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Sunday, October 10, 2010

सुपरमैन बनाम आम आदमी

शाहरुख खान का कहना है कि उनके दिए साक्षात्कार तोड़-मरोड़कर प्रकाशित होते हैं, मसलन उन्होंने ‘रा. 1’ में अपनी एक पोशाक की जो कीमत बताई उसे कई गुना बढ़ाकर प्रचारित किया गया। अत: आइंदा वे अपनी बात केवल ट्विटर पर स्वयं रखेंगे, जिसका पूरा उत्तरदायित्व उनका होगा। यह नेक ख्याल है, परंतु नए माध्यम का उपयोग हिंदुस्तान की न्यूनतम जनता ही कर पाती है। इंटरनेट प्रेम अभी तक महानगरीय ही है।

दूसरी बात उन्होंने यह कही कि हमारी फिल्मों का सामान्य नायक असामान्य हरकतें करते हुए ऊंची छलांग मारकर सौ-पचास लोगों को धराशायी कर देता है। विज्ञान फंतासी में असामान्य नायक उड़ने इत्यादि के असामान्य काम करता है तो अजीब नहीं लगता। शाहरुख का ख्याल है कि हम अपनी मायथोलॉजी से निकलकर विज्ञान फंतासी का सुपरनायक बनाएं। यह अमेरिका दशकों पूर्व से करता रहा है और अब हमें करना चाहिए, जैसे रजनीकांत ने फिल्म ‘रोबोट’ में किया और शाहरुख अपनी ‘रा. 1’ में कर रहे हैं।

अमेरिका एक युवा देश है क्योंकि इतिहास में तीन-चार सौ बरस पलक झपकाने की तरह होते हैं। उसने अपनी मायथोलॉजी की कमी को सुपरमैन, बैटमैन इत्यादि पात्र गढ़कर पूरा किया। शाहरुख का ख्याल है कि आज के दौर में महान भारतीय मायथोलॉजी से प्रेरित होकर प्रकाश झा ने ‘राजनीति’ बनाई और ऐसे ही यह काम किया जा सकता है, गोयाकि धार्मिक आख्यान मूल के परिवेश मंे बनाने पर शायद स्वीकृत नहीं हों।

सारांश यह है कि शाहरुख खान का नेक ख्याल है कि हमें भारतीय सुपरमैन, बैटमैन रचना चाहिए ताकि नई फिल्म टेक्नोलॉजी का भरपूर उपयोग किया जा सके। शाहरुख का विचार सही हो सकता है, परंतु धार्मिक आख्यान मूल परिवेश में भी सफल हो सकते हैं। सच्चई तो यह है कि आज विकसित फिल्म टेक्नोलॉजी ही उन आख्यानों के साथ न्याय कर सकती है।

भारतीय फिल्म उद्योग का प्रारंभ ही धार्मिक आख्यानों से हुआ और शुरुआती पंद्रह वर्ष तक हम वही बनाते रहे। धन्य हैं दादा फाल्के और उनके समकालीन, जिन्होंने सिनेमा विधा के बालपन में टेक्नोलॉजी के अभाव में भी यह काम कर दिखाया। सच तो यह है कि किसी भी कालखंड में किसी भी तरह की फिल्म सफल हो सकती है, बशर्ते अगर प्रयास में जज्बा, लगन और ईमानदारी हो।

1968 के बाद हॉलीवुड का जोर विज्ञान फंतासी और हॉरर फिल्मांे पर रहा। उसके कुछ पहले अंतरिक्ष केंद्रित फिल्में सफल हो चुकी थीं। जिस हॉलीवुड ने सुपरमैन नुमा फिल्में हर दौर में बनाईं, उसी हॉलीवुड ने आम आदमी को नायक लेकर भी हमेशा फिल्में बनाई हैं। सिने इतिहास में स्टीवन स्पीलबर्ग से ज्यादा महत्व हमेशा चार्ली चैपलिन का रहेगा। भारतीय सिनेमा में भी विकट परिस्थितियों से जूझता आम आदमी की छवि वाला नायक दर्शकों को सुपरहीरो से ज्यादा पसंद है। सुपरमैन नुमा फिल्मों में मानवीय संवेदनाएं पूरी तरह नहीं उभरतीं, जो आम आदमी वाले नायक की फिल्मों में होता है।

टेक्नोलॉजी के विकास के इस शिखर दौर में भी श्रेष्ठतम फिल्में मुन्नाभाई श्रंखला की हैं और ‘रंग दे बसंती’ या ‘ए वेडनसडे’ हैं। ‘लगान’ का नायक सुपरमैन से ज्यादा प्यारा है। आरके लक्ष्मण के काटरून का आम आदमी अमर है। स्वयं शाहरुख खान ‘दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे’, ‘रब ने बना दी जोड़ी’ और अजीज मिर्जा की फिल्मों के लिए याद किए जाएंगे। दरअसल सुपरमैन मनोरंजन करता है तो आम आदमी की छवि वाला नायक भी मनोरंजन करता है। एक को देखकर कौतुक से आंखें फटी रह जाती हैं, तो दूसरे का दर्द आंखों को नम करता है। सारा मामला जाकर व्यक्तिगत पसंद पर टिकता है(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,8.10.2010)।

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