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Monday, October 4, 2010

बदलते सिनेमाई अनुभव की आहट

' मैं आज मोबाइल के लिए फिल्म बना रहा हूं और तीन-तीन मिनट की इन चार फिल्मों के लिए मुझे इतना पैसा
मिल रहा है, जितना आज तक किसी फीचर फिल्म के निर्देशन के लिए नहीं मिला।' बहसतलब की पांचवीं दो-दिनी सेमीनार में जब अनुराग कश्यप ने यह बात कही तो कई सुननेवाले थोड़ा असहज हुए। सिनेमा को आज तक हम जिस रूप में देखते-समझते आए हैं, उसका ऐसा रंग-रूप बदलेगा, यह सोचना सच में थोड़ा असहज तो करता ही है।

दिल्ली में ही कुछ साल पहले अमेरिकी सिनेमा के मशहूर लेखक/निर्देशक पॉल श्रेडर का लेक्चर था। उन्होंने इस नई तकनीक के साथ बदलते सिनेमाई अनुभव की तरफ इशारा किया था। उनका मानना था कि सिनेमाघर में सत्तर एमएम के पर्दे पर फिल्म देखने में ही फिल्म का 'संपूर्ण अनुभव' मिलता है। नई तकनीक आने के साथ फिल्म हॉल से निकलकर आपके घर चली आई है और इसीलिए वेस्ट में सिनेमा देखने का यह 'संपूर्ण अनुभव' असमय मौत मर रहा है। श्रेडर इसे लेकर बड़े भावुक थे।

इस रोशनी में यह देखना बड़ा मजेदार था कि हिंदुस्तानी फिल्मकार इस तरह के बदलाव के प्रति क्या नजरिया रखते हैं? यहां इस बात को भी नोट करें कि मल्टिप्लेक्स आने के साथ सिनेमा देखने की कीमत जिस तेजी से बढ़ी है, उससे एक बड़ा दर्शक वर्ग इसकी दुनिया से बाहर हो गया है। पत्रकार/ब्लॉगर रवीश कुमार बताते हैं कि अब यह वर्ग नया हिन्दी सिनेमा देखने के लिए मजबूरन पाइरेसी पर निर्भर है। क्या नई तकनीक इनके लिए सिनेमा को फिर से सुलभ करा पाएगी? यह देखना मजेदार रहा कि हमारे फिल्मकार इन बदलावों के प्रति खुला नजरिया रखते हैं।

सिनेमा के इस जमावड़े में वेटरन निर्देशक सुधीर मिश्रा और चंदप्रकाश द्विवेदी भी थे और आज की पीढ़ी के नए तुर्क अनुराग कश्यप, प्रवेश भारद्वाज और जयदीप वर्मा भी। बाजार से जुड़े सवाल यहां भी केंद्र में रहे। सवाल उछाला गया कि नई तकनीक के साथ बदलते सिनेमा के प्रति रुख क्या हो? सुधीर मिश्रा ने बड़े साफ शब्दों में कहा कि बदलाव को अनदेखा करना अपनी आंखें बंद करने जैसा है। अब फिल्म सिनेमा हॉल से निकलकर दर्शक के मोबाइल/लैपटॉप में आ गई है। एक दिन वह भी आएगा जब दर्शक अपने चश्मे के शीशे में सिनेमा देखेगा। हम इन बदलावों को नकार नहीं सकते। हमें इनके बीच ही कहीं अपनी क्रिएटिविटी को जाहिर करने का रास्ता निकालना होगा।

गीत-संवाद लेखक वरुण ग्रोवर ने पाइरेसी को लेकर एक रोचक बात कही। उन्होंने कहा कि यह तो मानना होगा कि पाइरेसी की वजह से कई ऐसे दर्शक भी फिल्म देख रहे हैं, जिनके पास मल्टिप्लेक्स में फिल्म देखने के पैसे नहीं हैं। ऐसे में अगर फिल्म की रिलीज के दिन ही उसकी असली वीसीडी/डीवीडी बाजार में सस्ते दामों पर उपलब्ध हो, तो पाइरेसी होगी ही क्यों? समझने की बात यह है कि यह फिल्म का बाजार और दर्शक वर्ग बढ़ाने वाला कदम साबित हो सकता है, क्योंकि ऐसे लोग उस फिल्म को देखेंगे जो उसे मल्टिप्लेक्स में देखने न जा पाते।

अनुराग कश्यप की नई फिल्म 'दैट गर्ल इन येलो बूट्स' के कई हिस्से एक प्रयोग के तहत छोटे डिजिटल कैमरे से शूट किए गए हैं, लेकिन अनुराग ने साफ किया कि ऐसा करने के पीछे भी सिनेमा देखने का बदलता अनुभव एक वजह है। अनुराग ने यह प्रयोग इस अहसास के साथ किया है कि उनकी फिल्म देखने वाला एक बड़ा दर्शक वर्ग (इसमें डीवीडी पर फिल्म देखने वाले, सैटेलाइट टीवी पर फिल्म देखने वाले, अपने कंप्यूटर/मोबाइल जैसे गैजट्स पर फिल्म देखने वाले) इसे सिनेमाहाल में नहीं, छोटी स्क्रीन पर ही देखेगा और ऐसे में छोटे कैमरे का रेजॉल्यूशन उनके लिए परफेक्ट होगा। इस तरह मार्केट में डेढ़ लाख में मिलने वाला कैमरा सिनेमा की भाषा गढ़ेगा। अगर यह प्रयोग हिट रहा तो अनुराग अगली फिल्म में इसे और ज्यादा जगह देंगे।

यह आने वाले कल की पदचाप है। इसे सुना ही जाना चाहिए(मिहिर पंड्या,नवभारत टाइम्स,दिल्ली,3.10.2010)

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