इस बार बात सिनेमा के संगीत पर। आज फड़कती धुनों पर फोक का तड़का बॉलीवुड के संगीत का भड़काऊ आकर्षण है। वैसे हमारे फिल्मी संगीत में प्रचलित लोकगीतों व लोकधुनों का इस्तेमाल बहुत पहले से प्रचलन में रहा है। पर तब उसमें आंचलिक सौंदर्य था। स्थानीयता थी। रसिक-भाव की जगह अब उत्तेजक-प्रभाव आ गया है। और फिर कुछ ऐसा भी है जो आज ढूंढे नहीं मिलता फिल्म संगीत में। कभी लोरियां फिल्मों का खास हिस्सा हुआ करती थीं और हममें से कई उन्हें सुनते-सुनते नींद के आगोश में चले जाते थे। लोरियां जिन्दगी और फिल्मों दोनों से गायब हो गई हैं।
हिंदी फिल्मों के संगीत में जो ‘मुन्नी’ इन दिनों ‘बदनाम’ होने के लिए आतुर है वो नई नहीं है। पहले की तरह-‘यू.पी., बिहार लूटने’ वो जब-तब आती रहती है। इस विषय में परंपरा, प्रयोग और परिवर्तन तीनों हमेशा भदेस मुद्रा में नहीं थे। आज ये बाजार भाव से संचालित हैं। लोकतंत्र का ये फिल्मी विद्रूप पिछले ‘छल्ला उछाल’ गीतों का ही विस्तार है। इस बाजार में पिछली कही गई कहावत- ‘पतली कमर है तिरछी नजर है’ जैसे पुराने माल की खपत के बाद अगर कोई भड़काऊ आकर्षण है तो- फड़कती धुनों पर फोक का तड़का। वैसे हमारे फिल्मी संगीत में प्रचलित लोकगीतों व लोकधुनों का इस्तेमाल बहुत पहले से प्रचलन में रहा है। वो एक धीमा और कस्बाई बाजार था। तब लोकधुनों का प्रयोग आज की तरह लालची नहीं था। यह प्रयोग तब कथानक के अनुरूप था। उसमें माधुर्य था। मेलोड़ी थी। वो आज की तरह दर्शकों की जेबों पर सर नहीं पटकता था। आज वो समय की मांग यानी ‘यूज एंड थ्रो’ के आचरण में एक ‘आइटम सांग’ की तरह त्रिभंगी मुद्रा में अड़ा हुआ है। फिल्म की कहानी से एकदम अलग वह एक क्षेपक है। एक अनिवार्य पुछल्ला है। आधुनिक बकरी का पांचवा थन है। एक भड़काऊ इशारा है। यह अतिआधुनिक मुजरा है, हमारी ऐंद्रिकता को सहलाता हुआ। इस कामांध अतिथि को हमने ही बुलाया है- यहां कोई जेनेरेशन गैप नहीं है। मुन्नी और मोनिका में फर्क है तो बिकनी या लंहगा-चोली का। दोनों का धर्म लार टपकवा कर पैसा कमाना है।
हिंदी फिल्मों में लोकसंगीत हमेशा से लोकप्रिय रहा है। उसमें आंचलिक सौंदर्य था। स्थानीयता थी। वो आजकल जैसा बाजारू नहीं था। ये देहाती बाजार अवधी और भोजपुरी अंदाज का था। यही क्षेत्र चूंकि फिल्मी ग्राहकों का था, अत: सबसे अधिक पोषण या शोषण इन्ही क्षेत्रों में हुआ। भोजपुरी क्षेत्र में बाजारूपन जनता की मांग पर आधारित रहा। अवधी क्षेत्र का संगीत इस मांग के आगे थोड़ा कमजोर रहा, लेकिन नौशाद से लेकर जयदेव और फिर लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल तक ने इसका इस्तेमाल मर्यादित रूप से किया।
