आपने जब सुना कि ज्ञानपीठ पुरस्कार आपको मिलने जा रहा है तो, आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या थी?
काफी खुशी हुई। इतनी खुशी कि मैं लफ्जों में बयान नहीं कर सकता हूं। दरअसल हम जिस गंगा-जमुनी तहजीब से हैं, वहां ज्यादा गम और खुशी के लिए शब्द बने ही नहीं हैं, लेकिन निजी तौर पर यह मेरे लिए एक अहम उपलब्धि थी। इससे भी अहम कि बुढ़ाती उम्र के बावजूद मैं लगातार काम कर रहा हूं, जिसे सम्मान मिल रहा है।
आप शिक्षा क्षेत्र से जुड़े रहे हैं। उर्दू, शेरो-शायरी की दर्जनों किताबें लिख चुके हैं। कई पुरस्कार आपको मिल चुके हैं। फिल्मों के लिए भी आपने गीत लिखे। इतने सारे काम, कैसा लग रहा है आपको?
लाजिमी तौर पर अच्छा ही लगेगा। करीब दो दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वर्ष 1957 से लगातार लिख रहा हूं। साहित्य अकादमी पुरस्कार, फिराक सम्मान और उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी सम्मान और दिल्ली उर्दू अकादमी सम्मान मिल चुके हैं। आज भी लोगों की जुबान पर मेरे लिखे गीत हैं। हां, कभी-कभी बुरा तब लगता है जब फिल्मों के जरिये ही लोग मुझे जानने लगते हैं, लेकिन अपने आप में यह भी गर्व की बात है। इससे ज्यादा क्या चाहिए मुझे? देश ने, समाज ने काफी कुछ मुझे दिया है और मैं अपने आप से काफी संतुष्ट हूं। बहुत कम लोग जानते हैं कि आपका वास्तविक नाम कुंवर अखलाक मोहम्मद खान है। हां। मैं अपने उपनाम शहरयार से ही लोगों के बीच जाना जाता हूं। एकाध गजल मैंने उस नाम से भी लिखे हैं। कुंवर का तखल्लुस के तौर पर इस्तेमाल किया। कोई 1956-57 के आसपास मैं इसी तखल्लुस का इस्तेमाल करता था, लेकिन तब के जान-पहचान वालों ने कहा कि मजा नहीं आ रहा है। किसी ने कहा-यार नाम है कि इतिहास तो किसी ने कहा-गैर-शायराना नाम है। तब खलीलुर्रहमान आजमी जी, जिनका मैं काफी कद्र करता रहा, उन्होंने कहा कि कुंवर ही रहना है तो शहरयार रख लो। इसका भी मतलब राजकुमार ही होता है। बस मैंने तबसे शहरयार के नाम से लिखना शुरू कर दिया।
बचपन में गुजारे अपने वक्त के बारे में कुछ बताइए?
अब तो मोटा-मोटी बहुत कुछ याद भी नहीं रहा। वैसे भी याद तब ज्यादा आती है जब आपने बचपन में दुख-दर्द सहे हों। अल्लाह की दुआ से ऐसा कुछ भी नहीं था। ऐशो-आराम से बचपन गुजरा। पैसे की तल्खी कतई नहीं थी। फिर भी बचपन तो बचपन सा ही होता है। हम नंगे पांव घूमते थे। बागों में जाकर जमकर आम-ककड़ी खाया करते थे। मैं हॉकी का अच्छा खिलाड़ी था। आज जब दिल्ली में कॉमनवेल्थ खेल हो रहे हैं तो मैं आपको बता दूं कि मैं काफी अच्छा एथलीट भी रहा। स्कूल-कॉलेज स्तर पर खूब नाम कमाए, लेकिन ये सब शौक के तौर पर ही रहा।
और आपने तालीम देने को आपना पेशा चुना, ऐसा करने की क्या वजह रही? कहां-कहां आपने नौकरी की?
