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Thursday, March 18, 2010

संत भूमिकाएं और कलाकार

शिरडी के साईं बाबा के जीवन पर जैकी श्रॉफ अभिनीत फिल्म ‘मालिक एक’ प्रदर्शन के लिए तैयार है। इस विषय पर 1955 में पहली फिल्म मराठी भाषा में बनाई गई थी। उस समय से आज तक इस विषय पर आठ फिल्में बन चुकी हैं और छोटे परदे पर भी कई प्रयास हुए हैं। मनोज कुमार के प्रयास से वर्ष 1977 में बनी ‘शिरडी के साईं बाबा’ फिल्म में शीर्षक भूमिका सुधीर दलवी ने इतनी विश्वसनीयता के साथ निभाई थी कि उन्हें लंबे समय तक कोई और भूमिका नहीं मिली और अनेक लोग उनके चरण छूते थे।
यही हाल रामानंद सागर के सीरियल में राम और सीता की भूमिकाओं को अभिनीत करने वाले कलाकारों का हुआ। धारावाहिक में सीता बनीं दीपिका चिखालिया तो लोकसभा का चुनाव भी जीती। ‘जय संतोषी मां’ प्रदर्शित करने वाले कस्बाई सिनेमाघरों में लोग जूते हॉल के बाहर उतारकर फिल्म देखने जाते थे। भारतीय जनमानस में श्रद्धा हमेशा हिलोरें लेती है और तर्क के छोटे-मोटे टापू प्राय: डूबे रहते हैं।
संत भूमिका के निर्वाह के लिए कलाकार स्वयं को तैयार करते हैं। मसलन बेन किंग्सले ने ‘गांधी’ फिल्म के लिए शाकाहार और योग को स्वीकार किया। जैकी श्रॉफ ने भी बाबा की भूमिका के समय मांसाहार और शराब का सेवन नहीं किया। सुधीर दलवी ने भी इसी तरह का संयम बरता था। मुद्दे की बात यह है कि क्या संत भूमिका निभाने वाले कलाकार के जीवन और सोच में कोई परिवर्तन आता है? क्या फिल्म के प्रदर्शन के बाद उनकी जीवनशैली में सात्विक तत्वों का प्रवेश होता है?

ज्ञातव्य है कि ‘जय संतोषी मां’ के निर्माता और अन्य वितरकों ने फिल्म से कमाया धन शीघ्र ही खो दिया था। अधिकांश कलाकारों के लिए संत भूमिकाएं भी अन्य भूमिकाओं की तरह अपने व्यवसाय का हिस्सा होती हैं। फिल्म के प्रचार के लिए कलाकार के समर्पण के कई झूठे किस्से फैलाए जाते हैं। शशधर मुखर्जी की ‘नागिन’ फिल्म के प्रदर्शन के समय अनेक कस्बाई सिनेमाघरों में बीन बजने के दृश्य में सांप के आने की बातें फैलाई गई थीं।
जीवन के असमान संग्राम में निहत्थे लड़ने वाले आदमी का संबल उसका धार्मिक विश्वास ही है। रहस्यमय ढंग से कष्टों के निवारण की उसकी अभिलाषा इतनी बलवती होती है कि वह हर दर पर माथा टेकता है। यह तो मजबूर व्यक्ति की विचार प्रक्रिया में श्रद्धा का पनपना हम देखते हैं और सफल मजबूत व्यक्ति को अपनी अर्जित संपदा के खोने का भय सताता है, इसीलिए डर से उपजती है उसकी श्रद्धा।
आम आदमी का जीवन अन्याय और असमानता से त्रस्त है। उसे तर्क के रास्ते से कोई उम्मीद नहीं है। अत: अजूबे के प्रति उसके मन में तीव्र इच्छा है। यह इच्छा इतनी बलवती हो जाती है कि अजूबे घटते से प्रतीत होते हैं। गणपति का दूध पीना या माहिम की मस्जिद के निकट समुद्र का पानी मीठा होता देखा गया है। रिचर्ड बर्टन की ‘बॉडी एंड सोल’ किताब में महीनों पानी के जहाज पर काम करने वाला इतनी तीव्रता से अपनी पत्नी को याद करता है कि उसे लगता है कि वह सशरीर उसके निकट मौजूद है। दरअसल मनुष्य के मन में अपार शक्ति है और उसकी कल्पना ब्रह्मांड के परे जाती है। वह अपनी आस्था को भी विराट कर सकता है और डर के हौव्वे को भी खौफनाक बना सकता है।
कोई एक शताब्दी पूर्व राल्फ इमर्सन ने अपनी ‘ब्रा’ नामक कविता में लिखा है कि मैं शंका करता हूं और स्वयं भी शंका हूं। मैं वह स्तुतिगान भी हूं, जिसे ब्राह्मण गाता है।
(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,18.3.2010)

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