प्रख्यात गायिका मालिनी अवस्थी ने इस क्षेत्र में अभिनव शोध किया है। उनका शोध बहुत विस्तार में है। उनके अनुसार जिन प्रचलित फिल्मी गीतों में लोकधुनों का असर है उनमें नौशाद साहब अग्रणी हैं। कुछ उदाहरण- ‘दो हंसों का जोड़ा’ (फिल्म ‘गंगा-जमुना’ की मूल लोकधुन है- सारी कमाई गंवाई रसिया/अदालत में देखा करूंगी रसिया)। इसी तरह- ‘ढूंढ़ो-ढूंढो रे साजना मोरे कान का बाला’ (मूल लोकधुन- गंगा मैय्या तोरे पैंया पड़ं मोरी मैय्या)।
सलिल चौधरी ने भी बिहार को लोक संगीत का इस्तेमाल किया। फिल्म ‘तीसरी कसम’ में तो लोकसंगीत का प्रबल तत्व रहा। ‘चलत मुसाफिर मोह लियो रे पिंजरे वाली मुनिया’ (मूल लोकधुन- बाजे पैंजनियां बाजे रे बाजे झमाझम)।
ये युग वो था जब नौशाद, जयदेव, सलिल चौधरी, भूपेन हजारिका, ओ.पी. नय्यर, कल्याणजी आनंदजी और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल आदि लोकधुनों से फिल्मी संगीत को विविधता देकर उसे लोकप्रियता के मानदंडों के अनुसार समृद्ध कर रहे थे। युग पलटा। सद्गृहस्थों को ‘आइटम सांग’ रखैल की तरह ललचाने लगे। इनके शब्दों में उत्तेजक प्रभाव आने लगे। इससे पहले के गीतों में रसिक भाव था। जैसे- मेरा नाम है चमेली- फिल्म ‘राजा और रंक’ (मूल लोकधुन- गयो गयो रे सास तेरो राज, जमाना आया बहुओं का) या फिल्मी गीत- ‘जोगन बन जाऊंगी सैंया तोरे कारण’ (मूल लोकधुन- सवतिया न लावो सैंया अलबेले)।
ये तो जगजाहिर है कि ‘कजरारे कजरारे’ वाला ‘आइटम सांग’ वर्षों से कानपुर के किन्नर गाते रहे हैं। ‘बंटी और बबली’ ने इस गीत को ठग्गू के लड्डू की तरह लूट लिया। ‘मुन्नी बदनाम हुई’ वाला गीत बहुत पहले सायराबानो फैजाबादी का गाया हुआ है। इसके बोल थे- ‘लौंडा बदनाम हुआ नसीबन तेरे लिए’। वैसे इसी तरह की ‘मुन्नी’ को भोजपुरी गीत में बुलाया गया है कि- ‘आना मुन्नी साढ़े तीन बजे’। लोकगीतों के तड़के के नाम पर जो फूहड़पन फिल्मों में कैश किया गया, उनमें- ‘सरकाय लियो खटिया जाड़ा लगे’ या फिर ‘अंखियों से गोली मारे’ जैसे गीत हैं जो कतई लोकगीत नहीं रहे। ‘गमछा बिछाई के’ जैसा भदेसपन अश्लीलता का नवाचार है।
नौटंकी कलाकार गुलाबबाई के दादरों का प्रयोग भी फिल्मों में हुआ। ‘नदी नारे न जाओ श्याम’ के अलावा ‘मुझे जीने दो’ फिल्म में लोक संगीत के मर्यादित प्रयोग थे। इसके अलावा अन्य कुछ फिल्मों में ये प्रयोग इस प्रकार थे- ‘मोहे पीहर में ना छेड़ो’-फिल्म ‘तीसरी कसम (गुलाबबाई का दादरा), ‘मैं चंदा तू चांदनी’ (राजस्थानी भांड)। इला अरुण, सपना अवस्थी आदि ने आज के आइटम सांग को स्वर दिए हैं। कुछ और ऐसी लोकधुनें हैं जिनका प्रयोग फिल्म संगीत में किया गया है। जैसे- अटरिया पे लोटन कबूत../ चढ़ गयो पापी बिछुवा../ थाना हिलेला../ छल्ला छाप दे मुंदरिया../यू.पी. बिहार लूटने..! दरअसल ‘कजरारे कजरारे’ के बाद एक बाजारू आंधी आई और हर फिल्म में ‘आइटम सांग’ अनिवार्य आकर्षण हो गया। ये शुरुआत-‘बीड़ी जलाइले’ से लेकर ‘नमक इश्क का’ और ‘देखता है तू क्या’ तक मौजूद है। यही कहा जा सकता है कि- आगे-आगे देखिए होता है क्या?
मुन्नी बदनाम हुई..
कजरारे, कजरारे..
नमक इश्क का..