जैसा कि मैंने बताया कि शौक के तौर पर मैं खेलता था। शौकिया तौर पर ही लिखना शुरू किया। इस ओर कैरियर बनाने के बारे में कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा। शायद यह उस वक्त का असर था। हमने देश की आजादी के बाद अपनी जिंदगी में रंग भरने शुरू ही किए थे। इसलिए कैरियर के सभी कोण हमारे सामने नहीं थे। समाज में भी उस वक्त एक कहावत थी- खेलोगे, कूदोगे बनोगे खराब, पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब। इसका भी असर था। बहरहाल अंजुमन-तहरीके उर्दू में साहित्यक सहयोगी के तौर पर काम करना शुरू किया। अलीगढ़ मुस्लिम विश्र्वविद्यालय में लेक्चरर का पद खाली था। वहां मेरा चयन हो गया। इसके बाद 1996 तक मैंने नौकरी की। बाद में उर्दू विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत हुआ और अब फिलहाल अलीगढ़ में ही गुजर-बसर हो रहा है।
शेरो-शायरी से जुड़े अपने परफॉर्मेस के बारे में भी कुछ बताइए
देखिए, इस मामले में मैं थोड़ा संकोची किस्म का रहा हूं। शुरुआती दिनों में पढ़ने की ख्वाहिश नहीं थी। सबसे पहला मुशायरा गुजरात के अहमदाबाद में किया। मेरे विचार से वह कोई 1961 का साल था। मेरी जमात में दो लोग और थे-एक बशीर बद्र भाई और दूसरे विमल कृष्ण अश्क। 1962-63 में लाल किले में भी एक बड़े मुशायरे का हिस्सा बनने का मौका मिला। इधर काफी अरसे से मैं मुशायरों में शिरकत करने लगा हूं और अब यह सब बहुत अच्छा भी लगता है।
फिल्म उमराव जान के लिए आपने गाने लिखे। कैसे मुमकिन हुआ?
मुजफ्फर अली उम्दा निर्देशक हैं। उन्हें ऐसे गीतों की जरूरत थी जो पटकथा को आगे बढ़ाए। यही नहीं वह अक्सर इस बात पर ज्यादा जोर देते कि संगीत पक्ष की मजबूती के अलावा गीत के बोल ऐसे लिखे होने चाहिए जिसके मायने हों। मेरी शेरो-शायरी की वह बहुत कद्र भी किया करते थे। बस हम-दोनों मिले और गाने बन गए। आज यह विश्र्वास नहीं होता कि ऐसे गाने बने जो 30 साल से गुनगुनाए जा रहे हैं। वरना मुंबइया फिल्मों के ज्यादातर गाने तो आज आए और कल गए वाले होते हैं।
आपके बारे में यह धारणा है कि आप फिल्मों के लिए लिखना नहीं पसंद करते हैं?
दरअसल, मैं किसी ऐसे फिल्म में गाने नहीं लिख सकता जिसमें गाना कहानी का हिस्सा न हो। एक बात और कि मैं बेहतर शब्दों के इस्तेमाल पर भी ध्यान देना पसंद करता हूं। इसके साथ समझौता नहीं कर सकता। अगर निकट भविष्य में उमराव जान की तरह की फिल्में बनेंगी तो मैं उसमें गाने जरूर लिखूंगा। दूसरी बात यह भी है कि मैं मुंबई में रहना पसंद नहीं करता हूं। मेरे लिए अलीगढ़ के खास मायने हैं। जो फिल्मकार मेरे पास आते हैं, यदि उनकी स्कि्रप्ट में दम होता है और गाना उसका हिस्सा होता है तो मैं उनके लिए लिखता हूं। आपको बता दूं कि उमराव जान के बाद मैंने कुछ और फिल्मों के लिए गाना लिखा। मुजफ्फर अली के अंजुमन के लिए लिखा। हब्बा खातुन ज़ुनी के गाने भी मैंने ही लिखे, लेकिन दुर्भाग्य से यह फिल्म रिलीज नहीं हो पाई।
आप शेरो-शायरी को काफी गंभीरता से लेते रहे हैं। इतनी गंभीरता कि आपने बॉलीवुड की चमक-दमक से भी समझौता नहीं किया, लेकिन साहित्य में इसे विशेष तवज्जो नहीं मिलती है। लोग इसे गम में डूबे हुए किसी शख्स की मर्शिया के तौर पर मानते हैं?
