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Sunday, October 31, 2010

आमिर, शाहरुख और यशराज

यशराज फिल्म्स ने शाहरुख खान के साथ अनेक फिल्में करते हुए भी अपनी तटस्थता बनाए रखी है। इस बैनर ने ऋतिक रोशन, आमिर खान तथा सैफ अली खान के साथ भी फिल्में बनाई हैं। उन्होंने सलमान खान को लेने के प्रयास भी किए हैं। फिल्म ‘चक दे इंडिया’ पहले सलमान को ही दी गई थी। ऐसा उद्योग में पहली बार हो रहा है कि पिता यश चोपड़ा और पुत्र आदित्य चोपड़ा निरंतर फिल्में बना रहे हैं। राज कपूर और रणधीर कपूर ने भी ‘मेरा नाम जोकर’, ‘कल आज और कल’, ‘बॉबी’ और ‘धरम करम’ एक ही दशक में बनाई थीं। हालांकि रणधीर कपूर ने अपने पिता की मृत्यु के बाद केवल ‘हिना’ बनाई।

खबर है कि यश चोपड़ा और आदित्य आमिर खान और शाहरुख खान के साथ दो अलग-अलग फिल्में अगले वर्ष शुरू करने जा रहे हैं। इसके लिए आमिर खान ने अपनी स्वीकृति दे दी है। इस कंपनी की सबसे बड़ी ताकत यह है कि आदित्य बहुत अच्छे लेखक हैं। उनकी लिखी हुई ‘वीर जारा’ अच्छी फिल्म थी।

इसकी अंतिम रील में शाहरुख द्वारा अदालत में बोला गया लंबा संवाद तो कमाल का लिखा था। इसी कंपनी से फूटी एक शाखा करण जौहर हैं, परंतु उन्होंने तटस्थता कायम नहीं रखी। करण ने शाहरुख खान को अपने ईश्वर की तरह ही बार-बार पूजा है। करण को खूब बतियाने का शौक है, जबकि आदित्य चोपड़ा कभी कुछ बोलते ही नहीं और उनकी यह खामोशी अत्यंत गरिमापूर्ण है। करण जौहर निरंतर उजागर होते रहते हैं और कुछ बयां भी नहीं होता।

आमिर खान ने अपना फैसला पूरी तरह इस बात पर किया है कि उन्हें पटकथा पसंद है। वह फरहान अख्तर जैसे नए फिल्मकार के साथ ‘दिल चाहता है’ केवल पटकथा के आधार पर कर चुके हैं। उन्हें पटकथा पसंद आने का यह अर्थ भी है कि अब उसमें अपना योगदान दिया जा सकता है। इस मामले में वह दिलीप कुमार का अनुकरण करते हैं। विगत साठ वर्षो में संजीव कुमार को छोड़कर सारे अभिनेता दिलीप कुमार से प्रभावित रहे हैं।

यश चोपड़ा एकमात्र फिल्मकार हैं जो उम्रदराज होने के बावजूद सक्रिय हैं और युवा पीढ़ी को समझते हैं। प्राय: बुढ़ाते हुए फिल्मकार युवा पीढ़ी को अनदेखा करते हैं। सिनेमा का सबसे बड़ा दर्शक वर्ग हमेशा युवा लोगों का ही रहा है। आदित्य चोपड़ा ने अनेक युवा निर्देशकों को अवसर दिए हैं, परंतु उनकी अपेक्षाओं पर कोई खरा नहीं उतरा। यशराज फिल्म्स संगीत व्यापार और विदेश वितरण क्षेत्र में सफलता अर्जित नहीं कर पाया और टेलीविजन के क्षेत्र में भी वे विफल रहे हैं। यह आशा की जा सकती है कि टेलीविजन क्षेत्र में अपनी असफलता से सबक लेकर वे दूसरी पारी अवश्य खेलेंगे।

इस कंपनी ने कभी नए सितारे गढ़ने का प्रयास नहीं किया, क्योंकि उन्हें सारे स्थापित सितारे आसानी से उपलब्ध हैं। उदय चोपड़ा को प्रस्तुत करना पारिवारिक काम था, परंतु उद्योग के लिए नए सितारे गढ़ना अलग किस्म का काम है। यशराज कंपनी की निगाह हमेशा बॉक्स ऑफिस पर रहती है जो व्यावहारिक है, परंतु सिनेमा उसके परे भी है और उसकी कोशिश कभी-कभी तो की जानी चाहिए(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,30.10.2010)।

Friday, October 29, 2010

प्रचार के लिए ...........

विगत कुछ समय से बॉलीवुड सितारे अपनी फिल्मों के प्रदर्शन पूर्व प्रचार के लिए टीवी कार्यक्रमों में हिस्सा लेते हैं। अगर फिल्म के प्रचार का मामला नहीं हो तो इस तरह के कार्यक्रम में जाने के लिए यही सितारे मोटी रकम मांगते हैं। कई बार प्रचार के लिए किए गए कार्यक्रम का प्रसारण फिल्म के असफल होने के बाद होता है। इससे बेहद हास्यास्पद स्थिति बनती है।

इस तरह के प्रकरणों में फिल्म उद्योग के लोगों के व्यक्तिगत झगड़े और पूर्वाग्रह भी बाधा खड़ी करते हैं। खबर है कि ऐश्वर्या राय बच्चन अपनी अभिनीत फिल्म ‘एक्शन रीप्ले’ के प्रचार के सिलसिले में ‘केबीसी 4’ में शामिल नहीं हुईं। कारण बताया जा रहा है कि इसमें जीती हुई राशि सलमान खान की ‘बीइंग ह्यूमन’ फॉउंडेशन को दिए जाने का फैसला अक्षय कुमार और निर्माता विपुल शाह पहले ही कर चुके थे।

गौरतलब है कि शो के संचालक अमिताभ बच्चन ने इस पर कोई एतराज नहीं जताकर अपनी गरिमा बनाए रखी। यह भी संभव है कि बहू होने के नाते ऐश्वर्या नियमानुसार कार्यक्रम में नहीं आ सकती हों। यह भी खबर है कि कभी अमिताभ बच्चन के अति प्रचारित ‘छोटे भैया’ अमर सिंह सलमान खान संचालित ‘बिग बॉस 4’ में आना चाहते हैं।

इसी तरह संजय लीला भंसाली को उनकी पहली दो फिल्मों में सहायता करने वाले सलमान खान को ‘बिग बॉस’ में अपनी फिल्म ‘गुजारिश’ का प्रचार करने में नायिका ऐश्वर्या राय के होने से संकोच होगा। गुजरा हुआ वक्त गुजरकर भी नहीं गुजरता। संबंध टूटने के बाद भी सामाजिक-सार्वजनिक मुलाकातें की जा सकती हैं। मौजूदा संबंध मजबूत हों तो विगत के गलियारों की ध्वनियां कुछ नहीं कर सकतीं। शायद मीडिया के अनगिनत दोहराव और मनमानी व्याख्या के खौफ से लोग मिलने से कतराते हैं।

बाजार और विज्ञापन के इस युग में किताबों के विमोचन में भी फिल्म कलाकारों या सुप्रसिद्ध लोगों को बुलाया जाता है। दुकानों के उद्घाटन के लिए भी कोई न कोई तमाशा रचना पड़ता है, क्योंकि इस युग में प्रचार का मुर्गा बांग नहीं दे तो सूरज भी शायद नहीं निकले। कुछ ऐसे प्रबल भ्रम रचे जा चुके हैं। पहले सारे उद्घाटन नेताओं से कराए जाते थे, परंतु अब आम जनता में उनकी साख इतनी गिर गई है कि फिल्म वालों को ही बुलाया जाता है।

इतना ही नहीं चुनाव प्रचार में भी भीड़ जुटाने के लिए अभिनेताओं को बुलाया जाता है। धनाढ्य परिवार अपने घर की शादियों और बच्चों के मुंडन समारोह में भी धन देकर सितारों को बुलाते हैं। ये सारे संकेत केवल सांस्कृतिक शून्य को ही रेखांकित कर रहे हैं।

आज के सफल कलाकारों के लिए आय के नए स्रोत खुलते जा रहे हैं और जिस व्यक्ति को जो काम आता है, उससे बिल्कुल अलग काम के लिए उसे ज्यादा धन मिल रहा है। योग्यता और पारिश्रमिक के समीकरण बदल गए हैं। आज महज काम में प्रवीणता या मेहनत से बात नहीं बनती, कुछ तमाशा भी करना पड़ता है और अब अवाम भी अनुभवी तमाशबीन हो चुका है(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,29.10.2010)।

Thursday, October 28, 2010

क्यों लोकप्रिय है वैम्पायर सिनेमा?

हॉलीवुड के प्रारंभिक दौर में ही भूत-प्रेत की हॉरर फिल्में बनने लगी थीं। ‘द कैबिनेट ऑफ डॉ. कैलिगेरी’ हॉलीवुड के पहले दशक में बनी थी। आजकल एडवर्ड कलन की ‘ट्विलाइट’ श्रंखला पर वैम्पायर फिल्में बन रही हैं, जो ड्रैकुला फिल्मों से इस मायने में अलग हैं कि अब उनकी लोकेशन कब्रिस्तान और सुनसान हवेली नहीं होकर महानगर हैं। नायक खौफनाक नहीं वरन युवा, सुंदर, रहस्यमय और कवियों की तरह व्यवहार करने वाला है। कुछ फिल्में तो ऐसी भी रची गई हैं कि कमसिन नायिका को ज्ञात है कि उसका प्रेमी आम व्यक्ति नहीं वरन एक प्यासी आत्मा है।

वह यह भी जानती है कि उसका पहला सहवास उसकी मृत्यु का कारण भी बन जाएगा, परंतु वह पीछे नहीं हटती। कहा जाता है कि बिच्छू भी सहवास के पहले नृत्य करते हैं और सहवास के बाद एक की मृत्यु हो जाती है। रामगोपाल वर्मा ने अपनी फिल्म ‘रंगीला’ में जैकी श्रॉफ और उर्मिला मातोंडकर पर बिच्छू शैली का नृत्य प्रस्तुत किया था। सहवास के क्षणों और मृत्यु में शायद यह समानता है कि समय और स्थान के बंधन से मुक्ति का भाव दोनों में होता है- एक में क्षणिक और दूसरे में चिरंतन।

बहरहाल, विचारणीय यह है कि इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में वैम्पायर फिल्में इतनी लोकप्रिय क्यों हैं? भारत की भूत-प्रेत कहानियों में इस तरह के चरित्र नहीं हैं। ये सारी कल्पनाएं पूर्वी यूरोप के देशों की हैं, परंतु अधिकांश फिल्में अमेरिका में बनती हैं जहां पूर्वी यूरोप से आए लोगों को बसे हुए एक सदी से ऊपर का वक्त हो गया है। उनकी मौजूदा पीढ़ी को अपने पूर्वजों के मूल देश की भी कोई यादें नहीं हैं। दरअसल भूत-प्रेत कहानियों का लेखन अमेरिका में लंबे समय से चला आ रहा है और इन किताबों को पूरी दुनिया में पढ़ा जाता है।

इंदौर के प्रसिद्ध वैद्य श्री रामनारायण शास्त्री के सुपुत्र महेश शास्त्री के पास इस तरह की किताबों का विरल खजाना है और उनसे लेकर कुछ किताबें मैंने भी पढ़ी हैं।
इस विधा के शौकीन विभिन्न क्षेत्रों में रहे हैं, मसलन महान पाश्र्वगायक और बहुमुखी प्रतिभा के धनी किशोर कुमार के पास हॉरर फिल्मों का खजाना था। अजीब सा लगता है कि दुनिया भर को हंसाने वाले व्यक्ति को हॉरर फिल्में देखना पसंद था। भारत में इस विधा की फिल्में एनए अंसारी अपनी कंपनी ‘बुंदेलखंड फिल्म्स’ के तहत बनाते थे और बाद में रामसे बंधुओं ने इसमें महारत हासिल की। ज्ञातव्य है कि केशु रामसे की मृत्यु विगत दिनों ही हुई है।

बहरहाल, अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों में ब्लड सीरीज और वैम्पायर श्रंखला अत्यंत लोकप्रिय हैं और इसके कारणों पर विचार किया जाना चाहिए। दुनिया के तमाम देशों में धरती पर जीवन, ऊपर स्वर्ग और नर्क की कल्पना के साथ दोनों के बीच भटकती हुई अतृप्त आत्माओं का काल्पनिक विवरण चटखारे लेकर सुना और सुनाया जाता रहा है, गोयाकि मरकर भी कुछ लोग इस तरह जीवित रखे जाते हैं। क्या अतृप्त आत्मा की अवधारणा का संबंध इस बात से भी है कि जीवन में कब किसको संतोष और तृप्ति मिलती है? नीरद चौधरी ने अपनी किताब ‘हिंदुइज्म’ में इस आशय की बात की है कि भारत में पुनर्जन्म की अवधारणा के पीछे यह तथ्य छुपा है कि भारतीय लोगों को खाने-पीने और भोग-विलास का इतना मोह है कि वे बार-बार धरती पर लौटना चाहते हैं। यह मसला भी तृप्ति से जुड़ा है।

आज की युवा पीढ़ी सदियों बाद अपनी सैक्सुएलिटी के प्रति बहुत सजग है। यौन विषयों को कालीन के नीचे या लौह कपाटों के भीतर रखने का दौर लगभग खत्म हो चुका है। वैम्पायर कथाओं का संबंध इससे है। दरअसल यौन इच्छाओं की कल्पनाएं उसके यथार्थ से बहुत अधिक विराट हैं और पोर्नोग्राफी (अश्लील कथाएं) का अरबों का व्यवसाय इसी विशाल अंतर पर टिका है।

दूसरा तथ्य यह है कि पूंजीवादी बाजार मनुष्य की इच्छाओं के असीमित विस्तार पर बहुत निर्भर करता है। असीमित इच्छाओं के घोड़े पर सवार मनुष्य वहां पहुंचना चाहता है, जहां से उसको अपनी खबर भी नहीं मिले। वैम्पायर सिनेमा बाजार की ही एक भुजा है और कमसिन उम्र बाजार की बांहों में आलिंगनबद्ध है(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,27.10.2010)।

रिश्तों का रसायन और प्रयोगशाला

करण जौहर की घोर असफल फिल्म ‘वी आर फैमिली’ में करीना कपूर अपने पति की पहली पत्नी से उत्पन्न संतानों से दोस्ताना विकसित करती हैं। यथार्थ जीवन में भी वह सैफ-अमृता के बच्चों से दोस्ताना निभाती हैं। आजकल फिल्म उद्योग में इस तरह के बहुत से रिश्ते हैं। शबाना आजमी जावेद-हनी के बच्चों फरहान और जोया से बहुत प्यार करती हैं। अरसा पहले क्या जावेद अख्तर ने भी अपने पिता की दूसरी पत्नी से उत्पन्न संतानों से दोस्ताना निभाया था या आज उनके संबंध कैसे हैं, यह कोई नहीं जानता।

किरण राव भी आमिर-रीना के बच्चों से स्नेह का व्यवहार रखती हैं। श्रीदेवी बोनी कपूर-मोना के पुत्र अजरुन से अच्छा व्यवहार रखती हैं, परंतु अजरुन की बहन शायद उनसे दूरी बनाए हुए हैं। हेमा मालिनी के संबंध सनी और बॉबी देओल से सामान्य हैं, परंतु सनी-बॉबी हेमा की पुत्रियों के साथ कभी नहीं देखे गए। हालांकि इसका अर्थ खराब संबंध नहीं हो सकता। नादिरा बब्बर भी राज-स्मिता पाटिल के पुत्र प्रतीक को प्यार करती हैं और उनके बच्चों के आपसी रिश्ते भी मधुर हैं। अनुपम खेर अपनी पत्नी किरण के पुत्र सिकंदर को बहुत ज्यादा स्नेह करते हैं।

अनेक विशेषज्ञों की राय है कि आधुनिक काल में सौतेले रिश्ते कटु नहीं रहे, क्योंकि बच्चे अपने माता-पिता को उनकी कमजोरियों के साथ स्वीकार करते हैं। जहां रिश्तों में इतनी मिठास है, वहां यह भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि ये सारे प्रकरण अमीर लोगों से जुड़े हैं। क्या किरण राव आमिर-रीना के बच्चों के साथ संबंध बिगाड़कर एक दिन भी आमिर के साथ रह सकती हैं? क्या करीना सैफ-अमृता के बच्चों से बुरे संबंध रखकर भी सैफ के साथ बनी रह सकती हैं? इन सारे प्रकरणों में कोई एक बहुत अधिक धनवान और सफल है, जिसके कारण सौतेलों में सगा सा प्यार नजर आ रहा है। विराट धन और अकल्पनीय सफलता रिश्तों में सीमेंट का काम भी करती है।

मुफलिसी के दौर में सौतेलों और विमाता के संबंध मधुर नहीं रह पाते। इस कालखंड में धन और सफलता रिश्तों के क्षेत्र में भी क्रांतिकारी परिवर्तन कर रहे हैं। जिस उच्च भावना से युधिष्ठिर ने अपनी विमाता माद्री के बच्चों की रक्षा की, वह आज कहीं नजर नहीं आती। सफलता, प्रसिद्धि और असीमित धन रिश्तों के लिए भी सुविधाजनक प्रयोगशाला बनाते हैं, जिसमें सारे धागे धन से उत्पन्न प्रेम के दूध में नहाए नजर आते हैं। यह स्वाभाविक है कि प्राय: टूटे हुए विवाह के बच्चे अपनी विमाता से मन ही मन नफरत करते हैं और अपने पिता के दोष से उत्पन्न सारी घृणा बेचारी माता पर उतारते हैं।

यह भी अजीब बात है कि जिन बच्चों ने अपने पिता को दूसरा रिश्ता बनाते देखा और विरोध किया है, जवान होकर अपने पिता वाली गलती उन्होंने स्वयं भी की है। तब क्या हम यह मानें कि इस समय का सारा क्रोध सुविधा के छिन जाने के कारण था और युवा होने पर उन्हीं सुविधाओं और धन की शक्ति प्राप्त होते ही उन्होंने भी दूसरी स्त्री पर अधिकार जताया? रिश्तों का रसायन विचित्र है, परंतु रिश्तों की प्रयोगशाला धन का बायप्रोडक्ट है(जय प्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,28.10.2010)।

