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Tuesday, October 26, 2010

क्यों न आ जाए सुकून की नींद

जिंदगी की खोई हुई चीजें अक्सर अचक-अचानक ही मिल जाती हैं। मेरे साथ भी आज ऐसा ही हुआ। सुबह, हस्बे मामूल, एक कैसेट लगाया। पहले दो गीत कानों को अच्छे लगे, मगर तीसरे गीत की पहली लाइन ने ही सीधे दिल पर दस्तक दे डाली। सब कुछ छोड़, उसी में खो गया। दिल बल्लियों उछलने लगा। वाह! क्या लोरी है। एक बार, दो बार, तीन बार, और फिर न जाने कितनी बार इसी लोरी को सुनता रहा। अचानक अपनी ही कुछ पुरानी पंक्तियां याद आ गईं- ‘इस उम्र में/हर रात/लोरी की कितनी जरूरत महसूस होती है/और ठीक इसी उम्र में/मां मेरे पास नहीं होती।’

इस समय इस लोरी में इस कदर डूबा हुआ हूं कि आप मान सकते हैं कि मैं नींद में हूं और बड़बड़ा रहा हूं। यह लोरी है महबूब खान की 1956 की फिल्म ‘आवाज’ की, जिसके निर्देशक थे जिया सरहदी। बोल हैं: ‘झुन झुनझुना, झुन झुनझुना, नाचे गगन, नाचे पवन, अ.अ.आ.आ.आ.आ।’ गीतकार विश्वामित्र आदिल के बोलों को जादू भरी धुन दी है सलिल चौधरी ने। अब जरा कल्पना कीजिए कि इन लफ्जों की अदायगी एकदम कोमल, मद्धम और चाशनी में डूबी लता मंगेशकर की आवाज में है। मगर नहीं, शायद सिर्फ कल्पना से काम नहीं चलेगा। मैं उसकी खूबियों को बताऊंगा तो भी काम नहीं चलेगा। अगर मेरे मामूली से बयान से लता मंगेशकर की गायकी बयान हो पाती है, तो फिर मैं ‘कि खुशी से मर न जाते..’ वाली हालत में न पहुंच जाता। बहरहाल इतना तो कह ही सकता हूं कि इसे सुनकर ऐसा जरूर लगता है, कम-से-कम मुझे तो लगता है कि ऐ काश! फिर से बच्चा बन जाता। यह लोरी सुनता और कहता-‘अ.अ.आ.आ.आ.आ।’

यकीन जानिए, बचपन में मां की लोरियां बहुत सुनी हैं। जिद करके सुनी हैं। कभी खाली बोरे से बने झूले में लेटकर, कभी मां की गोद में। मां की आवाज तो लता मंगेशकर जैसी बिल्कुल नहीं थी, मगर आज लता जी की आवाज न जाने क्यों मां जैसी ही लग रही है। इस आवाज में इतनी ममता है कि सुनकर झूले में पड़े-पड़े मचलने और सुनते-सुनते सो जाने का मन हो जाता है। सलाम! लता मंगेशकर सलाम!

ल..ल..ल..लोरी

कभी-कभी बहुत ताज्जुब होता है। दुनिया बदली- सो बदली, मां और बच्चों के रिश्ते में भी बदलाव आ गया? हिंदुस्तान ही नहीं, तमाम दुनिया में न जाने कब से मां और बच्चे के रिश्ते में पालने और लोरी का एक अटूट संबंध रहा है। मगर आजकल लोरी गाने का चलन बहुत कम हो गया है, खासकर शहरों में। हमारे सिनेमा से तो यह लगभग पूरी तरह गायब ही हो गया है।
लोरी की दुनिया दरअसल सपनों की दुनिया है। मां की लोरी में ऐसे हमीन और सुहाने वादे होते हैं कि मां के चेहरे पर आते भावों से रीझकर दुनिया के हर बच्चे के चेहरे पर पहले मुस्कान और फिर आंखों में नींद आ जाती है। और नींद में सपने होते हैं। तब शायद सपनों में भी मां होती है और उसके साथ उसके वादों की दुनिया भी।

हिंदी सिनेमा में इसके शुरुआती दौर से ही हर दूसरी फिल्म में लोरी जरूर होती थी। इनमें से कुछ लोरियां तो वाकई बहुत खूबसूरत हैं। के.एल. सहगल की आवाज में फिल्म ‘जिंदगी’ की लोरी ‘सो जा राजकुमारी सो जा’ या फिर फिल्म ‘अलबेला’ की ‘धीरे से आ जा तू अंखियन में, निंदिया आ जा तू आ जा।’ बांबे टॉकीज की ‘किस्मत’ की ‘धीरे-धीरे आ रे, बादल धीरे-धीरे आ’। फिल्म ‘सीमा’ की ‘सुनो छोटी-सी गुड़िया की लम्बी कहानी।’ वी. शांताराम की ‘दो आंखें बारह हाथ’ की ‘मैं जागूं रे तू सो जा।’ फिल्म ‘अंगुलिमाल’ में ‘धीरे-धीरे ढल रे चंदा, धीरे-धीरे ढल।’ फिल्म ‘ब्रह्मचारी’ में ‘मैं गाऊं तुम सो जाओ।’ यूं यह लिस्ट तो बहुत लंबी है, पर जो याद आया सो गिना दिया, बाकी तो आपको भी बहुत सारी याद ही होंगी।

हां, एक बात जरूर कहूंगा। कुछ फिल्मी लोरियों में बाद के दौर में इतना ऊंचा स्वर और संगीत का शोर आ गया कि सोता बच्चा जाग जाए। अब मिसाल के तौर पर फिल्म ‘सांझ और सवेरा’ में सुमन कल्याणपुर की आवाज में एक लोरी है ‘चांद कंवल, मेरे चांद कंवल, चुपचाप सो जा यूं न मचल।’ एक तो मुझे इसमें बच्चे के लिए वात्सल्य भाव से भी ज्यादा डांट नजर आती है और जब बात अंतरे तक जा पहुंचती है, तो आवाज इतनी ऊंची पिच पर जा पहुंचती है कि माधुर्य ही खत्म हो जाता है। शंकर-जयकिशन की ही एक और लोरी फिल्म ‘बेटी-बेटे’ की है- ‘आज कल में ढल गया, दिन हुए तमाम, तू भी सो जा सो गई रंग भरी शाम..’ इसमें भी साजों का बहुत शोर है।

अब दो और कमाल की लोरियां याद आ गईं। पहली है फिल्म ‘संत ज्ञानेश्वर’ की ‘मेरे लाडलों तुम फूलो-फलो।’ इसमें भरत व्यास के शब्द, लता मंगेशकर की भावपूर्ण गायकी और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के संगीत का अद्भुत संगम है। ‘अपनी मां की किस्मत पर मेरे बेटे तू मत रो, मैं तो कांटों पर जी लूंगी, जा फूलों पर सो।’ मगर इतना सब कह चुकने के बाद भी मैं फिर अपनी पहली वाली बात पर ही आऊंगा- ‘झुन झुनझुना, झुन झुनझुना’ का जवाब नहीं। कानों में ऐसी मिठास भर गया है कि कुछ और सूझता ही नहीं।

(वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘बॉम्बे टॉकी’ से)
(राजकुमार केसवानी,हिंदुस्तान,दिल्ली,23.10.2010)

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