आपकी इस बात पर मुझे सख्त ऐतराज है। आज के दौर में भी शेरो-शायरी को गंभीरता से लिया जाता है। कद्रदानों की कमी नहीं है, बस देखने का फर्क बदल गया है। मुझे ज्ञानपीठ पुरस्कार अपनी उर्दू गजलों की वजह से मिला है। इससे पहले भी तीन उर्दू गजलकारों को यह पुरस्कार मिल चुका है। वरना साहित्य के क्षेत्र में गलत चयन पर आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो जाते हैं। अब तक यह पुरस्कार मिलने को लेकर कोई टिप्पणी मीडिया में नहीं आई है। साफ है कि सबने मुझे इसका हकदार समझा। हां, अगर आप बेहतर शायरी लिखें ही नहीं और कहें कि मुझे गंभीरता से नहीं लिया जाता है तो क्या किया जा सकता है?
एक मसला यह भी है कि साहित्य के कई विधा हैं और हर विधा के अपने खास मायने हैं। अगर किसी विधा का जानकार यह मान बैठे कि दूसरे की विधा कमजोर या मजाक है तो इससे वह अपने साथ-साथ अपने विद्या की तौहीन भी करता है। इसका मतलब यह है कि आपके मुताबिक आज के दौर में अच्छा नहीं लिखा जा रहा है और पहले के दौर में अच्छा लिखा जाता था?
मैं किसी का नाम नहीं लूंगा, लेकिन आज भी अच्छे शायर हैं। हालांकि, अब वह दौर और हालात नहीं है। उस तरह के शब्द नहीं हैं। अगर हैं भी तो इसे समझने वालों की कमी है। जमाना ही भाग-दौड़ का है। दुख है कि बड़ी शायरी नहीं हो रही है। गद्य का बोलबाला है और फिक्शन हावी है, लेकिन अभी भी काफी संभावना है और बेहतर किया जा सकता है। इसके अलावा दूसरी बात यह भी है कि अगर अच्छा कुछ लिखा जा रहा है तो उसे मीडिया में जगह नहीं मिलती है। दरअसल नकारात्मक खबरें आज के समय में ज्यादा हावी दिखती है। इस वजह से हम लोग सिर्फ बुराईयां ही देख पा रहे हैं। जहां तक हमारे दौर की बात थी तो उस वक्त तो खराब लिखा ही नहीं जा सकता था। लोग उर्दू जुबान से ज्यादा वाकिफ होते थे। इससे भी ज्यादा गंभीर यह है कि अब बेहतर हिंदी भी खत्म होती जा रही है। कई शब्द ही प्रचलन से गायब होते जा रहे हैं। दूसरे हिंदी-उर्दू के सिमटते दायरे का असर भी आज के गजल पर पड़ा है। हमें इस बात की ओर ध्यान देना होगा कि अंग्रेजी संस्कृति हमारी शब्दों की विरासत को खत्म न कर दे।
भविष्य में आपकी क्या योजनाएं हैं?
