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Monday, October 25, 2010

सलीम के पचास बरस

भारतीय सिनेमा को जन्मदिन और पुण्यतिथि भूलने की बुरी आदत है। अगर उसकी स्मृति दुरुस्त होती, तो वर्ष के हर सप्ताह कुछ न कुछ आयोजन जरूर होते। निश्चय ही यहां फिल्मी पार्टियां आयोजित की जाती हैं, पर असल उत्सव अब भी दूर दिखता है। विलक्षण घटनाओं को कोई याद नहीं रखता, जब तक कि उसमें शामिल लोग खुद ही उसे याद न करें।
आज वैसी ही एक विलक्षण घटना को याद करने का दिन आ गया है। लेकिन इसका दुखद पक्ष यह है कि उसके एकमात्र जीवित गवाह बेशक इस आयोजन से खुश हो सकते थे, पर वह खुद किसी बड़े आयोजन को अंजाम देने की स्थिति में नहीं हैं। दिलीप कुमार अकबर के बेटे सलीम के ऐतिहासिक किरदार निभाने की पचासवीं वर्षगांठ मना सकते हैं।
वह वर्ष 1960 था, जब ऐतिहासिक फिल्म मुगल-ए-आजम पूरे देश में प्रदर्शित हुई थी। मुंबई में प्रीमियर शो के मौके पर फिल्म की रील कनस्तरों में भरकर हाथियों की पीठ पर लादकर लाई गई थी और हर जगह लोग दो दिन पहले से एडवांस टिकट के लिए कतारों में खड़े थे, ताकि वे यह फिल्म देखने वाले शुरुआती दर्शक बन सकें। अगर फिल्म देखने के लिए टिकट खिड़की पर लंबी कतारें थीं, तो इस फिल्म में भी कलाकारों की लंबी सूची थी।
जैसे ही देश भर के सिनेमा घरों में तीन घंटे उन्नीस मिनट लंबी फिल्म शुरू हुई, दर्शकों में इतनी लंबी फिल्म के प्रति एक किस्म की उदासी देखने को मिली। पहला शो देखने के लिए धक्का-मुक्की करते हुए जिन्होंने टिकट लिए थे, उन्हें अफसोस ही ज्यादा हुआ। शुरुआती दो सप्ताह तकफिल्म गति नहीं पकड़ पाई, फिर अचानक दर्शक सिनेमा हॉलों की ओर फिल्म देखने बार-बार लौटने लगे। लगा कि वे पागल हो गए हैं। देश भर के थियेटरों में फिल्म ने हाउस फुल का बोर्ड उतरने नहीं दिया। कुछ थियेटरों ने फिल्म ने सिल्वर जुबली मनाई, कुछ ने गोल्डन जुबली मनाई, तो कुछ सिनेमा हॉलों में यह इससे भी ज्यादा चली। रतन, किस्मत, राम राज्य, नागिन, मदर इंडिया जैसी महान फिल्मों के कीर्तिमानों को ध्वस्त करते हुए मुगल-ए-आजम ने देश की सर्वकालीन श्रेष्ठ फिल्म का खिताब हासिल कर लिया। यह फिल्म तब तक सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ फिल्म बनी रही, जब तक कि शोले रिलीज नहीं हुई, और बाद में शोले को भी गदर जैसी फिल्म ने फीका कर दिया।
मुगल शहंशाहों से जुड़ी यह फिल्म अब भी पूरे देश के दिलों पर राज करती है। यह अलग तरह की और विलक्षण फिल्म तो थी ही, आज भी कोई दूसरी फिल्म इसे चुनौती देने की स्थिति में नहीं है। इस फिल्म की नकल के बारे में तो कभी सोचा ही नहीं जा सकता। हां, अगर कुछ नया करना है, तो मूल फिल्म में ही करना होगा। मसलन, चार साल पहले इस फिल्म को रंगीन बनाया गया, तो इसने अच्छा बिजनेस किया, जिससे पुराने समय की दूसरी हिट श्वेत-श्याम फिल्मों को रंगीन करने की प्रेरणा मिली। और और अब दिवाली तोहफे के रूप में इस फिल्म के आनेवाले संस्करण में डॉल्बी साउंड ट्रैक डाला गया है।
यह उम्मीद नहीं थी कि तीन पीढ़ियां यह फिल्म देखने के लिए पिक्चर हॉलों में जाएंगी, लेकिन वे भारी संख्या में गए। इस फिल्म की वीसीडी लगातार अच्छा बिजनेस कर रही है। इस फिल्म से जुड़ी स्टर्लिंग इनवेस्टमेंट कंपनी ने कभी दूसरी फिल्म नहीं बनाई, और इस फिल्म को पूरी करने में मदद देने वाले पारसी बिल्डिंग कंट्रेक्टर्स और पैलोनजी प्रा. लि. ने किसी दूसरी फिल्म को फाइनेंस नहीं किया। मुगल-ए-आजम के तमाम मुख्य सहयोगी भी इस फिल्म के साथ इतिहास बन गए। इसके मुख्य सिनेमा ऑटोग्राफर आर डी माथुर दिवंगत होने वाले पहले व्यक्ति थे, फिर एक के बाद एक सभी दिवंगत होते चले गए। संगीतकार नौशाद दुनिया से कूच करने वाले आखिरी महान शख्सियत थे। अब अकेले बैठे यूसुफ साहब सोचते हैं कि इस महान फिल्म, और दूसरी कई बेहतरीन फिल्मों से भी जुड़े वह आखिरी व्यक्ति हैं।
इस फिल्म ने अनेक कीर्तिमान तो खैर बनाए ही, इससे जुड़े लोग देश की महान प्रतिभाएं भी थे। इसका कला निर्देशन आज तक बेहतरीन है। खुद बड़े गुलाम अली खां ने इस फिल्म में एक शास्त्रीय संगीत में स्वर दिया था। इस फिल्म में शुतुरमुर्ग के पंखों का इस्तेमाल करने वाले सर्वाधिक संवेदी दृश्य थे। किसी दूसरी फिल्म में इसे दोहराया नहीं जा सका। फिल्म में दिखाए गए जंग के दृश्य न सिर्फ असली थे, बल्कि लड़ाइयों की शूटिंग काफी व्यापकता में हुई थी।
सवाल यह है कि इस फिल्म की पचासवीं सालगिरह आखिर किस तरह मनाई जाएगी। जाहिर है, यह समारोह इस फिल्म के निर्माता, निर्देशक या दूसरे कलाकारों के बेटे-बेटियों या रिश्तेदारों के लिए नहीं है। यह सालगिरह वस्तुतः मुंबई की समूची हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लिए है, जिन्हें इस अवसर पर एक भव्य आयोजन करना ही चाहिए(गौतम कौल,अमर उजाला,24.10.2010)।

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