होना है औरों से अलग: प्रमोद कुमार

तमाम भोजपुरी एलबम में अपने चुटीले गीतों की वजह से सुर्खियों में आए गीतकार डॉ. प्रमोद कुमार पेशे से प्राध्यापक हैं। गीतकार के रूप में सफलता अर्जित करने के बाद अब वे हिंदी फिल्मों के पटकथा लेखक भी बन गए हैं। अभी वे हिंदी फिल्म देवी मेरा नाम की पटकथा लिखने में व्यस्त हैं। पिछले दिनों प्रमोद कुमार से बातचीत हुई। प्रस्तुत हैं उसके प्रमुख अंश..
प्राध्यापक, गीतकार और अब पटकथा लेखन। कैसा लगता है?
हर चीज एक-दूसरे से जुड़ी हुई है। कॉलेज में शिक्षक हूं और कॉलेज के बाहर गीतकार और कहानीकार। कम लोग जानते होंगे कि मैं गीतकार के साथ-साथ कहानीकार भी हूं। लघुकथाओं का एक संग्रह बात आधी सी प्रकाशित हो चुका है। मैं अपने हर काम से खुश हूं और आशा है कि खुशियां मेरा साथ हमेशा देंगी।

फूहड़पन और अश्लीलता फिल्मों में खूब है?
आज बाजारवाद देश और दुनिया पर हावी है। आज हर चीज का बिकना ही एक मात्र मूल्य है। अब यदि अश्लीलता और फूहड़पन बिक रहा है, तो इसे रोकना मुश्किल है। समाज की रुचि जब बदलेगी, तभी यह रुकेगा, वर्ना नहीं।

देवी मेरा नाम को लेकर आपकी चर्चा है?
मैं इसकी पटकथा और संवाद लिख रहा हूं। यह एक अलग तरह की हिंदी फिल्म साबित होगी। आज हर भाषा में अच्छी और बुरी तमाम फिल्में बन रही हैं। जब हमने फिल्मों में प्रवेश किया है, तो हमारी एक अलग पहचान तो होनी ही चाहिए यहां। आज की फिल्मों से मैं संतुष्ट नहीं हूं। देवी मेरा नाम की जो स्क्रिप्ट है, उस पर मैं मन से काम कर रहा हूं। मुझे उम्मीद है कि यह अलग फिल्म साबित होगी।

स्क्रिप्ट फिट है, तो फिल्म के हिट होने की उम्मीद की जाए?
स्क्रिप्ट के साथ-साथ यदि अभिनेता और निर्देशक भी कमाल के हों, तो फिर सोने पर सुहागा वाली बात चरितार्थ हो सकती है।

फिल्मों का दौर, यानी तब और अब के बारे में कुछ कहेंगे?
पहले राजकपूर, दिलीप कुमार, देव आनंद, राजकुमार, गुरुदत्त, बी आर चोपड़ा, मनोज कुमार, कमाल अमरोही, मीना कुमारी जैसे दिग्गजों की फिल्म जगत में तूती बोलती थी। एक से बढ़कर एक संगीतकार-गीतकार और गायक अपनी कला से लोगों को मुग्ध करते थे। वैसा युग तो अब शायद ही आए। कला की बारीकियां उनकी आत्मा में बसती थीं। आज की विडंबना यह है कि साधारण प्रतिभा के लोग ही ऊपर आ गए हैं। यही वजह है कि आज हिट
फिल्मों की लाइफ चंद दिनों की हो गई है।

कोई ख्वाब है?
खुद को औरों से अलग साबित करना चाहता हूं। यही मेरा ख्वाब है(दैनिक जागरण)।

Wednesday, October 27, 2010

झज्जर में खुलेगा फिल्म इंस्टीट्यूट

व्हिस्लिंग वुड्स इंटरनेशनल, इंस्टीटच्यूट फार फिल्म टेलीविजन एनीमेशन एंड मीडिया आर्ट्स,मुंबई हरियाणा के झज्जर में अपना एक और इंस्टीच्यूट खोलेगा। यह जानकारी फिल्म निदेशक एवं व्हिस्लिंग वुड्स इंटरनेशनल के चेयरमैन सुभाष घई ने मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा को व्हिस्लिंग वुड्स इंटरनेशनल मुंबई में बातचीत करते हुए दी है।

हुड्डा इस संस्थान की फिल्म निर्माण तकनीक, पाठ्यक्रम संरचना एवं सुविधाओं से भी प्रभावित हुए। इससे पूर्व घई ने इंस्टीच्यूट पहुंचने पर मुख्यमंत्री हुड्डा का अभिनंदन किया। इस अवसर मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव छतर सिंह एवं मीडिया सलाहकार शिव भाटिया भी उपस्थित थे।

हुड्डा ने व्हिस्लिंग वुड्स इंटरनेशनल को एक बेहतरीन संस्थान बताया। उन्होंने कहा कि घई समय से आगे चल रहे है और उनके संस्थान से न केवल हरियाणा अपितु आसपास के राज्यों को भी लाभ पहुंचेगा। उन्होंने कहा कि आज असली दौड़ शिक्षा के क्षेत्र में है और आने वाले समय में वहीं क्षेत्र एवं समाज आगे बढ़ेगा, जो गुणवत्तापरक शिक्षा में आगे होगा। घई ने हुड्डा की उनकी शिक्षा के क्षेत्र एवं अन्य क्षेत्रों में दूरदर्शी सोच के लिए सराहना की।

उन्होंने मुख्यमंत्री को विश्वास दिलाया कि झज्जर के 20 एकड़ भूमि पर स्थापित होने वाले इस संस्थान का विशाल परिसर फिल्म तकनीक एवं मीडिया के क्षेत्र में गुणवत्तापरक शिक्षा उपलब्ध कराएगा। घई ने कहा कि यह संस्थान हरियाणा के साथ लगते राज्यों की आवश्यकताओं को भी पूरा करेगा।

उन्होंने कहा कि यह संस्थान दो वर्ष के अंदर-अंदर स्थापित कर लिया जायेगा और इसमें 100 करोड़ रुपये का निवेश किया जायेगा। इस संस्थान में फिल्म, टेलीविजन, रेडियो, इंटरनेट, व्यवसाय प्रबंधन, फैशन तथा मनोरंजन व्यवसायों से संबद्ध अन्य सभी पाठ्यक्रम उपलब्ध होंगे।

व्हिस्लिंग वुड्स इंटरनेशनल को फिल्म, टेलीविजन, एनीमेशन तथा मीडिया आर्ट्स के क्षेत्र में एशिया का सबसे बड़ा संस्थान माना गया है, जो फिल्म एवं टेलीविजन के सभी तकनीकी एवं सृजनात्मक पहलुओं पर विश्व स्तरीय शिक्षा उपलब्ध करवा रहा है। इस संस्थान में इस क्षेत्र में 10 से 30 महीनों की अवधि के विभिन्न पाठ्यक्रम चलाये जा रहे है। यह संस्थान सुभाष घई, मुक्ता आर्ट्स लिमिटेड एवं फिल्म सिटी, मुंबई द्वारा संचालित किया जा रहा है।

इस संस्थान में राकेश मेहरा, विशाल भारद्वाज, आशुतोष गावरेकर, फरहान अख्तर, अशोक अमृतराज, श्याम बेनेगल, फराह खान, नसीरूद्दीन शाह, पंकज कपूर, रतना पाठक साहा, डेनी बोएले, राज कुमार हिरानी, नागेश कुकुनूर के अतिरिक्त कई अन्य जाने माने कलाकार इसमें नियमित अतिथि प्राध्यापक के रूप में अपनी सेवाएं देंगे। इस संस्थान से उत्तीर्ण होने वाले वर्तमान में बालाजी टेलीफिल्म्स, चैनल-31 आस्ट्रेलिया, धर्म प्रोडक्शन, एक्सल एंटरटेनमेंट, 20वीं सेंचुरी फॉक्स इंडिया, मुक्ता आर्ट्स लिमिटेड, पापरी खास स्टूडियो, प्रणा स्टूडियो, रेड चिली एंटरटेनमेंट, स्पाइस एंटरटेनमेंट, वॉकवाटर फिल्म्स एवं कई अन्य मनोरंजन संस्थानों ने कार्य कर रहे है(दैनिक भास्कर,चंडीगढ़,27.10.2010)।

Tuesday, October 26, 2010

क्यों न आ जाए सुकून की नींद

जिंदगी की खोई हुई चीजें अक्सर अचक-अचानक ही मिल जाती हैं। मेरे साथ भी आज ऐसा ही हुआ। सुबह, हस्बे मामूल, एक कैसेट लगाया। पहले दो गीत कानों को अच्छे लगे, मगर तीसरे गीत की पहली लाइन ने ही सीधे दिल पर दस्तक दे डाली। सब कुछ छोड़, उसी में खो गया। दिल बल्लियों उछलने लगा। वाह! क्या लोरी है। एक बार, दो बार, तीन बार, और फिर न जाने कितनी बार इसी लोरी को सुनता रहा। अचानक अपनी ही कुछ पुरानी पंक्तियां याद आ गईं- ‘इस उम्र में/हर रात/लोरी की कितनी जरूरत महसूस होती है/और ठीक इसी उम्र में/मां मेरे पास नहीं होती।’

इस समय इस लोरी में इस कदर डूबा हुआ हूं कि आप मान सकते हैं कि मैं नींद में हूं और बड़बड़ा रहा हूं। यह लोरी है महबूब खान की 1956 की फिल्म ‘आवाज’ की, जिसके निर्देशक थे जिया सरहदी। बोल हैं: ‘झुन झुनझुना, झुन झुनझुना, नाचे गगन, नाचे पवन, अ.अ.आ.आ.आ.आ।’ गीतकार विश्वामित्र आदिल के बोलों को जादू भरी धुन दी है सलिल चौधरी ने। अब जरा कल्पना कीजिए कि इन लफ्जों की अदायगी एकदम कोमल, मद्धम और चाशनी में डूबी लता मंगेशकर की आवाज में है। मगर नहीं, शायद सिर्फ कल्पना से काम नहीं चलेगा। मैं उसकी खूबियों को बताऊंगा तो भी काम नहीं चलेगा। अगर मेरे मामूली से बयान से लता मंगेशकर की गायकी बयान हो पाती है, तो फिर मैं ‘कि खुशी से मर न जाते..’ वाली हालत में न पहुंच जाता। बहरहाल इतना तो कह ही सकता हूं कि इसे सुनकर ऐसा जरूर लगता है, कम-से-कम मुझे तो लगता है कि ऐ काश! फिर से बच्चा बन जाता। यह लोरी सुनता और कहता-‘अ.अ.आ.आ.आ.आ।’

यकीन जानिए, बचपन में मां की लोरियां बहुत सुनी हैं। जिद करके सुनी हैं। कभी खाली बोरे से बने झूले में लेटकर, कभी मां की गोद में। मां की आवाज तो लता मंगेशकर जैसी बिल्कुल नहीं थी, मगर आज लता जी की आवाज न जाने क्यों मां जैसी ही लग रही है। इस आवाज में इतनी ममता है कि सुनकर झूले में पड़े-पड़े मचलने और सुनते-सुनते सो जाने का मन हो जाता है। सलाम! लता मंगेशकर सलाम!

ल..ल..ल..लोरी

कभी-कभी बहुत ताज्जुब होता है। दुनिया बदली- सो बदली, मां और बच्चों के रिश्ते में भी बदलाव आ गया? हिंदुस्तान ही नहीं, तमाम दुनिया में न जाने कब से मां और बच्चे के रिश्ते में पालने और लोरी का एक अटूट संबंध रहा है। मगर आजकल लोरी गाने का चलन बहुत कम हो गया है, खासकर शहरों में। हमारे सिनेमा से तो यह लगभग पूरी तरह गायब ही हो गया है।
लोरी की दुनिया दरअसल सपनों की दुनिया है। मां की लोरी में ऐसे हमीन और सुहाने वादे होते हैं कि मां के चेहरे पर आते भावों से रीझकर दुनिया के हर बच्चे के चेहरे पर पहले मुस्कान और फिर आंखों में नींद आ जाती है। और नींद में सपने होते हैं। तब शायद सपनों में भी मां होती है और उसके साथ उसके वादों की दुनिया भी।

हिंदी सिनेमा में इसके शुरुआती दौर से ही हर दूसरी फिल्म में लोरी जरूर होती थी। इनमें से कुछ लोरियां तो वाकई बहुत खूबसूरत हैं। के.एल. सहगल की आवाज में फिल्म ‘जिंदगी’ की लोरी ‘सो जा राजकुमारी सो जा’ या फिर फिल्म ‘अलबेला’ की ‘धीरे से आ जा तू अंखियन में, निंदिया आ जा तू आ जा।’ बांबे टॉकीज की ‘किस्मत’ की ‘धीरे-धीरे आ रे, बादल धीरे-धीरे आ’। फिल्म ‘सीमा’ की ‘सुनो छोटी-सी गुड़िया की लम्बी कहानी।’ वी. शांताराम की ‘दो आंखें बारह हाथ’ की ‘मैं जागूं रे तू सो जा।’ फिल्म ‘अंगुलिमाल’ में ‘धीरे-धीरे ढल रे चंदा, धीरे-धीरे ढल।’ फिल्म ‘ब्रह्मचारी’ में ‘मैं गाऊं तुम सो जाओ।’ यूं यह लिस्ट तो बहुत लंबी है, पर जो याद आया सो गिना दिया, बाकी तो आपको भी बहुत सारी याद ही होंगी।

हां, एक बात जरूर कहूंगा। कुछ फिल्मी लोरियों में बाद के दौर में इतना ऊंचा स्वर और संगीत का शोर आ गया कि सोता बच्चा जाग जाए। अब मिसाल के तौर पर फिल्म ‘सांझ और सवेरा’ में सुमन कल्याणपुर की आवाज में एक लोरी है ‘चांद कंवल, मेरे चांद कंवल, चुपचाप सो जा यूं न मचल।’ एक तो मुझे इसमें बच्चे के लिए वात्सल्य भाव से भी ज्यादा डांट नजर आती है और जब बात अंतरे तक जा पहुंचती है, तो आवाज इतनी ऊंची पिच पर जा पहुंचती है कि माधुर्य ही खत्म हो जाता है। शंकर-जयकिशन की ही एक और लोरी फिल्म ‘बेटी-बेटे’ की है- ‘आज कल में ढल गया, दिन हुए तमाम, तू भी सो जा सो गई रंग भरी शाम..’ इसमें भी साजों का बहुत शोर है।

अब दो और कमाल की लोरियां याद आ गईं। पहली है फिल्म ‘संत ज्ञानेश्वर’ की ‘मेरे लाडलों तुम फूलो-फलो।’ इसमें भरत व्यास के शब्द, लता मंगेशकर की भावपूर्ण गायकी और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के संगीत का अद्भुत संगम है। ‘अपनी मां की किस्मत पर मेरे बेटे तू मत रो, मैं तो कांटों पर जी लूंगी, जा फूलों पर सो।’ मगर इतना सब कह चुकने के बाद भी मैं फिर अपनी पहली वाली बात पर ही आऊंगा- ‘झुन झुनझुना, झुन झुनझुना’ का जवाब नहीं। कानों में ऐसी मिठास भर गया है कि कुछ और सूझता ही नहीं।

(वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘बॉम्बे टॉकी’ से)
(राजकुमार केसवानी,हिंदुस्तान,दिल्ली,23.10.2010)

फिल्मी सितारों की करवाचौथ

आज की महिलाएं करवाचौथ का व्रत उतने ही जोश के साथ मनाती हैं, जैसे कि पहले की महिलाएं मनाया करती थीं। हमारी बॉलीवुड की शादीशुदा हीरोइनें भी अपनी व्यस्त जिंदगी में भूखे-प्यासे रह कर पति की सलामती के लिये करवाचौथ का व्रत रखती हैं। वे करवाचौथ कैसे मनाती हैं, आइये जानते हैं उन्हीं की जुबानी

ऐश्वर्या राय बच्चन

ऑफकोर्स मैं करवाचौथ का व्रत अपने पतिदेव के लिए करती हूं, चाहे मैं कितनी ही व्यस्त क्यों न हो जाऊं। यह व्रत मेरे लिये बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। पिछले साल तो अभि ने भी मेरे साथ भूखे-प्यासे रह कर यह व्रत किया था। उनका कहना है कि जब मैं उनके लिए भूखी-प्यासी रह कर व्रत रख सकती हूं तो वह मेरे लिये यह व्रत क्यों नहीं रख सकते। जब मैं कुंवारी थी, तभी से मेरी दिली इच्छा थी कि जब मेरी शादी हो जाएगी तो मैं भी शादीशुदा लड़कियों की तरह यह करवाचौथ का व्रत अपने पति के लिये रखा करूंगी। आज भगवान ने मेरी सुन ली है। उन्होंने अभिषेक के रूप में बहुत प्यार करने वाला हसबैंड दिया है और इतनी अच्छी ससुराल भी मुझे मिली है कि मैं हर जन्म में अभि को ही पति के रूप में चाहूंगी। करवाचौथ के व्रत में यही मेरी भगवान से कामना होती है।

करिश्मा कपूर

मैं करवाचौथ का व्रत पूरे रीति-रिवाज के साथ ही मनाती हूं और पूरा दिन निर्जल रह कर करवाचौथ का व्रत रखती हूं। इस दिन मैं अपनी ससुराल की सभी औरतों के साथ मिल कर करवाचौथ की पूजा करती हूं। रात में चांद की पूजा करने के बाद अपने पति परमेश्वर की भी पूजा करती हूं और फिर उन्हीं के हाथ से पानी पीकर अपना व्रत छोड़ती हूं। मेरे लिए तो यह व्रत बहुत ही मायने रखता है, क्योंकि एक सुहागन के लिए इस व्रत की बहुत अहमियत होती है। यह बात मैंने शादी के बाद ही महसूस की है।