एक लेखक, कवि क्या कर सकता है? लिखना जारी रहेगा। अभी मुजफ्फर अली नूरजहां-जहांगीर पर फिल्म बना रहे हैं। उनके लिए मैं गाना लिख रहा हूं। एक बार फिर रुपहले पर्दे के जरिये मेरे गीत लोगों तक पहुंचेगा यानी मेरे अंजुमन में आपको आना है बार-बार। मैं लगातार आप सबके लिए बेहतर से बेहतर रचना लेकर आता रहूंगा(दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,10.10.2010 में प्रवीण प्रभाकर से बातचीत पर आधारित)।
काफी खुशी हुई। इतनी खुशी कि मैं लफ्जों में बयान नहीं कर सकता हूं। दरअसल हम जिस गंगा-जमुनी तहजीब से हैं, वहां ज्यादा गम और खुशी के लिए शब्द बने ही नहीं हैं, लेकिन निजी तौर पर यह मेरे लिए एक अहम उपलब्धि थी। इससे भी अहम कि बुढ़ाती उम्र के बावजूद मैं लगातार काम कर रहा हूं, जिसे सम्मान मिल रहा है।
आप शिक्षा क्षेत्र से जुड़े रहे हैं। उर्दू, शेरो-शायरी की दर्जनों किताबें लिख चुके हैं। कई पुरस्कार आपको मिल चुके हैं। फिल्मों के लिए भी आपने गीत लिखे। इतने सारे काम, कैसा लग रहा है आपको?
लाजिमी तौर पर अच्छा ही लगेगा। करीब दो दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वर्ष 1957 से लगातार लिख रहा हूं। साहित्य अकादमी पुरस्कार, फिराक सम्मान और उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी सम्मान और दिल्ली उर्दू अकादमी सम्मान मिल चुके हैं। आज भी लोगों की जुबान पर मेरे लिखे गीत हैं। हां, कभी-कभी बुरा तब लगता है जब फिल्मों के जरिये ही लोग मुझे जानने लगते हैं, लेकिन अपने आप में यह भी गर्व की बात है। इससे ज्यादा क्या चाहिए मुझे? देश ने, समाज ने काफी कुछ मुझे दिया है और मैं अपने आप से काफी संतुष्ट हूं। बहुत कम लोग जानते हैं कि आपका वास्तविक नाम कुंवर अखलाक मोहम्मद खान है। हां। मैं अपने उपनाम शहरयार से ही लोगों के बीच जाना जाता हूं। एकाध गजल मैंने उस नाम से भी लिखे हैं। कुंवर का तखल्लुस के तौर पर इस्तेमाल किया। कोई 1956-57 के आसपास मैं इसी तखल्लुस का इस्तेमाल करता था, लेकिन तब के जान-पहचान वालों ने कहा कि मजा नहीं आ रहा है। किसी ने कहा-यार नाम है कि इतिहास तो किसी ने कहा-गैर-शायराना नाम है। तब खलीलुर्रहमान आजमी जी, जिनका मैं काफी कद्र करता रहा, उन्होंने कहा कि कुंवर ही रहना है तो शहरयार रख लो। इसका भी मतलब राजकुमार ही होता है। बस मैंने तबसे शहरयार के नाम से लिखना शुरू कर दिया।
बचपन में गुजारे अपने वक्त के बारे में कुछ बताइए?
अब तो मोटा-मोटी बहुत कुछ याद भी नहीं रहा। वैसे भी याद तब ज्यादा आती है जब आपने बचपन में दुख-दर्द सहे हों। अल्लाह की दुआ से ऐसा कुछ भी नहीं था। ऐशो-आराम से बचपन गुजरा। पैसे की तल्खी कतई नहीं थी। फिर भी बचपन तो बचपन सा ही होता है। हम नंगे पांव घूमते थे। बागों में जाकर जमकर आम-ककड़ी खाया करते थे। मैं हॉकी का अच्छा खिलाड़ी था। आज जब दिल्ली में कॉमनवेल्थ खेल हो रहे हैं तो मैं आपको बता दूं कि मैं काफी अच्छा एथलीट भी रहा। स्कूल-कॉलेज स्तर पर खूब नाम कमाए, लेकिन ये सब शौक के तौर पर ही रहा।
और आपने तालीम देने को आपना पेशा चुना, ऐसा करने की क्या वजह रही? कहां-कहां आपने नौकरी की?
