी प्रिय बन गए हैं। वे जाने का नाम ही नहीं ले रहे। आखिरकार एक मामूली घटनाक्रम के बाद वे स्वयं ही उनका घर छोडकर जाने की बात करते हैं। फिल्म की पटकथा में लोकजीवन की छोटी छोटी कथाओं को पिरोया गया है। लंबोदर चाचा द्वारा बार बार गैस निकालने की ध्वनि एक स्तर पर आकर थोडी ऊब पैदा करती है लेकिन कुल मिलाकर फिल्म एक स्वस्थ पारिवारिक मनोरंजन करती है। खासकर महानगर में रहने वाले लोग लंबोदर चाचा जैसे अतिथि का कभी ना कभी सामना तो करते ही हैं। फिल्म बिना कुछ कहे गांव और शहर के लोगों की मन:स्थिति के बुनियादी फर्क को भी रेखांकित करती है कि घर बडे बनाकर और दौलत कमाने वाला मध्यवर्गीय आदमी में शहर में आकर कैैसे अपनी प्राथमिकताएं बदल देता है।फिल्म में लंबोदर चाचा बने परेश रावल अदभुत लगे हैं। अजय देवगन ओर कोंकणा ठीक हैं। चौकीदार बने संजय मिश्रा का काम भी काबिले तारीफ है। गीत इरशाद कामिल के हैं और बीडी जलाइले की धुन पर माता की आरती ठीक लगती है। संगीत प्रीतम और अमित मिश्रा का है। कबीर और रहीम के दोहों को अच्छे से इस्तेमाल किया गया है। निर्देशक अश्विनी धर ने एक मनोरंजक फिल्म रची है। फिल्म खत्म होते होते अतिथि देवो भव ही स्थापित होता है।
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दैनिक जागरण मे अजय ब्रह्मात्मज ने इस फिल्म को साढे तीन स्टार देते हुए लिखा हैः
पिछले कुछ सालों में लाउड कामेडी ने यह स्थापित किया है कि ऊंची आवाज मैं चिल्लाना, गिरना-पड़ना और बेतुकी हरकतें करना ही कामेडी है। प्रियदर्शन और डेविड धवन ऐसी कामेडी के उस्ताद माने जाते हैं। उनकी कामयाबी ने दूसरे निर्देशकों को गुमराह किया है। दर्शक भी भूल गए है कि कभी हृषीकेष मुखर्जी, गुलजार और बासु चटर्जी सरीखे निर्देशक सामान्य जीवन के हास्य को साधारण चरित्रों से पेश करते थे। अश्रि्वनी धीर की अतिथि तुम कब जाओगे? उसी श्रेणी की फिल्म है। यह परंपरा आगे बढ़नी चाहिए।
पुनीत फिल्मों का संघर्षशील लेखक है। वह कानपुर से मुंबई आया है। उसकी पत्नी मुनमुन बंगाल की है। दोनों का एक बेटा है। बेटा नहीं जानता कि अतिथि क्या होते हैं? एक दिन चाचाजी उनके घर पधारते हैं, जो खुद को पुनीत का दूर का रिश्तेदार बताते हैं। शुरू में उनकी ठीक आवभगत होती है, लेकिन छोटे से फ्लैट में उनकी मौजूदगी और गंवई आदतों से पुनीत और मुनमुन की जिंदगी में खलल पड़ने लगती है। चाचाजी को घर से भगाने की युक्तियों में बार-बार विफल होने के क्रम में ही पुनीत और मुनमुन को एहसास होता है कि कैसे चाचाजी उनकी रोजमर्रा जिंदगी के हिस्सा हो गए हैं। अश्रि्वनी धीर ने अतिथि के इस प्रसंग को रोचक तरीके से फिल्म में उतारा है। उन्होंने फिल्म को बढ़ाने के लिए कुछ दृश्य और प्रसंग जोड़े हैं, जिनसे मूल कहानी थोड़ी ढीली होती है। फिर भी अजय देवगन, परेश रावल, कोंकणा सेन शर्मा और सहयोगी कलाकारों ने फिल्म को बांधे रखा है। परेश रावल की अभिनय क्षमता का अश्रि्वनी धीर ने सार्थक उपयोग किया है। अजय देवगन बहुमुखी अभिनेता के तौर पर निखर रहे हैं। वे लाउड कामेडी के साथ ऐसी हल्की-फुल्की कामेडी भी कर सकते हैं। कोंकणा सेन शर्मा तो हैं ही सहज अभिनेत्री। मुकेश तिवारी, संजय मिश्र, अखिलेन्द्र मिश्र और सतीश कौशिक का अभिनय और योगदान उल्लेखनीय है।कोंकणा के संवादों में स्त्रीलिंग-पुल्लिंग की गलतियां उनके चरित्र को बारीकी से स्थापित करती है। इस फिल्म का कितने आदमी थे प्रसंग रोचक है। परेश रावल ने उस प्रसंग को अपने अंदाज से मजेदार बना दिया है। उन्हें वीजू खोटे का बराबर सहयोग मिला है। बस, एक ही शिकायत की जा सकती है कि परेश रावल को इतना ज्यादा वायु प्रवाह करते नहीं दिखाना चाहिए था। पर आजकल हिंदी फिल्मों का यह आम दृश्य हो गया है।
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