रवीना टंडन

जब से मेरी शादी अनिल से हुई है, तब से तो मेरी पूरी जिंदगी ही बदल गयी है। उन्होंने मुझे इतना प्यार दिया है कि मैं अपनी जिंदगी के सारे दुख और टेंशन हमेशा के लिए भूल गयी हूं। अनिल से शादी के बाद ही मैंने यह जाना कि पति की अहमियत एक औरत की जिंदगी में क्या होती है। मेरे पति मुझसे इतना प्यार करते हैं कि दुनिया की सारी खुशियां वो मुझे देने को तैयार रहते हैं। मैं मोटी रहूं या पतली, इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, तो ऐसे में भला इतने प्यारे पति के लिये कौन करवाचौथ का व्रत नहीं रखना चाहेगा। मैं अपने पति के लिए पूरे रीति-रिवाज के साथ करवाचौथ का व्रत रखती हूं। और मजे की बात यह कि व्रत मैं रखती हूं और परेशान वह रहते हैं। मेरे पूरा दिन भूखे-प्यासे रहने पर उन्हें बहुत तकलीफ होती है, इसलिए करवाचौथ पर खास तौर पर वह मेरा ध्यान रखते हैं। मुझे एक अच्छा सा मेरी पसंद का गिफ्ट भी लाकर देते हैं। करवाचौथ पर जब मैं अपने पति की पूजा करती हूं तो उनका चेहरा देखने वाला होता है। उनके चेहरे पर उस वक्त जो खुशी होती है, वो देखने लायक होती है। अनिल का अपने प्रति इतना प्यार देखने के बाद करवाचौथ के व्रत पर पूजा करते समय मैं भगवान से यही प्रार्थना करती हूं कि हर जन्म में मुझे पति के रूप में यही मिलें।

सोनाली बेंद्रे बहल

गोल्डी से शादी के बाद मैं करवाचौथ का व्रत हर साल करती आई हूं। इस व्रत में मैं भगवान से अपने पति की लंबी आयु और अच्छे स्वास्थ्य की प्रार्थना करती हूं। हमारे मराठी में पति की सलामती के लिये वट सावित्री का व्रत रखा जाता है, लेकिन मेरी शादी पंजाबी परिवार में हुई है, इसलिए मैं ससुराल वालों के मुताबिक करवाचौथ का व्रत रखती हूं। इस दिन मैं बिल्कुल वैसा ही महसूस करती हूं, जैसे कि मैंने अपनी शादी के दिन महसूस किया था(आरती सक्सेना,हिंदुस्तान,दिल्ली,25.10.2010)।

तेलुगुदेशम को डीएमके का जवाब है रक्तचरित्र

केंद्रीय दूरसंचार मंत्री ए राजा को हटाए जाने और स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच संयुक्त संसदीय समिति से कराए जाने की तेलुगूदेशम पार्टी की मांग और इस शुक्रवार को रिलीज हुई रामगोपाल वर्मा की फिल्म रक्त चरित्र-१ में क्या संबंध हो सकता है? न सिर्फ ये सवाल चौंकाने वाला है बल्कि इसका जवाब इससे भी ज्यादा हैरान करने वाला है।

भरोसेमंद सूत्रों के मुताबिक डीएमके कोटे के मंत्री पर कीच़ड़ उछालने वाली तेलुगूदेशम पार्टी के संस्थापक एन टी रामाराव के सियासी कारनामों को उजागर करने के लिए ही रक्तचरित्र का निर्माण किया गया है और इसके पीछे जिस शख्स के दिमाग और पैसे ने काम किया, वह और कोई नहीं बल्कि डीएमके अध्यक्ष और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि के पोते दयानिधि अझागिरी हैं। दक्षिण की राजनीति में आने से पहले अपने फिल्मी किरदारों के चलते पूरे आंध्र प्रदेश में पूजे जाने वाले दिवंगत एन टी रामाराव ने ही तेलुगूदेशम पार्टी की स्थापना की और लंबे वक्त तक दक्षिण की राजनीति के जरिए केंद्र की सियासत को प्रभावित किया। नेशनल फ्रंट के गठन के समय से ही केंद्र की सत्ता में एक पाले में रही तेलुगूदेशम और डीएमके रिश्तों में खटास एनडीए के पहली बार गठन के वक्त आई थी। बाद में तमिलनाडु और आंध्र-प्रदेश दोनों ही राज्यों में सत्ता संतुलन बदलने से ये सियासी रिश्ते भी बनते बिग़ड़ते रहे लेकिन, तेलुगू देशम ने डीएमके पर सीधा निशान इस साल मई के पहले हफ्ते में साधा। इसके पोलित ब्यूरो सदस्य और पूर्व केंद्रीय मंत्री के येरन्नाायडू ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर न सिर्फ स्पेक्ट्रम घोटाले की चपेट में आए दूरसंचार मंत्री ए राजा को मंत्रिमंडल के बर्खास्त करने की मांग की बल्कि पूरे मामले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति गठित करने की मांग की। निर्देशक रामगोपाल वर्मा के करीबी सूत्रों की मानें तो तेलुगूदेशम पार्टी की छवि पर हमला करने की योजना इसके बाद ही बनी।

इस फिल्म में प्रजा देशम पार्टी के बहाने और शत्रुघ्न सिन्हा को एन टी रामाराव के चोले में पेशकर ये बताने की कोशिश की गई है कि कैसे तेलुगूदेशम पार्टी ने अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए अपराधी तत्वों का सहारा लिया। फिल्म के कथानक को लेकर आंध्र-प्रदेश में बवाल मचा हुआ है। तेलुगूदेशम के नेता इस फिल्म को रामाराव की छवि को ध्वस्त करने की साजिश बता रहे हैं।

फिल्म की शुरुआत में इसके निर्माता के रूप में दयानिधि अझागिरी की कंपनी क्लाउड ९ का नाम देखकर एक नया हंगामा शुरू हो गया है। दयानिधि के पिता एम के अझागिरी केंद्र में रसायन और उर्वरक मंत्री है और उनकी राजनीतिक महात्वाकांक्षाएं अक्सर अपने भाई स्टालिन की सियासत में रुकावटें डालती रही हैं। आंध्र प्रदेश में रक्तचरित्र के तेलुगू संस्करण को देखने वालों का कहना है कि ये फिल्म एन टी रामाराव की वहां अब तक बनी रही छवि को पूरी तरह ध्वस्त कर रही है और पार्टी के कुछ नेता इसके खिलाफ अदालत की शरण लेने का भी मन बना रहे हैं। इस बारे में फिल्म के निर्देशक राम गोपाल वर्मा कुछ नहीं कहना चाहते(पंकज शुक्ल,नई दुनिया,दिल्ली,26.10.2010)।

पग-पग हॉलीवुड....

अमेरिका के किसी शहर को क़दमों से नापना ही अटपटा लगता है, लेकिन हॉलीवुड उन कुछ गिने-चुने जगहों में से है, जो अपने स्टीरियोटाइप्स को अभी भी जी रहे हैं। बस थोड़ी-सी कोशिश, और यह ढेर सारे यादगार अनुभव देता है। पैदल चलने वालों के लिहाज से शानदार यह डिस्ट्रिक्ट लॉस एंजिल्स के अतीत और भविष्य, दोनों का प्रतिनिधित्व करती है।

अतीत में हैं कैपिटल रिकॉर्डस बिल्डिंग सरीखे आइकॉन और शहर का भविष्य है- बहुजातीय, ऊपर उठती इमारतें और घनी आबादी। पुनर्जागरण के हालिया दौर के चलते अब यहां हैं मिलियन-डॉलर कोंडोस, ट्रेंडी रेस्टरांज, वर्ल्ड क्लास मूवी थिएटर और सेलिब्रिटीज के नजारे।

लेकिन साथ ही यहां टैटू पार्लर्स, सेक्स शॉप्स और बेघर लोग भी क़ायम हैं। और ये सारी चीजें मिलती हैं हॉलीवुड वाक ऑफ फ़ेम में, जहां यह मुश्किल ही है कि किसी क्षण में आपको गुदगुदी न हो या आप भ्रमित न हों। आख़िर, यह ऐसी जगह है, जो लॉस एंजिल्स में ही हो सकती है।

शुरू करें सुबह-सुबह : लॉस एंजिल्स सुबह का शहर है। सो, स्क्वैयर वन डायनिंग पर ब्रेकफास्ट से शुरुआत कीजिए, जो किसानों के उत्पाद पर फोकस करने वाला जिंदादिल लोकल स्पॉट है। बनाना स्रिटस कारमेल के साथ कुछ फ्रेंच टोस्ट ऑर्डर कीजिए या फिर टमाटर और एरुगुला के साथ प्रेस्ड एग सैंडविच।

फिर सड़क के पार स्थित साइंटोलॉजी हेडक्वार्टर्स को निहारें। यह हॉलीवुड की छवि बनाने वाले सर्वाधिक उपयुक्त भवनों में से एक है। और यह भी देखने की कोशिश करें कि इसके पार्किग एरिया में कौन-सा स्टार जा रहा है या बाहर आ रहा है।

सेलिब्रिटी डॉग वाकर्स : हॉलीवुड बूलवार्ड (मुख्य सड़क) से दो ब्लॉक उत्तर की ओर अमेरिका के सबसे अनोखे अर्बन पार्को में से एक, रनयॉन केनयॉन है। 130 एकड़ में फैले इस पार्क में सीधी ढालें और कई पैदल मार्ग हैं, जहां से सैन फर्नाडो घाटी, प्रशांत महासागर और साफ़ दिनों में कैटलिना आइलैंड का नजारा होता है। यहां ग्रिफ़िथ ऑब्Êारवेटरी भी है, जहां अंतरिक्ष और विज्ञान से जुड़ी रोचक प्रदर्शनियां हैं। यह क्षेत्र डॉग ओनर्स के बीच लोकप्रिय है, जिनमें सेलिब्रिटीÊा भी शामिल हैं। यहां कुत्तों को पट्टा लगा या चेन से बांधकर रखने की बंदिश नहीं है।

देखें ‘हॉलीवुड’: लॉस एंजिल्स के बहुत सारे मूल निवासी भी ब्रेंसडाल आर्ट पार्क के बारे में नहीं जानते। यह पब्लिक स्पेस है, जिसे 1927 में एलिन ब्रेंसडाल ने दान किया था। यहां से हॉलीवुड साइन (पहाड़ी पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा ‘हॉलीवुड’) का मनमोहक नजारा होता है और यह लॉस एंजिल्स की इक्का-दुक्का जगहों में है, जहां आप हरी घास पर बैठ सकते हैं। यहां लॉस एंजिल्स म्युनिसिपल आर्ट गैलरी, एक थिएटर और हॉलीवुड हाउस है।


थोड़ी पेट पूजा : आपने कभी सोचा था कि हॉलीवुड जाकर आप रॉ फूड खाएंगे? यह वेस्ट हॉलीवुड है जनाब। इस एरिया में लंबा घूमना है, सो पहले नॉर्थ ग्रावर स्ट्रीट पर रोसकोÊा हाउस ऑफ चिकन एंड वेफ़ल्स में थोड़ी पेटपूजा कर ली जाए। बेहद पसंद की जाने वाली यह फूड चेन ग्रेवी में डूबे हाफ़ चिकन के लिए जानी जाती है, जिसे दो वेफल्स के साथ सर्व किया जाता है। अगर हल्का खाना चाहिए, तो कॉर्न ब्रेड के साथ रेड बींस व राइस ऑर्डर कीजिए।

खोजें सीडीज : रोसकोज से अमीबा रिकॉर्डस की ओर फास्ट वाक होती है। यह अमेरिका के सबसे बड़े इंडिपेंडेंट रिकॉर्ड स्टोर्स में है, जहां नई और इस्तेमाल की हुई सीडीज व डीवीडीज मीलभर तक फैले क्षेत्र में खोजी जा सकती हंै। यहां पर लाइव परफॉर्मेस भी चलता रहता है, जिसमें शहर के संभावनाशील कलाकारों को मौक़ा मिलता है।

हाईटेक मूवी : चलते रहें। अब आप आर्कलाइट सिनेमा की ओर बढ़ रहे हैं, जहां अमेरिका के सर्वश्रेष्ठ साउंड व प्रोजेक्शन सिस्टम में से एक लगा है। साथ ही यहां शानदार, आरामदायक कुर्सियां भी हैं।
टेस्ट ऑफ़ पेरू : नॉर्थ वाइन के कॉर्नर पर मुड़ें और आप एक छोटी-सी जगह पर पहुंचेंगे, जहां पूरी सजावट लीमा के प्रसिद्ध बाल्कोंस या बाल्कोनीज की छोटी प्रतिकृतियों से की गई है। यह लॉस बाल्कोंस डेल पेरू है, जहां परिवार, कपल्स और गायज नजर आते हैं।

आप चिचा मोराडा से शुरुआत कीजिए, जो कॉर्न वाटर के साथ बनी एक फ्रूट ड्रिंक है। फिर लोमो साल्टेडो चखें या प्याज के साथ सॉटीड या टाकु टाकु कॉन मॉरिस्कोस, जो पेरू की बींस और श्रिंप के साथ रिफ्राइड की जाती है।

फिर से सड़क पर : बेशक, यहां से टूरिस्ट गुज़रते ही हैं, पर आप हॉलीवुड बूलवार्ड से एक बार और गुजारिए और सैकड़ों स्टार्स को देखते हुए ख़ुद से पूछिए कि आप कितनों को पहचान पाए। ऐसा करते हुए ‘लकी डेविल्स’ पर जरूर रुकें और टोस्टेड पिकान माल्ट चखें। यह मीठा मिश्रण टूरिस्ट को बहुत पसंद आता है और जाहिर है, हॉलीवुड के अनुभवों के साथ इसका स्वाद भी हमेशा याद रहता है(दैनिक भास्कर,24.10.2010)।

Monday, October 25, 2010

सिने लोक में फोक का तड़का

इस बार बात सिनेमा के संगीत पर। आज फड़कती धुनों पर फोक का तड़का बॉलीवुड के संगीत का भड़काऊ आकर्षण है। वैसे हमारे फिल्मी संगीत में प्रचलित लोकगीतों व लोकधुनों का इस्तेमाल बहुत पहले से प्रचलन में रहा है। पर तब उसमें आंचलिक सौंदर्य था। स्थानीयता थी। रसिक-भाव की जगह अब उत्तेजक-प्रभाव आ गया है। और फिर कुछ ऐसा भी है जो आज ढूंढे नहीं मिलता फिल्म संगीत में। कभी लोरियां फिल्मों का खास हिस्सा हुआ करती थीं और हममें से कई उन्हें सुनते-सुनते नींद के आगोश में चले जाते थे। लोरियां जिन्दगी और फिल्मों दोनों से गायब हो गई हैं।

हिंदी फिल्मों के संगीत में जो ‘मुन्नी’ इन दिनों ‘बदनाम’ होने के लिए आतुर है वो नई नहीं है। पहले की तरह-‘यू.पी., बिहार लूटने’ वो जब-तब आती रहती है। इस विषय में परंपरा, प्रयोग और परिवर्तन तीनों हमेशा भदेस मुद्रा में नहीं थे। आज ये बाजार भाव से संचालित हैं। लोकतंत्र का ये फिल्मी विद्रूप पिछले ‘छल्ला उछाल’ गीतों का ही विस्तार है। इस बाजार में पिछली कही गई कहावत- ‘पतली कमर है तिरछी नजर है’ जैसे पुराने माल की खपत के बाद अगर कोई भड़काऊ आकर्षण है तो- फड़कती धुनों पर फोक का तड़का। वैसे हमारे फिल्मी संगीत में प्रचलित लोकगीतों व लोकधुनों का इस्तेमाल बहुत पहले से प्रचलन में रहा है। वो एक धीमा और कस्बाई बाजार था। तब लोकधुनों का प्रयोग आज की तरह लालची नहीं था। यह प्रयोग तब कथानक के अनुरूप था। उसमें माधुर्य था। मेलोड़ी थी। वो आज की तरह दर्शकों की जेबों पर सर नहीं पटकता था। आज वो समय की मांग यानी ‘यूज एंड थ्रो’ के आचरण में एक ‘आइटम सांग’ की तरह त्रिभंगी मुद्रा में अड़ा हुआ है। फिल्म की कहानी से एकदम अलग वह एक क्षेपक है। एक अनिवार्य पुछल्ला है। आधुनिक बकरी का पांचवा थन है। एक भड़काऊ इशारा है। यह अतिआधुनिक मुजरा है, हमारी ऐंद्रिकता को सहलाता हुआ। इस कामांध अतिथि को हमने ही बुलाया है- यहां कोई जेनेरेशन गैप नहीं है। मुन्नी और मोनिका में फर्क है तो बिकनी या लंहगा-चोली का। दोनों का धर्म लार टपकवा कर पैसा कमाना है।

हिंदी फिल्मों में लोकसंगीत हमेशा से लोकप्रिय रहा है। उसमें आंचलिक सौंदर्य था। स्थानीयता थी। वो आजकल जैसा बाजारू नहीं था। ये देहाती बाजार अवधी और भोजपुरी अंदाज का था। यही क्षेत्र चूंकि फिल्मी ग्राहकों का था, अत: सबसे अधिक पोषण या शोषण इन्ही क्षेत्रों में हुआ। भोजपुरी क्षेत्र में बाजारूपन जनता की मांग पर आधारित रहा। अवधी क्षेत्र का संगीत इस मांग के आगे थोड़ा कमजोर रहा, लेकिन नौशाद से लेकर जयदेव और फिर लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल तक ने इसका इस्तेमाल मर्यादित रूप से किया।

प्रख्यात गायिका मालिनी अवस्थी ने इस क्षेत्र में अभिनव शोध किया है। उनका शोध बहुत विस्तार में है। उनके अनुसार जिन प्रचलित फिल्मी गीतों में लोकधुनों का असर है उनमें नौशाद साहब अग्रणी हैं। कुछ उदाहरण- ‘दो हंसों का जोड़ा’ (फिल्म ‘गंगा-जमुना’ की मूल लोकधुन है- सारी कमाई गंवाई रसिया/अदालत में देखा करूंगी रसिया)। इसी तरह- ‘ढूंढ़ो-ढूंढो रे साजना मोरे कान का बाला’ (मूल लोकधुन- गंगा मैय्या तोरे पैंया पड़ं मोरी मैय्या)।

सलिल चौधरी ने भी बिहार को लोक संगीत का इस्तेमाल किया। फिल्म ‘तीसरी कसम’ में तो लोकसंगीत का प्रबल तत्व रहा। ‘चलत मुसाफिर मोह लियो रे पिंजरे वाली मुनिया’ (मूल लोकधुन- बाजे पैंजनियां बाजे रे बाजे झमाझम)।