‘कजरारे कजरारे’ वर्षों से कानपुर के किन्नर गाते रहे हैं।
‘मुन्नी बदनाम हुई’ बहुत पहले सायराबानो फैजाबादी का गाया हुआ है। इसके बोल थे- ‘लौंडा बदनाम हुआ नसीबन तेरे लिए’।
(उर्मिल कुमार थपलियाल,हिंदुस्तान,दिल्ली,23.10.2010)
हिंदी फिल्मों के संगीत में जो ‘मुन्नी’ इन दिनों ‘बदनाम’ होने के लिए आतुर है वो नई नहीं है। पहले की तरह-‘यू.पी., बिहार लूटने’ वो जब-तब आती रहती है। इस विषय में परंपरा, प्रयोग और परिवर्तन तीनों हमेशा भदेस मुद्रा में नहीं थे। आज ये बाजार भाव से संचालित हैं। लोकतंत्र का ये फिल्मी विद्रूप पिछले ‘छल्ला उछाल’ गीतों का ही विस्तार है। इस बाजार में पिछली कही गई कहावत- ‘पतली कमर है तिरछी नजर है’ जैसे पुराने माल की खपत के बाद अगर कोई भड़काऊ आकर्षण है तो- फड़कती धुनों पर फोक का तड़का। वैसे हमारे फिल्मी संगीत में प्रचलित लोकगीतों व लोकधुनों का इस्तेमाल बहुत पहले से प्रचलन में रहा है। वो एक धीमा और कस्बाई बाजार था। तब लोकधुनों का प्रयोग आज की तरह लालची नहीं था। यह प्रयोग तब कथानक के अनुरूप था। उसमें माधुर्य था। मेलोड़ी थी। वो आज की तरह दर्शकों की जेबों पर सर नहीं पटकता था। आज वो समय की मांग यानी ‘यूज एंड थ्रो’ के आचरण में एक ‘आइटम सांग’ की तरह त्रिभंगी मुद्रा में अड़ा हुआ है। फिल्म की कहानी से एकदम अलग वह एक क्षेपक है। एक अनिवार्य पुछल्ला है। आधुनिक बकरी का पांचवा थन है। एक भड़काऊ इशारा है। यह अतिआधुनिक मुजरा है, हमारी ऐंद्रिकता को सहलाता हुआ। इस कामांध अतिथि को हमने ही बुलाया है- यहां कोई जेनेरेशन गैप नहीं है। मुन्नी और मोनिका में फर्क है तो बिकनी या लंहगा-चोली का। दोनों का धर्म लार टपकवा कर पैसा कमाना है।
हिंदी फिल्मों में लोकसंगीत हमेशा से लोकप्रिय रहा है। उसमें आंचलिक सौंदर्य था। स्थानीयता थी। वो आजकल जैसा बाजारू नहीं था। ये देहाती बाजार अवधी और भोजपुरी अंदाज का था। यही क्षेत्र चूंकि फिल्मी ग्राहकों का था, अत: सबसे अधिक पोषण या शोषण इन्ही क्षेत्रों में हुआ। भोजपुरी क्षेत्र में बाजारूपन जनता की मांग पर आधारित रहा। अवधी क्षेत्र का संगीत इस मांग के आगे थोड़ा कमजोर रहा, लेकिन नौशाद से लेकर जयदेव और फिर लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल तक ने इसका इस्तेमाल मर्यादित रूप से किया।
प्रख्यात गायिका मालिनी अवस्थी ने इस क्षेत्र में अभिनव शोध किया है। उनका शोध बहुत विस्तार में है। उनके अनुसार जिन प्रचलित फिल्मी गीतों में लोकधुनों का असर है उनमें नौशाद साहब अग्रणी हैं। कुछ उदाहरण- ‘दो हंसों का जोड़ा’ (फिल्म ‘गंगा-जमुना’ की मूल लोकधुन है- सारी कमाई गंवाई रसिया/अदालत में देखा करूंगी रसिया)। इसी तरह- ‘ढूंढ़ो-ढूंढो रे साजना मोरे कान का बाला’ (मूल लोकधुन- गंगा मैय्या तोरे पैंया पड़ं मोरी मैय्या)।
