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Thursday, October 28, 2010

क्यों लोकप्रिय है वैम्पायर सिनेमा?

हॉलीवुड के प्रारंभिक दौर में ही भूत-प्रेत की हॉरर फिल्में बनने लगी थीं। ‘द कैबिनेट ऑफ डॉ. कैलिगेरी’ हॉलीवुड के पहले दशक में बनी थी। आजकल एडवर्ड कलन की ‘ट्विलाइट’ श्रंखला पर वैम्पायर फिल्में बन रही हैं, जो ड्रैकुला फिल्मों से इस मायने में अलग हैं कि अब उनकी लोकेशन कब्रिस्तान और सुनसान हवेली नहीं होकर महानगर हैं। नायक खौफनाक नहीं वरन युवा, सुंदर, रहस्यमय और कवियों की तरह व्यवहार करने वाला है। कुछ फिल्में तो ऐसी भी रची गई हैं कि कमसिन नायिका को ज्ञात है कि उसका प्रेमी आम व्यक्ति नहीं वरन एक प्यासी आत्मा है।

वह यह भी जानती है कि उसका पहला सहवास उसकी मृत्यु का कारण भी बन जाएगा, परंतु वह पीछे नहीं हटती। कहा जाता है कि बिच्छू भी सहवास के पहले नृत्य करते हैं और सहवास के बाद एक की मृत्यु हो जाती है। रामगोपाल वर्मा ने अपनी फिल्म ‘रंगीला’ में जैकी श्रॉफ और उर्मिला मातोंडकर पर बिच्छू शैली का नृत्य प्रस्तुत किया था। सहवास के क्षणों और मृत्यु में शायद यह समानता है कि समय और स्थान के बंधन से मुक्ति का भाव दोनों में होता है- एक में क्षणिक और दूसरे में चिरंतन।

बहरहाल, विचारणीय यह है कि इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में वैम्पायर फिल्में इतनी लोकप्रिय क्यों हैं? भारत की भूत-प्रेत कहानियों में इस तरह के चरित्र नहीं हैं। ये सारी कल्पनाएं पूर्वी यूरोप के देशों की हैं, परंतु अधिकांश फिल्में अमेरिका में बनती हैं जहां पूर्वी यूरोप से आए लोगों को बसे हुए एक सदी से ऊपर का वक्त हो गया है। उनकी मौजूदा पीढ़ी को अपने पूर्वजों के मूल देश की भी कोई यादें नहीं हैं। दरअसल भूत-प्रेत कहानियों का लेखन अमेरिका में लंबे समय से चला आ रहा है और इन किताबों को पूरी दुनिया में पढ़ा जाता है।

इंदौर के प्रसिद्ध वैद्य श्री रामनारायण शास्त्री के सुपुत्र महेश शास्त्री के पास इस तरह की किताबों का विरल खजाना है और उनसे लेकर कुछ किताबें मैंने भी पढ़ी हैं।
इस विधा के शौकीन विभिन्न क्षेत्रों में रहे हैं, मसलन महान पाश्र्वगायक और बहुमुखी प्रतिभा के धनी किशोर कुमार के पास हॉरर फिल्मों का खजाना था। अजीब सा लगता है कि दुनिया भर को हंसाने वाले व्यक्ति को हॉरर फिल्में देखना पसंद था। भारत में इस विधा की फिल्में एनए अंसारी अपनी कंपनी ‘बुंदेलखंड फिल्म्स’ के तहत बनाते थे और बाद में रामसे बंधुओं ने इसमें महारत हासिल की। ज्ञातव्य है कि केशु रामसे की मृत्यु विगत दिनों ही हुई है।

बहरहाल, अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों में ब्लड सीरीज और वैम्पायर श्रंखला अत्यंत लोकप्रिय हैं और इसके कारणों पर विचार किया जाना चाहिए। दुनिया के तमाम देशों में धरती पर जीवन, ऊपर स्वर्ग और नर्क की कल्पना के साथ दोनों के बीच भटकती हुई अतृप्त आत्माओं का काल्पनिक विवरण चटखारे लेकर सुना और सुनाया जाता रहा है, गोयाकि मरकर भी कुछ लोग इस तरह जीवित रखे जाते हैं। क्या अतृप्त आत्मा की अवधारणा का संबंध इस बात से भी है कि जीवन में कब किसको संतोष और तृप्ति मिलती है? नीरद चौधरी ने अपनी किताब ‘हिंदुइज्म’ में इस आशय की बात की है कि भारत में पुनर्जन्म की अवधारणा के पीछे यह तथ्य छुपा है कि भारतीय लोगों को खाने-पीने और भोग-विलास का इतना मोह है कि वे बार-बार धरती पर लौटना चाहते हैं। यह मसला भी तृप्ति से जुड़ा है।

आज की युवा पीढ़ी सदियों बाद अपनी सैक्सुएलिटी के प्रति बहुत सजग है। यौन विषयों को कालीन के नीचे या लौह कपाटों के भीतर रखने का दौर लगभग खत्म हो चुका है। वैम्पायर कथाओं का संबंध इससे है। दरअसल यौन इच्छाओं की कल्पनाएं उसके यथार्थ से बहुत अधिक विराट हैं और पोर्नोग्राफी (अश्लील कथाएं) का अरबों का व्यवसाय इसी विशाल अंतर पर टिका है।

दूसरा तथ्य यह है कि पूंजीवादी बाजार मनुष्य की इच्छाओं के असीमित विस्तार पर बहुत निर्भर करता है। असीमित इच्छाओं के घोड़े पर सवार मनुष्य वहां पहुंचना चाहता है, जहां से उसको अपनी खबर भी नहीं मिले। वैम्पायर सिनेमा बाजार की ही एक भुजा है और कमसिन उम्र बाजार की बांहों में आलिंगनबद्ध है(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,27.10.2010)।

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