ये युग वो था जब नौशाद, जयदेव, सलिल चौधरी, भूपेन हजारिका, ओ.पी. नय्यर, कल्याणजी आनंदजी और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल आदि लोकधुनों से फिल्मी संगीत को विविधता देकर उसे लोकप्रियता के मानदंडों के अनुसार समृद्ध कर रहे थे। युग पलटा। सद्गृहस्थों को ‘आइटम सांग’ रखैल की तरह ललचाने लगे। इनके शब्दों में उत्तेजक प्रभाव आने लगे। इससे पहले के गीतों में रसिक भाव था। जैसे- मेरा नाम है चमेली- फिल्म ‘राजा और रंक’ (मूल लोकधुन- गयो गयो रे सास तेरो राज, जमाना आया बहुओं का) या फिल्मी गीत- ‘जोगन बन जाऊंगी सैंया तोरे कारण’ (मूल लोकधुन- सवतिया न लावो सैंया अलबेले)।

ये तो जगजाहिर है कि ‘कजरारे कजरारे’ वाला ‘आइटम सांग’ वर्षों से कानपुर के किन्नर गाते रहे हैं। ‘बंटी और बबली’ ने इस गीत को ठग्गू के लड्डू की तरह लूट लिया। ‘मुन्नी बदनाम हुई’ वाला गीत बहुत पहले सायराबानो फैजाबादी का गाया हुआ है। इसके बोल थे- ‘लौंडा बदनाम हुआ नसीबन तेरे लिए’। वैसे इसी तरह की ‘मुन्नी’ को भोजपुरी गीत में बुलाया गया है कि- ‘आना मुन्नी साढ़े तीन बजे’। लोकगीतों के तड़के के नाम पर जो फूहड़पन फिल्मों में कैश किया गया, उनमें- ‘सरकाय लियो खटिया जाड़ा लगे’ या फिर ‘अंखियों से गोली मारे’ जैसे गीत हैं जो कतई लोकगीत नहीं रहे। ‘गमछा बिछाई के’ जैसा भदेसपन अश्लीलता का नवाचार है।

नौटंकी कलाकार गुलाबबाई के दादरों का प्रयोग भी फिल्मों में हुआ। ‘नदी नारे न जाओ श्याम’ के अलावा ‘मुझे जीने दो’ फिल्म में लोक संगीत के मर्यादित प्रयोग थे। इसके अलावा अन्य कुछ फिल्मों में ये प्रयोग इस प्रकार थे- ‘मोहे पीहर में ना छेड़ो’-फिल्म ‘तीसरी कसम (गुलाबबाई का दादरा), ‘मैं चंदा तू चांदनी’ (राजस्थानी भांड)। इला अरुण, सपना अवस्थी आदि ने आज के आइटम सांग को स्वर दिए हैं। कुछ और ऐसी लोकधुनें हैं जिनका प्रयोग फिल्म संगीत में किया गया है। जैसे- अटरिया पे लोटन कबूत../ चढ़ गयो पापी बिछुवा../ थाना हिलेला../ छल्ला छाप दे मुंदरिया../यू.पी. बिहार लूटने..! दरअसल ‘कजरारे कजरारे’ के बाद एक बाजारू आंधी आई और हर फिल्म में ‘आइटम सांग’ अनिवार्य आकर्षण हो गया। ये शुरुआत-‘बीड़ी जलाइले’ से लेकर ‘नमक इश्क का’ और ‘देखता है तू क्या’ तक मौजूद है। यही कहा जा सकता है कि- आगे-आगे देखिए होता है क्या?

मुन्नी बदनाम हुई..
कजरारे, कजरारे..
नमक इश्क का..

‘कजरारे कजरारे’ वर्षों से कानपुर के किन्नर गाते रहे हैं।

‘मुन्नी बदनाम हुई’ बहुत पहले सायराबानो फैजाबादी का गाया हुआ है। इसके बोल थे- ‘लौंडा बदनाम हुआ नसीबन तेरे लिए’।
(उर्मिल कुमार थपलियाल,हिंदुस्तान,दिल्ली,23.10.2010)

तीन टाकीजों में कल से छत्तीसगढ़ी फिल्में मुफ्त

के 10वें स्थापना वर्ष पर राज्य शासन छत्तीसगढ़ी फिल्मोत्सव का आयोजन कर रहा है। 26 अक्टूबर से 1 नवंबर तक रोजाना छत्तीसगढ़ी फिल्में मुफ्त दिखाई जाएंगी। शहर की तीन टाकीजों में इनका प्रदर्शन होगा। इसमें से एक टाकीज में रोजाना चार शो निशुल्क चलेंगे।

सप्ताह भर में कुल 36 सदाबहार फिल्में प्रदर्शित की जाएंगी। संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग ने इसका आयोजन किया है। मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह और संस्कृति मंत्री के मार्गदर्शन में इनका प्रदर्शन किया जा रहा है। प्रभात टाकीज में 26 अक्टूबर से 1 नवंबर तक कुल 28 फिल्में दिखाई जाएंगी। सातों दिन रोजाना चार शो दिखाए जाएंगे।

राज टाकीज में रोज सुबह 9.30 से दोपहर 12 बजे तक छत्तीसगढ़ी फिल्म दिखाई जाएगी। श्याम टाकीज में 26 अक्टूबर को 9.30 से 12 बजे तक एक फिल्म का प्रदर्शन होगा। वहां मोर छइहां भुइयां फिल्म दिखाई जाएगी।

संस्कृति विभाग के आयुक्त के मुताबिक दर्शकों को फिल्में मुफ्त दिखाई जाएंगी। प्रदेश में फिल्म उद्योग फल-फूल रहा है। यहां के कलाकारों को इनके माध्यम से रोजगार और अवसर मिल रहा है। इसे प्रोत्साहित करने के लिए फिल्मों का प्रदर्शन किया जा रहा है(दैनिक भास्कर,रायपुर,25.10.2010)।

प्रतिरोध के सिनेमा का नैनीताल फिल्म समारोह 29 से

प्रतिरोध के सिनेमा को परदा मुहैया कराने वाला दूसरा नैनीताल फिल्म समारोह 29 से 31 अक्टूबर तक आयोजित किया जाएगा। आयोजकों ने सोमवार को बताया कि नैनीताल क्लब के शैले हाल में आयोजित इस तीन दिवसीय समारोह में कुल तीन फीचर और लगभग 15 डाक्यूमेंटरी फिल्में प्रदर्शित की जाएंगी। किसी प्रायोजक के सहयोग के बिना आयोजित इस समारोह में हिस्सा लेने के लिए टिकट या पास की जरूरत नहीं होगी।

यह जन संस्कृति मंच के फिल्म समूह (द ग्रुप) प्रतिरोध के सिनेमा का 15 वां समारोह होगा। इससे पहले ए समारोह गोरखपुर में पांच, लखनऊ में तीन, भिलाई में दो और इलाहाबाद, पटना, बरेली और नैनीताल में एक बार आयोजित किए जा चुके हैं। गिर्दा और निर्मल पांडे की याद में आयोजित इस समारोह में दिखाई जाने वाली फीचर फिल्में बेला नेगी की दाएं या बाएं, परेश कामदार की खरगोश और संकल्प मेश्राम की छुटकन की महाभारत होगी।

समारोह में वसुधा जोशी की तीन डाक्यूमेंटरी फिल्मों अल्मोडियाना, फार माया और वायसेस फ्राम बलियापाल का प्रदर्शन किया जाएगा। इसके अलावा गिर्दा और निर्मल पांडे पर प्रदीप पांडे, मोहन जोशी और प्रदीप दास की लघु फिल्में भी दिखाई जाएंगी। इसमें दिखाई जाने वाली अन्य डाक्यूमेंटरी फिल्में होंगी, संजय काक की जश्ने आजादी, अजय भारद्वाज की कित्ते मिल वे माही, देवरंजन सारंगी की हिन्दू टू हिंदुत्व, अनुपमा श्रीनिवासन की आई वंडर और अजय टी जी की अंधेरे से पहले। फिल्मकारों के साथ सीधे संवाद के अलावा इस समारोह में उत्तराखंड में हाल में हुई प्राकृतिक आपदा पर फोटो पत्रकार जयमित्र बिष्ट की तस्वीरों की प्रदर्शनी भी लगाई जाएगी(हिंदुस्तान,25.10.2010)।

सलीम के पचास बरस

भारतीय सिनेमा को जन्मदिन और पुण्यतिथि भूलने की बुरी आदत है। अगर उसकी स्मृति दुरुस्त होती, तो वर्ष के हर सप्ताह कुछ न कुछ आयोजन जरूर होते। निश्चय ही यहां फिल्मी पार्टियां आयोजित की जाती हैं, पर असल उत्सव अब भी दूर दिखता है। विलक्षण घटनाओं को कोई याद नहीं रखता, जब तक कि उसमें शामिल लोग खुद ही उसे याद न करें।
आज वैसी ही एक विलक्षण घटना को याद करने का दिन आ गया है। लेकिन इसका दुखद पक्ष यह है कि उसके एकमात्र जीवित गवाह बेशक इस आयोजन से खुश हो सकते थे, पर वह खुद किसी बड़े आयोजन को अंजाम देने की स्थिति में नहीं हैं। दिलीप कुमार अकबर के बेटे सलीम के ऐतिहासिक किरदार निभाने की पचासवीं वर्षगांठ मना सकते हैं।
वह वर्ष 1960 था, जब ऐतिहासिक फिल्म मुगल-ए-आजम पूरे देश में प्रदर्शित हुई थी। मुंबई में प्रीमियर शो के मौके पर फिल्म की रील कनस्तरों में भरकर हाथियों की पीठ पर लादकर लाई गई थी और हर जगह लोग दो दिन पहले से एडवांस टिकट के लिए कतारों में खड़े थे, ताकि वे यह फिल्म देखने वाले शुरुआती दर्शक बन सकें। अगर फिल्म देखने के लिए टिकट खिड़की पर लंबी कतारें थीं, तो इस फिल्म में भी कलाकारों की लंबी सूची थी।
जैसे ही देश भर के सिनेमा घरों में तीन घंटे उन्नीस मिनट लंबी फिल्म शुरू हुई, दर्शकों में इतनी लंबी फिल्म के प्रति एक किस्म की उदासी देखने को मिली। पहला शो देखने के लिए धक्का-मुक्की करते हुए जिन्होंने टिकट लिए थे, उन्हें अफसोस ही ज्यादा हुआ। शुरुआती दो सप्ताह तकफिल्म गति नहीं पकड़ पाई, फिर अचानक दर्शक सिनेमा हॉलों की ओर फिल्म देखने बार-बार लौटने लगे। लगा कि वे पागल हो गए हैं। देश भर के थियेटरों में फिल्म ने हाउस फुल का बोर्ड उतरने नहीं दिया। कुछ थियेटरों ने फिल्म ने सिल्वर जुबली मनाई, कुछ ने गोल्डन जुबली मनाई, तो कुछ सिनेमा हॉलों में यह इससे भी ज्यादा चली। रतन, किस्मत, राम राज्य, नागिन, मदर इंडिया जैसी महान फिल्मों के कीर्तिमानों को ध्वस्त करते हुए मुगल-ए-आजम ने देश की सर्वकालीन श्रेष्ठ फिल्म का खिताब हासिल कर लिया। यह फिल्म तब तक सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ फिल्म बनी रही, जब तक कि शोले रिलीज नहीं हुई, और बाद में शोले को भी गदर जैसी फिल्म ने फीका कर दिया।
मुगल शहंशाहों से जुड़ी यह फिल्म अब भी पूरे देश के दिलों पर राज करती है। यह अलग तरह की और विलक्षण फिल्म तो थी ही, आज भी कोई दूसरी फिल्म इसे चुनौती देने की स्थिति में नहीं है। इस फिल्म की नकल के बारे में तो कभी सोचा ही नहीं जा सकता। हां, अगर कुछ नया करना है, तो मूल फिल्म में ही करना होगा। मसलन, चार साल पहले इस फिल्म को रंगीन बनाया गया, तो इसने अच्छा बिजनेस किया, जिससे पुराने समय की दूसरी हिट श्वेत-श्याम फिल्मों को रंगीन करने की प्रेरणा मिली। और और अब दिवाली तोहफे के रूप में इस फिल्म के आनेवाले संस्करण में डॉल्बी साउंड ट्रैक डाला गया है।
यह उम्मीद नहीं थी कि तीन पीढ़ियां यह फिल्म देखने के लिए पिक्चर हॉलों में जाएंगी, लेकिन वे भारी संख्या में गए। इस फिल्म की वीसीडी लगातार अच्छा बिजनेस कर रही है। इस फिल्म से जुड़ी स्टर्लिंग इनवेस्टमेंट कंपनी ने कभी दूसरी फिल्म नहीं बनाई, और इस फिल्म को पूरी करने में मदद देने वाले पारसी बिल्डिंग कंट्रेक्टर्स और पैलोनजी प्रा. लि. ने किसी दूसरी फिल्म को फाइनेंस नहीं किया। मुगल-ए-आजम के तमाम मुख्य सहयोगी भी इस फिल्म के साथ इतिहास बन गए। इसके मुख्य सिनेमा ऑटोग्राफर आर डी माथुर दिवंगत होने वाले पहले व्यक्ति थे, फिर एक के बाद एक सभी दिवंगत होते चले गए। संगीतकार नौशाद दुनिया से कूच करने वाले आखिरी महान शख्सियत थे। अब अकेले बैठे यूसुफ साहब सोचते हैं कि इस महान फिल्म, और दूसरी कई बेहतरीन फिल्मों से भी जुड़े वह आखिरी व्यक्ति हैं।
इस फिल्म ने अनेक कीर्तिमान तो खैर बनाए ही, इससे जुड़े लोग देश की महान प्रतिभाएं भी थे। इसका कला निर्देशन आज तक बेहतरीन है। खुद बड़े गुलाम अली खां ने इस फिल्म में एक शास्त्रीय संगीत में स्वर दिया था। इस फिल्म में शुतुरमुर्ग के पंखों का इस्तेमाल करने वाले सर्वाधिक संवेदी दृश्य थे। किसी दूसरी फिल्म में इसे दोहराया नहीं जा सका। फिल्म में दिखाए गए जंग के दृश्य न सिर्फ असली थे, बल्कि लड़ाइयों की शूटिंग काफी व्यापकता में हुई थी।
सवाल यह है कि इस फिल्म की पचासवीं सालगिरह आखिर किस तरह मनाई जाएगी। जाहिर है, यह समारोह इस फिल्म के निर्माता, निर्देशक या दूसरे कलाकारों के बेटे-बेटियों या रिश्तेदारों के लिए नहीं है। यह सालगिरह वस्तुतः मुंबई की समूची हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लिए है, जिन्हें इस अवसर पर एक भव्य आयोजन करना ही चाहिए(गौतम कौल,अमर उजाला,24.10.2010)।

Saturday, October 23, 2010

फ़िल्मकार की बीन पर सर्पनृत्य

मल्लिका शेरावत ने हॉलीवुड में बनी ‘हिस्स’ (सांप की फुफकार) नामक फिल्म में अभिनय किया है, जो भारत में प्रदर्शित हुई है। इस तरह की फिल्म को प्रदर्शन के लिए अमेरिका में सिनेमाघर नहीं मिलेंगे। उन्हें हिंदुस्तानी फिल्में दिखाने वाले सिनेमाघरों से संतोष करना होगा। मल्लिका का सांप के रूप में हॉलीवुड में सेंध मारने का सपना शेखचिल्ली के सपनों की तरह है।

हॉलीवुड में बहुत बड़े बजट की ‘एनाकोंडा’ सरीखी फिल्में बनती हैं। तमाम देशों में सांप को लेकर अनेक किंवदंतियां गढ़ी गई हैं और सांप धार्मिक प्रतीक भी है। आधुनिक चिकित्सा शास्त्र में भी दो सांपों का गलबहियां करने का चित्र प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। ग्रीक किंवदंती है कि एक सांप पत्तियों के द्वारा अपने बीमार साथी का इलाज कर रहा है।

हमारे सिनेमा ने धार्मिक आख्यानों पर फिल्में बनाकर अपने प्रारंभिक दौर में जड़ें जमाने के बाद अपने ही आख्यान गढ़े। शशधर मुखर्जी ने वैजयंती माला और प्रदीप कुमार को लेकर ‘नागिन’ बनाई, जिसमें सपेरे की बीन की ध्वनि कल्याणजी-आनंदजी ने अपने नए आयात किए क्ले वायलिन पर रची। इस फिल्म के संगीतकार हेमंत कुमार थे। उस दौर में इस फिल्म का ‘मन डोले मेरा तन डोले, मेरे दिल का गया करार..’ गीत अत्यंत लोकप्रिय हुआ। यह भ्रम रचा गया कि सांप बीन की ध्वनि पर डोलता है। हकीकत यह है कि सांप केवल धरती के कंपन को महसूस करता है और अन्य प्राणियों की तरह उसके कान नहीं होते। दरअसल सांप सपेरे के हिलने-डुलने पर प्रतिक्रिया देता है।

इसी तरह कीड़े-मकोड़े, मेंढक इत्यादि खाने वाला सांप दूध नहीं पीता, परंतु हमारी किंवदंती के अनुरूप नागपंचमी पर उसे दूध पिलाया जाता है। भारतीय सिनेमा ने तो हद कर दी। एक ऐसी ही फिल्म में अरुणा ईरानी सांप को अपना दूध पिलाती हैं और वह खलनायक को मारकर मां के दूध का कर्ज उतारता है। यह भी भ्रम रचा गया है कि सांप की आंख में चित्र कैद हो जाता है और वह बदला लेता है। इसी भ्रम पर राजकुमार कोहली ने एक फिल्म बनाई थी। इस फिल्म में जीतेंद्र, सुनील दत्त सरीखे कलाकार थे और रीना राय बदला लेने वाली नागिन बनी थीं।

सांप आधारित फिल्मों में एक मोड़ उस समय आया जब हरमेश मल्होत्रा ने ऋषि कपूर और श्रीदेवी को लेकर ‘नगीना’ (1976) बनाई, जिसमें एक नागिन स्त्री रूप धरकर विवाह करती है और अपने पति के जीवन की रक्षा करती है गोयाकि सांप की किंवदंती के साथ सती सावित्री की कथा भी जोड़ दी गई। इस फिल्म को बॉक्स-ऑफिस पर भारी सफलता मिली। इसी तरह यह भी भ्रम है कि सांप के माथे पर एक मणि होती है। इच्छाधारी नाग किसी भी स्वरूप में प्रस्तुत हो सकता है। धार्मिक आख्यानों में एक नागलोक की कल्पना भी है।

