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Sunday, March 7, 2010

महिला दिवस पर तब्बू

हम हर साल पूरी शान से अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाते हैं,पर क्या कभी हमने सोचा है कि यह दिन कौन-सी महिलाएं मनाती हैं। शहरी सभ्यता में पली-बढी और अपने पैरों पर खडी महिलाएं ही इस दिवस को पूरे शान से मना पाती हैं। देश के कई ऎसे कस्बे और गांव हैं, जहां औरतों को इस दिन के बारे में कोई जानकारी ही नहीं है। मैं समझती हूं कि औरतों की आजादी चंद दिनों में सिमटा उत्साह या त्योहार नहीं, उसकी जरूरत बननी चाहिए।

जब मुझसे कोई कहता है कि एक सशक्तऔरत की इमेज से मैंने इतिहास रचा है,तो अच्छा लगता है पर उससे अधिक फख्र यह सोचकर होता है कि अपने मजबूत फैसलों के दम पर मैंने यह पहचान बनाई है। हर उस लम्हे यह एहसास होता है,जब मैं किसी सहारे के बिना कुछ कर जाती हूं। मुझे लगता है हर औरत की ताकत यही होनी चाहिए कि वह बिना किसी के बारे में सोचे,अपने फैसले खुद ले।
मुझे लगता है हमारे यहां की संस्कृति कुछ ऎसी बन गई है जिसके दबाव में आकर औरत खुद को परख नहीं पाई है। हमेशा से औरतों को ही जिम्मेदारी का एहसास कराया जाता है। मुझे टै्रवलिंग का क्रेज है इसलिए अक्सर अलग-अलग देशों में घूमती रहती हूं। सफर के दौरान कई महिलाओं से मिलती हूं, मैंने देखा है कि यह समस्या सिर्फ हमारी नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की है।
एक बात जो मुझे अक्सर खलती है वह है लडकियों की शादी को लेकर उन पर छींटाकशी करना। कोई लडकी शादी कब करे यह उसका व्यक्तिगत मामला है,पर हमारे यहां बिन ब्याही लडकियों को अपराधी के तौर पर देखा जाता है। अभी हाल ही आयरलैंड में एक नियम पास हुआ है। इसके तहत कोई कुंआरी लडकी किराए पर मकान नहीं ले सकती। अब जरा सोचिए ऎसे हालात में कोई लडकी अपने पैरों पर खडी होने के लिए घर से दूर कैसे रहेगी। हमारे यहां ऎसे कानून नहीं हैं,पर सामाजिक बंधन इतने सख्त हैं कि वह चाहे तो भी उन्हें तोड नहीं सकती। जो औरतें आर्थिक रूप से आजाद ,वे कुछ हद तक कामयाब हुई हैं, पर छोटे कस्बों में रहने वाली महिलाओं के लिए यह आज भी मुश्किल है ।
मुझे गर्व है कि मैं एक औरत हूं, पर कई बार मुझे इस बात का दुख भी होता है कि सामाजिक प्रताडना से परेशान होकर किसी लडकी ने आत्महत्या कर ली। मैं समझती हूं कि इसकी वजह हमारी परंपराएं भी हैं,जिन्होंने बचपन से ही हमें न सिर्फ कमजोर साबित किया है बल्कि कमजोरी का एहसास भी कराया है। हमारे धर्मग्रंथों में भी 'नारी तुम केवल अबला हो' जैसी बातें प्रचलित हैं, हालांकि मेरा मानना है 'नारी तुम केवल शक्ति हो!'दरअसल परेशानी यह है कि औरत खुद को किसी पुरूष के साथ ही महफूज मानती है। औरत ने इस सोच को इतना अधिक अपना लिया है कि वह इसकी शिकार हो गई है। मैं समझती हूं जब तक वह इस मानसिकता से नहीं निकलेगी, उसकी आजादी मुश्किल है।
हम देखते हैं कि आज हर क्षेत्र में औरतों ने खुद को साबित किया है मगर एक बार फिर यह मुद्दा उठता है कि क्या कहीं खुद को साबित करने में उसने अपने पैरों पर कुल्हाडी दे मारी है। यदि यह बात उस पर थोपी न जाए,तब भी वह खुद एक अच्छी मां,अच्छी पत्नी और एक कामयाब औरत बनना चाहती है। दरअसल यह सदियों की मानसिकता का असर है, पर मुझे लगता है कि औरतें बदल रही हैं। शिक्षा में बढोतरी और विधवा विवाह को सकारात्मकता के साथ देखना कामयाबी का एक सफर पार करने के बराबर है।
ओपरा विन्फ्रे ने महिलाओं के प्रति होने वाले शोषण के खिलाफ न सिर्फ आवाज उठाई है, बल्कि काफी काम किया है। अक्सर कहते हैं कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है, पर यदि गौर करें तो औरतों ने ही दूसरी औरतों के शोषण के खिलाफ आवाज उठाई है। इसमें दो राय नहीं कि औरतों के हक की लडाई में कुछ योगदान पुरूषों का भी है क्योंकि मैं समझती हूं औरत और आदमी सिर्फ दो विपरीत लिंग नहीं, बल्कि इंसान हैं। न कोई शक्तिशाली है और न कोई कमजोर। अगर इस सोच के साथ पुरूष और महिला अपनी जिंदगी गुजारें, तो सारी मुश्किलें आसान हो जाएंगी । हमारी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री भी पुरूष प्रधान है। यहां नायिका प्रधान फिल्मों की अपेक्षा नायक प्रधान फिल्में बनाई जाती हैं हालांकि इसकी एक वजह दर्शकों की पसंद भी है, जो नायिकाओं को सिर्फ ग्लैमर के तौर पर देखते हैं। मगर फिर भी कुछ राजकुमार संतोषी और गुलजार साहब जैसे निर्देशक हैं, जिन्होंने बाजार की अपेक्षाओं के विपरीत नायिका प्रधान फिल्में बनाई । यकीन कीजिए जब मैं निर्देशक की कुर्सी संभालूंगी तो औरतों को केंद्र में रखकर फिल्में बनाऊंगी।
(तब्बू से रजनी गुप्ता की बातचीत पर आधारित यह आलेख राजस्थान पत्रिका मे 3 मार्च,2010 को छपा था)

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