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Wednesday, October 6, 2010

पुत्र हथियार,पुत्री सिर पर लटकती तलवार

करण जौहर करीना कपूर और इमरान खान के साथ एक फिल्म बनाने जा रहे हैं जिसमें रणधीर कपूर अपनी बेटी के पिता की भूमिका करेंगे। उन्हें लगता है कि यह फिल्म करने के कारण वह अपनी बेटी के साथ कुछ वक्त गुजार पाएंगे। विगत वर्षो में करीना प्राय: विदेशों में शूटिंग करती रही हैं और इतनी व्यस्त रही हैं कि अपने पिता को कभी समय नहीं दे पाईं।

हमारे यहां पिता-पुत्र के रिश्तों पर बहुत फिल्में बनी हैं, परंतु पिता-पुत्री पर बहुत ही कम प्रयास हुए हैं। महेश भट्ट ने अपनी बेटी पूजा को एक अच्छी पिता-पुत्री की कहानी के साथ फिल्म ‘डैडी’ में प्रस्तुत किया था, जिसमें अनुपम खेर ने पिता की भूमिका निभाई थी। कहानी में अपनी असफलता और विश्वासघात से खिन्न पिता शराबी हो जाता है और पुत्री अपने प्रेम से उसे सक्रिय करती है।

मराठी भाषा के सफलतम फिल्मकार सचिन ने निर्माता रमेश बहल की बेटी सृष्टि बहल के साथ पिता-पुत्री के रिश्ते पर केंद्रित ‘ऐसी भी क्या जल्दी है’ नामक फिल्म की थी। इस फिल्म में पिता अपनी पुत्री के विवाह की जिम्मेदारी को जानता है परंतु उससे दूर नहीं होना चाहता। ज्ञातव्य है कि यही सृष्टि बहल आजकल ‘रोज टेलीविजन’ के लिए सीरियल का निर्माण करती हैं। रवींद्र पीपट ने शशि कपूर, मंदाकिनी और राजीव कपूर के साथ भी एक पिता-पुत्री की फिल्म बनाई थी, जिसमें पिता के लिए आदर भाव रखने वाली विवाहित लड़की बार-बार मायके लौटकर अपने वैवाहिक जीवन में खलल पैदा करती है।

हिंदुस्तान में पिता-पुत्री फिल्में कम बनी हैं, क्योंकि इस पुरुष प्रधान एवं असमान समाज में पुत्र को हमेशा हथियार की तरह पाला जाता है और पुत्री को सिर पर लटकती हुई तलवार ही मानते हैं। सबसे अधिक दिव्य रिश्ते को सामाजिक रीतियों ने किस तरह बदलकर मात्र उत्तदायित्व बना दिया है और सारी शैली यह है कि यह जवाबदारी या आफत की पुड़िया जितनी जल्दी विदा हो, उतना बेहतर है। पुत्रियां पुत्रों से अधिक संवेदनशील होती हैं और अवसर मिलने पर बेहतर भी सिद्ध होती हैं।

ऋषि कपूर और नीतू सिंह अभिनीत फिल्म ‘दो दुनी चार’ इसी सप्ताह प्रदर्शित हो रही है और फिल्मकार हबीब फैजल ऋषि और नीतू को उनके पुत्र रणबीर के साथ लेकर एक कथा रच रहे हैं। विगत सप्ताह इस फिल्म को राजकुमार हीरानी और विधु विनोद चोपड़ा ने बहुत सराहा है।

शेक्सपीयर के नाटक ‘किंग लीयर’ में एक पिता और उसकी तीन पुत्रियों की कथा है। इस पर वहां अनेक फिल्में बन चुकी हैं। हमारे साहित्य से सिनेमा वाले कहानियां नहीं लेते। मैत्रेयी पुष्पा की ‘इदन्नमम’ तीन महिलाओं की कहानी है। इसमें जुझारू दादी अपनी पोती को पालती है और मुद्दत बाद इस कन्या को समझ आता है कि उसकी मां उसके पिता के हत्यारों के हाथों की कठपुतली क्यों बनी थी। दुनिया के अन्य तमाम फिल्म बनाने वाले देश अपने साहित्य से जुड़े हैं परंतु भारत में सदियों का फासला है, जबकि भारत के सफलतम फिल्मकार सत्यजीत रे की लगभग सारी फिल्में प्रसिद्ध साहित्यकारों की रचनाओं पर आधारित रही हैं। मुंबई में एक सफलता हाथ लगते ही फिल्मकार खुद लेखक बन जाता है(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,5.10.2010)।

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