नीतू जोशी ग्यारह अक्टूबर को सतीश दुबे की ‘डेरा बस्ती का सफरनामा’ कृति से प्रेरित ‘भुनसारे’ नामक फिल्म मालवी भाष में शुरू करने जा रही हैं। इसके मुहूर्त पर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय, संस्कृति मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा और इंदौर के मेयर कृष्ण मुरारी मोघे मौजूद होंगे। बताया जा रहा है कि फिल्म मंदसौर-नीमच के पास के उस क्षेत्र से प्रेरित है, जहां ज्येष्ठ कन्या अपना शरीर बेचकर पूरे परिवार का पोषण करती है। ऐसी कुरीतियों का जन्म इसलिए होता है कि जीवनयापन के अवसर नहीं हैं, शिक्षा का अभाव है।
भूख और गरीबी नैतिकता के सारे नियम बदल देती है। भूख मानवीय रिश्तों में दर्द की गांठ बांध देती है। महान साहित्यकार राजिंदर सिंह बेदी के उपन्यास ‘एक चादर मैली सी’ में आर्थिक समस्या के कारण छोटे देवर को अपनी विधवा भाभी से विवाह करना पड़ता है। इस उपन्यास पर पहली बार शम्मी कपूर की पत्नी गीता बाली ने धर्मेद्र के साथ फिल्म की बारह रीलें बना ली थीं, परंतु उनकी आकस्मिक मृत्यु के कारण फिल्म पूरी नहीं हुई।
बाद में टोपाज ब्लेड बनाने वालों ने इस उपन्यास पर ऋषि कपूर, पूनम ढिल्लों और हेमा मालिनी अभिनीत खूबसूरत फिल्म बनाई थी। इंसान के साथ ही भूख बनाकर ऊपर वाले ने उसे बहुत मजबूर कर दिया। याद आती है पाकिस्तानी शायर अफजाल अहमद की कुछ पंक्तियां जो उनकी दो अलग-अलग नज्मों से ली गई हैं-
कब्र खोदने वालों ने तंदूर ईजाद किया। तंदूर पर कब्जा करने वालों ने रोटी की पर्ची बनाई।
रोटी लेने वालों ने कतार ईजाद की और मिलकर खाना सीखा। रोटी की कतार में जब चींटियां भी आ खड़ी हुईं तो फाका ईजाद हुआ।’
दूसरी कुछ यूं है-
रोटी को मैंने छुआ और भूख शायरी बन गई। उंगली चाकू से कटी, खून शायरी बन गया।’
बहरहाल क्षेत्रीय भाषाओं में फिल्में पूरे देश में बनती रही हैं। कुछ वर्ष पूर्व छत्तीसगढ़ में इसी तरह का प्रयोग सफल हुआ था। भोजपुरी और पंजाबी भाषा की फिल्मों के दर्शकों की संख्या बहुत अधिक है, इसलिए इन भाषाओं में बहुत फिल्में बनती हैं। पूरे देश के लिए बनाई गई फिल्मों का बजट अधिक होता है और इसमें प्रयोग की गुंजाइश कम होती है। लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं में साहसी कथाएं बनाई जा सकती हैं, इसलिए इसका स्वागत किया जाना चाहिए।
प्राय: इन फिल्मों के निर्माता सरकारी अनुदान की उम्मीद से काम करते हैं और कोई उद्योग चैरिटी पर नहीं खड़ा किया जाता। महाराष्ट्र सरकार मराठी भाषा में फिल्मों को प्रोत्साहित करने के लिए पहली फिल्म द्वारा एकत्रित मनोरंजन कर दूसरी फिल्म मंे अनुदान स्वरूप देती है, ताकि निर्माण सतत जारी रहे।
अब टेक्नोलॉजी ने कम बजट में डिजिटल कैमरे के प्रयोग से फिल्म बनाना संभव कर दिया है। मालेगांव में अपने ही किस्म का पहला उद्योग विकसित हुआ है। केरल में स्थानीय कलाकारों को लेकर प्रयोगवादी फिल्में बनती हैं। गुजरात का फिल्म उद्योग खूब विकसित हुआ, परंतु इस समय मंदी चल रही है। दरअसल सिनेमा की अपनी भाषा है और संवाद किसी भी भाषा में होने पर भी आम दर्शक को समझ में आता है।
दिलीप कुमार ने अपनी भव्य बजट की फिल्म ‘गंगा जमना’ क्षेत्रीय भाषा में गढ़ी थी, परंतु वह पूरे भारत में सफल रही और आज भी क्लासिक की तरह सराही जाती है। फिल्म किसी भी भाषा में बने, कहानी में दम हो तो सभी भाषा बोलने वाले लोग फिल्म देखते हैं। मराठी भाषा में बनी ‘श्वास’ पूरे विश्व में सराही गई थी। इस समय पूरे विश्व में श्रेष्ठ फिल्में ईरान और कोरिया में बन रही हैं। फिल्म माध्यम ही ऐसा है कि, ‘सिमटे तो दिले आशिक, फैले तो जमाना है।’(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,9.10.2010)
