वॉल्ट डिज्नी ने इक्कीस वर्ष की उम्र में 30 मई 1922 को फिल्म उद्योग में प्रवेश किया था। उच्च गुणवत्ता के पारिवारिक मनोरंजन रचने में डिज्नी को महारत हासिल है और उदात्त जीवन मूल्यों को उन्होंने मनोरंजन उद्योग में प्रतिपादित किया और आज तक अक्षुण्ण बनाए रखा है। अपनी संस्था के 88वें वर्ष में डिज्नी कंपनी ने भारत में प्रवेश किया और वे भोपाल के युवा निर्देशक हबीब फैजल की ऋषि कपूर और नीतू कपूर अभिनीत फिल्म ‘दो दुनी चार’ के अखिल विश्व वितरण से श्रीगणेश कर रहे हैं।
उनके पास इतने साधन और सामर्थ्य है कि वे किसी भी समय बड़े सितारों को लेकर किसी भव्य फिल्म से भी भारतीय पारी शुरू कर सकते थे, परंतु ‘दो दुनी चार’ को उन जीवन मूल्यों के लिए उन्होंने चुना, जिनका निर्वाह उन्होंने हमेशा किया है। यह भी इत्तफाक ही है कि कपूर परिवार विगत 83 वर्षो से भारतीय मनोरंजन उद्योग में कुछ मूल्यों के साथ सक्रिय है।
आज बाजार और विज्ञापन शासित दुनिया में भौतिक सफलता की खातिर लोग दो और दो बाईस करने में लगे हैं, परंतु फिल्म का नायक 52 वर्षीय स्कूल का गणित शिक्षक दो दुनी चार का पाठ पढ़ा रहा है, जिसका अर्थ है ईमानदारी और मेहनत का कठिन रास्ता जिसमें पैर लहूलुहान होते हैं, परंतु रोम-रोम आनंद से भर उठता है। दुग्गल मास्टर अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्री के साथ मध्यम वर्ग की बस्ती में रहते हैं। उनके कमसिन उम्र के बच्चे दो और दो बाईस बनाने वाली संस्कृति को मानते हैं और अन्य बच्चों की तरह सुविधाएं चाहते हैं।
कमसिन उम्र की हर अंगड़ाई एक महत्वाकांक्षा जगाती है और उन्हें अपने कम कमाने वाले पिता और किफायत से घर चलाने वाली मां से शिकायतें हैं। वे न केवल उनके जीवन मूल्य नहीं समझते, वरन उनकी कीमत भी नहीं जानते। यह लेखक-निर्देशक हबीब फैजल का कमाल है कि गुमराह होते और सुविधाओं की ललक को न थाम पाने वाले बच्चे ही अपने पिता के जीवन मूल्यों का अर्थ अनायास ही उस समय खोज लेते हैं, जब जीवन के दबाव में मजबूर मास्टर अपने जीवन का पहला समझौता करने जा रहा है और उसे रोक लेते हैं। यह फिल्म मध्यमवर्ग के जीवन का सामाजिक दस्तावेज है और सारे परिवार वालों के लिए इसे अपने बच्चों सहित देखना आज की उत्तंग लहरों वाले जीवन में ठहराव का महान क्षण हो सकता है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पूरी फिल्म राजकुमार हीरानी की मनोरंजक शैली में गढ़ी गई है और आप हंसते हुए कथानक में अंतर्निहित संजीदगी को महसूस करते रहते हैं। दर्शक की आंखें नम होंगी, पर होंठ मुस्कराएंगे। यही चार्ली चैपलिन से राजकुमार हीरानी तक का सफर रहा है। फिल्म के एक दृश्य में मास्टर दुग्गल अपने क्रिकेट सट्टे में डूबे पुत्र को कहते हैं कि बचपन में उसकी अंगूठा चूसने की आदत छुड़ाने के लिए करेले का जूस और मिर्ची के पाउडर का लेप असफल रहा, परंतु एक दिन लत अपने आप छूट गई। हबीब फैजल ने कहीं-कहीं करेले के जूस और मिर्ची के पाउडर का इस्तेमाल किया है।
इस फिल्म में मास्टर दुग्गल और उनकी पत्नी के दांपत्य प्रेम को इतने मनमोहक ढंग से रचा गया है कि रोम-रोम पुलकित हो जाता है। किफायत को धर्म मानने वाली पत्नी अपनी ननद के सुसराल में उसका मान रखने के लिए खर्च का वायदा कर बैठती है और मास्टर दुग्गल अपनी पत्नी की बात रखने के लिए रात भर स्वयं को दीए की तरह जलाए रखते हैं। दांपत्य के माधुर्य के इसमें दर्जनों दृश्य हैं।
मास्टर दुग्गल की कहानी में तीस वर्ष बाद परदे पर लौटीं नीतू कपूर ने कमाल का अभिनय किया है और अभिनय के क्षेत्र में अपने शेर जैसे पति ऋषि कपूर के सामने वह मिमयायी नहीं हैं, वरन फिल्मकार हबीब फैजल के घाट पर ये शेर और बकरी साथ-साथ पानी पीते हैं। मैं ऋषि कपूर को पैंतीस वर्षो से जानता हूं, परंतु इस फिल्म के मास्टर दुग्गल में वह ऐसे डूबे हैं कि पहचान पाना कठिन है।
न जाने क्यों राष्ट्रीय पुरस्कारों से यह मिट्टी पकड़ पहलवान कभी नवाजा नहीं गया। इस फिल्म में छोटी भूमिकाओं में काम करने वाले कलाकार इतने स्वाभाविक हैं कि आपको लगता है कि मूल गायक ऋषि कपूर और नीतू कपूर की आवाज से पूरा कोरस लय मिलाता है। आज समाज की सारी समस्याओं के मूल में है सांस्कृतिक शून्य और ‘दो दुनी चार’ इसी शून्य से जूझती है(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,7.10.2010)।
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