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Sunday, March 7, 2010

बांबे टाकीज के वे दिन....

सिनेमा की गौरवशाली परंपरा पर फख्र करने वाले सिने प्रेमियों को शायद इस बात से तकलीफ होगी कि अनेक कामयाब और चर्चित फिल्में देने वाला स्टूडियो 'बॉम्बे टॉकीज' अब इतिहास के पन्नों में दफन हो चुका है। अशोक कुमार, दिलीप कुमार, मधुबाला और किशोर कुमार जैसे कलाकारों को बॉम्बे टॉकीज ने ही पहचान दी थी और 'अछूत कन्या', 'किस्मत' तथा 'जीवन नैया' जैसी फिल्में भी बॉम्बे टॉकीज के बैनर तले ही बनी थीं। लेकिन आज बॉम्बे टॉकीज 'बी.टी. कंपाउंड' के नाम से एक पूरी तरह विकसित इंडस्ट्रियल एरिया में बदल चुका है, जिसमें 900 से ज्यादा कारखाने काम कर रहे हैं। हालांकि बेतरतीब गलियों और कारखानों से भरे कंपाउंड के बीच थोडी खुली-सी जगह पर खडा हिमांशु राय का बंगला और ऑफिस का मेहराबदार ढांचा आज भी बॉम्बे टॉकीज के गौरवशाली इतिहास की याद दिलाता है।
टॉकी फिल्मों के शुरूआती दौर में उम्दा थीम के साथ टैक्नीकली साउंड फिल्में बनाने वाले स्टूडियो में मुंबई के बॉम्बे टॉकीज का नाम टॉप पर रहा है। लंदन से प्रशिक्षित हिमांशु राय ने देविका रानी के साथ इसकी स्थापना की और जर्मनी से ट्रैंड टैक्नीशियंस लाकर इसे समृद्ध किया। लंदन में कानून की पढाई के दौरान हिमांशु राय की दोस्ती निरंजन पाल से हुई। निरंजन पाल स्वाधीनता संग्राम की सुप्रसिद्घ तिकडी लाल-बाल-पाल के बिपिनचंद्र पाल के बेटे थे और डॉक्टरी की पढाई के सिलसिले में उन दिनों लंदन में थे। पढने में मन नहीं लगा, तो निरंजन पाल ने केंट फिल्म कंपनी में नौकरी कर ली। निरंजन पाल के ही नाटक 'गॉडेस' में हिमांशु राय ने शौकिया तौर पर पहली बार एक्टिंग की थी, जिसके बाद हिमांशु राय को जर्मन कंपनी एमेल्का कॉन्जर्न की फिल्म 'लाइट ऑफ एशिया' में भगवान बुद्ध का रोल निभाने का मौका मिला। 1924 में बनी इस मूक फिल्म में उनकी नायिका एक एंग्लोइंडियन लेडी सीता देवी थी। इसके बाद दो अन्य मूक फिल्मों 'द थ्रो ऑफ डाइस' और 'शीराज' में भी उन्होंने लीड रोल किया था। हिंदी और अंग्रेजी में बनी 'कर्मा'(1933) हिमांशु राय की पहली बोलती फिल्म थी, जिसका निर्माण भी उन्होंने ही किया था। इस फिल्म की सैट डिजाइनिंग के सिलसिले में हिमांशु राय की मुलाकात देविका रानी से हुई, जो लंदन में आर्किटेक्चर की पढाई कर रही थीं। देविका रानी की खूबसूरती और प्रभावशाली पर्सनैलिटी से हिमांशु राय इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने देविका को ही 'कर्मा' की हीरोइन बना दिया। इस फिल्म की रिलीज के बाद उन्होंने देविका रानी से शादी कर ली और फिल्म के फायनेंसर सर रिचर्ड टेंपल के साथ दोनों मंुबई चले आए, जहां के मलाड इलाके में 1933 में एक पब्लिक लिमिटेड कंपनी के तौर पर उन्होंने बॉम्बे टॉकीज की नींव रखी थी।