जैसा कि मैंने बताया कि शौक के तौर पर मैं खेलता था। शौकिया तौर पर ही लिखना शुरू किया। इस ओर कैरियर बनाने के बारे में कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा। शायद यह उस वक्त का असर था। हमने देश की आजादी के बाद अपनी जिंदगी में रंग भरने शुरू ही किए थे। इसलिए कैरियर के सभी कोण हमारे सामने नहीं थे। समाज में भी उस वक्त एक कहावत थी- खेलोगे, कूदोगे बनोगे खराब, पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब। इसका भी असर था। बहरहाल अंजुमन-तहरीके उर्दू में साहित्यक सहयोगी के तौर पर काम करना शुरू किया। अलीगढ़ मुस्लिम विश्र्वविद्यालय में लेक्चरर का पद खाली था। वहां मेरा चयन हो गया। इसके बाद 1996 तक मैंने नौकरी की। बाद में उर्दू विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत हुआ और अब फिलहाल अलीगढ़ में ही गुजर-बसर हो रहा है।
शेरो-शायरी से जुड़े अपने परफॉर्मेस के बारे में भी कुछ बताइए
देखिए, इस मामले में मैं थोड़ा संकोची किस्म का रहा हूं। शुरुआती दिनों में पढ़ने की ख्वाहिश नहीं थी। सबसे पहला मुशायरा गुजरात के अहमदाबाद में किया। मेरे विचार से वह कोई 1961 का साल था। मेरी जमात में दो लोग और थे-एक बशीर बद्र भाई और दूसरे विमल कृष्ण अश्क। 1962-63 में लाल किले में भी एक बड़े मुशायरे का हिस्सा बनने का मौका मिला। इधर काफी अरसे से मैं मुशायरों में शिरकत करने लगा हूं और अब यह सब बहुत अच्छा भी लगता है।
फिल्म उमराव जान के लिए आपने गाने लिखे। कैसे मुमकिन हुआ?
मुजफ्फर अली उम्दा निर्देशक हैं। उन्हें ऐसे गीतों की जरूरत थी जो पटकथा को आगे बढ़ाए। यही नहीं वह अक्सर इस बात पर ज्यादा जोर देते कि संगीत पक्ष की मजबूती के अलावा गीत के बोल ऐसे लिखे होने चाहिए जिसके मायने हों। मेरी शेरो-शायरी की वह बहुत कद्र भी किया करते थे। बस हम-दोनों मिले और गाने बन गए। आज यह विश्र्वास नहीं होता कि ऐसे गाने बने जो 30 साल से गुनगुनाए जा रहे हैं। वरना मुंबइया फिल्मों के ज्यादातर गाने तो आज आए और कल गए वाले होते हैं।
आपके बारे में यह धारणा है कि आप फिल्मों के लिए लिखना नहीं पसंद करते हैं?
दरअसल, मैं किसी ऐसे फिल्म में गाने नहीं लिख सकता जिसमें गाना कहानी का हिस्सा न हो। एक बात और कि मैं बेहतर शब्दों के इस्तेमाल पर भी ध्यान देना पसंद करता हूं। इसके साथ समझौता नहीं कर सकता। अगर निकट भविष्य में उमराव जान की तरह की फिल्में बनेंगी तो मैं उसमें गाने जरूर लिखूंगा। दूसरी बात यह भी है कि मैं मुंबई में रहना पसंद नहीं करता हूं। मेरे लिए अलीगढ़ के खास मायने हैं। जो फिल्मकार मेरे पास आते हैं, यदि उनकी स्कि्रप्ट में दम होता है और गाना उसका हिस्सा होता है तो मैं उनके लिए लिखता हूं। आपको बता दूं कि उमराव जान के बाद मैंने कुछ और फिल्मों के लिए गाना लिखा। मुजफ्फर अली के अंजुमन के लिए लिखा। हब्बा खातुन ज़ुनी के गाने भी मैंने ही लिखे, लेकिन दुर्भाग्य से यह फिल्म रिलीज नहीं हो पाई।
आप शेरो-शायरी को काफी गंभीरता से लेते रहे हैं। इतनी गंभीरता कि आपने बॉलीवुड की चमक-दमक से भी समझौता नहीं किया, लेकिन साहित्य में इसे विशेष तवज्जो नहीं मिलती है। लोग इसे गम में डूबे हुए किसी शख्स की मर्शिया के तौर पर मानते हैं?