भूख और गरीबी नैतिकता के सारे नियम बदल देती है। भूख मानवीय रिश्तों में दर्द की गांठ बांध देती है। महान साहित्यकार राजिंदर सिंह बेदी के उपन्यास ‘एक चादर मैली सी’ में आर्थिक समस्या के कारण छोटे देवर को अपनी विधवा भाभी से विवाह करना पड़ता है। इस उपन्यास पर पहली बार शम्मी कपूर की पत्नी गीता बाली ने धर्मेद्र के साथ फिल्म की बारह रीलें बना ली थीं, परंतु उनकी आकस्मिक मृत्यु के कारण फिल्म पूरी नहीं हुई।
बाद में टोपाज ब्लेड बनाने वालों ने इस उपन्यास पर ऋषि कपूर, पूनम ढिल्लों और हेमा मालिनी अभिनीत खूबसूरत फिल्म बनाई थी। इंसान के साथ ही भूख बनाकर ऊपर वाले ने उसे बहुत मजबूर कर दिया। याद आती है पाकिस्तानी शायर अफजाल अहमद की कुछ पंक्तियां जो उनकी दो अलग-अलग नज्मों से ली गई हैं-
कब्र खोदने वालों ने तंदूर ईजाद किया। तंदूर पर कब्जा करने वालों ने रोटी की पर्ची बनाई।
रोटी लेने वालों ने कतार ईजाद की और मिलकर खाना सीखा। रोटी की कतार में जब चींटियां भी आ खड़ी हुईं तो फाका ईजाद हुआ।’
दूसरी कुछ यूं है-
रोटी को मैंने छुआ और भूख शायरी बन गई। उंगली चाकू से कटी, खून शायरी बन गया।’
बहरहाल क्षेत्रीय भाषाओं में फिल्में पूरे देश में बनती रही हैं। कुछ वर्ष पूर्व छत्तीसगढ़ में इसी तरह का प्रयोग सफल हुआ था। भोजपुरी और पंजाबी भाषा की फिल्मों के दर्शकों की संख्या बहुत अधिक है, इसलिए इन भाषाओं में बहुत फिल्में बनती हैं। पूरे देश के लिए बनाई गई फिल्मों का बजट अधिक होता है और इसमें प्रयोग की गुंजाइश कम होती है। लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं में साहसी कथाएं बनाई जा सकती हैं, इसलिए इसका स्वागत किया जाना चाहिए।
प्राय: इन फिल्मों के निर्माता सरकारी अनुदान की उम्मीद से काम करते हैं और कोई उद्योग चैरिटी पर नहीं खड़ा किया जाता। महाराष्ट्र सरकार मराठी भाषा में फिल्मों को प्रोत्साहित करने के लिए पहली फिल्म द्वारा एकत्रित मनोरंजन कर दूसरी फिल्म मंे अनुदान स्वरूप देती है, ताकि निर्माण सतत जारी रहे।
अब टेक्नोलॉजी ने कम बजट में डिजिटल कैमरे के प्रयोग से फिल्म बनाना संभव कर दिया है। मालेगांव में अपने ही किस्म का पहला उद्योग विकसित हुआ है। केरल में स्थानीय कलाकारों को लेकर प्रयोगवादी फिल्में बनती हैं। गुजरात का फिल्म उद्योग खूब विकसित हुआ, परंतु इस समय मंदी चल रही है। दरअसल सिनेमा की अपनी भाषा है और संवाद किसी भी भाषा में होने पर भी आम दर्शक को समझ में आता है।
दिलीप कुमार ने अपनी भव्य बजट की फिल्म ‘गंगा जमना’ क्षेत्रीय भाषा में गढ़ी थी, परंतु वह पूरे भारत में सफल रही और आज भी क्लासिक की तरह सराही जाती है। फिल्म किसी भी भाषा में बने, कहानी में दम हो तो सभी भाषा बोलने वाले लोग फिल्म देखते हैं। मराठी भाषा में बनी ‘श्वास’ पूरे विश्व में सराही गई थी। इस समय पूरे विश्व में श्रेष्ठ फिल्में ईरान और कोरिया में बन रही हैं। फिल्म माध्यम ही ऐसा है कि, ‘सिमटे तो दिले आशिक, फैले तो जमाना है।’(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,9.10.2010)
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