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Wednesday, October 13, 2010

परदे पर नहीं चला खेलःगौतम कौल

खेल खतम, पैसा हजम की तर्ज पर ही अगले कुछ दिनों में कॉमनवेल्थ गेम्स खत्म हो जाएंगे। देश को इन खेलों की तैयारी करने के लिए सात साल मिले थे। इसके बावजूद पिछले दो वर्षों से बाकायदा तैयारी शुरू हुई थी। मुझे उम्मीद थी कि यह खेल आयोजन भारतीय फिल्मोद्योग को भी प्रेरित करेगा। लेकिन किसी ने भी रुचि नहीं दिखाई। शायद फिल्मोद्योग उम्मीद कर रहा था कि सरकार इस मामले में उससे पहले करने को कहेगी। पहले ऐसा नहीं होता था। हालांकि खेलों की पृष्ठभूमि पर फिल्में कम ही बनी हैं, लेकिन पहले किसी न किसी खेल पर लगातार फिल्में आती रहती थीं।
हम जानते हैं कि भारत अब तक खेलों का देश नहीं बन पाया है। पिछले छह दशकों में हमने महज तीन बड़े अंतरराष्ट्रीय खेल स्पर्द्धाओं का, पहले तथा नौंवां एशियाई गेम्स और दूसरे एफ्रो-एशियाई गेम्स का आयोजन किया है। 19वां कॉमनवेल्थ गेम्स इस तरह का चौथा आयोजन है। लेकिन हमने सभी अंतरराष्ट्रीय खेल मुकाबलों में हिस्सेदारी की है। फिर भी देश में ऐसा कोई खेल नहीं है, जिसे मॉडल बनाया जा सके।
क्रिकेट के प्रति जुनून को देखते हुए फिल्म इंडस्ट्री ने क्रिकेट पर पहली फिल्म बनाई थी। वर्ष 1959 में आई यह फिल्म लव मैरेज थी, जिसमें देव आनंद और माला सिन्हा ने मुंबई के एक क्रिकेट मैदान को अपने रोमांस का केंद्र बनाया था। वर्ष 1957 में आई फिल्म एक झलक में चर्चित पहलवान दारा सिंह पहली बार कुश्ती लड़ते दिखाए गए थे। उसके बाद से उन्होंने लगातार फिल्में कीं। लेकिन फिल्मों में कुश्ती को उन्होंने कभी प्रोत्साहित नहीं किया।
नौंवें एशियाई गेम्स के बाद मुंबई के किसी फिल्मकार ने पहली बार खेल पर फिल्म बनाते हुए खतरा उठाया। वह प्रकाश झा थे, जिन्होंने 1984 में हिप-हिप हुर्रे बनाई, जिसमें उन्होंने फुटबाल का रूपक रचकर खेल भावना को प्रोत्साहित किया। उसी साल खेल पर बनी एक बांग्ला फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। वह सरोज दे की फिल्म कोनी थी, जो तैराकी में स्वर्णिम सफलता प्राप्त करने वाली एक लड़की की कहानी थी। उस फिल्म ने राष्ट्रीय खेल नीति का भी परदाफाश किया था।
मलयालम में 1973 में पहली बार फुटबाल चैंपियंस पर एक फिल्म बनी। देश में फुटबाल पर बनी यह पहली क्षेत्रीय फिल्म थी। वर्ष 1982 में उसी भाषा में राधाकृष्णन ने फुटबाल पर बहुत अच्छी फिल्म बनाई। यह किंवदंती फुटबॉलर विजयन के जीवन पर आधारित थी। विजयन फुटबाल में बेहतर करने के लिए केरल से कोलकाता चले गए थे। वर्ष 1978 में पद्मराजन ने कुश्ती पर एक फिल्म एडीथू ओरु पहलवान बनाई थी, जो संन्यास ले चुके एक पहलवान के जीवन पर आधारित थी। मलयाली में बनी इस फिल्म में केरल की राजनीति पर भी टिप्पणी थी, इसलिए वहां की वाम पार्टियों ने इस फिल्म में दिलचस्पी दिखाई।
वर्ष 1992 में मुंबई में खेल पर आधारित एक और फिल्म बनी जो जीता वही सिकंदर। यह आमिर खान की शुरुआती फिल्मों में से तो थी ही, खेल पर तब तक की सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म भी थी। चूंकि साइकिल रेस हमारे यहां नगरों-महानगरों में ही होते हैं, इसके बावजूद इसे थीम बनाया गया था। फिर भी यह फिल्म व्यावसायिक रूप से हिट हुई। हालांकि तब भी देश भर में खेलों को लोकप्रिय बनाने की क्षमता उस फिल्म में नहीं थी। इस लिहाज से देश के युवाओं को पहली बार जिस फिल्म ने खेल भावना से ओत-प्रोत किया, वह चक दे इंडिया थी। यह फिल्म आश्चर्यजनक रूप से हिट हुई। इस फिल्म ने बेदम हो चुकी हॉकी स्टिक बनाने वाली कंपनियों में नई जान फूंकी, क्योंकि युवा भारतीय इस खेल को पुनर्जीवित करने मैदान में उतरने लगे। इसी तरह की एक और आश्चर्यजनक रूप से हिट फिल्म थी, इकबाल, जिसमें नसीरुद्दीन शाह ने एक बुजुर्ग क्रिकेट कोच का किरदार निभाया। इस फिल्म ने बताया कि खेल किस तरह हमें जीवन में प्रेरित कर सकता है और इसके सहारे किस तरह मुश्किलों से पार पाया जा सकता है। यही वह आकर्षण था, जिसने इस फिल्म को लोकप्रिय बनाया। मिथुन चक्रवर्ती ने एक फिल्म में बॉक्सर का किरदार निभाया था। फिल्म में वास्तविकता लाने के लिए उन्होंने बॉक्सिंग का प्रशिक्षण भी लिया, लेकिन दर्शकों ने उस फिल्म में रुचि नहीं दिखाई। किसी एथलीट पर देश में बनी पहली फिल्म अश्विनी थी, जो चर्चित धाविका अश्विनी नचप्पा के जीवन पर आधारित थी। कन्नड में बनी इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।
हिंदी में एक और बेहद चर्चित फिल्म है, लेकिन समझ में नहीं आता कि इसे खेल पर आधारित फिल्म माना जाए या राष्ट्रीय एकता पर। यह फिल्म है लगान। इसमें क्रिकेट तो खूब है, लेकिन यह फिल्म क्रिकेट को प्रोत्साहित नहीं करती। हालांकि एमबीए के कोर्स में यह फिल्म लगी।
अब खेल पर दो ऐसी फिल्में हैं, जो उत्सुकता जगाती हैं। इनमें से पहली फिल्म है पाल सिंह तोमर, जो अभी-अभी तैयार हुई है। पाल सिंह राष्ट्रीय स्तर के एक धावक थे, जिन्होंने एशियन गेम्स में भाग लिया था और पदक भी जीता था। लेकिन बाद में वह डाकू बन गए और पुलिस मुठभेड़ में मारे गए। दूसरी फिल्म है रन मिल्खा रन, जिसकी शूटिंग शुरू ही होने वाली है। जैसा कि नाम से जाहिर है, यह मिल्खा सिंह के जीवन पर आधारित फिल्म है। हालांकि अभी से ही इस फिल्म की चर्चा है, लेकिन कम से कम दो साल बाद ही इसके बारे में पता चल सकेगा। तब तक 19वां कॉमनवेल्थ गेम्स हमारे लिए इतिहास बन चुका होगा(अमर उजाला,10 अक्टूबर,2010)।

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