इस धरती पर मनुष्य के बाद सबसे अधिक किंवदंतियां सांप को लेकर रची गई हैं। साहित्य में भी रचनाएं हैं। रबिंद्रनाथ टैगोर की एक कथा में एक अत्यंत लोभी व्यक्ति गलतफहमी के कारण अपने ही पोते को तलघर में बंद कर देता है क्योंकि उसे कहा गया है कि इस तरह की बलि वाला अबोध बालक सांप बनकर उसके खजाने की रक्षा करेगा। इस कहानी का प्रभाव इतना जबरदस्त है कि अंतिम पंक्तियां पढ़कर दिल थम सा जाता है। एक कहानी में सपेरे का विवाह हो जाता है तो डाह की मारी उसकी पाली हुई नागिन उसे ही डस लेती है।

यह भी माना जाता है कि नागिन एक कतार में दर्जनों अंडे देती है और पेट खाली होने पर वापसी में वह अपने ही अंडों को खा जाती है। किसी कारण से कतार से लुढ़के कुछ अंडे बच जाते हैं। सिनेमा भी टेक्नोलॉजी की सर्पिणी का ऐसा ही अंडा है, जो कतार से लुढ़कने के कारण बच गया है(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,23.10.2010)।

Friday, October 22, 2010

त्योहारी सीजन में हिंदी सिनेमा के ४०० करोड़ दांव पर

हिंदी सिनेमा में दशहरा से शुरू होने वाले बॉक्स ऑफिस धमाल के इस बार फुस्स होने से दीवाली से लेकर क्रिसमस तक रिलीज होने वाली फिल्मों के निर्माताओं की जान सांसत में अटकी हुई है।

इस दौरान ऐश्वर्य राय से लेकर करीना कपूर और अक्षय कुमार से लेकर ऋतिक रोशन, इमरान खान, अभिषेक बच्चन और अजय देवगन की शोहरत का इम्तिहान होना है। एक अनुमान के मुताबिक इस त्योहारी सीजन में हिंदी सिनेमा के करीब ४०० करोड़ रुपए दांव पर हैं।

दशहरा के ठीक पहले इमरान हाशमी की फिल्म कू्रक व ऋषि कपूर व नीतू सिंह की फिल्म दो दूनी चार और इसके बाद संजय दत्त और अजय देवगन जैसे सितारों की नॉक आउट और आक्रोश के फ्लॉप हो जाने से हिंदी सिनेमा के निर्माताओं और वितरकों में इन दिनों अफरातफरी का माहौल है। कभी टी सीरीज की आंखों की तारा रहे हिमेश रेशमिया की करोड़ों की फिल्म कजरारे को मुंबई और पुणे के बस दो सिनेमाघरों में ही रिलीज हो पाने से भी फिल्म जगत की खस्ता हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है। इन पांच फिल्मों के न चलने से ही हिंदी सिनेमा को करीब १०० करोड़ का नुकसान हो चुका है। अब शुक्रवार को एक साथ चार फिल्में रक्त चरित्र १, हिस्स, दस तोला और झूठा ही सही रिलीज हो रही हैं। इन फिल्मों पर इनके निर्माताओं ने करीब ५० करोड़ रुपए खर्च किए हैं।

हिंदी सिनेमा के सितारों की शोहरत का असली इम्तिहान अगले हफ्ते होने ५ नवंबर को होने वाला है। करीब सौ करोड़ की लागत से बनी अजय देवगन व करीना कपूर की गोलमाल ३ और अक्षय कुमार और ऐश्वर्य राय की ऐक्शन रीप्ले के कारोबार से अक्षय कुमार का भविष्य तो तय होना ही है, इन फिल्मों से थ्री इडियट्स और रोबोट की कामयाबी के बाद नंबर वन की दावेदारी के लिए करीना और ऐश्वर्य के बीच चल रहे मुकाबले का फाइनल भी तय होना है। दीवाली के इन धमाकों के दो हफ्ते बाद १६ नवंबर को ऐश्वर्य राय एक बार फिर ऋतिक रोशन के साथ फिल्म गुजारिश में अपनी कामयाबी की गुजारिश करती दिखेंगी जबकि राम गोपाल वर्मा इसी दिन अपनी महात्वाकांक्षी फिल्म रक्त चरित्र का दूसरा हिस्सा रिलीज करेंगे।

करीब सौ करोड़ के दांव वाली इन फिल्मों की रिलीज के बाद इमरान खान और दीपिका पादुकोण की फिल्म ब्रेक के बाद, अभिषेक बच्चन की फिल्म खेलेंगे हम जी जान से, अजय देवगन की फिल्म टूनपुर का सुपरहीरो और अक्षय कुमार और कैटरीना की फिल्म तीसमार खां पर भी करीब डेढ़ सौ करोड़ रुपए दांव पर लगे हैं(नई दुनिया,दिल्ली,22.10.2010 में मुंबई से पंकज शुक्ल की रिपोर्ट)।

Thursday, October 21, 2010

नायिकाएं : कल आज और कल

एक तरफ उम्र की ढलान पर फिसलती शिल्पा शेट्टी,प्रीति जिंटा और रानी मुखर्जी कह रही हैं कि उनकी पारी अभी समाप्त नहीं हुई है। दूसरी ओर उनसे कहीं अधिक वय वाली जीनत अमान फिल्म 'डूयूनो वाय न जाने क्यों' से वापसी कर रही हैं। 'उमराव जान' रेखा भी टेलीविजन पर एक कार्यक्रम करने जा रही हैं। हर वह राह जिस पर अमिताभ बच्चन चलते हैं,रेखा को उसे आजमाना ही है। कुछ सिलसिले हमेशा बदस्तूर जारी रहते हैं। बाबूराम इशारा की 1966 में प्रदर्शित फिल्म 'चेतना' में युवा तवायफ रेहाना सुल्तान को वृद्ध तवायफ नादिरा कहती हैं,'मैं तुममें अपना गुजरा हुआ कल देखती हूं और तुम मुझमें अपना आने वाला कल देख सकती हो। अभिनेत्रियां तवायफ नहीं हैं, परंतु मनोरंजन उद्योग में वय पूंजी होती है। स्वयं जीनत अमान कहती हैं कि महिला कलाकारों की एक 'एक्सपायरी डेट' होती है, परंतु पुरुष कलाकार लंबी पारी खेलते हैं।
दरअसल हमारे सिनेमा में ऐसे लेखक-फिल्मकार नहीं हैं जो चालीस पार की प्रतिभाशाली अभिनेत्री के लिए केंद्रीय भूमिका लिख सकें। प्रतिभाशाली चालीस पार महिला चालीस कैरेट का हीरा होती है,परंतु जौहरी कहां से खोजेंगे?गुलजार ने चालीस पार की सुचित्रा सेन को लेकर कमलेश्वर के उपन्यास पर फिल्म 'आंधी'बनाई थी। इसमें संजीव कुमार और सुचित्रा सेन की जुगलबंदी देखते ही बनती थी। दरअसल मनोरंजन क्षेत्र मुर्गियों के दड़बे की तरह है,जिसका पट खुलते ही अर्थात अवसर मिलते ही चूजे बाहर आने लगते हैं। इस खेल में प्राय: सफलता मिलते ही तेज रोशनी में आंखें चौंधिया जाती हैं और कलाकार स्वयं को तेजी से खर्च करने लगता है। वह इस प्रक्रिया को धन कमाना कहता है। प्रतिस्पर्धा का तनाव और काम का दबाव भीतरी ताकत को निरंतर आजमाता रहता है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि सफलता आपके चारों ओर भ्रम रचती है और प्राय: युवा शरीर की नुमाइश को अभिनय प्रतिभा समझ लिया जाता है। जीनत अमान सौंदर्य प्रतियोगिता के रैंप पर चलकर अपने इंच टेप से नपे-तुले जिस्म को लेकर अभिनय क्षेत्र में आई थीं। उस दौर में उनके द्वारा प्रस्तुत खुलापन भारतीय दर्शक के लिए नया अनुभव था। उस दौर के दर्शक ने पहली बार नायिका का चेहरा देखने से पहले उसका वक्ष और कमर देखना शुरू किया। इसके साथ ही वह उस रूमानी नजाकत से बाहर आया जिसमें नायक कहता है कि अपने खूबसूरत पैर जमीन पर मत रखना। (मसलन, फिल्म 'पाकीजा') जीनत के कामयाब होने के दौर में ही परवीन बॉबी ने भी सफलता अर्जित की। उसी दौर में क्लासिकल सौंदर्य के मानदंड पर खरी राखी ने भी कदम रखा था। जिस्म की नुमाइश के उस दौर में उन्होंने अपने चेहरे और आंखों से बाजी मार ली थी। मौजूदा दौर की करीना कपूर,दीपिका पादुकोण और प्रियंका चोपड़ा सुंदर होने के साथ ही जिस्म की नुमाइश से कोई परहेज नहीं करतीं। यह दौर ही कुछ ऐसा है कि सुंदरता और प्रतिभा होने पर भी चमड़ी दिखाए बिना दमड़ी नहीं मिलती(मैट्रिक्स,दैनिक भास्कर,21.10.2010)।

......और नीलाम हो गई कमालिस्तान

अरसे से अपने जायज वारिसों के बीच बंटवारे के मुकदमों में उलझी रही मशहूर फिल्म निर्देशक कमाल अमरोही की आखिरी निशानी कमालिस्तान स्टूडियो आखिर नीलाम हो ही गई। महाराष्ट्र के तीन बड़े बिल्डरों ने मिलकर इस अनमोल धरोहर की बोली लगाई और इसका सौदा किया अमरोही के उन तीन लाडलों ने, जिन्हें कमाल ने अपनी इस निशानी की तरह ही पाल पोसा था। इस पूरे सौदे में एक अहम किरदार फिल्म अभिनेत्री प्रीति जिंटा ने भी निभाया।

हर साल अरबों रुपए का कारोबार करने वाले हिंदी सिनेमा ने कभी अपने बुजुर्गों की निशानियों से दिल नहीं लगाया। मोहम्मद रफी का मशहूर बंगला उनके बेटे शाहिद ने बेचकर वहां बहुमंजिली इमारत खड़ी कर दी। किशोर कुमार का बंगला बुरे हाल में है। देवआनंद ने खुद अपना बंगला एक बहुमंजिला इमारत बनाने के लिए बेच दिया है। सुनील दत्त के बंगले को भी उनके बेटे संजय दत्त करोड़ों में बेचकर वहां आसमान छूती इमारत खड़ी कर चुके हैं। अब बारी कमालिस्तान की है।

कमालिस्तान स्टूडियो की बाजार के हिसाब के इस वक्त कीमत ६०० करोड़ रुपए बताई जाती है और सूत्रों के मुताबिक इसका सौदा प्रीति जिंटा की पहल के चलते रीयल एस्टेट के तीन बड़े खिलाड़ियों ने मिलकर पटा लिया है। इस सौदे की बड़ी रकम प्रीति जिंटा के पास आने वाली है। हिंदी सिनेमा को "महल", "पाकीजा" और "रजिया सुल्तान" जैसी मशहूर तथा चर्चित फिल्में बनाने वाले कमाल अमरोही ने कमालिस्तान की स्थापना १९५८ में की थी। अभिनेत्री नरगिस की मां जद्दन बाई के यहां काम करने वाली बानो से उनकी पहली शादी हुई। बानो की मौत के बाद कमाल अमरोही की दूसरी शादी महमूदी से हुई जिनसे उनकी तीन संतानें हैं। दो बेटे ताजदार व शानदार और एक बेटी रुखसार। तीसरी शादी उन्होंने मीना कुमारी से की। पहली और तीसरी बीवी से कमाल को कोई औलाद नहीं हुई।

कमालिस्तान स्टूडियो को लेकर कमाल अमरोही की तीनों संतानों के बीच लंबे समय से विवाद चला आ रहा है लेकिन समझा जाता है कि अब इस मामले को लेकर तीनों ने समझौता कर लिया है। तमाम फिल्मों में अपनी डिंपल वाली मुस्कराहट बिखेरती रहीं और क्रिमिनल साइकोलॉजी में स्नातक स्तर का डिप्लोमा करने वाली प्रीति का नाम सबसे पहले कमालिस्तान स्टूडियो विवाद से इस साल की शुरुआत में जुड़ा, जब कमाल अमरोही के बेटे शानदार ने उन्हें अपना कानूनी उत्तराधिकारी घोषित किया। दरअसल, उस वक्त प्रीति जिंटा आईपीएल टीम किंग्स इलैवन में अपना हिस्सा बेचकर उसे रीयल एस्टेट में लगाने के लिए पार्टनर तलाश रही थीं। इसी दौरान उनकी मुलाकात पुणे के एक बिल्डर से हुई। वाडिया ग्रुप के वारिसों में से एक नेस वाडिया से दोस्ती के चलते किंग्स इलैवन में भी प्रीति को करोड़ों की हिस्सेदारी मिल चुकी है(पंकज शुक्ल,नई दुनिया,दिल्ली,21.10.2010)।

Tuesday, October 19, 2010

www.filmaster.com

यह एक नई सोशल नेटवर्किग साइट है, जो कि फिल्म शौकीन लोगों को अपनी और आकर्षित कर सकती है। आप यहां अपनी पसंदीदा फिल्म के लिए दूसरों को सुझाव भी दे सकते हैं और अपनी सामग्री भी डाल सकते हैं। आप अपना मूवी ब्लॉग चला सकते हैं, फिल्म की रेटिंग कर सकते हैं और अपनी समीक्षा भी पोस्ट कर सकते हैं। यहां आप अपने समान रुचि रखने वाले दूसरे लोगों से संपर्क साध सकते हैं। आपकी समीक्षा के आधार पर यह साइट आपको भी ऐसी फिल्म के विषय में जानकारी देगी, जिन्हें आपको देखना चाहिए या नहीं देखना चाहिए। आप ट्विटर और फेसबुक के माध्यम से भी जुड़ सकते हैं(हिंदुस्तान,दिल्ली,19.10.2010)।

Monday, October 18, 2010

थीम सांग को लेकर रहमान ने दिखाए सबूत

भारतीय संगीत को लोकप्रियता की नई ऊंचाइयों पर पहुंचाने वाले संगीत सम्राट ए आर रहमान ने राष्ट्रमंडल खेलों के लिए बनाए गए अपने चर्चित थीम सांग 'जियो उठो बढ़ो जीतो' को लेकर हो रही तमाम आलोचनाओं को खारिज करते हुए आज कहा कि आम जनता के साथ-साथ भारतीय संगीत जगत की नामचीन हस्तियों ने भी इसकी जमकर सराहना की थी।
दो प्रतिष्ठित आस्कर पुरस्कारों से सम्मानित रहमान ने थीम सांग को लेकर चारों तरफ से हो रही आलोचनाओं के बाद भारतीय संगीत जगत की नामचीन हस्तियों द्वारा इसके समर्थन में भेजे गए संदेश को सोशल नेटवर्किग वेबसाइट 'फेसबुक' पर डाला है। अपनी सुरीली आवाज से संगीत प्रेमियों को दीवाना बनाने वाली स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने रहमान का समर्थन करते हुए कहा, 'वह बहुत प्रतिबद्ध संगीतकार हैं और लोग उनके प्रति कठोर रवैया अपना रहे हैं।' संगीतकार विशाल भरद्वाज ने लिखा, 'रहमान ने संगीत के लिए बहुत कुछ किया है और अन्य लोगों की अपेक्षा वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के प्रतिबिंब हैं।'
स्लमडाग मिलेनियर के लिए आस्कर पुरस्कार से नवाजे गए रेसुल पोकुट्टी ने कहा, 'यह गीत खिलाड़ियों और भारत की जनता के आह्वान का है।' प्रख्यात गीतकार जावेद अख्तर ने कहा, 'रहमान जी परेशान मत होइए। हर बार आप कुछ नया लेकर आते हैं। लोग मुझसे कहते हैं कि आप खत्म हो गए लेकिन 20 दिन बाद लोग इसकी तारीफ करने लगे।' रहमान ने लिखा है, 'जियो उठो बढ़ो जीतो' के जारी होने पर जिन लोगों ने सकारात्मक प्रतिक्रिया दी मैं उन्हें धन्यवाद देना चाहूंगा। आपकी ईमानदार, सकारात्मक और पक्षपात रहित प्रतिक्रिया तथा सही दृष्टिकोण ने मुझे अनपेक्षित तूफान [आलोचना] के समक्ष खडे़ में रहने के लिए आत्मविश्वास दिया।'
रोजा, दिल से, लगान, स्लमडाग मिलेनियर जैसी बेहद सफल फिल्मों के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बटोरने वाले रहमान ने कहा, 'अंत भला तो सब भला। राष्ट्रमंडल खेलों के उद्घाटन के दौरान थीम सांग की लोगों ने जमकर सराहना की। उद्घाटन समारोह के दौरान पेश किए गए थीम सांग कार्यक्रम को अपार सफलता मिली। मैं देख सकता हूं कि उम्रदराज और जवान दोनों ही इसे पसंद कर रहे हैं।' रहमान द्वारा राष्ट्रमंडल खेलों के लिए बनाया थीम सांग लोगों को पसंद नहीं आने के कारण आलोचना के घेरे में आ गया था।
आलोचकों का कहना था कि यह अत्यधिक 'मंहगा' थीम सांग युवाओं को आकर्षित नहीं कर सका। इस गाने के लिए रहमान ने करीब पांच करोड़ रुपये लिए थे। रहमान ने राष्ट्रमंडल खेलों में शानदार प्रदर्शन करने के लिए भारत की पूरी टीम को बधाई दी जो 'जियो उठो बढ़ो जीतो' के नारे के साथ आगे बढे़(जागरण डॉटकॉम,18.10.2010)।

राजनीति में सिनेमा और सिनेमा में राजनीति

राजनेता विलासराव देशमुख के सुपुत्र रितेश देशमुख अभिनय क्षेत्र में सक्रिय हैं और बहुसितारा फिल्मों में नजर आते हैं। उनके अपने कंधे पर फिल्म नहीं चल सकती। शीघ्र ही रामविलास पासवान के सुपुत्र चिराग पासवान ‘वन एंड ओनली’ नामक फिल्म में नजर आएंगे। नेता और अभिनेता दोनों का भाग्य आम आदमी तय करता है, परंतु चुनाव में योग्यता के अतिरिक्त बहुत सी और बातें भी जीत तय करती हैं। फिल्म में ‘ये और बातें’ अभिनेता की मदद नहीं करतीं। स्पष्ट है कि आम आदमी अपना मनोरंजन चुनने में गफलत नहीं करता, परंतु नेता के चुनाव में उससे चूक हो जाती है क्योंकि उस पर जाति और धर्म का दबाव भी रहता है।

