संगीत के संस्कार और परंपरा को संजोना आज की जरूरत है। गुरु-शिष्य परंपरा के जरिए संगीत के जड़ों को सींचने का प्रयास सदियों से कलाकार करते आए हैं। इसी की एक कड़ी को जोड़ने की कोशिश की है, जिला खां ने। पिछले दिनों अपने उस्ताद पिता उस्ताद विलायत खां की याद में "उस्तादगाह" की स्थापना की।
गायिका जिला खां कहती हैं कि हम "उस्तादगाह" के जरिए सीना-बसीना की तालीम शुरू की जाए, ये हमारा मकसद है। हमारे समाज में कुछ लोगों के पास प्रतिभा है, पर पैसे नहीं हैं। जबकि कुछ लोगों को शौक है लेकिन उन्हें भी सीखने का मौका नहीं मिल पाता है। इसलिए दोनों ही हालातों में लोग अपनी प्रतिभा को संवार सकें। उन्हें "उस्तादगाह" में मौका मिले यह हमारी कोशिश है। संगीत की सही तालीम और पढ़ाई के साथ सीखने वाले को परीक्षा को पास करना भी जरूरी होगा। हमारी कोशिश होगी कि पांच साल की पढ़ाई के बाद शिष्य एक जिम्मेदार कलाकार बनकर निकले। उसे गुरु के साथ कुछ समय बीताने को मिले ताकि वह जान सके, जैसा हमें अपने उस्ताद से मिला। शिष्य को गायन, वादन की तालीम की व्यवस्था की गई है। इसमें सीखनेवाले को बस अपनी विशेषज्ञता हासिल न हो बल्कि वह संगीत के अन्य पक्ष से परिचित भी हो। हमारी कोशिश है कि सुदूर प्रदेषों में छिपी प्रतिभा को लोगों के सामने लाया जा सके। दरअसल हम बच्चों को जानकारी और तकनीक दोनों से अवगत कराना चाहते हैं। सूफी संगीत के क्षेत्र में अपार संभावनाएं हैं, ऐसा गायिका जिला खां मानती हैं। उस्ताद के घरौंदे में तकरीबन ३ हजार शागिर्द हैं। ये बच्चे केरल, पंजाब और दिल्ली में रहकर तालीम ले रहे हैं। यदि इन बच्चों को रास्ते के बारे में पहले से बता दिया जाए, तो मुझे लगता है कि उनका सफर आसान हो जाएगा। उनका जेहन खुलेगा तो मंजर सुहाना हो जाएगा।
सूफी संगीत को और सुरीला बनाने के लिए किस तरह की नई कोशिश की जानी चाहिए? इस सवाल के जवाब में गायिका जिला खां कहती हैं कि सूफीयाना कलाम गाते हुए मेरी कोशिश होती है कि उसमें मैं श्रृंगार और करुण रस होना चाहिए। आजकल बस भक्ति या वीर रस को खास तौर पर पेश किया जाता है। उसमें एक अधूरापन नजर आता है। सूफी संगीत ही क्यों, शास्त्रीय संगीत या गजल में भी हर रस की खुशबू होनी चाहिए। सूफी कलामों में पुकार को खास अहमियत दी जाती है। गाते समय अगर मैं बस वीर और भक्ति रस को उभारती हूं तो वह अधूरा लगता है। हर रस का इस्तेमाल मेरी खासियत है। अपनी बात को जारी रखते हुए, वह कहती हैं कि सूफी संगीत में मालिक को रिझाने की कोशिश का एक अंदाज है। मुझे लगता है कि मालिक का कर्म है कि वह हमें दुनिया में आने से पहले यह बता देता है कि कुछ मीठे से और किसी से नरमी से पेश आना। ये सारी चीजें आपके अंदर होनी चाहिए। इसलिए वो सारी चीजें आपकी गायकी में झलकनी चाहिए। सूफी संगीत साहित्य, भक्ति के साथ तर्क का तरीका है। संगीत जितना सुनिए, उतनी गहराई से अंदर उतरता है। जब मौका मिले तब काम कर डालना चाहिए, समय का इंतजार नहीं करना चाहिए। वरना जिंदगी यूं ही बीत जाएगी।
