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Friday, March 12, 2010

ना घर के ना घाट केःफिल्म-समीक्षा

कलाकार : ओम पुरी , परेश रावल , नारायणी शास्त्री , राहुल अग्रवाल , रवि किशन , नीना गुप्ता , श्वेता साल्वे , अनंत महादेवन , राकेश श्रीवास्तव
निर्माता : टी . पी . अग्रवाल
डायरेक्टर : राहुल अग्रवाल
गीत : मुदस्सर अजीज
संगीत : ललित पंडित
सेंसर सर्टिफिकेट : यू /
अवधि : 121 मिनट
रेटिंग : /photo.cms?msid=5672621
देव आनंद के साथ ' रिर्टन्स ऑफ ज्वैलथीफ ' बना चुके टी . पी . अग्रवाल ने उसके बाद भले ही मेगा बजट फिल्में बनाने से हाथ खींच लिए हों , लेकिन उनका फिल्में बनाने का जुनून कम नहीं हुआ। लंबे गैप के बाद टी . पी . ने अपने साहबजादे राहुल की खातिर ऐसी फिल्म बनाई है , जिसमें छोटे शहरों में बिकने वाला मसाला मौजूद है। राहुल ने हीरो और डायरेक्शन की कमान अपने हाथों में रखी। शायद यहीं वह गलती कर बैठे।

पापा की फिल्म में हीरो बनना तो चलेगा , लेकिन डायरेक्शन की कमान अपने हाथ में रखना बॉक्स ऑफिस पर महंगा पड़ सकता है। वैसे , बतौर डायरेक्टर राहुल पूरी तरह से नाकाबिल नहीं रहे। राहुल ने सुस्त रफ्तार से आगे बढ़ती कहानी को पटरी से उतरने नहीं दिया , तो वहीं उन्होंने छोटे - छोटे गांवों में रहने वालों की एक झलक दिखाने की काफी हद तक सही कोशिश की है। काश राहुल खुद को हीरो मैटीरियल समझने की भूल करते और अपना पूरा ध्यान निर्देशन पर लगाते , तो शायद उनकी यह फिल्म हल्की - फुल्की मजेदार कॉमिडी फिल्मों के शौकीनों को पसंद आती। राहुल लगभग पूरी फिल्म में एक लुक और एकसमान गेटअप में ही नजर आते हैं। ऐसा लगता है कि प्रॉडक्शन कंपनी ने ऐसी स्क्रिप्ट चुनी , जो सिंपल लुक वाले मुंबइया हीरो की इमेज से कोसों दूर राहुल पर फिट हो और इस मकसद में निर्माता काफी हद तक कामयाब भी रहे।

कहानी : फिल्म शुरू होती है ' वेलकम टु सज्जनपुर ' जैसे एक ऐसे गांव से , जो भले ही शहरी सुविधाओं से अलग - थलग है , लेकिन यहां रहने वालों को हर उस बात में दिलचस्पी है , जिससे उनका कुछ लेना - देना नहीं। इस अनोखे पालनपुर गांव के सीधे - सादे , लेकिन स्टडी में अव्वल रहने वाले देवकी नंदन त्रिपाठी ( राहुल अग्रवाल ) को मुंबई में नौकरी मिलती है। पिता संकटा प्रसाद त्रिपाठी गांव के दोस्तों के साथ देवकी को स्टेशन पर छोड़ने आते हैं। गांव से जाते वक्त देवकी के पास अपना नाम पता लिखी पुरानी अटैची के अलावा मां ( नीना गुप्ता ) द्वारा उसके लिए खास तौर से बनाए अचार के डिब्बे के साथ ही और भी बहुत कुछ है। खैर , मुंबई में देवकी को नौकरी तो झट से मिल जाती है , लेकिन रहने की मुश्किल है। एक एजेंट जरिए उसकी यह मुश्किल भी खत्म हो जाती है , जो उसे शहर के स्लम के बीचोबीच बनी एक सोसायटी में रहने वाले टपोरी नुमा दादा ( रवि किशन ) के यहां पेइंग गेस्ट ठहराता है। गांव लौटने पर देवकी की शादी घूंघट में पूरी तरह से लिपटी उस दुलहन ( नारायणी शास्त्री ) से कर दी जाती है , जिसकी उसने सूरत तक नहीं देखी। बस यहीं से कुछ ऐसा उलटफेर शुरू होता है कि देवकी पुलिस थाने में रंगीन मिजाज इंस्पेक्टर परेश रावल के यहां चक्कर काटने को मजबूर हो जाता है।

एक्टिंग : परेश रावल , ओम पुरी और रवि किशन जैसे मंझे हुए कलाकार हैं , लेकिन कहानी में उनके करने के लिए कुछ खास नहीं। परेश और ओम पुरी को पहले भी कई बार ऐसी भूमिकाओं में देखा जा चुका है। वहीं , न्यूकमर राहुल अग्रवाल का किरदार भले ही उनके लुक से काफी हद तक मेल खाता है , लेकिन स्क्रीन पर खुद को ज्यादा दिखाने के लालच में वही फिल्म की कमजोर कड़ी बनकर रह गए। टपोरी की दमदार भूमिका में रवि किशन जरूर फ्रंट क्लास से जमकर तालियां ले जाएं।

डायरेक्शन : बतौर डायरेक्टर राहुल अपनी पहली ही फिल्म में सिल्वर स्क्रीन पर छाए रहने की चाह में कैमरे के पीछे की जिम्मेदारी को भूल गए।

संगीत : म्यूजिक कहानी के अनुकूल है। रेमो फर्नांडिस का गाया टाइटिल सॉन्ग और सुनिधि चौहान का गाया ' सजन बावरे ... ' का फिल्मांकन अच्छा बन पड़ा है।

क्यों देखें : अगर कोई और विकल्प नहीं है , तो देख सकते हैं। ओम पुरी की दमदार एक्टिंग और पालनपुर गांव के मजेदार दृश्य इस धीमी गति से चलती फिल्म में कुछ राहत देते हैं।
(नभाटा,11 मार्च,2010)

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