मनोरंजन क्षेत्र में जाति और धर्म अहमियत नहीं रखते, क्योंकि यह खेल मुस्कान और आंसू का है, जिनका जाति और धर्म से कोई संबंध नहीं। यह क्या कम है कि कुछ चीजें आज भी जाति और धर्म से परे हैं। सच तो यह है कि भूख भी जाति और धर्म से परे है। आदमी भूख से जूझता है, देवता इस परीक्षा से परे हैं। इस क्षेत्र में एक दिन भी भूमिकाओं की अदला-बदली किसी भी पक्ष को सहन नहीं होगी।

बहरहाल, दक्षिण भारत में मनोरंजन और राजनीति क्षेत्र एक-दूसरे के निकट हैं और मनोरंजन क्षेत्र के अनेक लोग वहां मुख्यमंत्री रहे हैं। इसकी शुरुआत द्रविड़ मुनेत्र कषगम आंदोलन से हुई थी। यह कहा जा रहा है कि करुणानिधि के नजदीकी रिश्तेदार हैं मारन, जिन्होंने रजनीकांत अभिनीत ‘रोबोट’ बनाई है और वह सन टीवी के भी मालिक हैं। तमिल में इस फिल्म का नाम ‘रोबोट’ नहीं रखा गया है, क्योंकि वहां विशुद्ध तमिल फिल्म को मनोरंजन कर में रियायत मिलती है। फिल्म की सफलता का आधार रजनीकांत की लोकप्रियता है, परंतु यह भी सच है कि सरकार परोक्ष रूप से मदद कर रही है। कोई भी सरकार रजनीकांत अभिनीत फिल्म के निर्माता, वितरक या प्रदर्शक के काम में बाधा नहीं डालती।

दक्षिण की फिल्मों में राजनीतिक बयान भी होते हैं और उन संवादों पर सिनेमाघर में तालियां पड़ती हैं और रजनीकांत विरोधी बात पर गालियां सुनाई देती हैं। इस तरह दक्षिण के सिनेमाघर चुनावी राजनीति का अखाड़ा बन जाते हैं। दक्षिण में रजनीकांत के 50 हजार फैन क्लब पंजीकृत हैं और अन्य 50 हजार फैन क्लब भी सक्रिय हैं।

बहरहाल, सभी राजनेताओं के मन में यह इच्छा पल रही है कि उनका बेटा अभिनय क्षेत्र में सफलता पा ले। उसकी मौजूदगी चुनावी सभाओं में भीड़ जुटा सकती है और फिल्ममय भारत में शायद चुनावी हवा भी बना सकती है। राहुल गांधी की सफलता के बाद नेताओं ने यह सोचना शुरू कर दिया है कि अपने राजकुंवर का राजनैतिक अभिषेक कराना ज्यादा फायदेमंद है क्योंकि जितना धन राजनीति में है, उतना मनोरंजन क्षेत्र में नहीं है।

प्राय: लोग खेतों से, कारखानों से या दुकानों से धन कमाते हैं और धन से भी धन कमाया जाता है, परंतु राजनीति में धन अनेक स्रोतों से आता है। आजकल तो सरकारी खजाने का राजनीतिक इस्तेमाल किया जा रहा है। चंदे के धंधे से ज्यादा सरल है यह खेल। किसी उपक्रम को धन दिला दो और आधा माल कमीशन में पा जाओ। बेचारे करदाता को मालूम ही नहीं कि उसका धन किन रास्तों से कहां जा रहा है।

बहरहाल, राजनेता से लाभ उठाने वाले लोग उनके पुत्रों की फिल्मों में भी धन लगा सकते हैं। सत्ता के महल में कालीन सा बिछ जाने में बिचौलियों ने महारत हासिल की है। इस तरह के लोगों की मांसपेशियां च्युइंगम से बनी होती हैं। ऊपरवाले के भव्य कारखाने में रीढ़ की हड्डी का स्टॉक खत्म हो गया है(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,18.8.2010)।

बड़े परदे तक पहुंचे गदर के गीत

लाल सलाम की विचारधारा को जनगीतों का चोला पहना कर गांवों-गांवों में गाने वाले मशहूर जनकवि गदर के गीत पहली बार सिनेमा के बड़े परदे तक पहुंच गए हैं। सूत्रों के मुताबिक निर्देशक रामगोपाल वर्मा ने अपनी जल्द रिलीज होने वाली फिल्म "रक्तचरित्र" में न सिर्फ गदर के गीतों को शामिल किया है बल्कि इस फिल्म का एक किरदार भी गदर से प्रेरित है, जिसे परदे पर मशहूर गायक सुखविंदर सिंह निभाते नजर आएंगे।

दक्षिण के नक्सली नेता रहे परिताला रवि के जीवन पर आधारित फिल्म "रक्तचरित्र" के जरिए निर्देशक रामगोपाल वर्मा देश में नक्सली विचारधारा की जड़ों को तलाश रहे हैं। फिल्म यह बताती है कि किस तरह वामपंथी विचारधारा भी सत्ता के आकर्षण से न सिर्फ भ्रष्ट होती है बल्कि सियासत के बड़े खिलाड़ियों के हाथों का मोहरा भी बनती है। गरीबों को हक दिलाने के नाम पर उन्हें बंदूक थमाने के लिए किस तरह इलाके के बुद्धिजीवियों को गुमराह किया जाता है, इसका जिक्र फिल्म रक्तचरित्र में मशहूर जनकवि गदर के बहाने आता है। अलग तेलंगाना की मांग को लेकर चल रहे आंदोलन में १९६९ में शामिल हुए गदर का असली नाम गुम्माडी विट्ठल राव है। तेलंगाना आंदोलन के दिनों में ही वह वामपंथी नेताओं के संपर्क में आए और बाद में बैंक की नौकरी छोड़कर बदन पर सिर्फ एक धोती और कंबल ओढ़े वामपंथी विचारधारा की अलख जगाने निकल पड़े। मशहूर गदर पार्टी के नाम पर अपना नाम रखने वाले विट्ठल राव पुलिस के निशाने पर आने के बाद १९८५ से लेकर १९९० तक आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ के जंगलों में छिपकर रहे। एम. चेन्ना रेड्डी के सत्ता संभालने के बाद गदर अज्ञातवास से बाहर आए और इसी साल हैदराबाद के निजाम कॉलेज में दो लाख लोगों की मौजूदगी में गदर ने अपनी जन नाट्य मंडली की १९वीं सालगिरह मनाई। गदर की मनोदशा और उनके वामपंथी विचारधारा से प्रेरित होने की वजह जानने के लिए मशहूर गायक सुखविंदर सिहं ने उनसे बिना अपनी पहचान जाहिर किए मुलाकात की और उनकी नाट्य मंडली को करीब से परखा। नक्सल समस्या हिंदी सिनेमा का इस साल प्रिय विषय भले रहा हो, लेकिन असली नक्सल साहित्य का अब तक किसी हिंदी फिल्म में इस्तेमाल नहीं हुआ है। प्रशासन के अत्याचार से ही दलितों और आदिवासियों के बीच नक्सलवाद का जन्म होने की बात को पुख्ता करने के लिए हिंदी सिनेमा में इस साल रावण और रेड अलर्ट और भोजपुरी में रणभूमि जैसी फिल्में बन चुकी हैं। ये तीनों फिल्में जहां काल्पनिक किरदारों पर आधारित रहीं, वहीं रक्तचरित्र को पूरी तरह वास्तविक किरदारों पर आधारित रखा गया है(पंकज शुक्ल,नई दुनिया,दिल्ली,18.10.2010)।

Friday, October 15, 2010

बिन पैसे की खनक, नहीं दमकी बॉलीवुड की चमक

चार साल पहले मेलबर्न में करोड़ों रुपए लेकर ठुमका लगाकर दिल्ली आने का न्योता देने वाले बॉलीवुड के चमकते सितारे कॉमनवेल्थ गेम्स के उद्घाटन और समापन समारोह से गायब रहे। गेम्स आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाडी अपने नजदीकी संबंधों के बलबूते शाहरुख खान और अन्य सितारों को बुलाने में नाकाम रहे। बताया यही जा रहा है कि संगीतकार एआर रहमान को एक गाने के पांच करोड़ देने वाली आयोजन समिति फिल्मी सितारों के लिए पैसे नहीं जुटा पाई।

आयोजन समिति की तरफ से चार साल से लगातार बॉलीवुड के नामी फिल्मी कलाकारों को कॉमनवेल्थ गेम्स के उद्घाटन और समापन समारोह में बुलाने का बात की जा रही थी। शाहरुख खान के अलावा ऋतिक रोशन और करीना कपूर को जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम के मंच पर लाने की कोशिश की गई थी। चार साल पहले मेलबर्न में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स में दिल्ली की तरफ से ऐश्वर्या राय, प्रियंका चोपड़ा, रानी मुखर्जी, लारा दत्ता और सैफ अली खान दिल्ली की तरफ से मेलबर्न में कार्यक्रम पेश करने गए थे।

मेलबर्न में आयोजित कार्यक्रम में लगभग ३५ करोड़ रुपए खर्च किए गए थे। आयोजन समिति के सूत्रों के अनुसार बॉलीवुड के सितारों को कॉमनवेल्थ गेम्स में बुलाने के लिए बातचीत तो हुई पर आखिर तक कार्यक्रम तय नहीं हो पाया। इसकी बड़ी वजह सितारों को सही कीमत न मिल पाना बताया गया है। फिल्मी कलाकारों को कार्यक्रम की तैयारी कराने के लिए यशराज स्टूडियो से भी बात की गई थी। हैरानी की बात तो यह है कि फिल्मी सितारे कॉमनवेल्थ गेम्स से दूर ही रहे। दीपिका पादुकोण ही अपने पिता के साथ एक दिन मैच देखने पहुंची।

दूसरी तरफ यह भी कहा जा रहा है कि शाहरुख और ऋतिक ने कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारियों में कलमाडी पर उठ रहे सवालों के कारण पहले ही न कर दिया था। शाहरुख को पहले समापन समारोह में बतौर अतिथि लाने की कोशिश भी की गई थी। फिलहाल वह अपनी फिल्म की शूटिंग के लिए विदेश में हैं(रासविहारी,नई दुनिया,दिल्ली,15.10.2010)।

Thursday, October 14, 2010

रीमिक्स गाने बनाना ‘नकल’ नहीं

कॉपीराइट और रीमिक्स के मुद्दे पर दिल्ली हाईकोर्ट ने संगीत कंपनियों को बड़ी राहत दी है। कोर्ट के मुताबिक किसी गाने का रीमिक्स वर्जन बनाना कॉपीराइट कानून के दायरे में नहीं आता है।

जस्टिस विपिन सांघी ने ग्रामोफोन कंपनी ऑफ इंडिया बनाम सुपर कैसेट इंडस्ट्रीज लि. के मामले में इस आशय का आदेश जारी किया। ग्रामोफोन कंपनी का आरोप था कि सुपर कैसेट उन गानों का रीमिक्स वर्जन बनाती है, जिसका कॉपीराइट उसके पास है।

इस पर सुपर कैसेट की दलील थी कि उसने कलाकारों, संगीतकारों आदि की अलग से व्यवस्था कर नए सिरे से साउंड रिकॉर्डिंग कराई। अपने आदेश में अदालत ने कॉपीराइट एक्ट के विभिन्न प्रावधानों का जिक्र किया। जज कहा कि वही या अलग संगीतकारों, गायकों व कलाकारों का इस्तेमाल करते हुए नई साउंड रिकार्डिंग करने की इजाजत है(दैनिकर भास्कर,दिल्ली,14.10.2010)।

Wednesday, October 13, 2010

परदे पर नहीं चला खेलःगौतम कौल

खेल खतम, पैसा हजम की तर्ज पर ही अगले कुछ दिनों में कॉमनवेल्थ गेम्स खत्म हो जाएंगे। देश को इन खेलों की तैयारी करने के लिए सात साल मिले थे। इसके बावजूद पिछले दो वर्षों से बाकायदा तैयारी शुरू हुई थी। मुझे उम्मीद थी कि यह खेल आयोजन भारतीय फिल्मोद्योग को भी प्रेरित करेगा। लेकिन किसी ने भी रुचि नहीं दिखाई। शायद फिल्मोद्योग उम्मीद कर रहा था कि सरकार इस मामले में उससे पहले करने को कहेगी। पहले ऐसा नहीं होता था। हालांकि खेलों की पृष्ठभूमि पर फिल्में कम ही बनी हैं, लेकिन पहले किसी न किसी खेल पर लगातार फिल्में आती रहती थीं।
हम जानते हैं कि भारत अब तक खेलों का देश नहीं बन पाया है। पिछले छह दशकों में हमने महज तीन बड़े अंतरराष्ट्रीय खेल स्पर्द्धाओं का, पहले तथा नौंवां एशियाई गेम्स और दूसरे एफ्रो-एशियाई गेम्स का आयोजन किया है। 19वां कॉमनवेल्थ गेम्स इस तरह का चौथा आयोजन है। लेकिन हमने सभी अंतरराष्ट्रीय खेल मुकाबलों में हिस्सेदारी की है। फिर भी देश में ऐसा कोई खेल नहीं है, जिसे मॉडल बनाया जा सके।
क्रिकेट के प्रति जुनून को देखते हुए फिल्म इंडस्ट्री ने क्रिकेट पर पहली फिल्म बनाई थी। वर्ष 1959 में आई यह फिल्म लव मैरेज थी, जिसमें देव आनंद और माला सिन्हा ने मुंबई के एक क्रिकेट मैदान को अपने रोमांस का केंद्र बनाया था। वर्ष 1957 में आई फिल्म एक झलक में चर्चित पहलवान दारा सिंह पहली बार कुश्ती लड़ते दिखाए गए थे। उसके बाद से उन्होंने लगातार फिल्में कीं। लेकिन फिल्मों में कुश्ती को उन्होंने कभी प्रोत्साहित नहीं किया।
नौंवें एशियाई गेम्स के बाद मुंबई के किसी फिल्मकार ने पहली बार खेल पर फिल्म बनाते हुए खतरा उठाया। वह प्रकाश झा थे, जिन्होंने 1984 में हिप-हिप हुर्रे बनाई, जिसमें उन्होंने फुटबाल का रूपक रचकर खेल भावना को प्रोत्साहित किया। उसी साल खेल पर बनी एक बांग्ला फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। वह सरोज दे की फिल्म कोनी थी, जो तैराकी में स्वर्णिम सफलता प्राप्त करने वाली एक लड़की की कहानी थी। उस फिल्म ने राष्ट्रीय खेल नीति का भी परदाफाश किया था।
मलयालम में 1973 में पहली बार फुटबाल चैंपियंस पर एक फिल्म बनी। देश में फुटबाल पर बनी यह पहली क्षेत्रीय फिल्म थी। वर्ष 1982 में उसी भाषा में राधाकृष्णन ने फुटबाल पर बहुत अच्छी फिल्म बनाई। यह किंवदंती फुटबॉलर विजयन के जीवन पर आधारित थी। विजयन फुटबाल में बेहतर करने के लिए केरल से कोलकाता चले गए थे। वर्ष 1978 में पद्मराजन ने कुश्ती पर एक फिल्म एडीथू ओरु पहलवान बनाई थी, जो संन्यास ले चुके एक पहलवान के जीवन पर आधारित थी। मलयाली में बनी इस फिल्म में केरल की राजनीति पर भी टिप्पणी थी, इसलिए वहां की वाम पार्टियों ने इस फिल्म में दिलचस्पी दिखाई।
वर्ष 1992 में मुंबई में खेल पर आधारित एक और फिल्म बनी जो जीता वही सिकंदर। यह आमिर खान की शुरुआती फिल्मों में से तो थी ही, खेल पर तब तक की सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म भी थी। चूंकि साइकिल रेस हमारे यहां नगरों-महानगरों में ही होते हैं, इसके बावजूद इसे थीम बनाया गया था। फिर भी यह फिल्म व्यावसायिक रूप से हिट हुई। हालांकि तब भी देश भर में खेलों को लोकप्रिय बनाने की क्षमता उस फिल्म में नहीं थी। इस लिहाज से देश के युवाओं को पहली बार जिस फिल्म ने खेल भावना से ओत-प्रोत किया, वह चक दे इंडिया थी। यह फिल्म आश्चर्यजनक रूप से हिट हुई। इस फिल्म ने बेदम हो चुकी हॉकी स्टिक बनाने वाली कंपनियों में नई जान फूंकी, क्योंकि युवा भारतीय इस खेल को पुनर्जीवित करने मैदान में उतरने लगे। इसी तरह की एक और आश्चर्यजनक रूप से हिट फिल्म थी, इकबाल, जिसमें नसीरुद्दीन शाह ने एक बुजुर्ग क्रिकेट कोच का किरदार निभाया। इस फिल्म ने बताया कि खेल किस तरह हमें जीवन में प्रेरित कर सकता है और इसके सहारे किस तरह मुश्किलों से पार पाया जा सकता है। यही वह आकर्षण था, जिसने इस फिल्म को लोकप्रिय बनाया। मिथुन चक्रवर्ती ने एक फिल्म में बॉक्सर का किरदार निभाया था। फिल्म में वास्तविकता लाने के लिए उन्होंने बॉक्सिंग का प्रशिक्षण भी लिया, लेकिन दर्शकों ने उस फिल्म में रुचि नहीं दिखाई। किसी एथलीट पर देश में बनी पहली फिल्म अश्विनी थी, जो चर्चित धाविका अश्विनी नचप्पा के जीवन पर आधारित थी। कन्नड में बनी इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।
हिंदी में एक और बेहद चर्चित फिल्म है, लेकिन समझ में नहीं आता कि इसे खेल पर आधारित फिल्म माना जाए या राष्ट्रीय एकता पर। यह फिल्म है लगान। इसमें क्रिकेट तो खूब है, लेकिन यह फिल्म क्रिकेट को प्रोत्साहित नहीं करती। हालांकि एमबीए के कोर्स में यह फिल्म लगी।
अब खेल पर दो ऐसी फिल्में हैं, जो उत्सुकता जगाती हैं। इनमें से पहली फिल्म है पाल सिंह तोमर, जो अभी-अभी तैयार हुई है। पाल सिंह राष्ट्रीय स्तर के एक धावक थे, जिन्होंने एशियन गेम्स में भाग लिया था और पदक भी जीता था। लेकिन बाद में वह डाकू बन गए और पुलिस मुठभेड़ में मारे गए। दूसरी फिल्म है रन मिल्खा रन, जिसकी शूटिंग शुरू ही होने वाली है। जैसा कि नाम से जाहिर है, यह मिल्खा सिंह के जीवन पर आधारित फिल्म है। हालांकि अभी से ही इस फिल्म की चर्चा है, लेकिन कम से कम दो साल बाद ही इसके बारे में पता चल सकेगा। तब तक 19वां कॉमनवेल्थ गेम्स हमारे लिए इतिहास बन चुका होगा(अमर उजाला,10 अक्टूबर,2010)।

