स्वागत

Saturday, March 13, 2010

इस हफ्ते की तीन फिल्में

"राइट या रॉन्ग"," हाइड एंड सीक"," न घर के न घाट के"- ये तीनों इस हफ्ते रिलीज हुई फिल्मों के नाम हैं। ये फिल्में दर्शकों को भी सिनेमाहॉल में ऐसी ही स्थिति में छोड़ती हैं कि वह समझ नहीं पाता कि फिल्म देखने का उसका निर्णय क्या था - राइट या रॉन्ग। जवाब की तलाश में वह अपने मन से हाइड एंड सीक खेलता है और पाता है कि वह न घर का है न घाट का। इनमें से कोई भी फिल्म किसी भी दृष्टि से अच्छी नहीं कही जा सकती है। न तो उनमें कथानक है, न ही पटकथा। सिनेमैटिक विजन तो बहुत दूर की बात है।

पहले राइट या रॉन्ग की बात करते हैं। फिल्म एक ईमानदार अफसर को अपनी पत्नी से मिले धोखे को दर्शाती है। अफसर उसका बदला अपनी पत्नी और भाई को मारकर लेता है जो उसके पीठ पीछे रास रचाते हैं। अब उसके दोस्त अफसर के सामने संकट है कि वह क्या करे। अपने दोस्त को सजा दिलवाए या दोस्ती के नाम पर छोड़ दे। दोस्त कानून की राह पकड़ता है पर किसी भी तरह उसे हत्यारा साबित नहीं कर पाता। अंत में हत्यारा खुद अपना गुनाह कुबूल करता है लेकिन वही दोस्त अब दोस्ती की खातिर उसे जाने देता है। फिल्म इरफान के अंतर्संघर्ष को अंत में खुद ही बेमानी साबित कर देती है। इरफान खान फिल्म में जमते हैं। सन्नी देओल लंबे समय बाद की इस वापसी में निष्प्रभावी दिखते हैं। यह फिल्म दर्शकों को प्रभावित नहीं कर पाती।

हाइड एंड सीक एक खेल है जो हम बचपन में खूब खेलते हैं। जाहिर सी बात है इस छुपने-छुपाने के खेल में कुछ बदमाशियां भी होती हैं। यह फिल्म छह दोस्तों की कहानी है जो ऐसे ही एक गेम के शिकार हैं। उस एक रात ने उनकी सारी जिंदगी बदल दी। अब बारह साल बाद वह फिर से ऐसे ही एक खेल में फंस जाने को मजबूर कर दिए जाते हैं जब कोई उन्हें एक मॉल में खींच लाता है और हाइड एंड सीक खेलने का मजबूर करता है। पूरी फिल्म इसी छुपाछुपी और आपसी खींचतान में गुजर जाती है। कई नए राज खुलते हैं और बारह साल पहले हुई घटना की सच्चाई भी। लेकिन दर्शकों को इससे कुछ खास हाथ नहीं आता। हां, नए अभिनेता अपना प्रभाव छोड़ते हैं खासकर अर्जन बाजवा और समीर कोचर।

न घर के न घाट के ग्रामीण पृष्ठभूमि से शहर आए व्यक्ति पर व्यंग्यबाण छोड़ती है लेकिन उनकी जीवंतता को भी दर्शाती है। फिल्म में निर्देशक ने खुद को ही अभिनेता के तौर पर प्रोमोट किया है। यह फिल्म कुछ हंसी के पल भले देती है पर दर्शकों को बांध नहीं पाती। ओम पुरी, रवि किशन और परेश रावल कुछ दृश्यों में जान डालते हैं पर फिल्म हिट होने के लिए इतना काफी नहीं होता।
(मृत्युंजय प्रभाकर,नई दुनिया,दिल्ली,13.2.10)

No comments:

Post a Comment

न मॉडरेशन की आशंका, न ब्लॉग स्वामी की स्वीकृति का इंतज़ार। लिखिए और तुरंत छपा देखिएः