(शशिप्रभा तिवारी,मेट्रो रंग,नई दुनिया,दिल्ली,29.3.2010)
गायिका जिला खां कहती हैं कि हम "उस्तादगाह" के जरिए सीना-बसीना की तालीम शुरू की जाए, ये हमारा मकसद है। हमारे समाज में कुछ लोगों के पास प्रतिभा है, पर पैसे नहीं हैं। जबकि कुछ लोगों को शौक है लेकिन उन्हें भी सीखने का मौका नहीं मिल पाता है। इसलिए दोनों ही हालातों में लोग अपनी प्रतिभा को संवार सकें। उन्हें "उस्तादगाह" में मौका मिले यह हमारी कोशिश है। संगीत की सही तालीम और पढ़ाई के साथ सीखने वाले को परीक्षा को पास करना भी जरूरी होगा। हमारी कोशिश होगी कि पांच साल की पढ़ाई के बाद शिष्य एक जिम्मेदार कलाकार बनकर निकले। उसे गुरु के साथ कुछ समय बीताने को मिले ताकि वह जान सके, जैसा हमें अपने उस्ताद से मिला। शिष्य को गायन, वादन की तालीम की व्यवस्था की गई है। इसमें सीखनेवाले को बस अपनी विशेषज्ञता हासिल न हो बल्कि वह संगीत के अन्य पक्ष से परिचित भी हो। हमारी कोशिश है कि सुदूर प्रदेषों में छिपी प्रतिभा को लोगों के सामने लाया जा सके। दरअसल हम बच्चों को जानकारी और तकनीक दोनों से अवगत कराना चाहते हैं। सूफी संगीत के क्षेत्र में अपार संभावनाएं हैं, ऐसा गायिका जिला खां मानती हैं। उस्ताद के घरौंदे में तकरीबन ३ हजार शागिर्द हैं। ये बच्चे केरल, पंजाब और दिल्ली में रहकर तालीम ले रहे हैं। यदि इन बच्चों को रास्ते के बारे में पहले से बता दिया जाए, तो मुझे लगता है कि उनका सफर आसान हो जाएगा। उनका जेहन खुलेगा तो मंजर सुहाना हो जाएगा।
सूफी संगीत को और सुरीला बनाने के लिए किस तरह की नई कोशिश की जानी चाहिए? इस सवाल के जवाब में गायिका जिला खां कहती हैं कि सूफीयाना कलाम गाते हुए मेरी कोशिश होती है कि उसमें मैं श्रृंगार और करुण रस होना चाहिए। आजकल बस भक्ति या वीर रस को खास तौर पर पेश किया जाता है। उसमें एक अधूरापन नजर आता है। सूफी संगीत ही क्यों, शास्त्रीय संगीत या गजल में भी हर रस की खुशबू होनी चाहिए। सूफी कलामों में पुकार को खास अहमियत दी जाती है। गाते समय अगर मैं बस वीर और भक्ति रस को उभारती हूं तो वह अधूरा लगता है। हर रस का इस्तेमाल मेरी खासियत है। अपनी बात को जारी रखते हुए, वह कहती हैं कि सूफी संगीत में मालिक को रिझाने की कोशिश का एक अंदाज है। मुझे लगता है कि मालिक का कर्म है कि वह हमें दुनिया में आने से पहले यह बता देता है कि कुछ मीठे से और किसी से नरमी से पेश आना। ये सारी चीजें आपके अंदर होनी चाहिए। इसलिए वो सारी चीजें आपकी गायकी में झलकनी चाहिए। सूफी संगीत साहित्य, भक्ति के साथ तर्क का तरीका है। संगीत जितना सुनिए, उतनी गहराई से अंदर उतरता है। जब मौका मिले तब काम कर डालना चाहिए, समय का इंतजार नहीं करना चाहिए। वरना जिंदगी यूं ही बीत जाएगी।
(शशिप्रभा तिवारी,मेट्रो रंग,नई दुनिया,दिल्ली,29.3.2010)
bahut acchi jaankaari di aapne.
ReplyDeleteहिन्दीकुंज