Tuesday, October 12, 2010

भाषा के टूटते बंधन

कुछ दिन पहले की बात है। मैं यूं ही टीवी चैनल बदल रहा था कि तभी मैंने एक दृश्य देखा। दिल्ली का एक बच्चा अपने पिता की गोद में बैठा था और वह कह रहा था कि उसने रजनीकांत की फिल्म रोबोट देखी है।

उसे वह इतनी पसंद आई कि वह रजनीकांत का फैन बन गया है। कुछ और हिंदीभाषी दर्शकों ने भी इसी तरह की राय व्यक्त की। उन्होंने कहा कि उन्होंने फिल्म का तमिल संस्करण देखा था और उसका एक भी शब्द पल्ले न पड़ने के बावजूद उन्होंने फिल्म का पूरा मजा उठाया।

एक अन्य व्यक्ति ने अपने दोस्त का किस्सा सुनाया, जिसने पोरबंदर में रोबोट का तमिल संस्करण देखने के लिए 50 किलोमीटर का सफर तय किया था। क्या इससे पहले आपने कभी यह सुना था कि कोई तमिल फिल्म गुजरात में रिलीज हो? इस फिल्म में तकनीक के बेहतरीन प्रयोग ने इसे वैश्विक अपील दी है। रोबोट और रजनीकांत की पिछली फिल्म शिवाजी द बॉस ने भाषा के बंधनों को तोड़ दिया है।

अब जरा कुछ आंकड़ों पर गौर करें। रोबोट को दुनियाभर में 2250 स्क्रीनों में रिलीज किया गया था। फिल्म को तमिलनाडु में 500 स्क्रीन और आंध्रप्रदेश में 350 स्क्रीन में रिलीज किया गया था, लेकिन शायद आपको यह सुनकर विश्वास नहीं होगा कि उत्तरी भारत में रोबोट को 700 स्क्रीन में रिलीज किया गया है।

यह फिल्म तीन भाषाओं में बनाई गई है। हिंदी में इसका शीर्षक रोबोट है तो तमिल और तेलुगु में इसे इंधीरन शीर्षक से रिलीज किया गया है। रोबोट भारतीय सिने इतिहास की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्मों की पांत में शामिल हो सकती है। बताया जाता है कि पहले सप्ताह में ही रोबोट ने 117 करोड़ रुपए कमा लिए थे।

लेकिन अगर कमाई के आंकड़ों की बात न भी करें, तो भी रोबोट को इस बात के लिए तो महत्व दिया ही जा सकता है कि उसने भारतीय फिल्म निर्माण के क्षेत्र में नया सूत्रपात किया है। और वह है उत्तर और दक्षिण के फासले को लगभग खत्म कर देना।

एक मायने में यह रजनीकांत की बहुआयामी पहचान के कारण संभव हो सका है। रजनीकांत बेंगलुरू में महाराष्ट्रीयन माता-पिता के घर जन्मे थे और उनका वास्तविक नाम शिवाजी राव गायकवाड़ है। इसीलिए हमने हाल ही में वे तस्वीरें देखी थीं, जिनमें शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे इस सुपरस्टार को गले लगा रहे हैं।

रजनीकांत ने अपने प्रारंभिक जीवन में खूब संघर्ष किया है। उन्होंने कुली और बस कंडक्टर के रूप में भी काम किया है। लेकिन अभिनय के प्रति अपने जुनून के चलते उन्होंने मद्रास फिल्म इंस्टिटच्यूट से अभिनय का कोर्स किया और उसके बाद फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। रजनीकांत की स्टारडम यह साबित करती है कि बस कंडक्टर जैसा एक आम आदमी भी मेहनत, लगन, सकारात्मक रवैए और थोड़े से भाग्य के सहारे कामयाबी हासिल कर सकता है।

तमिलों की जिन पीढ़ियों ने राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी का विरोध किया था, वे शायद अब खुद से कह रही होंगी : ‘हमने हिंदीभाषियों को खुद पर हावी नहीं होने दिया, इसके बावजूद देखिए रजनीकांत ने क्या कर दिखाया है। तमिलों द्वारा तमिलों के लिए बनाई गई फिल्म दिल्ली में सुपरहिट होती है। इससे क्या फर्क पड़ता कि कुछ स्थानों में इस फिल्म को हिंदी में डब करके रिलीज करना पड़ा है?’

जाहिर है, 2010 का भारत वही नहीं है, जो वह १९६क् से लेकर 1980 के दशकों में हुआ करता था। यह वह दौर था, जब हिंदी को थोपे जाने से नाराज तमिल बसें फूंक रहे थे और आत्महत्याएं कर रहे थे। अगर हम रोबोट की स्टारकास्ट पर ही एक नजर डालें तो समझ जाएंगे कि हम उस पुराने दौर को कितना पीछे छोड़ चुके हैं।

खुद रजनीकांत का संबंध महाराष्ट्रीयन, कन्नड़ और तमिल संस्कृतियों से है। फिल्म की हीरोइन ऐश्वर्या राय मैंगलोर की हैं। उन्होंने जिस व्यक्ति से विवाह किया, उनके दादा उत्तरप्रदेश और पंजाब की संस्कृति से वास्ता रखते थे, जबकि उनकी मां बंगाली हैं। फिल्म के विलेन डैनी डेंजोंग्पा सिक्किम के हैं। फिल्म के संगीतकार एआर रहमान मुस्लिम हैं, जबकि उनका जन्म का नाम दिलीप कुमार मुदलियार है।

इंधीरन तमिलों के लिए बनाई गई फिल्म है, लेकिन उसके मुख्य कलाकार भारत के विभिन्न क्षेत्रों से हैं। एक अर्थ में यह फिल्म बताती है कि भारतीय चाहे किसी भी प्रदेश के हों, लेकिन उनके बीच एकता का सूत्र हमेशा रहेगा।

भारत में कुछ भी विभाजित या अलग-थलग नहीं हो सकता। हमें उन कारणों की तलाश करनी चाहिए जो हमें आपस में जोड़ते हैं। सदियों से विदेशी आक्रांताओं और शासकों ने हमारी राष्ट्रीय पहचान को छिन्न-भिन्न करने की कोशिश की, लेकिन हम एक बने रहे।

शायद आप पूछें क्या बदलाव आया है? मुझे लगता है इस बदलाव की शुरुआत तब हुई थी, जब भारत में सैटेलाइट टीवी आया। प्रभुदेवा जैसे चेन्नई मूल के डांसरों की लोकप्रियता ने भाषा के बंधनों को तोड़ने की शुरुआत की। सैटेलाइट टीवी के कारण ही तमिलों को हिंदी चैनलों से परिचित होने का मौका मिला।

भारत का हर प्रदेशवासी दूसरी भाषाओं और संस्कृतियों की उन विशेषताओं से परिचित हुआ, जो उसकी भाषा-संस्कृति में नहीं थीं। जब तमिलनाडु में सूचना प्रौद्योगिकी का क्षेत्र विकसित हुआ और विदेशी निवेश होने लगा तो चेन्नई में बहुत सारे गैर तमिलभाषी तकनीशियनों की जरूरत महसूस की जाने लगी। इस तरह भी विभिन्न संस्कृतियों का आपस में मेलजोल हुआ।

आर्थिक सुधारों और विदेश यात्रा के सस्ते साधनों की उपलब्धता के कारण एक वृहत विश्वदृष्टि विकसित हुई। भाषा के आधार पर राज्यों का विभाजन करने के जो दुष्प्रभाव हुए थे, उनसे उबरने में इन परिवर्तनों ने हमारी मदद की।

जब हम बदलाव के कारणों की बात कर रहे हों तो इसमें वित्तीय क्षेत्र की अनदेखी नहीं की जा सकती। फिल्म प्रोडच्यूसरों को लगा कि यदि १६२ करोड़ में फिल्म बनाकर देशभर में रिलीज की जाए तो इससे खूब मुनाफा कमाया जा सकता है। कोई भी प्रोडच्यूसर अपनी फिल्म को चार प्रदेशों तक ही सीमित क्यों रखना चाहेगा, जब उसका हिंदी संस्करण बनाकर उसे १५ राज्यों के साथ ही विदेशों में भी दिखाया जा सकता है?

मैं अपनी पांच हजार साल पुरानी सांस्कृतिक विरासत पर गर्व का अनुभव करता हूं। यह एक ऐसी सभ्यता की विरासत है, जिसमें हर क्षेत्र के वासी अपनी परंपराओं का पालन करने के साथ ही एक वृहत्तर भारतीय संस्कृति का भी अभिन्न हिस्सा बने रह सकते हैं। आधुनिक मार्केटिंग मुहावरे का इस्तेमाल करते हुए मैं तो यही कहना चाहूंगा : थिंक लोकल, एक्ट ग्लोबल यानी स्थानीय सोच रखें और वैश्विक कार्य करें(संजीव नय्यर,दैनिक भास्कर,12.10.2010)।

Monday, October 11, 2010

गुज़ारिश

‘जोधा अकबर’ और ‘धूम-2’ के बाद अभिनेता हृतिक रोशन और अभिनेत्री ऐश्वर्य राय बच्चन एक बार फिर निर्देशक संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘गुजारिश’ में नजर आने वाले हैं। यह फिल्म किस बारे में है और दर्शकों को इससे क्या उम्मीदें हैं,कलाकारों के लिए ही नहीं,भंसाली के लिए भी यह फिल्म कितना महत्वपूर्ण है,जानिए पंकज शुक्ल से जिनका यह आलेख संडे नई दुनिया,द्वितीयांक,2010 में प्रकाशित हुआ हैः
कोई अपनी मौत की भी गुजारिश कर सकता है ? कैसे होते हैं वे हालात जब जिंदगी से बेपनाह मोहब्बत करने वाला कोई इंसान अपनी ही जिंदगी खत्म कर देना चाहता है ? खुदकुशी के जरिए नहीं बल्कि इच्छा-मौत की इजाजत पाकर । सुनने में ये विचार भले ही छह साल पहले रिलीज हुई स्पेन की फिल्म "द सी इनसाइड" की कहानी जैसे लगे लेकिन संजय लीला भंसाली ने भी इस बार कुछ-कुछ ऐसे ही जज्बातों का अपनी नई फिल्म "गुजारिश" में एहसास कराया है । यह फिल्म इस त्योहारी सीजन की बहुप्रतीक्षित फिल्मों में से एक है और इसे ऐश्वर्या राय के कॅरिअर के लिए बेहद अहम माना जा रहा है । "गुजारिश" १९ नवंबर को रिलीज हो रही है ।

फिल्म "रावण" के फ्लॉप होने के बाद हालांकि "रोबोट" और "एक्शन रीप्ले" में भी ऐश्वर्या नजर आएंगी लेकिन संजय लीला भंसाली की फिल्म "हम दिल दे चुके सनम" से ही हिंदी सिनेमा में स्टार का तमगा पाने वाली ऐश्वर्या राय के लिए "गुजारिश" का चलना ज्यादा जरूरी है। इससे पहले रिलीज हो रही दोनों फिल्मों में कैमरा फिल्म के हीरो पर ज्यादा रहने वाला है । "रोबोट" में तो रजनीकांत के होने से ऐश्वर्या किसी सजावटी गुड़िया से कम नहीं लग रही हैं, वहीं "एक्शन रीप्ले" में भी उनका रोल ज्यादा दमदार नहीं बताया जाता । शायद इसी के चलते "गुजारिश" का ऐश्वर्या को भी बेसब्री से इंतजार है । उन्हें अपने लकी निर्देशक संजय लीला भंसाली के हुनर पर पूरा भरोसा है । वह कहती हैं, "संजय के लिखे हर किरदार ने मुझे बतौर अदाकारा हिंदी सिनेमा में आगे बढ़ने में मदद की है।" "हम दिल दे चुके सनम" की "नंदिनी" और "देवदास" की "पारो" ऐश्वर्या राय के कॅरिअर में मील के पत्थर रहे हैं । अब संजय लीला भंसाली उन्हें एक नर्स के तौर पर पेश करने जा रहे हैं । नर्स जिसका मकसद व्हील चेयर पर अपाहिज की जिंदगी जी रहे एक मशहूर जादूगर को उसके अतीत से बाहर लाकर उसका वर्तमान बनाना है । उसे पता है कि भविष्य पर उसका कोई अधिकार नहीं है लेकिन फिर भी जिंदगी की जुस्तजू से वह हारती नहीं है। संजय लीला भंसाली ही वह निर्देशक हैं जिन्होंने उन्हें पहले सलमान की हीरोइन बनाया, फिर शाहरुख व अजय देवगन की और अब वह अपने से काफी छोटे ऋतिक रोशन के साथ हैं।

अपनी पिछली फिल्म "सांवरिया" को हिंदी सिनेमा के तमाम दर्शकों की मिली आलोचना के बाद संजय लीला भंसाली भी जानते हैं कि "गुजारिश" उनके लिए कहीं बड़ा इम्तिहान है । उनकी फिल्म के कलाकारों की भी पिछली फिल्में फ्लॉप हो चुकी हैं लेकिन फिल्म के सह निर्माता रॉनी स्क्रूवाला की तरह संजय, ऐश्वर्या और ऋतिक रोशन की जोड़ी को सदियों या दशकों में बनने वाली एक जोड़ी नहीं मानते। वह बात करना चाहते हैं तो बस ऐश्वर्या राय की । उस ऐश्वर्या राय की जिसके किरदारों में उनकी जान बसती है । वह कहते भी हैं, "हां, ऐश्वर्या मेरी जान है । "नंदिनी" और "पारो" का जो रूप मैंने सोचा था वह सिर्फ और सिर्फ ऐश्वर्या ही पर्दे पर साकार कर सकती थी । उसे पता है कि मुझे उससे क्या चाहिए होता है और वह जानती है कि किसी किरदार को लेकर मेरी सोच क्या रहती है । मुझसे पूछा जाए तो मैं कहूंगा कि ऐश्वर्या हिंदी सिनेमा की सबसे संपूर्ण अदाकारा है । वह फिल्म में हो तो मैं किसी दूसरे के बारे में नहीं सोचता । लोग मुझसे पूछते हैं कि मेरी फिल्मों में ऐश्वर्या के नायकों की उम्र लगातार कम होती जा रही है तो मैं कहता हूं कि मैं चाहूं तो रणबीर को लेकर भी ऐश्वर्या के साथ फिल्म बना सकता हूं और मेरा यकीन कीजिए कि ऐश्वर्या की जोड़ी तब भी उतनी ही हसीन लगेगी।"

"गुजारिश" के बारे में संजय लीला भंसाली को इस बार बहुत भरोसा है । फिल्म की कलर टोन इस बार न "देवदास" की तरह लाल है और न ही "सांवरिया" की तरह नीली । वह इस बार "गुजारिश" की गलियों में अपने किरदारों को गुस्ताखियों की गलबहियां करते दिखाने वाले हैं । ऐसी ही एक गुस्ताखी ऐश्वर्या करती नजर आएंगी फिमुंबई से पंकज शुक्ल

कोई अपनी मौत की भी गुजारिश कर सकता है ? कैसे होते हैं वे हालात जब जिंदगी से बेपनाह मोहब्बत करने वाला कोई इंसान अपनी ही जिंदगी खत्म कर देना चाहता है ? खुदकुशी के जरिए नहीं बल्कि इच्छा-मौत की इजाजत पाकर । सुनने में ये विचार भले ही छह साल पहले रिलीज हुई स्पेन की फिल्म "द सी इनसाइड" की कहानी जैसे लगे लेकिन संजय लीला भंसाली ने भी इस बार कुछ-कुछ ऐसे ही जज्बातों का अपनी नई फिल्म "गुजारिश" में एहसास कराया है । यह फिल्म इस त्योहारी सीजन की बहुप्रतीक्षित फिल्मों में से एक है और इसे ऐश्वर्या राय के कॅरिअर के लिए बेहद अहम माना जा रहा है । "गुजारिश" १९ नवंबर को रिलीज हो रही है ।

फिल्म "रावण" के फ्लॉप होने के बाद हालांकि "रोबोट" और "एक्शन रीप्ले" में भी ऐश्वर्या नजर आएंगी लेकिन संजय लीला भंसाली की फिल्म "हम दिल दे चुके सनम" से ही हिंदी सिनेमा में स्टार का तमगा पाने वाली ऐश्वर्या राय के लिए "गुजारिश" का चलना ज्यादा जरूरी है। इससे पहले रिलीज हो रही दोनों फिल्मों में कैमरा फिल्म के हीरो पर ज्यादा रहने वाला है । "रोबोट" में तो रजनीकांत के होने से ऐश्वर्या किसी सजावटी गुड़िया से कम नहीं लग रही हैं, वहीं "एक्शन रीप्ले" में भी उनका रोल ज्यादा दमदार नहीं बताया जाता । शायद इसी के चलते "गुजारिश" का ऐश्वर्या को भी बेसब्री से इंतजार है । उन्हें अपने लकी निर्देशक संजय लीला भंसाली के हुनर पर पूरा भरोसा है । वह कहती हैं, "संजय के लिखे हर किरदार ने मुझे बतौर अदाकारा हिंदी सिनेमा में आगे बढ़ने में मदद की है।" "हम दिल दे चुके सनम" की "नंदिनी" और "देवदास" की "पारो" ऐश्वर्या राय के कॅरिअर में मील के पत्थर रहे हैं । अब संजय लीला भंसाली उन्हें एक नर्स के तौर पर पेश करने जा रहे हैं । नर्स जिसका मकसद व्हील चेयर पर अपाहिज की जिंदगी जी रहे एक मशहूर जादूगर को उसके अतीत से बाहर लाकर उसका वर्तमान बनाना है । उसे पता है कि भविष्य पर उसका कोई अधिकार नहीं है लेकिन फिर भी जिंदगी की जुस्तजू से वह हारती नहीं है। संजय लीला भंसाली ही वह निर्देशक हैं जिन्होंने उन्हें पहले सलमान की हीरोइन बनाया, फिर शाहरुख व अजय देवगन की और अब वह अपने से काफी छोटे ऋतिक रोशन के साथ हैं। अपनी पिछली फिल्म सांवरिया को तमाम दर्शकों की मिली आलोचना के बाद,संजय लीला भंसाली भी जानते हैं कि गुजारिश उनके लिए कहीं बड़ा इम्तिहान है।

Sunday, October 10, 2010

शहरयार

आपने जब सुना कि ज्ञानपीठ पुरस्कार आपको मिलने जा रहा है तो, आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या थी?