सलिल चौधरी ने भी बिहार को लोक संगीत का इस्तेमाल किया। फिल्म ‘तीसरी कसम’ में तो लोकसंगीत का प्रबल तत्व रहा। ‘चलत मुसाफिर मोह लियो रे पिंजरे वाली मुनिया’ (मूल लोकधुन- बाजे पैंजनियां बाजे रे बाजे झमाझम)।
ये युग वो था जब नौशाद, जयदेव, सलिल चौधरी, भूपेन हजारिका, ओ.पी. नय्यर, कल्याणजी आनंदजी और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल आदि लोकधुनों से फिल्मी संगीत को विविधता देकर उसे लोकप्रियता के मानदंडों के अनुसार समृद्ध कर रहे थे। युग पलटा। सद्गृहस्थों को ‘आइटम सांग’ रखैल की तरह ललचाने लगे। इनके शब्दों में उत्तेजक प्रभाव आने लगे। इससे पहले के गीतों में रसिक भाव था। जैसे- मेरा नाम है चमेली- फिल्म ‘राजा और रंक’ (मूल लोकधुन- गयो गयो रे सास तेरो राज, जमाना आया बहुओं का) या फिल्मी गीत- ‘जोगन बन जाऊंगी सैंया तोरे कारण’ (मूल लोकधुन- सवतिया न लावो सैंया अलबेले)।
ये तो जगजाहिर है कि ‘कजरारे कजरारे’ वाला ‘आइटम सांग’ वर्षों से कानपुर के किन्नर गाते रहे हैं। ‘बंटी और बबली’ ने इस गीत को ठग्गू के लड्डू की तरह लूट लिया। ‘मुन्नी बदनाम हुई’ वाला गीत बहुत पहले सायराबानो फैजाबादी का गाया हुआ है। इसके बोल थे- ‘लौंडा बदनाम हुआ नसीबन तेरे लिए’। वैसे इसी तरह की ‘मुन्नी’ को भोजपुरी गीत में बुलाया गया है कि- ‘आना मुन्नी साढ़े तीन बजे’। लोकगीतों के तड़के के नाम पर जो फूहड़पन फिल्मों में कैश किया गया, उनमें- ‘सरकाय लियो खटिया जाड़ा लगे’ या फिर ‘अंखियों से गोली मारे’ जैसे गीत हैं जो कतई लोकगीत नहीं रहे। ‘गमछा बिछाई के’ जैसा भदेसपन अश्लीलता का नवाचार है।
नौटंकी कलाकार गुलाबबाई के दादरों का प्रयोग भी फिल्मों में हुआ। ‘नदी नारे न जाओ श्याम’ के अलावा ‘मुझे जीने दो’ फिल्म में लोक संगीत के मर्यादित प्रयोग थे। इसके अलावा अन्य कुछ फिल्मों में ये प्रयोग इस प्रकार थे- ‘मोहे पीहर में ना छेड़ो’-फिल्म ‘तीसरी कसम (गुलाबबाई का दादरा), ‘मैं चंदा तू चांदनी’ (राजस्थानी भांड)। इला अरुण, सपना अवस्थी आदि ने आज के आइटम सांग को स्वर दिए हैं। कुछ और ऐसी लोकधुनें हैं जिनका प्रयोग फिल्म संगीत में किया गया है। जैसे- अटरिया पे लोटन कबूत../ चढ़ गयो पापी बिछुवा../ थाना हिलेला../ छल्ला छाप दे मुंदरिया../यू.पी. बिहार लूटने..! दरअसल ‘कजरारे कजरारे’ के बाद एक बाजारू आंधी आई और हर फिल्म में ‘आइटम सांग’ अनिवार्य आकर्षण हो गया। ये शुरुआत-‘बीड़ी जलाइले’ से लेकर ‘नमक इश्क का’ और ‘देखता है तू क्या’ तक मौजूद है। यही कहा जा सकता है कि- आगे-आगे देखिए होता है क्या?
मुन्नी बदनाम हुई..
कजरारे, कजरारे..
नमक इश्क का..
‘कजरारे कजरारे’ वर्षों से कानपुर के किन्नर गाते रहे हैं।
‘मुन्नी बदनाम हुई’ बहुत पहले सायराबानो फैजाबादी का गाया हुआ है। इसके बोल थे- ‘लौंडा बदनाम हुआ नसीबन तेरे लिए’।
(उर्मिल कुमार थपलियाल,हिंदुस्तान,दिल्ली,23.10.2010)
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