आपकी इस बात पर मुझे सख्त ऐतराज है। आज के दौर में भी शेरो-शायरी को गंभीरता से लिया जाता है। कद्रदानों की कमी नहीं है, बस देखने का फर्क बदल गया है। मुझे ज्ञानपीठ पुरस्कार अपनी उर्दू गजलों की वजह से मिला है। इससे पहले भी तीन उर्दू गजलकारों को यह पुरस्कार मिल चुका है। वरना साहित्य के क्षेत्र में गलत चयन पर आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो जाते हैं। अब तक यह पुरस्कार मिलने को लेकर कोई टिप्पणी मीडिया में नहीं आई है। साफ है कि सबने मुझे इसका हकदार समझा। हां, अगर आप बेहतर शायरी लिखें ही नहीं और कहें कि मुझे गंभीरता से नहीं लिया जाता है तो क्या किया जा सकता है?
एक मसला यह भी है कि साहित्य के कई विधा हैं और हर विधा के अपने खास मायने हैं। अगर किसी विधा का जानकार यह मान बैठे कि दूसरे की विधा कमजोर या मजाक है तो इससे वह अपने साथ-साथ अपने विद्या की तौहीन भी करता है। इसका मतलब यह है कि आपके मुताबिक आज के दौर में अच्छा नहीं लिखा जा रहा है और पहले के दौर में अच्छा लिखा जाता था?
मैं किसी का नाम नहीं लूंगा, लेकिन आज भी अच्छे शायर हैं। हालांकि, अब वह दौर और हालात नहीं है। उस तरह के शब्द नहीं हैं। अगर हैं भी तो इसे समझने वालों की कमी है। जमाना ही भाग-दौड़ का है। दुख है कि बड़ी शायरी नहीं हो रही है। गद्य का बोलबाला है और फिक्शन हावी है, लेकिन अभी भी काफी संभावना है और बेहतर किया जा सकता है। इसके अलावा दूसरी बात यह भी है कि अगर अच्छा कुछ लिखा जा रहा है तो उसे मीडिया में जगह नहीं मिलती है। दरअसल नकारात्मक खबरें आज के समय में ज्यादा हावी दिखती है। इस वजह से हम लोग सिर्फ बुराईयां ही देख पा रहे हैं। जहां तक हमारे दौर की बात थी तो उस वक्त तो खराब लिखा ही नहीं जा सकता था। लोग उर्दू जुबान से ज्यादा वाकिफ होते थे। इससे भी ज्यादा गंभीर यह है कि अब बेहतर हिंदी भी खत्म होती जा रही है। कई शब्द ही प्रचलन से गायब होते जा रहे हैं। दूसरे हिंदी-उर्दू के सिमटते दायरे का असर भी आज के गजल पर पड़ा है। हमें इस बात की ओर ध्यान देना होगा कि अंग्रेजी संस्कृति हमारी शब्दों की विरासत को खत्म न कर दे।
भविष्य में आपकी क्या योजनाएं हैं?
एक लेखक, कवि क्या कर सकता है? लिखना जारी रहेगा। अभी मुजफ्फर अली नूरजहां-जहांगीर पर फिल्म बना रहे हैं। उनके लिए मैं गाना लिख रहा हूं। एक बार फिर रुपहले पर्दे के जरिये मेरे गीत लोगों तक पहुंचेगा यानी मेरे अंजुमन में आपको आना है बार-बार। मैं लगातार आप सबके लिए बेहतर से बेहतर रचना लेकर आता रहूंगा(दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,10.10.2010 में प्रवीण प्रभाकर से बातचीत पर आधारित)।
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न मॉडरेशन की आशंका, न ब्लॉग स्वामी की स्वीकृति का इंतज़ार। लिखिए और तुरंत छपा देखिएः