काफी खुशी हुई। इतनी खुशी कि मैं लफ्जों में बयान नहीं कर सकता हूं। दरअसल हम जिस गंगा-जमुनी तहजीब से हैं, वहां ज्यादा गम और खुशी के लिए शब्द बने ही नहीं हैं, लेकिन निजी तौर पर यह मेरे लिए एक अहम उपलब्धि थी। इससे भी अहम कि बुढ़ाती उम्र के बावजूद मैं लगातार काम कर रहा हूं, जिसे सम्मान मिल रहा है।

आप शिक्षा क्षेत्र से जुड़े रहे हैं। उर्दू, शेरो-शायरी की दर्जनों किताबें लिख चुके हैं। कई पुरस्कार आपको मिल चुके हैं। फिल्मों के लिए भी आपने गीत लिखे। इतने सारे काम, कैसा लग रहा है आपको?
लाजिमी तौर पर अच्छा ही लगेगा। करीब दो दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वर्ष 1957 से लगातार लिख रहा हूं। साहित्य अकादमी पुरस्कार, फिराक सम्मान और उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी सम्मान और दिल्ली उर्दू अकादमी सम्मान मिल चुके हैं। आज भी लोगों की जुबान पर मेरे लिखे गीत हैं। हां, कभी-कभी बुरा तब लगता है जब फिल्मों के जरिये ही लोग मुझे जानने लगते हैं, लेकिन अपने आप में यह भी गर्व की बात है। इससे ज्यादा क्या चाहिए मुझे? देश ने, समाज ने काफी कुछ मुझे दिया है और मैं अपने आप से काफी संतुष्ट हूं। बहुत कम लोग जानते हैं कि आपका वास्तविक नाम कुंवर अखलाक मोहम्मद खान है। हां। मैं अपने उपनाम शहरयार से ही लोगों के बीच जाना जाता हूं। एकाध गजल मैंने उस नाम से भी लिखे हैं। कुंवर का तखल्लुस के तौर पर इस्तेमाल किया। कोई 1956-57 के आसपास मैं इसी तखल्लुस का इस्तेमाल करता था, लेकिन तब के जान-पहचान वालों ने कहा कि मजा नहीं आ रहा है। किसी ने कहा-यार नाम है कि इतिहास तो किसी ने कहा-गैर-शायराना नाम है। तब खलीलुर्रहमान आजमी जी, जिनका मैं काफी कद्र करता रहा, उन्होंने कहा कि कुंवर ही रहना है तो शहरयार रख लो। इसका भी मतलब राजकुमार ही होता है। बस मैंने तबसे शहरयार के नाम से लिखना शुरू कर दिया।

बचपन में गुजारे अपने वक्त के बारे में कुछ बताइए?

अब तो मोटा-मोटी बहुत कुछ याद भी नहीं रहा। वैसे भी याद तब ज्यादा आती है जब आपने बचपन में दुख-दर्द सहे हों। अल्लाह की दुआ से ऐसा कुछ भी नहीं था। ऐशो-आराम से बचपन गुजरा। पैसे की तल्खी कतई नहीं थी। फिर भी बचपन तो बचपन सा ही होता है। हम नंगे पांव घूमते थे। बागों में जाकर जमकर आम-ककड़ी खाया करते थे। मैं हॉकी का अच्छा खिलाड़ी था। आज जब दिल्ली में कॉमनवेल्थ खेल हो रहे हैं तो मैं आपको बता दूं कि मैं काफी अच्छा एथलीट भी रहा। स्कूल-कॉलेज स्तर पर खूब नाम कमाए, लेकिन ये सब शौक के तौर पर ही रहा।

और आपने तालीम देने को आपना पेशा चुना, ऐसा करने की क्या वजह रही? कहां-कहां आपने नौकरी की?

जैसा कि मैंने बताया कि शौक के तौर पर मैं खेलता था। शौकिया तौर पर ही लिखना शुरू किया। इस ओर कैरियर बनाने के बारे में कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा। शायद यह उस वक्त का असर था। हमने देश की आजादी के बाद अपनी जिंदगी में रंग भरने शुरू ही किए थे। इसलिए कैरियर के सभी कोण हमारे सामने नहीं थे। समाज में भी उस वक्त एक कहावत थी- खेलोगे, कूदोगे बनोगे खराब, पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब। इसका भी असर था। बहरहाल अंजुमन-तहरीके उर्दू में साहित्यक सहयोगी के तौर पर काम करना शुरू किया। अलीगढ़ मुस्लिम विश्र्वविद्यालय में लेक्चरर का पद खाली था। वहां मेरा चयन हो गया। इसके बाद 1996 तक मैंने नौकरी की। बाद में उर्दू विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत हुआ और अब फिलहाल अलीगढ़ में ही गुजर-बसर हो रहा है।

शेरो-शायरी से जुड़े अपने परफॉर्मेस के बारे में भी कुछ बताइए

देखिए, इस मामले में मैं थोड़ा संकोची किस्म का रहा हूं। शुरुआती दिनों में पढ़ने की ख्वाहिश नहीं थी। सबसे पहला मुशायरा गुजरात के अहमदाबाद में किया। मेरे विचार से वह कोई 1961 का साल था। मेरी जमात में दो लोग और थे-एक बशीर बद्र भाई और दूसरे विमल कृष्ण अश्क। 1962-63 में लाल किले में भी एक बड़े मुशायरे का हिस्सा बनने का मौका मिला। इधर काफी अरसे से मैं मुशायरों में शिरकत करने लगा हूं और अब यह सब बहुत अच्छा भी लगता है।

फिल्म उमराव जान के लिए आपने गाने लिखे। कैसे मुमकिन हुआ?

मुजफ्फर अली उम्दा निर्देशक हैं। उन्हें ऐसे गीतों की जरूरत थी जो पटकथा को आगे बढ़ाए। यही नहीं वह अक्सर इस बात पर ज्यादा जोर देते कि संगीत पक्ष की मजबूती के अलावा गीत के बोल ऐसे लिखे होने चाहिए जिसके मायने हों। मेरी शेरो-शायरी की वह बहुत कद्र भी किया करते थे। बस हम-दोनों मिले और गाने बन गए। आज यह विश्र्वास नहीं होता कि ऐसे गाने बने जो 30 साल से गुनगुनाए जा रहे हैं। वरना मुंबइया फिल्मों के ज्यादातर गाने तो आज आए और कल गए वाले होते हैं।

आपके बारे में यह धारणा है कि आप फिल्मों के लिए लिखना नहीं पसंद करते हैं?

दरअसल, मैं किसी ऐसे फिल्म में गाने नहीं लिख सकता जिसमें गाना कहानी का हिस्सा न हो। एक बात और कि मैं बेहतर शब्दों के इस्तेमाल पर भी ध्यान देना पसंद करता हूं। इसके साथ समझौता नहीं कर सकता। अगर निकट भविष्य में उमराव जान की तरह की फिल्में बनेंगी तो मैं उसमें गाने जरूर लिखूंगा। दूसरी बात यह भी है कि मैं मुंबई में रहना पसंद नहीं करता हूं। मेरे लिए अलीगढ़ के खास मायने हैं। जो फिल्मकार मेरे पास आते हैं, यदि उनकी स्कि्रप्ट में दम होता है और गाना उसका हिस्सा होता है तो मैं उनके लिए लिखता हूं। आपको बता दूं कि उमराव जान के बाद मैंने कुछ और फिल्मों के लिए गाना लिखा। मुजफ्फर अली के अंजुमन के लिए लिखा। हब्बा खातुन ज़ुनी के गाने भी मैंने ही लिखे, लेकिन दुर्भाग्य से यह फिल्म रिलीज नहीं हो पाई।

आप शेरो-शायरी को काफी गंभीरता से लेते रहे हैं। इतनी गंभीरता कि आपने बॉलीवुड की चमक-दमक से भी समझौता नहीं किया, लेकिन साहित्य में इसे विशेष तवज्जो नहीं मिलती है। लोग इसे गम में डूबे हुए किसी शख्स की मर्शिया के तौर पर मानते हैं?

आपकी इस बात पर मुझे सख्त ऐतराज है। आज के दौर में भी शेरो-शायरी को गंभीरता से लिया जाता है। कद्रदानों की कमी नहीं है, बस देखने का फर्क बदल गया है। मुझे ज्ञानपीठ पुरस्कार अपनी उर्दू गजलों की वजह से मिला है। इससे पहले भी तीन उर्दू गजलकारों को यह पुरस्कार मिल चुका है। वरना साहित्य के क्षेत्र में गलत चयन पर आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो जाते हैं। अब तक यह पुरस्कार मिलने को लेकर कोई टिप्पणी मीडिया में नहीं आई है। साफ है कि सबने मुझे इसका हकदार समझा। हां, अगर आप बेहतर शायरी लिखें ही नहीं और कहें कि मुझे गंभीरता से नहीं लिया जाता है तो क्या किया जा सकता है?

एक मसला यह भी है कि साहित्य के कई विधा हैं और हर विधा के अपने खास मायने हैं। अगर किसी विधा का जानकार यह मान बैठे कि दूसरे की विधा कमजोर या मजाक है तो इससे वह अपने साथ-साथ अपने विद्या की तौहीन भी करता है। इसका मतलब यह है कि आपके मुताबिक आज के दौर में अच्छा नहीं लिखा जा रहा है और पहले के दौर में अच्छा लिखा जाता था?

मैं किसी का नाम नहीं लूंगा, लेकिन आज भी अच्छे शायर हैं। हालांकि, अब वह दौर और हालात नहीं है। उस तरह के शब्द नहीं हैं। अगर हैं भी तो इसे समझने वालों की कमी है। जमाना ही भाग-दौड़ का है। दुख है कि बड़ी शायरी नहीं हो रही है। गद्य का बोलबाला है और फिक्शन हावी है, लेकिन अभी भी काफी संभावना है और बेहतर किया जा सकता है। इसके अलावा दूसरी बात यह भी है कि अगर अच्छा कुछ लिखा जा रहा है तो उसे मीडिया में जगह नहीं मिलती है। दरअसल नकारात्मक खबरें आज के समय में ज्यादा हावी दिखती है। इस वजह से हम लोग सिर्फ बुराईयां ही देख पा रहे हैं। जहां तक हमारे दौर की बात थी तो उस वक्त तो खराब लिखा ही नहीं जा सकता था। लोग उर्दू जुबान से ज्यादा वाकिफ होते थे। इससे भी ज्यादा गंभीर यह है कि अब बेहतर हिंदी भी खत्म होती जा रही है। कई शब्द ही प्रचलन से गायब होते जा रहे हैं। दूसरे हिंदी-उर्दू के सिमटते दायरे का असर भी आज के गजल पर पड़ा है। हमें इस बात की ओर ध्यान देना होगा कि अंग्रेजी संस्कृति हमारी शब्दों की विरासत को खत्म न कर दे।

भविष्य में आपकी क्या योजनाएं हैं?

एक लेखक, कवि क्या कर सकता है? लिखना जारी रहेगा। अभी मुजफ्फर अली नूरजहां-जहांगीर पर फिल्म बना रहे हैं। उनके लिए मैं गाना लिख रहा हूं। एक बार फिर रुपहले पर्दे के जरिये मेरे गीत लोगों तक पहुंचेगा यानी मेरे अंजुमन में आपको आना है बार-बार। मैं लगातार आप सबके लिए बेहतर से बेहतर रचना लेकर आता रहूंगा(दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,10.10.2010 में प्रवीण प्रभाकर से बातचीत पर आधारित)।

दो दूनी चारःमध्यम वर्ग जीवन का गीत

वॉल्ट डिज्नी ने इक्कीस वर्ष की उम्र में 30 मई 1922 को फिल्म उद्योग में प्रवेश किया था। उच्च गुणवत्ता के पारिवारिक मनोरंजन रचने में डिज्नी को महारत हासिल है और उदात्त जीवन मूल्यों को उन्होंने मनोरंजन उद्योग में प्रतिपादित किया और आज तक अक्षुण्ण बनाए रखा है। अपनी संस्था के 88वें वर्ष में डिज्नी कंपनी ने भारत में प्रवेश किया और वे भोपाल के युवा निर्देशक हबीब फैजल की ऋषि कपूर और नीतू कपूर अभिनीत फिल्म ‘दो दुनी चार’ के अखिल विश्व वितरण से श्रीगणेश कर रहे हैं।

उनके पास इतने साधन और सामर्थ्य है कि वे किसी भी समय बड़े सितारों को लेकर किसी भव्य फिल्म से भी भारतीय पारी शुरू कर सकते थे, परंतु ‘दो दुनी चार’ को उन जीवन मूल्यों के लिए उन्होंने चुना, जिनका निर्वाह उन्होंने हमेशा किया है। यह भी इत्तफाक ही है कि कपूर परिवार विगत 83 वर्षो से भारतीय मनोरंजन उद्योग में कुछ मूल्यों के साथ सक्रिय है।


आज बाजार और विज्ञापन शासित दुनिया में भौतिक सफलता की खातिर लोग दो और दो बाईस करने में लगे हैं, परंतु फिल्म का नायक 52 वर्षीय स्कूल का गणित शिक्षक दो दुनी चार का पाठ पढ़ा रहा है, जिसका अर्थ है ईमानदारी और मेहनत का कठिन रास्ता जिसमें पैर लहूलुहान होते हैं, परंतु रोम-रोम आनंद से भर उठता है। दुग्गल मास्टर अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्री के साथ मध्यम वर्ग की बस्ती में रहते हैं। उनके कमसिन उम्र के बच्चे दो और दो बाईस बनाने वाली संस्कृति को मानते हैं और अन्य बच्चों की तरह सुविधाएं चाहते हैं।

कमसिन उम्र की हर अंगड़ाई एक महत्वाकांक्षा जगाती है और उन्हें अपने कम कमाने वाले पिता और किफायत से घर चलाने वाली मां से शिकायतें हैं। वे न केवल उनके जीवन मूल्य नहीं समझते, वरन उनकी कीमत भी नहीं जानते। यह लेखक-निर्देशक हबीब फैजल का कमाल है कि गुमराह होते और सुविधाओं की ललक को न थाम पाने वाले बच्चे ही अपने पिता के जीवन मूल्यों का अर्थ अनायास ही उस समय खोज लेते हैं, जब जीवन के दबाव में मजबूर मास्टर अपने जीवन का पहला समझौता करने जा रहा है और उसे रोक लेते हैं। यह फिल्म मध्यमवर्ग के जीवन का सामाजिक दस्तावेज है और सारे परिवार वालों के लिए इसे अपने बच्चों सहित देखना आज की उत्तंग लहरों वाले जीवन में ठहराव का महान क्षण हो सकता है।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पूरी फिल्म राजकुमार हीरानी की मनोरंजक शैली में गढ़ी गई है और आप हंसते हुए कथानक में अंतर्निहित संजीदगी को महसूस करते रहते हैं। दर्शक की आंखें नम होंगी, पर होंठ मुस्कराएंगे। यही चार्ली चैपलिन से राजकुमार हीरानी तक का सफर रहा है। फिल्म के एक दृश्य में मास्टर दुग्गल अपने क्रिकेट सट्टे में डूबे पुत्र को कहते हैं कि बचपन में उसकी अंगूठा चूसने की आदत छुड़ाने के लिए करेले का जूस और मिर्ची के पाउडर का लेप असफल रहा, परंतु एक दिन लत अपने आप छूट गई। हबीब फैजल ने कहीं-कहीं करेले के जूस और मिर्ची के पाउडर का इस्तेमाल किया है।

इस फिल्म में मास्टर दुग्गल और उनकी पत्नी के दांपत्य प्रेम को इतने मनमोहक ढंग से रचा गया है कि रोम-रोम पुलकित हो जाता है। किफायत को धर्म मानने वाली पत्नी अपनी ननद के सुसराल में उसका मान रखने के लिए खर्च का वायदा कर बैठती है और मास्टर दुग्गल अपनी पत्नी की बात रखने के लिए रात भर स्वयं को दीए की तरह जलाए रखते हैं। दांपत्य के माधुर्य के इसमें दर्जनों दृश्य हैं।

मास्टर दुग्गल की कहानी में तीस वर्ष बाद परदे पर लौटीं नीतू कपूर ने कमाल का अभिनय किया है और अभिनय के क्षेत्र में अपने शेर जैसे पति ऋषि कपूर के सामने वह मिमयायी नहीं हैं, वरन फिल्मकार हबीब फैजल के घाट पर ये शेर और बकरी साथ-साथ पानी पीते हैं। मैं ऋषि कपूर को पैंतीस वर्षो से जानता हूं, परंतु इस फिल्म के मास्टर दुग्गल में वह ऐसे डूबे हैं कि पहचान पाना कठिन है।

न जाने क्यों राष्ट्रीय पुरस्कारों से यह मिट्टी पकड़ पहलवान कभी नवाजा नहीं गया। इस फिल्म में छोटी भूमिकाओं में काम करने वाले कलाकार इतने स्वाभाविक हैं कि आपको लगता है कि मूल गायक ऋषि कपूर और नीतू कपूर की आवाज से पूरा कोरस लय मिलाता है। आज समाज की सारी समस्याओं के मूल में है सांस्कृतिक शून्य और ‘दो दुनी चार’ इसी शून्य से जूझती है(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,7.10.2010)।