वष्ाü 1935 में बॉम्बे टॉकीज की पहली फिल्म 'जवानी की हवा' रिलीज हुई, जिसके हीरो-हीरोइन थे नजमुल हुसैन और देविका रानी, निर्देशक थे फ्रांज आस्टिन और संगीतकार सरस्वती देवी। बॉम्बे टॉकीज की तमाम शुरूआती फिल्मों 'ममता', 'मियां बीवी', 'जीवन नैया', 'अछूत कन्या', 'जन्मभूमि' (सभी 1936), 'इज्जत', 'जीवनप्रभात', 'प्रेम कहानी', 'सावित्री' (सभी 1937), 'भाभी', 'निर्मला', 'वचन' (सभी 1938), 'दुर्गा', 'कंगन' और 'नवजीवन' (सभी 1939) का निर्देशन भी फ्रांज आस्टिन ने ही किया था, जो जर्मनी के रहने वाले थे। इनमें से शुरूआती आठ फिल्मों की कथा-पटकथा निरंजन पाल ने लिखी थी। बॉम्बे टॉकीज में बतौर लैब-असिस्टेंट काम कर रहे अशोक कुमार ने 'जीवन नैया' से ही एक्टिंग कॅरियर की शुरूआत की थी। 'किस्मत' (1943) में कवि प्रदीप का लिखा 'दूर हटो ऎ दुनिया वालो हिंदुस्तान हमारा है' अंग्रेजों के खिलाफ कौमी तराना बन गया। इस फिल्म ने कोलकाता के एक सिनेमाघर में तीन साल चलकर बॉक्स ऑफिस का कीर्तिमान भी बनाया। इसी कंपनी की फिल्म 'बसंत' (1942) में मधुबाला बतौर बाल कलाकार पहली बार कैमरे के सामने आई थीं। दिलीप कुमार की पहली फिल्म 'ज्वार भाटा' (1944) और गायक-अभिनेता किशोर कुमार की पहली फिल्म 'जिद्दी' (1948) का निर्माण भी इसी बैनर तले किया गया था।
वर्ष 1940 में हिमांशु राय के निधन के बाद कंपनी की बागडोर देविका रानी ने संभाल ली, लेकिन उनके कामकाज के तरीके की वजह से जल्द ही कंपनी के भागीदारों के बीच मतभेद उभरने लगे। हालात यहां तक बिगड गए कि 1943 में शशधर मुखर्जी, अशोक कुमार, रायबहादुर चुन्नीलाल और ज्ञान मुखर्जी जैसे भागीदारों ने बॉम्बे टॉकीज छोडकर अलग बैनर 'फिल्मिस्तान' की स्थापना कर ली। शशधर मुखर्जी अशोक कुमार के जीजा थे और बडे शेयर होल्डर होने के नाते बॉम्बे टॉकीज में अहम मुकाम पर थे। उधर, फिल्म 'हमारी बात'(1943) में काम करने के बाद देविका रानी ने अपने सभी शेयर निर्माता शीराज अली हकीम को बेच दिए और रूसी चित्रकार रोरिख से शादी करके फिल्म इंडस्ट्री को अलविदा कह दिया। पहले वे कुल्लू-मनाली और फिर बंगलौर जा बसीं। अशोक कुमार बॉम्बे टॉकीज से इतने जज्बाती रूप से जुडे थे कि फिल्मिस्तान में उनका मन नहीं लगा, तो देविका रानी के जाने के बाद वे वापस बॉम्बे टॉकीज में चले आए। यहां रहते हुए उन्होंने 'महल' (1949), 'मशाल', 'मुकद्दर', 'संग्राम' (1950), 'मां' और 'तमाशा' (1952) जैसी फिल्मों का निर्माण किया, लेकिन तब तक हालात इतने बिगड चुके थे कि 'तमाशा' इस ख्याति प्राप्त बैनर का आखिरी फिल्मी शो साबित हुआ। बॉम्बे टॉकीज से जुडे लोगों ने कंपनी के बिगडी हालत को संभालने के लिए सहकारिता के आधार पर फिल्म 'बादबान' (1954) बनाई, लेकिन इन कोशिशों से भी कोई फायदा नहीं हुआ। इस तरह 18 साल के दौरान हिंदुस्तानी सिनेमा में 38 स्तरीय फिल्में बनाकर इतिहास बनाने वाला बॉम्बे टॉकीज खुद इतिहास का हिस्सा बनकर रह गया।
(शिशिरकृष्ण शर्मा,राजस्थान पत्रिका,6 मार्च,2010)

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